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Tuesday, July 31, 2012

झूठ बोल रहे हैं नरेंद्र मोदी!


गुजरात और बिहार के बीच कथित अटूट संबंध को हवा में उछालने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत और नीति पर सवाल तो खड़े होंगे ही।  मोदी कुछ बोलने के पूर्व हानि-लाभ को तौल लेते हंै। इतिहास खंगालने की आदत भी है उनमें। कहते है कि वे सावधानी बरतते हैं, ताकि कुछ निरर्थक न बोल जाएं। किंतु इस बार चूक गये। गुजरात और बिहार के बीच ऐतिहासिक संबंध को रेखांकित करते हुए मोदी जब कहते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति गुजरात के सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया था, और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बिहार के जयप्रकाश नारायण ने बनवाया था तब तथ्य और मंशा को लेकर समीक्षकों की ललाटों पर पैदा सिकुडऩ स्वाभाविक है।
पहले चर्चा तथ्य की। यह सच है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू कभी नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनें। कारण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अतुलनीय विद्वत्ता थी। विद्वत्ता के मामले में डॉ. प्रसाद हर क्षेत्र में नेहरू पर भारी पड़ते थे। इस बिंदु पर घोर कुंठा के शिकार नेहरूजी चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बनें। किंतु, संविधान सभा के सभापति के रूप में ऐतिहासिक व अतुलनीय योगदान देने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद की न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि विपक्ष सहित राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन की व्यापक स्वीकृति के समक्ष नेहरूजी की नहीं चली। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान स्वीकार किए जाने के बाद डॉ. प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया गया। प्राय: हर महत्वपूर्ण राजनीतिक, गैर राजनीतिक मामलों में नेहरूजी को चुनौती देने वाले सरदार पटेल ने भी डॉ. राजेंद्र प्रसाद का साथ दिया था, यह ठीक है। किंतु, यह कहना गलत होगा कि डॉ. प्रसाद की नियुक्ति में पटेल की भूमिका निर्णायक थी। 1950 में ही 15 दिसंबर को सरदार पटेल का निधन हो गया। भारत के नए संविधान के अंतर्गत 1952 में संपन्न प्रथम आम चुनाव के बाद पुन: राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति चुन लिया गया। जानकार पुष्टि करेंगे कि तब भी नेेहरू ने राधाकृष्णन के लिए मन बना रखा था। किंतु राजेंद्र प्रसाद को मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण नेहरू सफल नहीं हो पाए। नेहरू को सबसे बड़ा झटका तो 1957 के राष्ट्रपति चुनाव में लगा। नेहरू ने तब राधाकृष्णन के पक्ष में सहमति बनाने कीकोशिश की थी। उन्होंने दक्षिण के चारों प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर दक्षिण के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने की इच्छा जाहिर की थी। जाहिर है कि उनका ईशारा राधाकृष्णन की ओर था। नेहरूजी की इच्छा की अनदेखी करते हुए चारों मुख्यमंत्रियों ने जवाब दिया कि जब तक डॉ. राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, उन्हें ही दोबारा राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। राजेंद्र बाबू की ऐसी व्यापक स्वीकृति के आगे नतमस्तक, हताश नेहरू कुछ नहीं कर पाए। डॉ. प्रसाद 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। इन ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में नरेंद्र मोदी का दावा निश्चय ही खोखला लगता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बने थे तो अपनी योग्यता के कारण-किसी व्यक्ति विशेष के कारण नहीं।
नरेंद्र मोदी का दूसरा दावा भी सच से कोसों दूर है। उनका यह दावा बिल्कुल गलत है कि जयप्रकाश नारायण ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि 1977 में कें द्र में  कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बन रही थी तब जयप्रकाश नारायण प्रधानमंत्री के रूप में जगजीवन राम को देखना चाहते थे। जनता पार्टी के तत्कालिन अध्यक्ष चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे। किंतु जगजीवन राम और चंद्रशेखर के नामों पर आम सहमति नहीं बन पाने के कारण तीसरे मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया।
इस सचाई से अच्छी तरह अवगत होने के बावजूद नरेंद्र मोदी अगर इतिहास को झूठला रहे हैं तो निश्चय ही उनकी मंशा संदिग्ध हो उठती है। ये वही नरेंद्र मोदी हैं और वही बिहार है जिसके मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ने बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव प्रचार के लिए मोदी को बिहार आने से वंचित कर दिया था। अभी हाल ही में नीतीशकुमार ने नरेंद्र मोदी को तगड़ा झटका देते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी का प्रबल विरोध किया था।  ऐसे में बिहार के साथ गुजरात का कथित रूप से पुराना संबंध रेखांकित करने वाले नरेंद्र मोदी की मंशा साफ है। गुजरात से बाहर निकल राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की कोशिश करने वाले मोदी बिहार के महत्व से अच्छी तरह परिचित हंै। उनके ऐसे प्रयास पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपत्ति तो इस बात पर है कि मोदी ने बिहार के साथ संबंध स्थापित करने के लिए लचर क्षेत्रीयता का सहारा लिया। बेहतर हो मोदी ऐसे हथकंड़ों का सहारा न लें। सुकर्मों के द्वारा पहले अपनी छवि को राष्ट्रीय स्वीकृति दिलवाएं।

