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Saturday, December 25, 2010

'1989' के पुनर्मंचन की ओर !

ईमानदारी का लबादा ओढ़ देश को भ्रष्टाचार के दलदल में आकं ठ डुबो चुके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह में अगर थोड़ी भी शर्म बाकी है, नैतिकता का एक कतरा भी उनमें शेष है, देश और जनता के हक में थोड़ी भी हमदर्दी है और इन सबों से ऊपर अगर वे स्वयं को सभ्य मानव अथवा मनुष्य मानते हैं तो वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें। सिर्फ इस्तीफा ही न दें बल्कि एक भारतीय नागरिक का हक अदा करते हुए तमाम घोटालों, भ्रष्टाचारों के सच को स्वयं अनावृत कर दें। घोटालों, भ्रष्टाचार के दोषियों के चेहरों से नकाब नोच उनकी असलियत को बेपर्दा कर दें। चूंकि अनेक भ्रष्टाचार उनकी जानकारी (मजबूरी में ही सही) में ही हुए हैं, उनमें लिप्त लोगों के लिए दंड क ी राह वे खुद दिखाएं। सत्ता मोह त्याग कर मनमोहन सिंह उन चेहरों को भी बेनकाब करें जो सीधे सत्ता में न होते हुए भी सत्ता संचालन कर रहे हैं और परदे के पीछे रहक र अब तक उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा और संरक्षण देते रहे हैं। हां, यहां मेरा इशारा कांग्रेस अध्यक्ष और संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की ओर ही है।
निष्पक्ष, तटस्थ हर व्यक्ति इस बात की पुष्टि करेगा कि सोनिया की अध्यक्षता वाली संप्रग सरकार में जिस पैमाने पर घोटाले हुए वैसा कभी नहीं हुआ। आम जनता के धन से निर्मित सरकारी कोष को दोनों हाथों से लूटा गया। नियम-कानून को धता बताया गया, सरकारी तंत्रों का स्वहित में इस्तेमाल किया गया, अधिकारों का दुरुपयोग किया गया, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन कि या गया, देश में घाटालेबाजों और दलालों का बोलबाला हो गया, न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिशें की गईं और यहां तक कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्य मीडिया को भी प्रलोभन के जाल में फंसा भ्रष्ट करने की कोशिशें की गईं। और ये सब देश-समाज विरोधी कार्रवाइयां होती रहीं प्रधानमंत्री की जानकारी में। फिर क्या अचरज कि विश्वमहाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत आज महाभ्रष्ट- घोटालेबाजों-दलालों के देश के रूप में देखा जाने लगा है। आज पूरा संसार भारत का नाम ले हंस रहा है कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में मंत्रियों की नियुक्तियां भी पतित दलालों की अनुशंसाओं पर की जाती हैं! दलाल सोने-चांदी के सिक्कों से न केवल सरकारी अधिकारियों बल्कि महिमामंडित मीडियाकर्मियों को भी खरीद रहे हैं? विषकन्यायुक्त ऐसी दलाल मंडली का भरपूर उपयोग बड़े औद्योगिक घरानों सहित राजनीतिज्ञ भी कर रहे हैं। इस पाश्र्व मेंं भारत देश आज गर्व करे तो किस बात पर? हमारी सारी उपलब्धियां भ्रष्टाचार के गंदले तालाब मेंं समा गई हैं। निश्चय ही इन सबों के लिए हमारे प्रधानमंत्री सीधे जिम्मेदार हैं। अपनी पार्टी अध्यक्ष और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं से ईमानदारी का प्रमाणपत्र ले प्रधानमंत्री भले खुश हो लें, देश की नजरों में वे गिर चुके हैं, आम आदमी उन्हें देश का गुनाहगार मान रहा है। हाल के चर्चित घोटालों से उत्पन्न राष्ट्रीय आक्रोश के प्रति उनकी असंवेदनशीलता निंदनीय है। उनसे अब ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं। दो टूक बात यह कि वे तत्काल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दें और पापों के प्रायश्चित के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में स्वयं सड़क पर निकलें। क्षमाशील देश संभवत: उन्हें क्षमा कर देगा। अन्यथा, देश की मान-मर्यादा-गरिमा के पक्ष में लोकतंत्र के प्रति समर्पित जनता 1989 को दोहरा देगी। उन्हें याद दिलाने के लिए दोहरा दूं कि तब बोफोर्स घोटाले की चित्कार के बीच जनता ने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार को उखाड़ फेंका था। 2014 अधिक दूर नहीं।

Tuesday, December 21, 2010

गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री!

अशिष्ट, असभ्य, असंस्कृति निरुपित किए जाने की पीड़ादायक संभावना के बीच मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूँ कि हमारे विद्वान अर्थशास्त्री, ईमानदार प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने झूठ बोला है, देश को गुमराह किया है और संसद का अपमान किया है। कांग्रेस महाअधिवेशन के अंतिम दिन सोमवार को उनके भाषण से ऐसा लगा ही नहीं कि उन्हें देश या संसद की चिंता है। हो भी कैसे? एक दिन पूर्व ही तो उनकी प्रेरणास्त्रोत सोनिया गांधी उन्हें ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बता चुकी थीं! फिर वे किसी और के प्रमाणपत्र की चिंता करें तो क्यों? आखिर उन्हें प्रधानमंत्री बनाया तो सोनिया ने ही! आम मतदाता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि भी तो नहीं हैं वे! फिर जनता की परवाह क्यों करें? भारत जैसे महान शक्तिशाली देश के डा. मनमोहन सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो बगैर लोकसभा का चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बनते आ रहे हैं। आजादी पश्चात संसदीय लोकतंत्र की परिकल्पना को मूर्त रुप देनेवाले हमारे दिवंगत राष्ट्रनिर्माता परलोक में चाहे सौ-सौ आंसू बहा लें, लोकतंत्र के साथ 'छलÓ का यह शर्मनाक उदाहरण इतिहास में दर्ज हो चुका है। लोकतंत्र का यह एक स्याह पक्ष है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति देश के मतदाता के प्रति सीधे जिम्मेदार नहीं। फिर कौन सा मूल्य? कैसा सिद्धांत? और कैसी पारदर्शिता? फिर क्या अचरज कि पार्टी अधिवेशन के मंच से उन्होंने घोषणा कर डाली कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए वे परंपरा तोड़कर संसदीय लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं। वे कुछ छुपाना नहीं चाहते। इस बिन्दु पर प्रधानमंत्री को एक सीधी चुनौती। जब वे परंपरा तोड़कर लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं, तब वे स्थापित परंपरा को आगे बढ़ाते हुए घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से करवाने से क्यों भाग रहे हैं? अचरज है कि प्रधानमंत्री ने यह घोषणा संसद के अंदर क्यों नहीं की - पार्टी के मंच से क्यों किया? क्या यह संसदीय प्रणाली की अवमानना नहीं! सभी जानते हैं कि लोकलेखा समिति (पीएसी) के अधिकार सीमित हैं। यह समिति सिर्फ नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के दायरे में ही जांच कर सकती है। पीएसी के सामने पेश होने की मंशा को जाहिर कर तालियां बटोरने वाले प्रधानमंत्री अगर इस तथ्य से अपरिचित हैं, तब प्रधानमंत्री पद की गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री! उनकी पात्रता पर ही सवाल खड़े हो जायेंगे।
जेपीसी की विपक्ष की मंाग को राजनीति से जोड़कर प्रधानमंत्री ने देश की संसदीय प्रणाली का मखौल उड़ाया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी सरकार को पाक-साफ बताने के क्रम में प्रधानमंत्री गलतबयानी करते चले गए। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला व अन्य घोटालों के संदर्भ में प्रधानमंत्री का यह बयान कि उन्होंने ऐसे मामलों में तुरंत कार्रवाई करते हुए केवल संदेह के आधार पर ही मंत्री और मुख्यमंत्री हटाए, बिल्कुल गलत है। झूठ बोला है प्रधानमंत्री ने! स्पेक्ट्रम घोटाले को ही लें। संप्रग - 1 की उनकी सरकार के समय से ही यह घोटाला चर्चित था। तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए-राजा के खिलाफ भ्रष्टाचार व अनियमितता के आरोप लगाए जा रहे थे। लेकिन तब प्रधानमंत्री मौन रहे। कोई कारवाई नहीं की। संप्रग - 2 मंत्रिमंडल में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ए. राजा को न केवल शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग दे डाला! क्यों और कैसे देश इसे अब जान चुका है। सत्ता और कार्पोरेट क्षेत्र की एक दलाल के प्रभाव में ए. राजा उपकृत किए गए। दलाल और उसके दलालों को उपकृत क्यों किया प्रधानमंत्रीने? स्पेक्ट्रम की नीलामी अथवा आवंटन के लिए गठित मंत्रियों के समूह के अधिकारों में संशोधन कर स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को मनमानी करने की छूट दी थी। इस मामले में घोटालों की गूंज की अनदेखी क्या प्रधानमंत्री लगातार नहीं करते रहे? वर्षों चुप बैठने के बाद ए.राजा के खिलाफ कारवाई तब की गई जब मीडिया ने इस मामले को प्रतिदिन उछालना शुरु किया और सीएजी की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। तब तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मौन क्या घोटाले पर परदा डालना साबित नहीं करता? प्रधानमंत्री चाहे जितना इन्कार कर लें, देश की जनता अब जान चुकी है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला अगर हुआ तो प्रधानमंत्री की जानकारी में!
जेपीसी की मांग को ठुकराना और विपक्ष पर संसद का वक्त जाया करने का आरोप लगाना स्वयं प्रधानमंत्री की नीयत को संदिग्ध बनाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर त्वरित कारवाई करने का प्रधानमंत्री का आरोप भी खोखला है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर नटवर सिंह का उदाहरण देना हास्यास्पद हैं। तेल के बदले अनाज घोटाले में लिप्तता के आरोप में नटवर सिंह को तो हटाया गया किंतु तब यह साफ-साफ दिख रहा था कि स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उस मामले में संदिग्ध भूमिका अदा की थी। नटवर सिंह को तो बलि का बकरा बनाया गया था। भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़कर फेंकने और भ्रष्टाचारियों को दंडित किए जाने का दावा करनेवाले प्रधानमंत्री क्या यह बतायेंगे कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले के लिए अशोक चव्हाण की बलि तो ली गई किंतु उसी घोटाले में संदिग्ध विलासराव देशमुख और सुशिलकुमार शिंदे अभी तक उनके मंत्रिमंडल में कैसे बने हुए हैं? कहां गया संदेह पर तुरंत कारवाई का उनका दावा? प्रधानमंत्री से देश यह भी जानना चाहेगा कि जब यह बात सार्वजनिक हो गई कि हाईकोर्ट के एक जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर सूचित किया था कि एक केंद्रीय मंत्री ने फोन कर उन्हें कुछ आरोपियों को जमानत देने को कहा था और धमकाया था, तब उन्होंने पारदर्शिता के पक्ष में उस मंत्री की पहचान कर उन्हें दंडित क्यों नहीं किया? देश को बताया क्यों नहीं? भारत के सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का मामला तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी को सरकारी प्रश्रय सरंक्षण दिए जाने का ज्वलंत उदाहरण ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा लताड़े जाने के बावजूद प्रधानमंत्री खामोश हैं। बताएंगे क्यों? निश्चय ही प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार को संवैधानिक मान्यता देने का अपराध करते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके शब्द दिखावा मात्र हैं। यह आक्रोश व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भावना का प्रदर्शन है। परिपक्व भारतीय नागरिक ऐसे छलावे में अब नही आयेंगे। देश ने अगर अपने लिए संविधान का निर्माण कर लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली को अपनाया है तो वह जिम्मेदारी सुनिश्चित करने में भी सक्षम है। आम जनता को मूर्ख और उसकी स्मरणशक्ति को कम आंकने की भूल प्रधानमंत्री न करें।