Monday, July 30, 2012

राहुल पर न्यौछावर लोकतंत्र!


'...विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र...! गौरवशाली लोकतंत्र...!! सफल लोकतंत्र !!!
देश-विदेश में गर्व के साथ इन शब्दों को प्रचारित - प्रसारित किया जाता है। सीना तान कर बताया जाता है कि भारत वह देश है, जहां पिछले छह दशक से अधिक समय से संसदीय लोकतंत्र सफलता पूर्वक चल रहा हैं। व्यस्क मताधिकार द्वारा जनता के द्वारा चुने हुए प्रतीनिधि सत्ता संचालित करते हैं। नि:संदेह ऐसा ही होता हैं। किंतु, यह सब कुछ कागजों पर। व्यवहार के स्तर पर ,लोकतंत्र की आड़ में  छल और सिर्फ छल होता है। विशेषकर जब शीर्ष पद अर्थात प्रधानमंत्री के चयन की बात आती है। तब लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचन नहीं बल्कि नेतृत्व द्वारा 'नामित' किए जाने की परंपरा चल पड़ी है। राजतंत्र में जारी वंशवाद की परंपरा के अनुरूप लोकतंत्र के साथ छल और बलात्कार की बेशर्म गाथा है यह। छल इसलिए कि सब कुछ लोकतंत्र के आवरण में, बलात्कार इसलिए कि परिवार विशेष में तैयार किसी 'खास' की तयशुदा ताजपोशी! बानगी देखना है, तो देख लें- '.....राहुल गांधी को इसलिए केंद्रीय मंत्रि मंडल में शामिल हो जाना चाहिए ताकि वे सरकारी कामकाज के अनुभव प्राप्त कर भविष्य में प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल सके'। नेहरू-गांधी परिवार के खुशामदी कांग्रेसी नेता मंत्री खुलेआम ऐसा बयान दे रहे हैं। क्या यह लोकतंत्र क ी अवधारणा के साथ बलात्कार नहीं? लोकतांत्रिक देश के साथ छल नहीं। बिल्कुल ऐसा ही है। देश के अभिभावक दल के रूप में परिचित कांगे्रस दल की ओर से ऐसे छल पर देश का लोकतंत्र हमेशा शर्मिंदा होता आया है। चाहे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चयन का मामला हो, उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के चयन का मामला हो या फिर इंदिरा-पुत्र राजीव गांधी की प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति का मामला हो, हर बार देश के लोकतंत्र के साथ छल किया गया-कपट-खेल खेला गया। और अब वंशवाद के ताजा प्रतीक राहुल गांधी के लिए भी ऐसे ही 'नाटक' के मंचन की तैयारी शुरू हो गई है। बिल्कुल एक 'युवराज' की ताजपोशी की है यह तैयारी! क्या यह लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं? दु:ख और शर्म इस बात का कि यह सब कुछ होगा लाकेतंत्र के नाम पर। जब कभी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया जाएगा, लोगों की आंखों में धूल झोंकते हुए 'लोकतंत्र' का खेल खेला जाएगा। संसदीय दल की बैठक होगी, राहुल का नाम प्रस्तावित होगा और सर्व सम्मान से कथित 'निर्वाचन' की प्रक्रिया पूरी की जाएगी। राष्ट्रपति को अग्रसारित अनुशंसा पत्र में कहा जाएगा कि सर्व सम्मति से प्रधानमंत्री के लिए राहुल गांधी के नाम मुहर लगाई गई है। लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद को सींचित करने की ऐसी परंपरा पर क्या कभी विराम लग पाएगा? यह आश्चर्यजनक है कि लगभग सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश में देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस को नेतृत्व के लिए सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के आंगन में जाना पड़ता है। अगर परिवार की ओर से कोई अदभूत क्षमता या अतुलनीय नेतृत्व वाला कोई सुपात्र सामने लाया जाता है तब किसी को भी आपत्ति नहीं होगी। वंश के नाम पर भी किसी को आपत्ति नहीं होगी। वंश के नाम पर किसी योग्य पात्र को अस्वीकार करना गलत होगा। लेकिन यहां तो 'पात्र' ही लचर है, कमजोर है। कतिपय कांग्रेस नेताओं की ओर से राहुल के पक्ष में उठाई जाने वाली आवाज असुरक्षा की बुनियाद पर चाटुकारिता की अति है। समझ में नहीं आता कि विशाल कांग्रेस के अंदर इन्हें कोई और 'सुयोग्य' पात्र क्यों नहीं मिल रहा। अगर कांग्रेस दल सचमुच लोकतांत्रिक है तब वह 'वंश' के वाड़े से बाहर निकल कुशल, योग्य पात्र की तलाश करे । कांग्रेस के पतन को रोकने का यह एक तरीका होगा।
सिर्फ नेता के चयन में ही कांग्रेस लोकतंत्र को नहीं रौंद रही। अन्य मामलों में भी उसने तानाशाही अलोकतांत्रिक रवैया अपना रखा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध और लोकपाल की नियुक्ति को लेकर चलाए जा रहे अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति कांग्रेस का रवैया हर दृष्टि से अहंकार व तानाशाही की श्रेणी का है। एक केंद्रीय मंत्री का वक्तव्य कि, '.....अन्ना टीम अपनी मांगों की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र में जाए', देश के लोकतंत्र का अपमान है। टिप्पणीकार मंत्री इस सचाई को कैसे भूल गए कि वे संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त मंत्री नहीं बल्कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नियुक्त मंत्री हैं।
मंत्री का बोल ठीक वैसा ही है जैसा 70 के दशक में आपात काल के पूर्व जयप्रकाश आंदोलन को लेकर कांग्रेस के मंत्री बोला करते थे। तब कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री ने आंदोलन के प्रणेता जयप्रकाश नारायण के लिए टिप्पणी की थी कि 'उन्हें (जेपी) असली 'मुकाम' पहुंचा दिया जायेगा।' देश जानता है, तथ्य इतिहास में दर्ज हो चुका है कि जनता ने तब कांगे्रस को ही असली 'मुकाम' पर पहूॅंचा दिया था। ऐतिहासिक सबक दी थी। क्या कांग्रेस इतिहास की पुनरावृत्ति चाहती है?