Sunday, December 19, 2010

मुस्लिम वोट बैंक की खतरनाक राजनीति!

कभी स्वयं के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी की अभिलाषा रखने वाले दिग्गी राजा अर्थात् दिग्विजय सिंह पर तरस खाने को जी चाहता है। इस हकीकत को जान लेने के बाद कि प्रधानमंत्री पद नेहरू-गांधी वंश के लिए आरक्षित हो चुका है, दिग्विजय ने इसका मोह तो त्याग किन्तु चाटुकारिता को इस हद तक अंगीकार कर लिया कि उनके चाहने वाले भी भौचक हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 10 वर्षों तक शासन करने के बाद अपनी कांग्रेस पार्टी को वहां स्थायी मौत दे चुके दिग्विजय आखिर चाहते क्या हैं? दिग्विजय कहीं किसी अदृश्य एजेंडे पर तो नहीं काम कर रहे? उनके करीबी इस जिज्ञासा पर रहस्यमय मौन साध लेते हैं। इनके रिश्तेदार अर्जुन सिंह ने छात्र जीवन में अपने पिता की चिता के समक्ष कसम खाई थी कि वे कांगे्रस को समाप्त कर देंगे। चूंकि उस घटना की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ , आज विस्तार में नहीं जा रहा। नियति ने उन्हें उसी कांग्रेस के घर पनाह लेने को मजबूर कर दिया था, जिस घर को ध्वस्त करने की कसम खाई थी। कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल किया, जम कर इस्तेमाल किया और आज अर्जुन सिंह की वर्तमान दुर्दशा को क्या बताने की जरूरत है। हाँ, यह जरूर है कि उनके रिश्तेदार दिग्विजय सिंह की अनुकंपा से मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कफन अवश्य ओढ़ लिया। वही दिग्विजय सिंह आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवाद की तुलना जर्मन तानाशाह हिटलर के राष्ट्रवाद से कर संघ परिवार को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित कर रहे हंै। लोगों की त्वरित प्रतिक्रिया यही आई कि वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। लेकिन, मैं इससे सहमत नहीं। निश्चय ही दिग्विजय अर्जुन सिंह की कसम को राष्ट्रीय स्तर पर पूरा हुआ देखना चाहते हैं। सरस्वती शिशु मंदिर पर हिंसा और विद्वेेश फैलाने का आरोप लगाकर दिग्विजय निश्चय ही मदरसों में जारी आतंकवादी गतिविधियों का बचाव कर रहे हैं।पूर्वानुमान को सच साबित करते हुए कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी ने हर तरह के आतंकवाद को देश के लिए खतरा बताया, किन्तु दिग्विजय ने साफ शब्दों में हिंदू संगठनों को ज्यादा खतरनाक निरूपित किया। अमेरिकी राजदूत से राहुल गांधी ने यही तो कहा था। कांग्रेस महाधिवेशन में दिग्विजय का पूरा भाषण हिंदुओं के खिलाफ था। अपने संबोधन में एक बार भी दिग्विजय ने किसी मुस्लिम संगठन का नाम नही लिया। उन्होंने यह तो पूछा कि विस्फोट की कुछ घटनाओं में जो हिन्दू पकडे गए वे सभी संघ परिवार के क्यों है, किन्तु यह बताना भूल गए कि संसद पर हमले से लेेकर मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, वाराणसी ही नहीं बल्कि पूरे संसार में आतंकी हमले में पकड़े गए सभी आतंकी मुसलमान कैसे निकले? इस तरह का उदाहरण देना और चर्चा करना उचित तो नहीं किन्तु दिग्विजय सिंह के मार्फत कांग्रेस की असली मंशा को चिन्हित करने के लिए दु:खी हृदय में इसे दोहराना पड़ रहा है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। दिग्विजय मुसलमानों को खुश करने अर्थात् कांग्रेेस पार्टी के हाथों से खिसक चुके वोट बैंक पर पुन: कब्जा करने के लिए मुसलमान-मुसलमान का रट लगाते हुए बाबरी मस्जि़द को गिराये जाने की घटना की याद करना भी नहीं भूले। देश के माथे पर इसे धब्बा बताते हुए इसे मिटाने का संकल्प लेने की बात उन्होंने कही। बता दूँ कि कतिपय कट्टरपंथियों को छोड़ कर देश का व्यापक मुस्लिम समाज अपने लिए तुष्टिकरण की कांग्रेसी नीति से घृणा करने लगा है। मुस्लिम इसे अपना अपमान समझते हंै। बिहार का ताजा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। कांग्रेस अब चाहे लाख कोशिश कर ले मुस्लिम समाज कांग्रेस के लिए वोट बैंक हरगिज नहीं बनेगा। हिंदू और मुसलमानों के बीच कथित रूप से बढ़ती खाई के लिए संघ परिवार को जिम्मेदार ठहराने वाले शिक्षित दिग्विजय उस समय बिलकुल अशिक्षित लगे जब उन्होंने न्यायपालिका, नौकरशाही और भारतीय सेना में संघ परिवार के घुसपैठ की जानकारी दी। हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई को कांग्रेस ही बड़ा कर रही है। दोनों समुदाय के बीच घृणा का जहर घोल रही है वह। इस तरह की बातें कोई जिम्मेदार व्यक्ति तो कर ही नहीं सकता। साफ है कि दिग्विजय कोई और ही लक्ष्य साध रहे हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के जनक के रूप में भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन का नाम लेकर दिग्विजय ने जिस पाप को छिपाने की कोशिश की है वह मोटे अक्षरों में चिन्हित हो गया। एक चोर दूसरे को चोर बताकर स्वयं चोरी के अपराध से मुक्त नहीं हो जाता। दिग्विजय अपने गुप्त एजेंडे को लागू करें, कांग्रेेेस का बंटाधार करें अपनी बला से। अनुरोध है कि इस प्रक्रिया में वे देश व समाज में सामप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा न दें। जाति-धर्म की राजनीति से घृणा करने वाली युवा पीढ़ी को भ्रमित तो नहीं ही करंे। हां, एक बात और बता दूं। अगर दिग्विजय समय रहते नहीं चेते तो उनका हश्र भी कांग्रेस में वही होगा जो अर्जुनसिंह का हुआ। पहले इस्तेमाल और फिर कूड़ादान!