Thursday, July 19, 2012

पश्चिम की नई खतरनाक साजिश !


अब तो हद हो गई! पहले अमेरिकी पत्रिका 'टाइम', फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और अब इग्लैंड का दैनिक अखबार 'द इंडिपेंडेंट'! ये सभी हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दिशाहीन, भ्रष्ट मंत्रियों के समूह का मुखिया  और 'सोनिया का गुड्डा' निरूपित कर रहे हंै।  भारत की बढ़ती ताकत व प्रगति से ईष्र्या करने वाले पश्चिमी देशों की ऐसी टिप्पणियों को हमने रद्दी की टोकरियों में फेंक दिया है। हमें अपने प्रधानमंत्री की योग्यता, ईमानदारी और कार्य कुशलता पर इनके प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। पश्चिम के शासक और उनके पिठ्ठू पत्रकार यह न भूलें कि भारत, वह भारत नहीं जिसकी उदारता का फायदा उठा छल-कपट से उन्होंने लगभग 200 वर्षो तक गुलाम बना रखा था। वह तो भोला 'भारतीय मन' था जिसे  गुमराह करने में अंग्रेज सफल हुए थे। लेकिन असलियत सामने आने पर उठी विद्रोह की ज्वाला में झुलस  अंग्रेजों को सात समंदर पार वापस जाने को मजबूर होना पड़ा था। संभवत: उन दिनों की 'कसक' के वशीभूत, स्वयं को सर्व शक्तिमान मानने वाले पश्चिम के देश हमारे शासकों पर अश्लील टिप्पणि कर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।  इन भड़ासों की तह में छुपे हैं इनके वे स्वार्थ जो अब भारत पूरा नहीं कर पा रहा। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को अनुमति नहीं दिए जाने से तिलमिलाए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अभी हाल में हमारी आर्थिक नीति की आलोचना की थी। अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा लांघ हमारे  आंतरिक मामलों में दखल देने वाले ओबामा भूल गए कि  हमारे इसी प्रधानमंत्री मनमोहन ने सन 2008 में परमाणु उर्जा पर अमेरिका के साथ करार के पक्ष में भारत सरकार के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया था। तब देश में मनमोहन सिंह पर अमेरिका परस्त होने के आरोप लगे थे। आज वही मनमोहन अमेरिका-इग्लैंड की नजरों में दिशाहीन हो गए। यह तो भारत का मजबूत लोकतंत्र है, जो किसी को भी मनमानी करने की छूट नहीं देता। चाहे वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या कांग्रेस अध्यक्ष व सप्रंग प्रमुख सोनिया गांधी ही क्यूं ना हो! अमेरिका-इग्लैंड की पत्रिका, समाचार पत्र व अमेरिकी राष्ट्रपति की टिप्पणियों पर सप्रंग सरकार व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आलोचक तथा विपक्ष खुश न हों। हमारे प्रधानमंत्री नकारा हैं, दिशाहीन हैं, कठपुतली हैं, गुड्डा हैं या भ्रष्ट मंत्री परिषद के मुखिया, इसका फैसला तो समय आने पर देशवासी स्वंय करेंगे।  