Saturday, December 18, 2010

अल्पज्ञान का मंडराता खतरा!

एक पुरानी मान्यता है कि अज्ञानी से कहीं अधिक खतरनाक अल्पज्ञानी होते हैं। क्योंकि होते तो हैं वे अल्पज्ञानी, किन्तु स्वांग भरते हैं पूर्ण ज्ञानी होने का। फिर क्या आश्चर्य कि प्रधानमंत्री सहित कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत राहुल गांधी आज चौतरफा प्रहार झेल रहे हैं। अगर राहुल को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया गया होता तो संभवत: इतना बवाल नहीं मचता। चाटुकारिता के कंधों पर रखी वंशवाद की सीढ़ी चढ़ देश के नेता बने राहुल गांधी अपनी रणनीति की विफलता के बावजूद गलतियों को दोहराते रहने का परिणाम भुगत रहे हैं। एक अल्पज्ञानी ही ऐसी दुर्घटना का शिकार हो सकता है। सलाह चाहे दिग्विजय सिंह ने दी हो या किसी अन्य ने, अल्पसंख्यक कार्ड का 'राहुल प्रयोग' अबतक विफल ही नहीं, प्रति-उत्पादक भी सिद्ध होता रहा है। सन् 2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान करोड़ों खर्च कर राहुल के लिए 'रोड शो' अर्थात् 'सड़क तमाशे' आयोजित किये गए थे। तमाशे के लिए जगह-जगह भीड़ भी जुटाए गए थे। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसी भीड़ में अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों की ही बहुतायत होती है! ऐसी ही भीड़ों को तब संबोधित करते हुए राहुल गांधीने अपने 'ज्ञान' का बखान करते हुए कह डाला था कि अगर 1992 में नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जि़द का विध्वंस नहीं होता। उन्हीं सड़क तमाशों के बीच एक बार राहुल यह भी कह गए थे कि बांग्लादेश उदय का श्रेय उनकी दादी इंदिरा गांधी को जाता है। इस मुकाम पर उनके 'ज्ञान' पर स्वयं कांग्रेसी हतप्रभ रह गए थे। पहले मामले में जहां राहुल अल्पसंख्यक समुदाय की सहानुभूति बटोरना चाहते थे वहीं दूसरे मामले में अल्पसंख्यक समुदाय को आहत कर डाला। राहुल को ज्ञान देने वाले इस कठोर सत्य को बताना भूल गए थे कि अल्पसंख्यक समुदाय पूर्वी पाकिस्तान की जगह बांग्लादेश के निर्माण को आजतक पचा नहीं पाया है। नतीजतन, राहुल के तमाम तामझाम और कांग्रेस के दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगे्रस का सफाया हो गया। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने के लिए राहुल के सलाहकारों ने फिर अल्पसंख्यंक कार्ड खेला। प्रदेश अध्यक्ष के पद पर अल्पसंख्यक व्यक्ति की नियुक्ति की गई। राहुल गांधी, सोनिया गांधी व स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिहार के तूफानी दौरे किये। अपने हर संबोधन में राहुल ने अल्पसंख्यक मतदाता को रिझाने की कोशिश की। एक बार तो यहां तक पूछ डाला कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए नीतीश सरकार ने अबतक जमीन आवंटन क्यों नहीं किया। संघ परिवार व भाजपा को निशाने पर लेते हुए राहुल चुनाव प्रचार के दौरान यह दोहराते रहे कि इन कट्टर पंथियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को मतदाता समर्थन दें। आरएसएस को प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी के समकक्ष रख अपने ज्ञान का जलवा दिखाने वाले राहुल गांधी का सारा ध्यान केंद्रित था तो कथित हिंदू कट्टरवाद के मुकाबले अल्पसंख्यक वोट पर। जदयू-भाजपा सरकार को भ्रष्ट, निकृष्ट, अकर्मण्य निरूपित कर कांग्रेस की सफलता की भविष्यवाणी करने वाले राहुल गांधी को तब मुंह छुपाना पड़ा जब बिहार के मतदाता ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। राहुल का अल्पसंख्यक कार्ड एक बार फिर बेजान साबित हुआ। कथित कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को आतंकवाद का पर्याय बन चुके लश्कर-ए-तैयबा से अधिक खतरनाक बताने वाले राहुल गांधी की 'नीयत' अब कटघरे में है। आज रविवार को राहुल ने इस पर सफाई देने का संकेत दिया है। जाहिर है उनके सलाहकार लीपापोती का प्रयास करेंगे। आतंकवाद की व्यापकता को रेखंाकित कर राहुल अपने उगले हुए शब्दों पर परदा डालने की कोशिश करेंगे। लेकिन भारत का परिपक्व लोकतंत्र, परिपक्व आबादी उनके झांसे में आएंगे यह संदिग्ध है। राहुल के 'ज्ञान' से यह देश अब निर्देशित होने वाला नहीं। बिहार का चुनाव परिणाम पूरे देश के लोकतांत्रिक भविष्य के सूचक के रूप में सामने आया है। जाति, धर्म और संप्रदाय के मुकाबले उसने विकास के पक्ष में फैसला सुनाया है। बेहतर हो राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी बिहार के सबक को स्वीकार कर लें। इस देश की परिपक्व युवा पीढ़ी इन सब व्याधियों से दूर रहना चाहती है। अपने प्रस्तावित संबोधन में राहुल सावधानी बरतें। शब्दों का मायाजाल अब नहीं चलेगा। वास्तविकता को पहचान विकास और सुशासन के पक्ष में ध्यान केंद्रित करें राहुल। वोट की राजनीति के लिए अल्पसंख्यक कार्ड खेलना तो बंद कर ही दें। देश की बहुसंख्यक आबादी इस खेल से उब चुकी है। देश के आंतरिक मामलों की चर्चा वे देश में देश के साथ करें। अमेरिका या किसी अन्य के साथ नहीं। अन्यथा, देश अपने उपर मंडराते अल्पज्ञान के खतरे से निजात पाने का अपना तरीका ढूंढ लेगा।