विचारणीय यह है कि पश्चिमी देशों से अचानक ऐसे आक्रमण क्यों हो रहे हैं। ध्यान रहे, ऐसे सभी आक्रमणों के केंद्र बिंदु एक अकेले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। वह मनमेाहन सिंह जिनका अपना कोई राजनीतिक आधार नहीं है। अगर वे प्रधानमंत्री पद पर बने हुए हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कृपा से। यह कड़वा और दु:खद तथ्य भारत के राजनीतिक इतिहास में  मोटी रेखा से  चिंहित है। भारत का बच्चा-बच्चा इस तथ्य से परिचित है। कांग्रेस नेतृत्व की सप्रंग सरकार के घटक दल हों या विपक्षी दल, सुविधानुसार सभी इसे बहस का मुद्दा बनाते रहे हैं। इस खुली सचाई के बावजूद पश्चिमी मीडिया द्वारा इसे तूल दिए जाने का अर्थ है कि कहीं कोई गहरी साजिश रची जा रही है। ऐसी साजिश जिसकी परिणति उनके मनोनुकूल सत्ता परिवर्तन के रूप में हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा ।  इस शंका की गहरी छानबीन के बाद पता चलेगा कि षडयंत्र में हमारे कुछ 'अपने' शामिल हैं। यह संभव है। देश के इतिहास में जयचंदों और मीरजाफरों की उपस्थिति हमेशा दर्ज रही है। अनजाने में ही सही, पश्चिमी मीडिया ने जमीर को जगाने के लिए हर भारतीय का आह््वान कर डाला है। हमारा आग्रह है कि इस मुकाम पर पक्ष-विपक्ष एक हो जाएं। आजादी की लड़ाई के लक्ष्य और इसके लिए प्राणों की आहुति देने वालों को भूल देश के साथ गद्दारी न करंे। हजारों-लाखों कुर्बानियों के बाद हमने लक्ष्य हासिल किया। आज वही पश्चिमी कौम भारत को आर्थिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ अपरोक्ष में उस पर शासन करना चाहते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री के खिलाफ पश्चिम की ताजा सुगबुगाहट से साफ संकेत मिल रहे हैं कि उन्होंने साजिश को अंजाम तक पहुंचाने के लिए गति बढ़ा दी है। यह एक ऐसा संकट है जिसका मुकाबला दलगत राजनीति का त्याग कर एकजुट हो एक 'भारतीय परिवार' के रूप में करना होगा। यह साजिश अथवा संकट कोई कोरी कल्पना नहीं। इस संभावना के पुख्ता आधार स्पष्टता से दृष्टिगोचर हैं। सत्ता परिवर्तन तो लोकतंात्रिक पद्धति की स्वाभाविक प्रक्रिया है।  किंतु, किसी परिवार विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के पक्ष में अगर अंजाम की कोशिश होती है तो इसे सफल नहीं होने दिया जाना चाहिए। चुनौती है सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को और चुनौती है मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और अन्य विपक्षी दलों को भी। और हां, कोई यह न भूले कि इस संघर्ष में उनके योगदान को अंतत: देश की जनता अपनी कसौटी पर कस अंतिम निष्कर्ष निकालेगी।

Sunday, July 15, 2012

शर्मसार तो मीडिया बिरादरी हुई !


क्षमा करेंगे, शर्मसार तो हमारी मीडिया बिरादरी ने भी किया। गुवाहाटी की सड़क पर सरेआम एक किशोरी को बे-आबरू करने वाले मनचलों को उम्रकैद क्या,फांसी दे दो! कोई उफ नहीं करेगा। कानून-व्यवस्था की रखवाली पुलिस के महानिदेशक जयंत चौधरी को भी इस टिप्पणी के लिए दंडित किया जाए कि 'पुलिस कोई 'एटीएम' मशीन नहीं है', तो किसी को गम नहीं होगा। असम सरकार को भी बर्खास्त कर दिया जाए, लोग खुश होंगे। किंतु, इन सबों के साथ घटना-स्थल पर मौजूद, चश्मदीद मीडिया कर्मियों के खिलाफ भी अन्य लोगों के सदृश कड़ी कार्रवाई क्यों न हो? क्या कोई बताएगा कि किसी भी कोने से ऐसी मांग क्यों नहीं उठी? नागरिक अधिकारों की मांग करने वालों को नागरिक कर्तव्य और दायित्व की जानकारी भी होनी चाहिए। लोकतंत्र में जान-माल, आबरू की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की तो है, किंतु नागरिक कर्तव्य भी चिंहित हैं।
इससे मुंह मोडऩे वालों को अपराधी क्यों न घोषित किया जाए? गुवाहाटी की सड़क पर जब उस किशोरी को एक दर्जन से अधिक दरिंदे नोच-खसोट रहे थे, निर्वस्त्र कर रहे थे,तब मीडिया कर्मियों सहित वहां मौजूद भीड़ ने उसे बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बने मीडिया कर्मी यह तर्क दे नहीं बच सकते कि वो अपनी 'ड्यूटी' कर रहे थे। जब लड़की को नोचा जा रहा था , पीटा जा रहा था, लड़की चीख-चिल्ला रही थी तब घटना को कैमरे में कैद करने की 'ड्यूटी' की सराहना नहीं की जा सकती ।  पीडि़त युवती ने भी आरोप लगाया है कि मिन्नत-चिरौरी करने के बावजूद घटना स्थल पर मौजूद मीडिया कर्मियों ने उसकी मदद नहीं की ।
नागरिक कर्तव्य का निष्पादन करते हुए उन्हें आगे बढ़ उस युवती को दरिंदों के हाथों से छुड़ाना चाहिए था। घटना की जो विडियो किल्पिंग सार्वजनिक हुई उस से साफ पता चलता है कि मीडिया कर्मियों की दिलचस्पी युवती को बचाने में नहीं बल्कि मनचलों की अश्लील हरकतों को कैमरे में कैद करने में थी। कैमरे की आंखें प्रतीक्षा कर रही थीं कि वह युवती कब और कैसे निर्वस्त्र की जाती है।
क्या यह 'ड्यूटी' हुई? बिल्कुल नहीं ! यह तो एक अश्लील कृत्य में भागीदार बनना हुआ। प्रतिदिन हर पल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार की दुहाई देने वाले मीडिया कर्मियों से गुवाहाटी ही नहीं बल्कि पूरा देश जानना चहेगा कि क्या आंखों के सामने हो रहे अपराध को रोकना उनका कर्तव्य नहीं है। अगर मीडिया कर्मियों को अपने नागरिक कर्तव्य का एहसास होता तो वे पहल करते -भीड़ भी उनका साथ देती-और तब निश्चय ही गुंडे युवती के साथ मनमानी नहीं कर पाते। मनचले-गुंडे घटना स्थल पर ही दबोच लिए जाते। मीडिया कर्मियों को 'खबर' तब भी मिल जाती। खेद है कि उन्होंने नपुंसक भीड़ का हिस्सा बनना पसंद किया। सन्  2002 में सूरत दंगों के दौरान भी मीडिया कर्मियों ने पूरी बिरादरी को शर्मशार कर दिया था। तब गुंडों के हाथों निर्वस्त्र हुई युवतियां सड़कों पर भाग रही थीं, गुंडे पीछा कर रहे थे। मीडिया कर्मी तब भी युवतियों को बचाने की जगह निर्वस्त्र युवतियों को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। हो सकता है कि ऐसे मीडिया कर्मी कानून के अपराधी न हों, लेकिन समाज के अपराधी तो वे बन ही जाते हैं। गुवाहाटी की घटना पर तो हमारा सिर शर्म से झुक गया, मीडिया कर्मियों की 'नपुंसकता' पर तो हम बेजुबां बन बैठे हैं। अघोषित विशेषाधिकार से लैस मीडिया जगत क्या इस पर आत्मचिंतन करेगा?

Sunday, July 8, 2012

न्यायपालिका भी हवा के 'रुख' के साथ !