Friday, December 17, 2010

...तब अंग्रेज, आज कांग्रेस

देश सावधान हो जाए। एक बार फिर सांप्रदायिक आधार पर देश को बांटने की तैयारी हो रही है। बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर। इस मामले में दु:खद यह कि ताजा प्रयास गुलाम भारत में अंग्रेजों की तरह नहीं, बल्कि आजाद भारत में अपने ही लोगों द्वारा हो रहा है। वह भी, वोट और सिर्फ वोट की राजनीति के लिए। अंग्रेजों ने शासन कायम रखने के लिए वह पाप किया था, आज राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए ऐसा पाप कर रहे हैं।
अगर कांग्रेस की दृष्टि में लश्कर-ए-तैयबा से कहीं अधिक खतरनाक कट्टरवादी हिंदू संगठन हैं, तो क्षमा करेंगे, इस दल के नए नेतृत्व को न तो हिंदुस्तान की पहचान है और न ही हिंदुस्तानी सोच की। देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी को प्रस्तुत करनेवाली कांग्रेस दु:खद रूप से स्वयं अपने इतिहास को भूल रही है। भविष्य के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की प्रक्रिया में अतीत की याद की जाती है। समझदार अतीत से सबक भी लेते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे शाश्वत सत्य को कांगे्रस नजरअंदाज क्यों कर रही हैं? पार्टी के नीति निर्धारक इतने नासमझ कैसे हो गए? मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि केंद्रीय सत्ता पर काबिज पार्टी की कमान मूर्खों की कोई मंडली संभाल रही है। मैं चाहूंगा कि मेरा आकलन गलत साबित हो। लेकिन फिलहाल यह शब्दांकित करने के लिए विवश हूँ कि कहीं कोई शातिर दिमाग है जो देश के इस अभिभावक दल के कंधों पर बंदूक रख लक्ष्य साध रही है। इस अदृश्य शक्ति की पहचान जरुरी है। इतिहास गवाह है कि व्यापार के नाम पर भारत पहुंचे अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता, साजिश और अत्याचार के हथियार से भारत को गुलाम बनाया तथा धर्म संप्रदाय के विष का फैलाव कर फुट डालो और राज करो की नीति अपनाकर हम पर शासन करते रहे।
कोई दो...चार...दस साल नहीं, लगभग 200 वर्षों तक धूर्त अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाए रखा। इस बीच उन्होंने सांप्रदायिक आधार पर समाज को जिस तरह बांटा उसकी परिणति आजादी के साथ देश विभाजन के रूप में हुई, यही नहीं लगभग 10 लाख लोग उस आग की बलि चढ़ गए थे। आजादी के 63 वर्षों बाद भी उसकी तपिश समय-समय पर हमें झुलसा जाती है।
विकिलिक्स के खुलासे के अनुसार, कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत को बताया था कि ''लश्कर-ए-तैयबा जैसे इस्लामिक आंतकी संगठनों को कुछ मुसलमानों का समर्थन मिला हुआ है। लेकिन देश को उससे बड़ा खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों से है। ये संगठन धार्मिक तनाव व राजनैतिक वैमनस्य पैदा कर रहे हैं।'' ध्यान रहे इसी क्रम में राहुल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे भाजपा नेताओं द्वारा फैलाए जा रहे तनाव का भी जिक्र किया था। देश में ''भावी प्रधानमंत्री कांगे्रस की नजर में'' की यह सोच तो निंदनीय है ही, आपत्तिजनक भी कि उन्होंने अपनी ऐसी सांप्रदायिक सोच की जानकारी अमेरिका को दी। कांगे्रस की ओर से दिया गया स्पष्टीकरण बचकाना है। राहुल ने सिर्फ हिन्दू संगठनों और भाजपा की चर्चा की है। इससे तो साफ तौर पर प्रमाणित होता है कि कांग्रेस बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर देश में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना चाहती है - धर्म व जाति के आधार पर समाज को बांटने पर तत्पर है। क्या यह देशद्रोही आचरण नहीं। पिछले दिनों मुंबई में 26/11 के शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की शहादत को एक अन्य कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कथित हिंदू सांप्रदायिकता से जोडऩे की कोशिश की थी। इसके पहले राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित मुस्लिम आतंकी संगठन ''सिमी'' से कर चुके हैं। इस पाश्र्व में राहुल गांधी या कांग्रेस को संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता। राहुल गांधी को ''राहुल बाबा'' निरुपित कर क्षमा करना एक बड़ी भूल होगी। अगर वे सचमुच ना-समझ या भोले हैं तब यह संदेह और भी प्रगाढ़ हो जाता है कि कहीं कोई अदृश्य ताकत उनका इस्तेमाल कर रही है।
दोनों ही हालत में देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि दिग्विजय सिंह के रूप में कांग्रेस के अंदर लंबी हो रही चाटुकारों की पंक्ति 'राहुल सोच' को पार्टी की नीति-सिद्धांत मान आगे बढऩे को उद्दत है। भगवा आतंक और हिंदूवादी भाजपा का मंत्रजाप कर कांग्रेस सिर्फ वोट की राजनीति ही नहीं कर रही, एक और देश विभाजन का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इसे रोकना होगा और तत्काल रोकना होगा।

Tuesday, December 14, 2010

किसकी 'छवि' की चिंता करे मीडिया?

पढऩे-सुनने में यह कड़वा तो लगेगा, किंतु सच यही है कि इंडिया और भारत नाम के हमारे देश में एक ओर जहां सामथ्र्यवानों को हजारों-लाखों करोड़ लुटने की छूट मिली हुई है, वहीं दूसरी ओर आम आदमी झूठ, फरेब और धूर्तता की विशाल शासकीय चट्टान के नीचे दब छटपटा रहा है। इसकी सुननेवाला, सुध लेनेवाला कोई नहीं। दुखी मन से निकली इस टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे कि न्यायपालिका का आचरण (अपवादस्वरूप ही सही) भी सामथ्र्यवानों का पक्षधर दिखने लगा है। कुख्यात नीरा-राडिया टेप प्रकरण में टाटा उद्योग समूह के अध्यक्ष रतन टाटा की एक याचिका पर सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय मीडिया को नसीहत देता है कि ''वह छवि खराब न करे।'' क्या यह बताने की जरूरत है कि किसकी 'छवि' की चिंता न्यायालय को है? दलाल नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के टेप सार्वजनिक होने के बाद अब तक बेदाग, चमकदार आभामंडल वाले रतन टाटा की न केवल व्यक्तिगत छवि बल्कि टाटा उद्योग समूह की छवि भी खराब हुई है। रतन टाटा इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय में राहत के लिए गए कि बातचीत के प्रकाशन से उनके निजता के अधिकार का हनन हुआ है। यह ठीक है कि किसी के 'बेडरूम' में झांकने से उसकी निजता भंग होती है। किंतु जब वहां विदेशी खुफिया एजेंसियों के लिए कथित रूप से काम करनेवाली विषकन्या मौजूद हो, भारत सरकार के मंत्रियों, अधिकारियों की चर्चा हो रही हो, लाइसेंस के आबंटन की बातें हो रही हों, देश के नियम-कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हों तब मामला निजी कैसे हुआ? बल्कि रतन टाटा जैसा कद्दावर व्यक्तित्व अगर छींकता भी है तो उसकी सार्वजनिक चर्चा होती है। अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित रतन टाटा न केवल उद्योग जगत बल्कि देश के युवाओं के लिए एक रोल मॉडल हैं। इन्हें तो पूर्णत: पारदर्शी होना चाहिए। निजता के नाम पर वैसे प्रसंग पर परदा नहीं डालना चाहिए जिससे देश की राजनीति, व्यापार ही नहीं बल्कि देश की सुरक्षा का मामला भी जुड़ा हो। मीडिया ने इस मामले को सार्वजनिक कर हर दृष्टि से देश का हित साधा है। इस प्रक्रिया में रतन टाटा या अन्य किसी की छवि धूमिल होती है तो जिम्मेदार वे स्वयं हैं! अदालत का संरक्षण प्राप्त करने की उनकी कोशिश उन्हें और भी संदिग्ध बना देती है। हजारों-लाखों करोड़ का घपला और विदेशों के लिए जासूसी जैसे मामलों में जो भी नाम आएगा वह बेदाग नहीं रह सकता। चाहे वे रतन टाटा हों, बरखा दत्त हों, वीर सांघवी हों या फिर प्रभु चावला और पूर्व मंत्री ए. राजा ही क्यों न हों। स्वयं को पाक-साफ साबित करने की जिम्मेदारी इनकी ही है। फिलहाल तो यह कटघरे में हैं और तब तक रहेंगे जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता।
'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' का उद्ïघोष करनेवाली सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चिंतित हैं तो किसी आम आदमी के लिए नहीं बल्कि बड़े उद्योगपतियों के लिए। एक अत्यंत ही हास्यास्पद टिप्पणी में उन्होंने टेलीफोन टैपिंग को (संदर्भ: नीरा राडिया प्रकरण) राष्ट्रहित में उचित तो ठहराया किंतु जड़ दिया कि इसका दुरुपयोग न हो! भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी कि है कि हमारे प्रधानमंत्री को यह भी पता नहीं होता है कि उनके मंत्रिमंडल में क्या हो रहा है। राडिया के टेलीफोन की टैपिंग का आदेश उन्हीं के गृहमंत्री ने दिया था, तो क्या गृहमंत्री ने अधिकार का दुरुपयोग किया? अगर प्रधानमंत्री का इशारा मीडिया द्वारा टेलीफोन वार्तालाप को सार्वजनिक किए जाने पर है तब हमारी प्रतिक्रिया वही है जो हमने ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ में की है। यह पीड़ादायक है कि प्रधानमंत्री ने भी चिंता औद्योगिक घरानों के पक्ष में व्यक्त की है। उद्योग घरानों की ङ्क्षचता से स्वयं को वाकिफ तो बताया किंतु इस 'महाघोटाले' पर वे मौन रह गए। आम आदमी की जेबों से एकत्रित हजारों करोड़ की राशि राजनेताओं, अधिकारियों व दलालों द्वारा डकार लिए जाने पर वे अनभिज्ञ बने रहे। प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त की तो इर पर कि टेलीफोन टैपिंग के वार्तालाप 'लीक' कैसे हुए? संसद में घोटाले की जेपीसी से जांच कराए जाने की पूरी विपक्ष की मांग ठुकराने वाले मनमोहन सिंह ने 'लीक' कांड की जांच का आदेश ताबड़तोब जारी कर दिया! अर्थात् थानेदार इस बात के लिए चिंतित नहीं दिख रहा कि डकैती किसने और कैसे की बल्कि वह चिंतित है तो इसलिए कि डकैती की जानकारी मीडिया और उसके माध्यम से देश को क्यों और कैसे हो गई?

भ्रष्टाचार के हमाम में 'तू भी नंगा, हम भी नंगे'!