हालांकि टिप्पणि अरुचिकर होगी, संभवत: न्यायालय की अवमानना भी, परंतु, आम लोगों की स्वस्फूर्त पहली प्रतिक्रिया देश के सामने आनी चाहिए। अपने लिए यह कर्तव्य भी है और दायित्व भी। आय से अधिक संपत्ति के मामले में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री को सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को लोग पचा नहीं पा रहे। केंद्रीय जांच ब्यूरो(सीबीआई) द्वारा मायावती के खिलाफ दायर एफआईआर को रद्द कर सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर भले ही न्याय किया हो, किंतु न्याय होता हुआ नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में लोग  'राजनीतिक हस्तक्षेप' की झलक देख रहे हैं। दबी जुबान से नहीं, बल्कि लोग खुलकर कह रहे हैं कि केंद्र, विशेषकर कांग्रेस, के साथ किसी 'समझौते' की ऐवज में मायावती को अदालती राहत मिली है। सत्ता के ईशारे पर नाचने वाली सीबीआई ने भले ही अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर मायावती के खिलाफ मामला दर्ज किया हो, परंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में सीबीआई  जांच की अनदेखी क्यों की गई। जबकि, जांच एजेंसी जांच की अद्यतन स्थिति से अदालत को हमेशा अवगत कराती रही। तब अदालत का मौन और अब मायावती को राहत से सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय की भूमिका पर भी संदेह पैदा होना स्वाभविक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आदेश देने वाले विद्वान न्यायधीशों ने अपने एक सहयोगी न्यायधीश की उस टिप्पणी को 'आदर्श' मान लिया जिसमें कहा गया था कि 'बुद्धिमान हमेशा हवा के रुख के साथ चलते हैं'। कांग्रेस को केंद्र में अपनी सत्ता बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ मायावती की भी जरूरत है, इसे सभी जानते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसी जरूरतें सौदेबाजी से ही पूरी की जाती रही हंै। राजदलों की जरूरतों की पूर्ति में न्यायपालिका की सहभागिता दुखद है । देशभर में न्यायपालिका के खिलाफ व्याप्त ऐसी कुशंका का निराकरण स्वयं न्यायपालिका को करना होगा। अब तो चर्चा यहां तक होने लगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद मुंबई का कुख्यात आदर्श घोटाला कांड भी कहीं दफन ना हो जाए। सीबीआई की ओर से महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और कतिपय अन्य प्रभावशाली राजनीतिकों तथा अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सीबीआई अधिकारी का 24 घंटे के अंदर तबादले में निहित संदेश साफ है। कांग्रेस शासित राज्य सरकार की ओर से अदालत में पहले ही चुनौती दी जा चुकी है कि मामले की जांच सीबीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। एफआईआर दर्ज कराने के बाद  सीबीआई अधिकारी ने संकेत दिया था कि दो अन्य मुख्यमंत्री, जो अब केंद्र में मंत्री हैं, के खिलाफ भी कार्रवाई  हो सकती है। उक्त अधिकारी के तबादले से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि सीबीआई के जो अधिकारी निष्पक्षता, निडरता और ईमानदारी से काम करेंगे उन्हें दंडित होना होगा। कुछ दशक पूर्व बिहार में कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के घर सीबीआई के छापे पडऩे के बाद सीबीआई के संबंधित अधिकारी अरूल को तत्काल वापस उनके कैडर तमिलनाडू भेज दिया गया था। बोफोर्स कांड, सेंड किट्स मामला, एयर बस, हवाला मामले में जैन बंधुओं की डायरी का रहस्योद्घाटन, झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, पॉंडेचेरी लायसेन्स घोटाला, लखुभाई पाठक धोखाधड़ी कांड आदि ऐसे अनेक मामले सीबीआई पर 'राजनीतिक प्रभाव' की चुगली करते हंै।  सीबीआई तो खैर एक सरकार नियंत्रित जांच एजेंसी है, चिंता न्यायपालिका को लेकर है। अगर न्यायपालिका भी सत्ता पक्ष के राजनीतिक हित साधने का माध्यम बन जाए तब लोकतंत्र के स्वरूप और भविष्य को लेकर बहस तो छिड़ेगी ही। कहते हंै कि कांग्रेस पर मायावती का दबाव था कि राष्ट्रपति चुनाव के पहले उनके खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामले को खत्म किया जाए। हो सकता है ऐसा नहीं हो, किंतु अदालती फैसले का समय अर्थात 'टाइमिंग' संदेह पैदा करने वाला है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई के इस्तेमाल से आगे बढ़ते हैं। जब राजनीतिक विरोधियों के समर्थन के लिए सीबीआई के साथ-साथ न्यायालय का 'उपयोग' होने लगे तब सरकार व न्यायपालिका दोनों अविश्वसनीय बन जाएंगी। चंूकि, लोकतंत्र में सत्ता पर एकाधिकार संभव नहीं, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखने के साथ-साथ निष्पक्षता को भी चिन्हित करना होगा। 

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का सच, डॉ. कलाम का झूठ!


भारतीय राजनीत और समाज का यह कैसा विद्रूप चेहरा जो डॉ. कलाम जैसे सर्वमान्य व्यक्तित्व को कटघरे में खड़ा कर दे! डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम न केवल देश के पूर्व राष्ट्रपति हैं बल्कि, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक भी हैं। राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल को विवादों से दूर स्वच्छ-निर्मल निरूपित किया जाता रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश का बहुमत उन्हें फिर राष्ट्रपति के रूप में देखने का इच्छुक था। वही डॉ. कलाम आज अगर विवादों के घेरे में हैं तो क्यों ? दु:खद तो यह कि इस दु:स्थिति के लिए स्वयं डॉ. कलाम जिम्मेदार हैं। ताजा तथ्य, जो स्वयं डॉ. कलाम ने उपलब्ध करवाये हैं,  इसी बात की चुगली कर रहे हैं।
डॉ. कलाम का यह कहना कि सन् 2005 में जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा भंग करने के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया था, तब उन्होंने स्व-विवेक की जगह देश हित को तरजीह दी थी। ऐसा उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 'गिड़गिड़ाने' पर किया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से विचलित राष्ट्रपति कलाम ने तब राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था। अपना त्याग पत्र भी लिख चुके थे। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 'मिन्नत' की कि अगर वे इस्तीफा देंगे तब सरकार गिर जाएगी। राष्ट्रपति कलाम मान गए । क्या कलाम का वह कदम सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का अनादर नहीं था? जब सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा भंग करने की कार्रवाई असंवैधानिक बताया था तो विधानसभा भंग करने के आदेश पर विदेश की धरती पर अर्धरात्रि में हस्ताक्षर करने वाले कलाम को पद पर बने रहने का कोई हक नहीं था। कम से कम नैतिकता की तो यही मांग थी। सरकार गिरती, तो गिरती। बहुमत होने के कारण सरकार तो कांग्रेस नेतृत्व के संप्रग की ही बनती। हां, प्रधानमंत्री बदल जाता । लेकिन, तब डॉ. कलाम अपनी ख्याति के अनुकूल आदर्श पुरुष बन जाते। डॉ. कलाम वहां चूक गए । अपनी पुस्तक में उक्त घटना का वर्णन कर डॉ. कलाम 'नायक' नहीं 'खलनायक' बन गए।
डॉ. कलाम अपनी ताजा पुस्तक 'टर्निंग प्वाइंट्स' में यह भी खुलासा करते हैं कि सन 2004 में उन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोका था। राजनीतिक दलों के भारी दबाव के बावजूद वे सोनिया को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। ध्यान रहे, तब यह बात सामने आई थी कि कलाम के विरोध के कारण सोनिया ने 'त्याग' करते हुए मनमोहनसिंह को प्रधानमंत्री बनाया था। हमेशा विवादस्पद मुद्दों को उठा चर्चा में रहने वाले सुब्रमह्ण्यम स्वामी के अनुसार कलाम ने गलतबयानी की है। स्वामी का दावा है कि कलाम ने ही सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोका था। स्वामी ने कलाम को चुनौती दी है कि वे17 मई 2004 को सोनिया को लिखी चिट्ठी को सार्वजनिक करें, जिसमें उन्होंने सोनिया के साथ पूर्व निर्धारित मुलाकात को रद्द करते हुए बाद में प्रधानमंत्री के मुद्दे पर चर्चा के लिए बुलाया था। स्वामी यहां तक दावा करते है कि उस दिन स्वयं कलाम ने उन्हें बताया था कि सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने में कानूनी अड़चन है। अब, या तो डॉ. कलाम झूठ बोल रहे हैं या फिर डॉ. सुब्रमह्ण्यम स्वामी। एक ओर देश के पूर्व राष्ट्रपति, दूसरी ओर प्रतिष्ठित हार्वर्ड यूनिर्वसिटी के पूर्व प्रोफेसर! झूठ और सच के इस भंवर जाल में कौन झूठा और कौन सच्चा? इसका फैसला एक न एक दिन जनता कर ही देगी।

Sunday, July 1, 2012

वरुण के दो टूक पर यह कैसा राष्ट्रीय मौन?