निर्वाचित जनप्रतिधियों के जनविरोधी ऐसे आचरण पर लोकतंत्र एक बार फिर कलंकित हुआ। कांग्रेस व सत्तारूढ़ संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा को भ्रष्टाचार का आईना दिखा स्वयं के पाप पर परदा डालने की कोशिश की है- 'तू भी नंगा, हम भी नंगे' की तर्ज पर। तो क्या हमाम के इन नंगों के भ्रष्टाचार को देश स्वीकार कर स्वयं को लुटता देखता रहे? कदापि नहीं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, भ्रष्टाचार के इनके कारनामों को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाने की कोशिश करने वाले भी भ्रष्टाचार के पाप में बराबर के हिस्सेदार हैं। सोनिया गांधी ने जब भाजपा पर प्रहार करते हुए पूछा कि भ्रष्टाचार की नसीहत देने वाले ये कौन होते हैं, तब बरबस उनकी सास स्व. इंदिरा गांधी की याद आ गई। सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर चुकी थी, तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या निरूपित कर इस महारोग को मामूली बताने की कोशिश की थी। बात इतिहास की है, दोहरा दूं। तब जब संसद व कानून भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कारगर साबित नहीं हुआ था तब एक व्यक्ति जयप्रकाश नारायण के रूप में सामने आया। सत्ता को चुनौती दी और उसके पीछे-पीछे पूरे देश की जनता सड़कों पर उतर आई। शासन ने अपनी निरंकुशता का विकृत चेहरा भी सामने लाया, जनता के दमन के लिए संविधान प्रदत्त उसके मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, जेपी सहित अनेक बड़े नेता जेलों में डाल दिए गए। हजारों बेकसूर जनता के साथ। किन्तु अतत: विजयी लोकतंत्र हुआ, जनता हुई। इंदिरा शासन जनता के हुंकार में उड़ गया था। आज सोनिया गांधी विपक्ष को भी भ्रष्ट बताकर क्या भ्रष्टाचार को शासकीय स्वीकृति प्रदान नहीं कर रही हैं? लगभग एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच करवाए जाने की विपक्षी मांग को अनुचित बता सरकार खारिज क्यों कर रही है? सरकार इस तथ्य को क्यों भूल जाती है कि संसद जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सर्वोच्च मंच है? संविधान ने संसद को लोकतंत्र मेें सर्वोच्च स्थान दे रखा है। फिर इसकी उपेक्षा अथवा इस पर अविश्वास क्यों? इस संदर्भ में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का आचरण भी निंदनीय है। संदिग्ध भी। स्पेक्ट्रम घोटाले पर संसद में जारी गतिरोध पर उन्होंने मौन तोड़ा तो विदेशी धरती पर! समीक्षक इसे भारतीय संसद का अपमान बता रहे हैं तो ठीक ही है। लोगबाग स्तब्ध हैं प्रधानमंत्री के उन शब्दों को लेकर जिसके द्वारा उन्होंने कहा कि वे संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान घोर आपत्तिजनक है। आखिर उनके दिमाग में चल क्या रहा है? विश्व की सर्वश्रेष्ठ-सफल भारतीय संसद प्रणाली के भविष्य पर यह कैसी चिंता? जेपीसी की विपक्षी मांग को एक सिरे से खारिज करने वाले प्रधानमंत्री जब यह दलील देते हैं कि मौजूदा संसदीय तंत्र (अर्थात् सरकार द्वारा घोषित एक सदस्यीय जांच समिति) वही कर सकता है जो जेपीसी कर सकती है तब देश उनसे जानना चाहेगा कि फिर संसदीय कार्यप्रणाली में जेपीसी का प्रावधान ही क्यों रखा गया? अगर इसकी जरूरत नहीं तब क्यों नहीं इस प्रावधान को ही हटा दिया जाए? अगर हिम्मत है तो सरकार तत्संबंधी प्रस्ताव संसद में लाए। विपक्ष की जेपीसी संबंधी मांग बिल्कुल न्यायोचित है। स्पेक्ट्रम घोटाले से संबंधित जो तथ्य उभरकर बाहर आ रहे हैं वे अत्यंत ही विस्फोटक हैं। रिश्वत व कमीशन के लेनदेन से आगे बढ़ता हुआ यह घोटाला विदेशों के लिए जासूसी से भी जुड़ चुका है। बड़े-बड़े राजनेताओं, उद्योगपतियों, पत्रकारों और नौकरशाहों की संलिप्तता सीधे-सीधे शासन को चुनौती है। प्रधानमंत्री अगर संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो बेहतर हो वे संदर्भ में परिवर्तन कर लें। हमारी संसदीय प्रणाली का भविष्य अगर संकट में है तो किसी राजदल विशेष के कारण नहीं बल्कि सत्ता मेें मौजूद भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों व दलालों के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो ऐसे भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण प्रदान किए जाने के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो सत्ता पक्ष द्वारा संसद की उपेक्षा के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो गठजोड़ की राजनीति की उस मजबूरी के कारण जहां सत्ता वासना के पक्ष में समझौते-दर-समझौते किए जा रहे हैं- नग्न हो सत्ता की देवी भ्रष्टाचार के दानवों के समक्ष समर्पित होने को मजबूर है। अगर प्रधानमंत्री व उनका दल संसदीय प्रणाली अर्थात्ï लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहता है तब वह सत्ता मोह त्याग देशहित में भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों आदि के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल के सीखचों के पीछे भेजे। क्या सोनिया गांधी और उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे? सत्ता का त्याग करने को तैयार होंगे ये? अगर नहीं तब फिर ये लोकतंत्र के भविष्य के प्रति चिंता का नाटक न करें। जनता स्वयं भ्रष्टों को दंडित कर लोकतंत्र को सुरक्षित, कायम रखने में सक्षम साबित होगी।

Sunday, December 12, 2010

'वॉच डॉग' की भूमिका खतरनाक कैसे?

'वॉच डॉग' की भूमिका का निर्वाह करने वाला मीडिया भला 'खतरनाक' कैसे हो सकता है? निष्ठापूर्वक अपने इन कर्तव्य का पालन-अनुसरण करने वाले मीडिया को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने खतरनाक प्रवृत्ति निरूपित कर वस्तुत: लोकतंत्र के इस चौथे पाये की भूमिका और कर्तव्य निष्ठा को कटघरे में खड़ा किया है। वैसे बिरादरी से त्वरित प्रतिक्रिया यह आई है कि चव्हाण की टिप्पणी ही वस्तुत: लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। मुख्यमंत्री चव्हाण ने मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाले के संदर्भ में ऐसी विवादास्पद टिप्पणी की। चव्हाण के अनुसार 'मीडिया ट्रायल' के कारण ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण परेशानी में पड़े। यहां तक तो ठीक है। किन्तु इसमें 'खतरनाक' क्या है। मीडिया ने आदर्श सोसाइटी घोटाले का पर्दाफाश कर अपने कर्तव्य का ही तो निष्पादन किया। लोकतंत्र में ऐसे ही 'प्रहरी' की भूमिका मीडिया से अपेक्षित है। घोटालों-घपलों में अंतर्लिप्तता के कारण अगर कोई मुख्यमंत्री हटता है या हटाया जाता है तो इसके लिए मीडिया को पुरस्कृत किये जाने की जगह उसे 'खतरनाक' बताना अनुचित है। मीडिया ने कोई राजनीति नहीं की बल्कि नियम-कानूनों को धता बता, कारगिल के शहीदों-पीडि़त परिवारों के हक पर सामथ्र्यवानों द्वारा डाका डाले जाने की बात को सार्वजनिक किया। राजनीति तो राजनीतिक कर रहे हैं। अशोक चव्हाण ने एक और पूर्व मंत्री पर आरोप जड़ दिया कि उन्हें हटाने के लिए आदर्श के नाम की सुपारी दी गई थी। राजनीतिक राजनीति करें अपनी बला से, हमारी आपत्ति मीडिया की कर्तव्य-परायणता को खतरनाक निरूपित किये जाने पर है।
मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण सहित सभी राजनीतिक क्या इस बात से इन्कार करेंगे कि यह मीडिया ही है जो सरकार के स्तर पर हो रहे ऐसे बड़े घोटालों का पर्दाफाश कर लोकतंत्र की अपेक्षा की पूर्ति कर रहा है? मामला चाहे 50 के दशक का सिराजुद्दीन कांड हो या 70 के दशक का पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला हो, 80 के दशक का बोफोर्स-फेयर फैक्स कांड हो, 90 के दशक का सांसद रिश्वत कांड हो, बिहार का चारा घोटाला कांड हो, या फिर ताजातरीन 2-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला हो। इन सभी पापों को अनावृत किया तो मीडिया ने ही। संसद हो या राज्य विधानसभाएं, सांसदों-विधायकों के लिए मुद्दे मीडिया ही देता आया है- लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी के रूप में। फिर इसे कटघरे में कैसे खड़ा किया गया? जिस संदर्भ में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने ऐसी टिप्पणी की है वह अत्यंत ही गंभीर है। आदर्श सोसाइटी घोटाला कांड के सिलसिलें में केंद्रीय जांच ब्यूरो नेताओं-अधिकारियों के नाम के साथ प्राथमिकी दर्ज कराने की तैयारी में है। जो तथ्य उभर कर सामने आए हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि नेताओं-अधिकारियों ने अपनी पूर्ण जानकारी में नियम-कानून की धज्जियां उडऩे दीं। फ्लैटों के वास्तविक हकदार युद्ध पीडि़तों-विधवाओं के हक पर डाका डाला गया है। इस अपराध को सार्वजनिक करने वाले मीडिया को तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए। लगता है मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण या तो विषय को समझ न पाये या फिर उन्हें गलत तथ्य उपलब्ध करवाये गये। अपनी कुशल प्रशासकीय क्षमता के लिए मशहूर मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण केंद्र में अनेक जटिल शासकीय समस्याओं को सुलझाने में सफल रहे हैं। आदर्श सोसाइटी घोटाला तो हर दृष्टि से शासकीय अकर्मण्यता व साजिश का ज्वलंत उदाहरण है। अपने साथी अशोक चव्हाण का दुख अगर उन्हें साल रहा है तो उसकी भरपाई राजनीतिक स्तर पर हो सकती है- मीडिया ट्रायल को खतरनाक निरूपित कर कदापि नहीं।

Friday, December 10, 2010

अभिव्यक्ति की यह कैसी आजादी?

अगर लोकतंत्र में वाणी स्वतंत्रता का यही अर्थ है, यही अंजाम है, यही रूप है, यही चरित्र है तो बगैर समय गंवाए इसे मौत दे दी जाए। देश को नहीं चाहिए ऐसी वाणी स्वतंत्रता। नहीं चाहिए अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी जो पूरे देश के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दे। उस भारत देश का चरित्र संदिग्ध दिखे जिसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति पूरे संसार के लिए आदर्श है, अनुकरणीय है।
70 के दशक में आपातकाल के दिनों में मशहूर और अब जनता पार्टी के एकल नेता सुब्रह्मïण्यम स्वामी ने गुरुवार (9 दिसंबर) को कहा कि 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं, विषकन्या हैं और धार्मिक ग्रंथों की ताड़का हैं' तो पूरे देश को स्वयं के चरित्र पर संदेह होने लगा। अभी कुछ ही दिनों पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्शन ने जब टिप्पणी की थी कि सोनिया गांधी सीआईए एजेंट हैं और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की हत्या के षडय़ंत्र में वे शामिल थीं, तब भी ऐसी शंका उठी थी। अतीत में चलें तब लगभग 4 दशक पूर्व तब के एक कांग्रेसी नेता सी.एम. इब्राहिम ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय '....' हैं, तब भी देश स्तब्ध रह गया था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर स्वाभाविक है। कभी सबूतों के साथ तो कभी बगैर सबूतों के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते रहे हैं। संसद, विधान मंडलों और बाहर भी इन पर चर्चा होती है, हंगामा होता है, कभी-कभी जांच आयोग और जांच समितियां भी गठित हो जाती हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन जब मर्यादा का अतिक्रमण कर व्यक्तिगत चरित्र पर अश्लील लांछन लगाए जाते हैं तब उसे स्वीकार करना संभव नहीं। सुब्रह्मïण्यम स्वामी ऐसे ही अपराध के दोषी बन गए हैं। सोनिया गांधी को भ्रष्टाचार की गंगोत्री निरूपित करने तक को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु उन्हें विषकन्या व ताड़का अर्थात्ï राक्षसी बताना अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है। सुशिक्षित सुब्रह्मïण्यम स्वामी विषकन्या और ताड़का के अर्थ से अपरिचित नहीं हो सकते। यह हमारी भारतीय संस्कृति को चुनौती भी है। अगर बात भ्रष्टाचार की की जाए तब शायद सुब्रह्मïण्यम स्वामी कुछ सबूत पेश भी कर दें। लेकिन क्या वे सोनिया गांधी को विषकन्या व ताड़का साबित कर पाएंगे? शत प्रतिशत आधारहीन ऐसे आरोप को हमारी संस्कृति स्वीकार नहीं करती। फिर स्वामी ने ऐसे आरोप लगाए तो कैसे? अगर वे अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, तो इलाज करवाया जाना चाहिए। अगर नहीं तब चुनौती है कि वे सोनिया के खिलाफ इस्तेमाल किए गए अश्लील शब्दों के औचित्य को साबित करें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तब न केवल पूरे देश से माफी मांगें, बल्कि प्रायश्चित के लिए हिमालय की किसी गुफा में चले जाएं। जब पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन अपने बयान के बाद अलग-थलग पड़ गए थे, तब उन्होंने भी क्षमा मांग ली थी। स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने उनके बयान से स्वयं को अलग कर लिया था। इंदिरा गांधी के चरित्र पर उंगली उठाने वाले इब्राहिम का मामला अवश्य विचित्र है। एक विस्मयकारी (रहस्यमय भी कह सकते हैं) निर्णय लेते हुए इंदिरा गांधी ने इब्राहिम को कांग्रेस में वापस ले लिया था। तब फुसफुसाहटों में अनेक सवाल पूछे गए थे। लेकिन इंदिरा गांधी के आभा मंडल के तेज में वे सब निस्तेज बन गए थे। वैसे सोनिया गांधी को लेकर ताजा विवाद के बीच कुछ कोनों से, दबी जुबान में ही सही, ऐसे सवाल अवश्य उभर रहे हैं कि सुदर्शन या फिर सुब्रह्मïण्यम स्वामी कोई सड़कछाप नेता तो हैं नहीं। फिर इन्होंने सड़कछाप वक्तव्य दिए तो कैसे? पड़ताल, हां पड़ताल की जरूरत है।

Tuesday, December 7, 2010

पराजय राहुल गांधी की, विजय गडकरी की !

''... कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को बिहार की जनता ने उनका असली मुकाम दिखा दिया।'' बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशीलकुमार मोदी के इन शब्दों में वैसे नया तो कुछ नहीं किन्तु भविष्य के लिए कुछ संकेत अवश्य निहीत हैं। साथ ही राजनीतिक समीक्षकों के लिए एक चुनौती भी। ध्यान रहे, जब पिछले वर्ष नागपुर के नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तब प्राय: सभी समीक्षकों ने नियुक्ति को कांग्रेस के युवा महासचिव और कांग्रेस के घोषित 'भविष्य' राहुल गांधी के मुकाबले युवा गडकरी को मैदान में उतारने की बातें कही थीं। आकलन सही भी था। तब राहुल गांधी के 'रोड शो' और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राएं सुर्खियां बन रही थीं। समाचारपत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में राहुल गांधी ही छाये हुए थे। उनके 'श्रम' की प्रशंसा करते मीडियाकर्मी थकते नहीं थे। अपवादस्वरूप कुछ वैसे अवश्य थे जो 'राहुल-श्रम' के टायं-टायं फिस्स होने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। लेकिन इनकी संख्या नगण्य थी। जब बिहार चुनाव की घोषणा हुई तब समीक्षकों ने राहुल और गडकरी दोनों के लिए इसे अग्नि परीक्षा निरूपित कर डाला था। राहुल गांधी के पक्ष में जहां कहा गया था कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करेगी, परिणाम के बाद वह 'किंगमेकर' की भूमिका में रहेगी, वहीं गडकरी के लिए कहा गया था कि भाजपा के लिए सीटें कम होंगी और तब दिल्ली की चौकड़ी उन पर नए सिरे से प्रहार शुरू कर देगी। बिहार चुनाव को वस्तुत: राहुल बनाम गडकरी के रूप में प्रचारित किया गया। अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला चुनाव गडकरी के लिए सचमुच अग्नि परीक्षा ही था। विफलता की हालत में अपने हश्र से वे अच्छी तरह परिचित थे। अपनी सांगठनिक कुशलता के लिए विख्यात गडकरी ने अपने ढंग से जंग की रणनीति तैयार की, उसे क्रियान्वित किया। परिणाम आने के बाद न केवल कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, बल्कि राहुल गांधी के कथित करिश्मे का भी पर्दाफाश हो गया। औंधे मुंह गिरे वे। देहातों में लोगों ने टिप्पणी की कि ''राहुल को गडकरी ने धोबिया पछाड़ दे डाला।'' स्वयं भाजपा के अनेक बड़े नेता बगले झांकने लगे। ऐसे अप्रत्याशित परिणाम की कल्पना उन्होंने नहीं की थी। लेकिन गडकरी की सफल रणनीति ने सभी के मुंह पर ताला जड़ दिया। आश्चर्यजनक रूप से मीडिया के उन समीक्षकों को भी लकवा मार गया जिन्होंने चुनाव को राहुल बनाम गडकरी निरूपित किया था। सत्ता के पक्ष में भौं-भौं कर अपने लिए कुछ सुनिश्चित करने का मीडिया चरित्र एक बार फिर कलंक के रूप में सामने आया। जब युद्ध राहुल बनाम गडकरी था तब परिणाम के बाद राहुल की पराजय पर परदा डाल उनका बचाव क्यों किया गया? साफ है कि चुनाव में राहुल को एक सिरे से बिहार की जनता ने नकार दिया। उनके 'रोड शो' के तमाशे से वहां की जनता प्रभावित नहीं हुई। गरीबों के घरों में जाकर भोजन-भजन को नौटंकी से ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। राहुल और कांग्रेस के लिए यह एक ऐसी सीख है जिसे शायद वे भूल नहीं पाएंगे। राजनीतिक समीक्षको के गालों पर भी परिणाम एक तमाचे के रूप में आया है। अगर समीक्षक अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं तब उन्हें देश को यह बताना चाहिए कि मतदाता ने राहुल गांधी की जगह नितिन गडकरी को स्वीकार किया है। गडकरी की घोषित 'विकास की राजनीति' पर मतदाता ने मुहर लगाई है। जाति, वर्ग, धर्म से पृथक गडकरी के शब्दों पर विश्वास किया गया। इसे कोई अतिरंजना के रूप में न ले। बिहार की धरती का यह सच एक बार फिर उजागर हुआ कि जब वहां की जनता करवट लेती है तब वह पूरे देश के लिए आदर्श को स्थापित करती है। अगर कांग्रेस और राहुल गांधी ने जमीनी हकीकत से पुन: हाथ झटकने की कोशिश की तो आज इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव में भी 'बिहार-परिणाम' दोहराया जाएगा। राहुल गांधी के सलाहकार सच को स्वीकार कर रणनीति बनाएं। आज देश का मतदाता परिपक्व हो चला है। वह किसी 'हवा' के साथ चल मतदान नहीं करता। नई पीढ़ी जात-पात-धर्म से दूर विकास देखना चाहती है। बिहार में यह सिद्ध भी हो गया। जातीयता के ज्वर से अब तक पीडि़त बिहार ने ठंडे पानी से स्वयं को धो डाला है। विकास की रोशनी देख उसने स्वयं के लिए विकास की राजनीति को अंगीकार किया है। राहुल गांधी और कांग्रेस की विडंबना यह है कि वे चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन भविष्य का उनका नेता गलत सलाह और नीति के कारण बिहार में औंधे मुंह गिर चित हो गया। जंग में विजयी नितिन गडकरी रहे।

Friday, December 3, 2010

शासक के लिए जरूरी है 'हार्ट', 'हेड', 'टंग'!

असंवेदनशीलता और संस्कृति की अवमानना की पराकाष्ठा की इस नई जानकारी पर पूरा भारत देश शर्मिंदा है। दुख के क्षणों में संवेदना और सहानुभूति की एक विशिष्ट परंपरा भारतीय संस्कृति में समाहित है। कठोर हृदय भी ऐसे अवसरों पर मोम बन द्रवित हो जाता है। शैतान मनमस्तिष्क धारक भी तब मौन रहता है। फिर स्वयं को देश का अभिभावक दल बताने वाली कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी इतनी निर्मम-कठोर-असवंदेनशील कैसे? ताजा जानकारी हृदयभेदी है।
आंध्रप्रदेश के विद्रोही कांग्रेसी सांसद जगनमोहन रेड्डी ने जिन परिस्थितियों में कांग्रेस का त्याग किया उससे सोनिया गांधी का एक नया चेहरा सामने आया है। मानव का मानव के प्रति कठोरता व संवेदनशून्यता का यह मामला एक राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। जगन के पिताजी वाई.एस. राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के सर्वमान्य, सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात उनके गांव में अनेक लोग इतने शोकाकुल हुए कि उन्होंने अपने प्राण दे दिए, आत्महत्या कर ली थी उन लोगों ने! जगन ने तब उस गांव की यात्रा कर मृतकों के आत्मजनों से मिलने का निर्णय लिया था। बहुप्रचारित ''ओदरपू'' यात्रा की योजना तभी बनी थी। पता नहीं क्या कारण थे जो सोनिया गांधी ने जगन को यात्रा से मना कर दिया। कांग्रेस की ओर से साफ-साफ कह दिया गया कि जगन यात्रा पर नहीं जा सकता। चंूकि जगन ने मृतकों के परिवारों से वादा किया था, वे अड़े रहे। अपनी मां को लेकर जगन सोनिया गांधी से मिले। उनकी मां विजयालक्ष्मी ने गिड़गिड़ति हुए सोनिया गांधी से विनती की कि 'पिता की आत्मा की शांति' के लिए जगन को यात्रा की अनुमति प्रदान करें। सोनिया की त्वरित प्रतिक्रिया विस्मयकारी थी। जगन की मां की गिड़गिड़ाहट पर भी वे ने केवल अडिग रहीं बल्कि उपेक्षा व अपमान की मुद्रा में टिप्पणी कर बैठीं कि ''सो वॉट?'' (तो क्या?) क्या कोई संवेदनशील भारतीय नारी किसी मृतात्मा के संदर्भ में ऐसी अपमानजनक टिप्पणी कर सकती है? और मृतात्मा कौन? उन्हीं की कांग्रेस पार्टी का मुख्यमंत्री! कहते हैं तब जगन की मां रो पड़ी थीं। सोनिया का दिल फिर भी नहीं पिघला। मां की गिड़गिड़ाहट तथा रूदन को देख जगन ने तभी पार्टी छोडऩे का मन बना लिया था! क्या सोनिया गांधी का आचरण महान भारतीय संस्कृति-सभ्यता के विपरीत नहीं? सोनिया गांधी निश्चय ही इस बिंदु पर भारत और भारतीयता की अपराधी बन जाती हैं। मैं यहां जगनमोहन रेड्डी की पैरवी नहीं कर रहा। सोनिया गांधी की असंवेदनशीलता से आहत मेरा मन पाठकों के साथ पीड़ा बांटने को मजबूर है। राज और राजनीति से दूर मन इस टिप्पणी के लिए भी बाध्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अब 'भारतीय' नहीं रह गई है! अन्यथा हिंदुस्तानी कांग्रेस की हिन्दुस्तानी संस्कृति सोनिया गांधी को एक 'दुखी विधवा', उसके पुत्र की भावना और मृतात्मा का उपहास उड़ाने की इजाजत नहीं देती।
ऐसी घटनाएं अंतत: आत्मघाती सिद्ध होती हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण... 60 के दशक में बिहार में कृष्णवल्लभ सहाय नाम के एक दबंग मुख्यमंत्री हुआ करते थे? वे हमेशा कहा करते थे कि एक शासक में तीन चीजों का होना जरूरी है - 'हार्ट' (दिल), 'हेड' (मस्तिष्क) व 'टंग' (जुबान)। विडंबना यह कि इनमें से एक 'जुबान' ने ही सहाय की ही नहीं बल्कि कांग्रेस की भी गद्दी छीन ली थी। बिहार सरकार के अराजपात्रित कर्मचारी हड़ताल पर थे। हड़ताली कर्मचारियों ने सचिवालय जा रहे मुख्यमंत्री सहाय का घेराव कर पूछा कि, ''आप हमारी मांगों की पूर्ति क्यों नहीं करते? हमारे बच्चे तब क्या करेंगे?'' क्रोधित सहाय ने तब चिल्लाकर जवाब दिया था कि, ''उनसे (बच्चों से) मूंगफलियां बिकवाओ!'' आग की तरह फैली सहाय की उस टिप्पणी से बिहारवासी स्तब्ध रह गए थे। उसके बाद हुए आम चुनाव (1967) में पराजित होकर कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। कृष्णवल्लभ सहाय स्वयं भी चुनाव हार गए थे। उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि उनके पास
'हार्ट' और 'हेड' तो है किंतु 'टंग' नहीं! नतीजतन जनता ने उन्हें रास्ता दिखा दिया। बदजुबानी की ऐसी परिणति हर काल में चिन्हित होती रही है- कांग्रेस और सोनिया गांधी इसे याद रखें!

Thursday, December 2, 2010

भ्रष्ट को तोहफा, भ्रष्टाचार को संरक्षण!

क्षमा करेंगे। एक 'कमजोर व दबाव में काम करने वाले प्रधानमंत्री' की अपनी छवि से निजात पाना तो दूर, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसे बार-बार मोटे अक्षरों में लिख स्वयं ही चिन्हित कर रहे हैं। अब तक कुख्यात हो चुके 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों में अपनी संलिप्तता को अनावृत कर चुके प्रधानमंत्री केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर एक दागदार अधिकारी पी.जे. थॉमस की नियुक्ति और बाद में उनके बचाव के कारण पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र सदमे में है। थामस का ताजा मामला लोकतंत्र व संविधान के रक्षकों, संसद व न्यायपालिका के गालों पर तमाचे मार रहा है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मामले में भी अपनी संदिग्ध भूमिका से इन्कार कर पाएंगे? तर्कसंगत शब्दों के सहारे तो कदापि नहीं। कुतर्क या झूठ की बात कुछ और है। लेकिन अंतत: ये अपने मुंह के बल ही गिरते हैं। भारत के सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्ति से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मानते हुए केंद्र सरकार ने लोकतांत्रिक भावना का आदर करते हुए एक स्वस्थ प्रक्रिया अपनाई थी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और नेता विपक्ष की समिति को नियुक्ति की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस प्रक्रिया को सम्मान दिया गया। किन्तु थॉमस के मामले में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की बिल्कुल जायज आपत्ति को नजरअंदाज कर नियुक्ति कर दी गई। थॉमस के दागदार पाश्र्व के आलोक में सुषमा ने थॉमस की नियुक्ति के खिलाफ मंतव्य दिया था। भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप में जमानत पर चल रहे थॉमस जैसे व्यक्ति को भला भारत का सतर्कता आयुक्त नियुक्त कैसे किया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति पर सवालिया निशान जड़ते बिल्कुल सही टिप्पणी की थी कि जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हों वह दूसरों के भ्रष्टाचार की जांच कैसे कर सकता है? साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने थॉमस की पात्रता को अयोग्य घोषित कर दिया। इसके बावजूद अगर थॉमस पद पर बरकरार हैं तब निश्चय ही पूरा का पूरा मामला एक महाघोटाले की चुगली कर रहा है। आखिर वह कौन सी मजबूरी है जिसके दबाव में प्रधानमंत्री थॉमस को हटा नहीं पा रहे हैं? सर्वोच्च न्यायालय के मंतव्य की उपेक्षा और नियुक्ति पैनल की सदस्य नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की आपत्ति को दरकिनार कर भ्रष्ट पी.जे. थॉमस को पुरस्कृत करना निश्चय ही भ्रष्टाचार को संरक्षण प्रदान करना माना जाएगा। चाहे कोई कितना भी इन्कार कर ले, प्रधानमंत्री किसी दबाव में हैं अवश्य। क्या यह बताने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री पर दबाव कौन बना सकता है? यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकासक्रम है। पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र आज दांव पर लगाया जा रहा है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि सत्तर के दशक के आरंभ में जब लोकतांत्रिक संस्थाओं को दबाने और अवमूल्यन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी तब परिणति स्वरूप ही देश में आंतरिक आपातकाल लगा। संवैधानिक संस्थाएं तक कैद हो बिलखने को मजबूर थीं। अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित नागरिक दूसरी गुलामी की जिंदगी जीने को बाध्य थे। वह तो भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव थी जिसने लोकतंत्र को पुनर्जीवित कर दिया था। आज संसद और न्यायपालिका के अवमूल्यन का प्रयास अगर हो रहा है तो इस प्रवृत्ति को तुरंत दफना दें। पी.जे. थॉमस की यह घोषणा कि वे पद पर कायम हैं, लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रही है। और केंद्र सरकार का यह निर्णय कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की निगरानी से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त थॉमस दूर रहेंगे, कमजोर प्रधानमंत्री और कमजोर सरकार के आरोप को ही सही ठहरा रहा है। बेहतर हो थॉमस को तुरंत हटा दिया जाए अन्यथा देश का मजबूत लोकतंत्र जब अंगड़ाई लेगा तब एक बार फिर इतिहास दोहराया जाएगा। भारत देश भ्रष्ट को पुरस्कृत किए जाने और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के कृत्य को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।

Wednesday, December 1, 2010

तब विदर्भ 'भिखारी' नहीं रहेगा!

हर दृष्टि से, जी हां, हर दृष्टि से समृद्ध, सक्षम विदर्भ भिखारी क्यों बना रहे? चुनौती है विदर्भवीरों को कि वे विदर्भ को सदैव भिखारी बना रखने की चाल को निरस्त्र कर दें। हमें 'भिखारी' का विशेषण स्वीकार्य नहीं। अगर 'अखंड महाराष्ट्र' किसी का धर्म है तो स्वाभिमान विदर्भ की अस्मिता। इस पर कोई समझौता नहीं। मैं यहां न तो अलगाववाद को हवा दे रहा हूं, और न ही पृथक विदर्भ की जायज मांग को उठा रहा हूं। मैं चर्चा कर रहा हूं उस राजनीति की जिसने छल-प्रपंच से विदर्भ को पराश्रित बना रखा है। अपेक्षित विकास से इस क्षेत्र को दूर कर रखा है। किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। और प्रत्येक वर्ष सर्दियों में विधानमंडल के मंच से विदर्भ को आश्वासनों का झुनझुना थमाया जाता रहा है। क्या कभी इन व्याधियों की निरंतरता पर पूर्णविराम लग सकेगा? भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार युवा विधायक देवेन्द्र फडणवीस ने जब विधानसभा में टिप्पणी की थी कि विदर्भवासियों के साथ महाराष्ट्र में भिखारियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, तब निरीह विदर्भ रो पड़ा था। प्रतिक्रियास्वरूप पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में सभी एकमत हुए थे। अपवादस्वरूप कुछ को छोड़ पक्ष-विपक्ष दोनों के तरफ से स्वतंत्र विदर्भ राज्य के पक्ष में आवाजें उठी थीं। विकास के क्षेत्र में उपेक्षा और अन्याय से क्षुब्ध विदर्भवासी पूछने लगे कि तब हम महाराष्ट्र के साथ रहें तो क्यों? रेखांकित कर दूं कि पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में इस सोच को हवा मिली तो विदर्भ के प्रति राज्य सरकार की सौतेजी नीति के कारण! आज भी ऐसा ही हो रहा है। हवा रुकी नहीं, चल ही रही है! जब नागपुर करार के तहत विधानमंडल के नागपुर अधिवेशन की चर्चा करते हैं तब मजबूरी और छलावा जैसे शब्द अधिवेशन का मजाक उड़ाते दिखते हैं। मुंबई से नागपुर पहुंची सरकार आगमन के साथ ही प्रस्थान की तैयारियों में जुट जाती है। अधिवेशन की औपचारिकता को मजबूरी माननेवाले असहज विधायक, मंत्री व सरकारी कर्मचारी अधिवेशन के प्रति अपनी अगंभीरता छुपाने की कोशिश भी नहीं करते। विदर्भ के विधायकों की मांगों पर सहानुभूति प्रदर्शित कर सरकार आश्वासनों की झड़ी तो लगा देती है, किंतु दस्तावेज गवाह हैं कि व्यवहार के स्तर पर न तो घोषित आश्वासनों की पूर्ति हो पाती है और न ही विकास के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति! विदर्भ विकास के प्रति यह सरकारी उदासीनता ही है जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही है। ऐसी आत्महत्याओं में निहीत कारणों की जानकारी के बावजूद सरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है। राज्य के बाहर स्तंभित समीक्षक इस सवाल का हल ढूंढते रहते हैं कि आर्थिक रूप से दमित उत्तर भारत के किसान तो आत्महत्या नहीं करते फिर मजबूत आर्थिक आधार वाले महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या के लिए मजबूर क्यों हो जाते हैं? महाराष्ट्र सरकार के नीति नियामकों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। क्योंकि किसान आत्महत्या के संदर्भ में विदर्भ की जमीनी सचाई से ये अच्छी तरह परिचित हैं। सिंचाई सुविधा, नगदी फसल की प्राथमिकता, इनके लिए आवश्यक जलस्रोतों का पिछले कुछ दशकों में क्षरण, वैकल्पिक फसलों के प्रति उदासीनता, अर्थव्यवस्था में किसानों की भूमिका का अभाव, वेतनभोगी वर्ग का प्रादुर्भाव और क्षेत्र का जीवनस्तर आदि पहलुओं का ईमानदार विश्लेषण वास्तविकता को सामने ला देगा। क्षेत्र के लिए कृषि संबंधी योजना बनाते वक्त अगर इन बातों का ध्यान रखा जाए तब क्षेत्र का न केवल अपेक्षित उल्लेखनीय विकास होगा बल्कि किसान आत्महत्या पर भी पूर्णविराम लग जाएगा। शर्त यह कि राज्य सरकार ईमानदारी से विदर्भ विकास के पक्ष में योजनाएं बनाये, धनराशि मुहैया कराए और कड़ाई से उन्हें क्रियान्वित करे। क्या विदर्भवासी अपेक्षा करें कि चालू विधानमंडल अधिवेशन के दौरान सरकार की ओर से ऐसी पहल की जाएगी? 'हां' की हालत में तब डंके की चोट पर ऐसी मुनादी की जा सकेगी कि विदर्भ कभी भिखारी नहीं बनेगा।