यह कैसा देश, कैसा लोकतंत्र जहां एक निर्वाचित सांसद सार्वजनिक रुप से यह कहता है कि सांसद और विधायक की उम्मीदवारी के लिए 'बैंक बैलेंस' देखा जाता है, पारिवारिक पाश्र्व को अहमियत दी जाती है! क्या सचमुच 'धन' और 'वंश' ने पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपने मजबूत आगोश में जकड़ रखा है? अगर यह सच है तो तय मानिए कि आदर्श लोकतंत्र की मौत निकट है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और युवा भाजपा सांसद वरुण गांधी दो टूक शब्दों में जब इन बातों की पुष्टि करते हैं, तब इस पर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस होनी ही चाहिए थी। आश्चर्य है कि वरुण के शब्दों को मीडिया ने भी एक सामान्य खबर की तरह छोटा स्थान दिया। क्यों? पड़ताल और बहस इसपर भी होनी चाहिए। कुछ दिनों पूर्व भारत के सर्वाेच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने जब भारत के मुख्य सेनापती एक मामले की सुनवाई करते हुए सुझाव दिया था कि 'बुद्धिमान वही होता है, जो हवा के रुख के साथ चलता है', तब भी मीडिया की भूमिका कुछ ऐसी ही थी। जबकि उस पर राष्ट्रीय बहस शुरु कर तार्किक परिणति पर पहुंचा जाना चाहिए था। अभी कुछ दिनों पूर्व निजी बातचीत में एक सांसद ने स्वीकार किया कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने लगभग 10 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें से 2 करोड़ रुपए मीडिया पर खर्च करने पड़े थे। बता दूं, अपनी व्यापक लोकप्रियता के बावजूद उपसांसद को चुनाव में इतनी बड़ी राशि खर्च करनी पडी थी। बहरहाल, बातें वरुण के शब्दों की। 
वरुण शायद गलत नहीं है। उन्होंने तो सांसद के रुप में स्वयं की पात्रता को भी बहस का मुद्दा बना डाला है। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि वे सांसद बने तो सिर्फ इसलिए कि वह नेहरु-गांधी परिवार के वंशज हैं। इस साफगोई के बाद कम से कम उनके शब्दों में निहित किसी अन्य मंशा की बात तो नहीं ही उठाई जा सकती। न केवल बड़े राष्ट्रीय दलों, बल्कि क्षेत्रीय दलों के विधायकों, सांसदों की सूचियों के अध्ययन से वरूण आरोप सही साबित होंगे। आजादी के बाद आरंभिक काल में शुरु इस रोग ने अब विकराल रुप धारण कर लिया है। हाल कि दिनों में संपन्न चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की भरमार रही। अपवाद स्वरूप कुछ नामों को छोड़ दें तो अधिकांश ऐसे ही पाश्र्व के उम्मीदवार देखने को मिलेंगे। राज्यसभा और विधानपरिषद के लिए तो शायद धन और वंश ही पात्रता की पहली शर्त रही। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में क्षेत्रीय और जातीय मजबूरी को छोड़ दें तो उम्मीदवारी के लिए 'धन' और 'वंश' की योग्यता अनिवार्य रहती है। निश्चय ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने ऐसी शर्मनाक अवस्था की कल्पना नहीं की होगी। क्या कोई लोकतंत्र के लिए कलंक और राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरनाक इस 'रोग' के खिलाफ उठी आवाज को बल प्रदान करेगा? चूकि वरूण गांधी मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, हमारी पहली अपेक्षा भाजपा नेतृत्व से है। दूसरे राजनीतिक दलों से पृथक चाल-चरित्र का दावा करनेवाली भाजपा के नेतृत्व के लिए यह न केवल चुनौती है बल्कि उसकी परीक्षा भी है। देश की युवा पीढी चूकि भाजपा को राष्ट्रीय विकल्प के रुप में देख रही है, उसे इस कसौटी पर खरा उतरना होगा। विफलता की हालत में वह देश की अपराधी बन जाएगी। सत्ता पक्ष के रुप में कांग्रेस को भी आगे आकर वरूण के आरोंपों का जवाब देना होगा। हाल में संपन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी नेतृत्व पर धन लेकर टिकट बांटने के आरोप लगे थे। चुनाव में शर्मनाक हार के बाद ऐसे उम्मीदवारों को एक कारण बताया गया था। वंशवाद की तो जनक ही कांग्रेस है। आज अगर प्राय: सभी दलों में यह रोग व्याप्त है तो इसके प्रणेता के रुप में कांग्रेस को ही मुख्य अपराधी माना जाएगा।
इस अति गंभीर बहस को किसी एक दल में सीमित कर महत्व को घटाया नहीं जाना चाहिए। अपराधी सभी दल हैं। ऐसे में चुनौती है उन सभी को कि अगर वे सचमुच लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं तब दलगत प्रतिबद्धता से पृथक हो इस रोग के विरोध में सामने आएं। अन्यथा, सभी राजदल राष्टीय आक्रोश का सामना करने को तैयार रहें।  देश की युवा पीढ़ी ऐसे राष्ट्रीय शर्म पर 'राष्ट्रीय मौन'\ कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी।