centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Sunday, February 28, 2010

राजनीति करें कर्मयोगी बनकर, संत बनकर नहीं !

धर्मशास्त्र की मानें तो श्रीकृष्ण ने कहा है - राजनीति कर्मयोग से जुड़ी हुई है। राजनीति करना संतों का काम नहीं है। केवल कर्मयोगी ही राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकता है। अकर्मण्यता से कोई व्यक्ति लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। कर्मयोग के जरिए चित्त की स्थिरता और प्रज्ञा हासिल करनी चाहिए। केवल अज्ञानी व्यक्ति ही अकर्मण्यता के जरिए इस तरह का लक्ष्य प्राप्त करने की सोच सकता है।
क्या श्रीकृष्ण के इन शब्दों पर किसी शोध की आवश्यकता है? द्वापर युग में श्रीकृष्ण द्वारा कही गईं ये बातें आज कलियुग में भी सटीक बैठती है। यह तो बिल्कुल सच है कि राजनीति करना संतों का काम नहीं है। संत अथवा संत प्रवृति के जिन लोगों ने भी राजनीति में प्रवेश किया, वे विफल रहे। चूंकि राजनीति का वर्तमान दौर युवा नेतृत्व का आग्रही है, अतीत पर से पर्दा उठाना जरूरी है। संत और कर्मयोग के बीच के फर्क को समझना होगा। स्वतंत्रता - प्राप्ति के समय के चार व्यक्तियों को यहां उधृत कर इस फर्क को समझाने की कोशिश की जाए। पं. जवाहरलाल नेहरू, डा. राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्मरण करें। डा. राजेंद्र प्रसाद संत प्रवृति के थे। उन्हें सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर बिठा सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण कर्मयोगी तो थे, किंतु उन्होंने स्वेच्छा से सत्ता की राजनीति से स्वयं को अलग कर लिया। नेहरू और पटेल सत्ताशीर्ष पर आसीन हुए। पटेल में संत के गुण थे, दु:खों का बोझ ले, दुनियां से विदा हो गए। नेहरू जमे रहे। उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में स्थापित किया गया। जब - जब उन्होंने संत - आचरण अपनाने की कोशिश की, धोखा खाया। शांति दूत के रूप में संत बन आकाश में सफेद कबूतर उड़ाने वाले नेहरू विश्वसघात का शिकार बने, लेकिन देश ने उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में ही मान्यता दे दी। फिर ऐसा क्यों कि देश की वर्तमान लगभग सभी जटिल समस्याओं के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है। चाहे मामला कश्मीर हो, भारतीय भूमि पर चीनी कब्जे का हो, उत्तर - पूर्वी क्षेत्रों में अशांति का हो, या फिर मामला अतिसंवेदशील सांप्रदायिकता का हो, नेहरू को दोषी ठहराया जाता है। क्यों? इसकी गूढ़ता में जाएंगे, तब अनेक अरूचिकर जवाब सतह के उपर आ जाएंगे। और चूंकि सत्ता पर काबिज राजनीतिकों की पंक्ति में बहुमत अकर्मण्यता का है वे ऐसे जवाबों को उभरने नहीं देंगे। इन्होंने तो प्रचार तंत्र पर कब्जा कर स्वयं को कर्मयोगी घोषित करवा डाला है। बहुरूपिए हैं ये। शाब्दिक अर्थ में नहीं व्यवहार और कर्म की कसौटी पर अज्ञानी हैं ये। ज्ञान का वास्तविक संवर्धन इनके लिए अपाच्य है। युवा पीढ़ी सावधान हो जाए। अगर सचमुच यह वर्ग देश हित में सत्ता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है तब वह सच्चा कर्मयोगी बने। स्थिर चित्त और प्रज्ञा हासिल कर अनुकरणीय उदाहरण पेश करे। विरोध तो होगा किंतु अंतत: अनुसरण कर्ताओं की लंबी पंक्ति उन्हें लक्ष्य पर पहुंचा देंगे। बिक चुके प्रचार - तंत्र की चिल्ल- पों की परवाह वह न करें। उन पर तो स्वार्थ - लालच हावी हो चुका है। वे देशहित की नहीं बल्कि स्वहित की सोचने लगे हैं। भारत जैसे विशाल देश में पक्ष और विपक्ष की राजनीति करना आसान नहीं है। नेहरू का अनुसरण एक सीमा तक ही हो। देश हित में उनकी स्वच्छ नीयत तो अपनाना ठीक होगा, किंतु संसदीय लोकतंत्र में निर्णायक मतदाता को जातीय, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय आधार पर बांटना कतई हितकर नहीं होगा। अनजाने में ही सही नेहरू ऐसे बीज के रोपक बन गए थे। फिर उनका अनुसरण कैसे हो सकता है? लोकतंत्र की सफलता और उसकी मजबूती की पहली शर्त है राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद। इसे कर्म मानकर आगे बढऩे वाले पग ही लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। फिर अगर वरण करना ही है तो राष्ट्रीयता का करें, राष्ट्रवाद का करें न कि सांप्रदायिकता या छद्म धर्मनिरपेक्षता का।

'दैनिक 1857' दिनांक शनिवार 27 फरवरी 2010 का मुख पृष्ठ


समाजवाद पर हावी पूंजीवाद



महंगाई से त्राहिमाम करती आम जनता को राहत की जगह और भी महंगाई के बोझ तले ले जाने वाला यह बजट अंतत: आम जनता के लिए (खास नहीं) त्रासदी दायक सिद्ध होगा। सत्ता पक्ष चाहे जो दावा कर ले, यह बजट देशहित में कदापि नहीं। हां, देश का एक विशिष्ट वर्ग जो पहले से ही खुशहाल है अपनी खुशी के पिटारे में और खुशियां अवश्य डाल लेगा। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इसकी व्यवस्था अवश्य कर दी है।
निष्पक्ष विश्लेषक चकित हैं कि आखिर केंद्र सरकार संविधान के घोष वाक्य में शामिल समाजवाद की तिलांजलि पर क्यों उतारु है? भारत निर्माताओं ने देश के विकास के लिए समाजवाद का पद चुना था, न कि पूंजीवाद का !

Friday, February 26, 2010

यह कैसी पाकिस्तानी घुड़की!

अमेरिकी सुरक्षा कवच से लैस पाकिस्तान के विदेश सचिव सलमान बशीर हमारी ही भूमि पर चेतावनी दे रहे हैं कि 'भारत हमें लेक्चर न दे।' यही नहीं बशीर मुंबई पर 26/11 के हमले की गंभीरता को हवा में उड़ाते हुए यह भी कह गए कि 'भारत ने एक मुंबई हमला झेला है, हम हजारों मुंबई हमले झेल चुके हैं।' भारत के शांत, सौम्य शील गालों पर पाकिस्तान के इस तमाचे के बाद हमारे प्रधानमंत्री क्या जवाब देंगे? अमेरिकी दबाव में झुक कर पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए तैयार होने पर पाकिस्तान के ऐसे रुख की कल्पना किसी ने की थी? साफ है कि पाकिस्तान ने हमें असहाय, मजबूर मान लिया है, वर्ना ऐसी अकड़ वह न दिखाता। उसने अमेरिका के सामने भारत को साष्टांग जो देख लिया है। उसकी धृष्ठता विदेश सचिव के सिर चढ़ कर बोल रही थी।
दोनों देशों के बीच सचिव स्तर पर बातचीत के तत्काल बाद आई पाकिस्तान की ऐसी प्रतिक्रिया गंभीर है। भारत पर आतंकवादी हमलों का मास्टर माइंड हाफिज सईद को सौंपने की मांग भारत करता आया है। भारत ने उसके खिलाफ और दो डॉजियर भी सौंपे, लेकिन पाकिस्तान के विदेश सचिव ने इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कह डाला कि हाफिज सईद पर हमें जो कुछ दिया गया है, वह डॉजियर नहीं बल्कि साहित्य का नमूना मात्र है। क्या यह पाकिस्तान की असली नीयत को रेखांकित नहीं करता? साफ है कि पाकिस्तान किन्हीं गुप्त कारणों से भारत से बातचीत का नाटक रचते हुए समय खरीद रहा है-अमेरिका की मिली भगत से। भारतीय विदेश सचिव अनुपमा राव के साथ बातचीत के दौरान एजेंडा को कश्मीर केंद्रित कर पाकिस्तान ने अपनी कुटिल मंशा का इजहार कर दिया है। बातचीत के पूर्व बशीर ने कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी नेताओं से बातचीत भी की थी। बशीर की यह टिप्पणी भी पाकिस्तानी कुटिलता को चिन्हित करती है कि 'कश्मीर में हो रहे मानवधिकार उल्लंघन से पाकिस्तान चिंतित है।' यही कहीं पाकिस्तानी विदेश सचिव यह ऐलान करने से भी नहीं चूके कि पाकिस्तान कश्मीर में चल रहे संघर्ष को राजनीतिक, कूटनीतिक और नैतिक समर्थन देता रहेगा। क्या इन्हीं सब बातों का ऐलान करवाने के लिए भारत ने पाकिस्तान को बातचीत के लिए आमंत्रित किया था? कश्मीर मुद्दे पर कोई भी समझौता न करने की बार-बार घोषणा करने वाली भारत सरकार को अपने देशवासियों को यह बताना पड़ेगा कि सचिव स्तर की बातचीत में ऐसी क्या चर्चा हुई कि पाक सचिव उत्साहित व आक्रमक नजर आए? शिष्टाचार की मर्यादा तोड़ते हुए पाक सचिव ने भारत को उसकी औकात बताने की कोशिश कैसे की? लेक्चर न देने की चेतावनी और मुंबई हमले का अवमूल्यन कर पाकिस्तान ने भारत को उकसाने की कोशिश की है। क्या हमारे प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार तटस्थ बने रहेंगे? मुझे भय है कि शायद ऐसा ही हो। देशवासियों को भ्रमित करने के लिए कुछ भाषण होंगे, इससे अधिक कुछ नहीं। भारत सरकार और सत्तापक्ष का इतिहास भी इसी बात की चुगली कर रहा है। मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमले के बाद भारतीय संसद ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया था कि 'जब तक आतंकी हमले की योजना बनाने और उसमें मदद करने वाले तत्वों को सजा नहीं मिल जाती तब तक भारत सरकार खामोश नहीं बैठेगी।' पाकिस्तान ने तो अपनी ओर से ऐसी किसी भी संभावना से इंकार कर दिया है। संदिग्धों के खिलाफ भारत द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों का वह मजाक उड़ा रहा है। आतंकी हमले की योजना बनाने वाले और उसके सहयोगी पाकिस्तान में बेखौफ विचरण कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि भारत अपनी ओर से क्या करेगा? मुंबई हमले के बाद पुणे पर भी हमला हो चुका है। पाकिस्तान की अंतर्लिप्तता अंधी आँखें भी देख सकती हैं। फिर किस बात की प्रतीक्षा है भारत सरकार को? सत्तापक्ष के नीतिनिर्णायक और बकौल प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, भारत के भविष्य राहुल गांधी ने 26/11 के हमले के बाद कहा था कि 'हर भारतीय जान की कीमत आतंकियों को चुकानी होगी।' क्या राहुल के शब्द भी लफाजी मात्र थे? आज यह सवाल हर भारतीय की जुबान पर है। पाक विदेश सचिव की हेठी के बाद तो हर भारतीय मन उद्वेलित है। वे जानना चाहते हैं कि आतंकवाद का पोषक, भारत पर आतंकवादी हमलों का जिम्मेदार पाकिस्तान को भारत स्थाई सबक कब सिखाएगा?

Thursday, February 25, 2010

रेल: भारत, भारतीय, भारतीयता!

शाबास ममता! भारतीय रेल सेवा को व्यवसाय की जगह लोकोपयोगी सेवा चिन्हित करने के लिए। यही तो वह जरूरत है जो स'चे अर्थ में आज जनता के हक में लोकतंत्र का परचम लहराती है। लोकतंत्र के इस पहलू की अनदेखी कर आंकड़ों की बाजीगरी से संतुष्ट राजनेता देश का अहित करते आए हैं। हालिया कमरतोड़ महंगाई इन्हीं की देन है। आंकड़ों और शब्दों की लफ्फाजी को हाशिये पर रख रेल मंत्री ममता बनर्जी ने व्यवहार के स्तर पर आम जन की सुध लेने की कोशिश की है।
रेल बजट को टेलीविजन पर देख रहा था। अनेक महान विशेषज्ञ अपनी विषय विद्वत्ता प्रदर्शित कर रहे थे। किसी ने कहा, यह तो आम बजट है। किसी ने कहा रेल मंत्री को आम बजट के आर्थिक पक्ष की जानकारी नहीं। कोई कह रहा था, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर बजट तैयार किया गया है। कोई टिप्पणी कर रहा था कि ममता द्वारा प्रस्तुत बजट अलग रेल बजट की मूल कल्पना के विपरीत है। अत: रेल मंत्रालय को भी आम बजट में शामिल कर लिया जाना चाहिए। टिप्पणी ऐसी भी आई कि, ममता बजट को लेकर गंभीर नहीं हैं, क्योंकि उनकी निगाहें रेल मंत्रालय से दूर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी हैं। इन कथित विशेषज्ञों की राय कोई नई नहीं है। सच तो यह है कुछ अपवाद छोड़ दें तो ऐसे विशेषज्ञ ही देश के विकास के प्रति अगंभीर है। किसी भी विशेषज्ञ ने यह याद दिलाने की कोशिश नहीं की कि वस्तुत: रेल सेवा एक लोकोपयोगी सेवा है- व्यावसायिक नहीं। रेल सेवाएं यातायात की धुरी हैं। भारत की 9& प्र.श. जनता इस सेवा का उपयोग करती है। रेल सेवा का सुखद पहलू यह कि यह भारत, भारतीय और भारतीयता को जोड़ती है। इनका दर्शन कराती है। विशेषज्ञ बेचैन थे कि मालभाड़ा और यात्री किराये में वृद्धि नहीं होने से घोषित परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए धन कहां से आएगा? आम जनता पर भाड़े का बोझ लादकर धन अर्जित करने की कल्पना ही जनविरोधी है। भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में रेल जैसी लोकोपयोगी सेवा के महत्व को पहचाना जाना चाहिए। कोष के लिए अन्य संभावनाएं खंगाली जाएं। रेलवे के पास अनेक ऐसी संपत्ति हैं जिनसे अधिकतम प्रतिफल हासिल किया जा सकता है। सार्वजनिक निजी साझेदारी (पीपीपी) का प्रस्ताव कर ममता ने संकेत दे भी दिए हैं। और अगर जरूरत पड़े ही तो उद्योगों और व्यवसाय का वर्गीकरण कर इस रूप में मालभाड़ा और यात्री किराये में वृद्धि की जाए जिससे आम जन प्रभावित न हो। खाद एवं अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतें इस कारण बढऩे न पाएं। विशेषज्ञों का उपयोग इस हेतु किया जाए।
जहां तक राजनीतिक लाभ की बात है, लोकतंत्र में यह एक सामान्य प्रक्रिया है। सत्तारूढ़ दल हमेशा ऐसा करता आया है। इसके लिए रेलमंत्री की आलोचना करना उचित नहीं। हां, इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी अन्य राज्य का वाजिब हक छीनकर किसी राज्य विशेष को लाभ न पहुंचाया जाए। रेल सेवा को संपूर्णता में भारतीय रेल सेवा की पहचान मिले। यह भी जरूरी है।

Wednesday, February 24, 2010

अमेरिका, पाकिस्तान और आतंकवाद

कहीं ऐसा तो नहीं कि पाकिस्तान के साथ-साथ अमेरिका भी आतंकवाद विरोधी कार्रवाई पर हमें गुमराह कर रहा है! मैं चाहूंगा कि मेरी वह आशंका गलत साबित हो, लेकिन कुछ तथ्य इसके खिलाफ चुगली कर रहे हैं। अमेरिका ने अपने ऊपर 9/11 के हमले के बाद एक दूरगामी रणनीति के तहत अफगानिस्तान और इराक पर हमले कर उन्हें नेस्तनाबूत कर दिया। ईरान को निशाने पर रख छोड़ा है। शंकारूपी धागों के उलझाव के बीच यह तथ्य चिन्हित हुआ कि 9/11 के बाद वहां और कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ। क्यों? हकीकत तो यह भी है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आतंकियों के खिलाफ अमेरिका सैन्य कार्रवाई करता आ रहा है। अमेरिकी शासन की ओर से अनेक बार आधिकारिक घोषणा की जा चुकी है कि पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का केंद्र है। अमेरिका यह भी कहता आया है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों के तार पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं। भारत की मुंबई पर 26/11 को हुए कुख्यात आतंकी हमले में पाकिस्तान का हाथ होना प्रमाणित हो चुका है। अब आइए आलोच्य आशंका पर।
न केवल 26/11 बल्कि उसके आगे-पीछे और अब पुणे विस्फोट का मास्टर माइंड डेविड हेडली अमेरिकी शासन की गिरफ्त में है। हमारी जांच एजेंसियां उससे पूछताछ करना चाहती हैं। मांग यह भी उठी कि अमेरिका हेडली को हमें सौंप दे। सौंपने की बात तो दूर, अमेरिका ने हेडली से पूछताछ की इजाजत भी हमारी जांच एजेंसियों को नहीं दी। आश्चर्यजनक रूप से इस बिंदु पर अमेरिका का रुख बिल्कुल पाकिस्तान की तरह रहा है। 1992-93 के मुंबई शृंृखला बम विस्फोट के मास्टर माइंड दाऊद इब्राहिम व उसके सहयोगी पाकिस्तान में खुलेआम विचरते रहे, सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। 26/11 की घटना को अंजाम देने वालों के संरक्षक पाकिस्तान में बेखौफ घूम रहे हैं। कुछेक गिरफ्तार तो किए गए किन्तु उनके खिलाफ गंभीर अदालती कार्रवाई नहीं हो रही है। एक खूंखार आतंकी को तत्काल जमानत भी मिल गई! हेडली से पूछताछ संबंधी भारतीय अनुरोध को ठुकराकर कहीं अमेरिका आतंक के अपराधियों को किन्हीं अज्ञात कारणों से संरक्षण तो नहीं दे रहा? क्या कारण हो सकते हैं? यह शोध का एक स्वतंत्र विषय है। बिना साक्ष्य के किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं। किन्तु संदेहों के निवारण की अनिवार्यता को चुनौती भी तो नहीं दी जा सकती! भारत के खिलाफ आतंकियों को दूध पिलाकर पाकिस्तान ने वस्तुत: अपने लिए भस्मासुर पैदा कर लिए। हालत यह है कि पाकिस्तानी शासन को आज आतंकवादियों व कट्टरपंथियों के समक्ष नतमस्तक होना पड़ रहा है। खतरनाक रूप से बिल्कुल पाकिस्तान की तरह हमारी अपनी जमीन पर भी आतंकवाद का उद्भव हो चुका है। पुणे बम विस्फोट कांड को अंजाम देने वाले हाथ 26/11 के उलट आयातित नहीं थे। कट्टरतावाद के नारे से दिग्भ्रमित कुछ स्थानीय मस्तिष्क ने उन्हें अंजाम दिया। यह शुरुआत है। इन्हें बगैर विलंब के कुचल दिया जाए। और, साथ ही अमेरिका संबंधी उत्पन्न शंका का निवारण भी तत्काल हो। विश्व के सबसे बड़े आतंकी हमले 9/11 की घटना के बाद का शांत अमेरिका और अशांत भारत-पाकिस्तान की गुत्थी तो सुलझानी ही पड़ेगी।

Tuesday, February 23, 2010

महंगाई का यह कैसा महिमामंडन!

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के मुख से ये क्या कहवा डाला भारत सरकार ने! कमरतोड़ महंगाई का महिमा मंडन! यह तो महंगाई की मार से विलाप कर रही देश की जनता का अपमान है, जले पर नमक छिड़कने सदृश कृत्य है यह। बहादुरी से अपनी गलतियों को स्वीकारकर जनता से क्षमा मांगने की जगह संसद में राष्ट्रपति से यह कहलवाना कि महंगाई सर्वांगीण विकास की सूचक है और यह भी कि महंगाई बढ़ी लेकिन किसानों का फायदा हुआ, भला किसी के गले उतरेगा? सरकार की अर्थनीति की विफलता का ऐसा बचाव हास्यास्पद है। देश की विद्या-बुद्धि को चुनौती है। जनता की सोच की अवमानना है। देश के अनेक क्षेत्रों में विकास दृष्टिगोचर तो है किन्तु इसकी आड़ में महंगाई पर परदा कैसे डाला जा सकता है? और फिर यह कैसा विकास कि आम जनता को दो रोटी के लाले पड़ जाएं? खाद्य वस्तुएं आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएं? गृहिणियां रसोईघर में खाली डब्बों को निहार रोने को मजबूर हो जाएं? आम जन महंगी चिकित्सा के कारण बेइलाज मौत को विवश हो जाएं? खाली जेब के कारण पालक अपने बच्चों को अपेक्षित शिक्षा उपलब्ध न करा पाएं? तन ढंकने के कपड़ों के लाले पड़ जाएं? सिर छुपाने के लिए छत पहुंच से बाहर हो जाए? यहां मैं समाज के उस विशिष्ट वर्ग की बात नहीं कर रहा जो सरकार की अर्थनीति के कारण धन बटोरने में मशगूल है। महानगरों की चकाचौंध, सड़कों पर दौड़ती आलिशान गाडिय़ां, सितारेयुक्त होटलों में फैशन परेड, छलकते जाम और अमीरी प्रदर्शन की होड़! ये सब असली भारत की तस्वीरें नहीं हैं। असली भारत के दर्शन छोटे शहरों, कस्बों, दूरदराज की बस्तियों में ही नहीं, एक विडंबना के रूप में महानगरों में भी किए जा सकते हैं- उपर्युक्त विशिष्ट आभा से पृथक। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई की चकाचौंध के बीचोबीच झोपड़पट्टियों में मौजूद भारत के दर्शन कोई भी कर सकता है। खाने के लिए जूठन, तन ढंकने के लिए फटे कपड़े, झोपड़पट्टियों से होकर गुजरते नालों की सड़ांध, रोशनी के नाम पर अंधेरा, ये सब महानगरों की आलिशान इमारतों के साथ-साथ। इन झोपड़पट्टियों में पैदा बच्चों के लिए शिक्षा कोसों दूर। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि ऐसे बच्चे अपराध की दुनिया में जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं? आंकड़ों की सरकारी बाजीगरी भी एक वर्ग विशेष को ही राहत पहुंचाती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली भारत की जनता की सुध यह विशिष्ट वर्ग सिर्फ आम चुनाव के समय लेता है। शोषित-पीडि़त जनता क्षणिक राहत को आंसुओं के साथ स्वीकार करती है। क्या ये ही सर्वांगीण विकास के नमूने हैं?
सरकार का यह दावा कि महंगाई बढऩे से किसानों का फायदा हुआ है, महंगाई से पीडि़त आम जनता का ही नहीं, स्वयं किसानों का भी अपमान है। अगर किसानों को फायदा पहुंच रहा होता तो फिर देश में किसान आत्महत्या क्यों करते? जिन किसानों ने अपने प्राण गंवाए, उनके परिवार की हालत को देखें। सरकार व कुछ निजी संस्थाओं से मिली सहायता को अगर सरकार 'फायदाÓ समझती है तब ऐसी संवेदनाशून्य सरकार को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि महंगाई से फायदा किसानों को नहीं बल्कि कृषि माफियाओं को हुआ है। उन बड़े, सुखी- संपन्न किसानों को हुआ है जो जमाखोरी व कालाबाजारी के माध्यम से मालामाल होते हैं। कर्ज के बोझ से दबा हुआ आम किसान महंगाई के अतिरिक्त बोझ को सहने में असमर्थ है। किसान आत्महत्या की दर में वृद्धि इसका प्रमाण है। सरकार अगर आम जनता के जले की मरहम पट्टी नहीं कर सकती तो उस पर नमक तो न छिड़के!

Monday, February 22, 2010

मीडिया पर जेठमलानी की अनुचित खीज!

राम जेठमलानी नाराज हैं कि मीडिया उच्च न्यायालय बन गया है। वैसे वे अपने पेशे वकालत से भी नाराज हैं। वकीलों के लिए उनका कहना है कि समाज में उनकी छवि खराब हो गई है। किसी वकील को कोई पड़ोसी के रूप में देखना नहीं चाहता। उनकी छवि समाज में उत्पातियों की बन गई है। जेठमलानी की इस खीज को समझना कठिन नहीं है। मीडिया पर प्रहार करने के साथ-साथ अपने सहयोगी वकीलों को आड़े हाथों लेकर जेठमलानी ने वस्तुत: अपने लिए सुरक्षा कवच ढूंढने की कोशिश की है। ये वही जेठमलानी हैं जो एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के आवास के बाहर एक उत्पाती की तरह धरने पर बैठने के कारण पिट चुके हैं। हालांकि वह घटना पुरानी हो गई किन्तु जेठमलानी की ताजा खीज के संदर्भ में यह बताना जरूरी है कि तब वे वकील के पेशे से संबंधित किसी मुद्दे को लेकर चंद्रशेखर के घर के बाहर धरने पर नहीं बैठे थे। कारण निहायत निजी थे। आज देश की समस्याओं की जड़ में क्या एक कारण यह नहीं कि कतिपय लोग अपने घोषित दायित्व से हटकर आचरण करने लगे हैं? जेठमलानी तब पिटे थे तो इसी कारण। केंद्रीय मंत्री रह चुके जेठमलानी की मीडिया से नाराजगी के कारण भी व्यक्तिगत हैं। उनकी शिकायत है कि अदालत द्वारा बाइज्जत बरी हो जाने के बाद संबंधित व्यक्ति के खिलाफ केवल मीडिया के दबाव पर अपराध दर्ज हो जाता है। जेठमलानी यह भी खुलासा करते हैं कि उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन में ऐसा पहले नहीं देखा है। अव्वल तो जेठमलानी इस बिंदु पर बिल्कुल गलत हैं। दूसरा यह कि जेठमलानी ने उन मामलों की तरफ इशारा किया है जिनकी पैरवी अदालत में उन्होंने की थी। यह ठीक है कि कुछ मामलों में बरी होने के बावजूद मीडिया की सतर्कता के कारण मामले की खामियां और साथ ही दबाव-प्रलोभन उजागर हुए। नतीजतन बड़ी अदालतों ने पुन: मामला दायर कर नए सिरे से मामले की सुनवाई शुरू करवाई। अपराध साबित भी हुए, अपराधी दंडित किए गए। आश्चर्य है कि ऐसे मामले में मीडिया की सराहना करने की जगह जेठमलानी उसकी आलोचना कर रहे हैं। मैं मीडिया के संपूर्ण आचरण का बचाव नहीं कर रहा। बगैर नाम लिए जेठमलानी ने जिन मामलों की ओर इशारा किया है, उस संबंध में यह जरूर कहना चाहूंगा कि मीडिया ने वस्तुत: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के दायित्व का निर्वाह किया है। जेठमलानी ऐसे किसी हाई प्रोफाइल मामले को व्यक्तिगत न बनाएं। वकील के रूप में अच्छे तर्क और छिद्रों से भरे कमजोर कानून का लाभ उठा अपने मुवक्किलों को बरी करवा लेना तो आसान है किन्तु जब न्याय संदिग्ध दिखेगा तब मीडिया उन्हें बेपर्दा तो करेगा ही। यह उसका कर्तव्य भी है और समाज के प्रति दायित्व भी। बड़ी अदालतें ऐसे अनावृत नए तथ्यों का संज्ञान लेकर जब नए सिरे से अपराध दर्ज करने का आदेश देती हैं तो न्याय के पक्ष में ही, न्याय की पवित्रता और निष्पक्षता कायम रखने के लिए। बेहतर हो, जेठमलानी न्याय की इस जरूरत को समझते हुए कुछ मुकदमों में अपनी हार के लिए मीडिया को दोषी ठहराने की जगह उसकी कर्तव्य परायणता की सराहना करें। कथित 'मीडिया ट्रायलÓ कभी-कभी पूर्वाग्रह ग्रसित होते हैं। इससे मैं इन्कार नहीं कर सकता। किन्तु सच-झूठ का फैसला करने के लिए अदालतें तो हैं ही। सिर्फ कुशाग्र बुद्धि और सच को झूठ तथा झूठ को सच बनाने में माहिर वकील 'न्यायÓ नहीं दिलवा सकते। उन्हें संवेदनशील भी होना पड़ेगा। पेशे को कलंकित करने वाले वकीलों की फौज के बीच से सही न्याय के पक्षधर किसी वकील को ढूंढ निकालना मुवक्किलों के लिए आसान नहीं होता। कानून की किताबें वास्तविक न्याय की आग्रही हैं न कि जोड़तोड़ और कुतर्क की।

Sunday, February 21, 2010

क्यों नहीं रह सकते हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ !

अरुचिकर व संवेदनशील तो है, किन्तु सवाल है मौजूं। पूछा जा रहा है कि आखिर हिन्दू और मुसलमान एकसाथ मिलजुलकर भाई-भाई की तरह क्यों नहीं रह सकते?
संविधान और राष्ट्रीयता को ठेंगे पर रखने वाले बाल ठाकरे को छोडि़ए। उनके लिए न कोई राष्ट्र है, न संविधान है और न कायदा-कानून है। सिर्फ एक धर्म, एक भाषा विशेष और राज्य के सिर्फ एक वर्ग के हित की बातें करने वाला सर्वधर्म समभाव आधारित भारतीय संस्कृति को क्या समझेगा? साम्प्रदायिक सौहाद्र्र का अर्थ वे समझ ही नहीं सकते। राष्ट्रीय एकता, भाईचारा, सभी धर्म, वर्ग, भाषा के बीच परस्पर प्रेमभाव उनके गले के नीचे उतर ही नहीं सकता। उनका धर्म तो जातीयता, क्षेत्रीयता और भाषा के पलीते लगाना है। वे अगर भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के मंदिर-मस्जिद समाधान की पहल को ठुकरा देते हैं तो कोई आश्चर्य क्यों करे? अपनी स्वार्थजनित राजनीति चमकाने के लिए ठाकरे ऐसे करतब दिखाते रहते हैं।
सवाल हिन्दू-मुसलमान के बीच परस्पर प्रेम का है, विश्वास का है। जिस भारत की विशाल आबादी में हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ी आबादी (लगभग 15 करोड़) मुस्लिमों की है, वहां यह दोनों समुदाय अलग-अलग कैसे रह सकते हैं? पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासकों की दिमागी उपज द्विराष्ट्र सिद्धांत को आधार बना भारत को खंडित कर पाकिस्तान का उदय एशिया के इस भाग में साम्प्रदायिक अशांति बनाए रखने की चाल थी। सत्तालोलुप कतिपय हिन्दू-मुस्लिम नेताओं को छोड़ दें तो दोनों समुदाय के लोग बंटवारे के खिलाफ थे, मिलजुलकर रहना चाहते थे। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व का इतिहास हिन्दू-मुस्लिम एकता को रेखांकित करता मिलेगा। अंग्रेजों ने चाल चली, हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने के षडय़ंत्र रचे, दंगे करवाए और देश का विभाजन करवा दिया। लेकिन अब इस पर और चर्चा नहीं। उन दुखद घटनाओं को इतिहास में कैद रहने दिया जाए। परिवर्तित नवयुग सर्वधर्म समभाव का आग्रही है। कट्टर धार्मिक वर्जनाओं को वह इन्कार करता है। नई पीढ़ी अब बातें करती है तो विश्व समुदाय की- किसी संकुचित एक या दो समुदाय की नहीं। वैसे संदर्भवश विभाजन के बाद की किसी घटना को याद करना ही है तो उस घटना को याद करें जिसमें जवाहरलाल नेहरू नई दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में स्वयं जाकर उन हिन्दुओं को खदेड़ते देखे गए थे जो मुस्लिमों की दुकानों को लूट रहे थे। हां, बावजूद इसके यह सच अवश्य मौजूद रहेगा कि दोनों पक्षों के शरणार्थी कड़वाहट और बदले की भावनाओं को अपने साथ ले गए। सदियों से शांतिपूर्वक एक साथ रहने वाली दोनों कौमों के दिलों में नफरत और बदले की भावना घर कर रही थी। कारण वही, ब्रिटिश रचित षडय़ंत्र और दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथी।
वर्तमान अंतरिक्ष युग में भी क्या आत्मघाती, साम्प्रदायिक सोच को स्थान मिलना चाहिए? कदापि नहीं! इतिहास बदलकर नया इतिहास लिखा ही जाना चाहिए। दोनों कौमों में मौजूद कट्टरपंथियों को छोड़ दें, सत्तालोलुप कथित नेताओं को छोड़ दें, गली-मोहल्लों में जाकर पता करें तो मालूम होगा कि दोनों कौमों के सदस्य मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं। मंदिर-मस्जिद के झगड़े की जड़ में कट्टरपंथी हैं, नेता हैं, आम हिन्दू या मुसलमान नहीं। जब यह हकीकत है तब फिर दोनों समुदायों के बीच परस्पर विश्वास, प्रेम संभव है।
पहल हो चुकी है। इसे गति दी जाए। कट्टरपंथियों और नेता तो विरोध करेंगे ही, उनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी। वे हरकत में आ भी गए हैं। देवबंदी उलेमा ने अयोध्या में मस्जिद की जगह बदलने से इन्कार कर दिया है। कुछ संतों ने भी गडकरी की पहल को गैरजरूरी करार दिया है। साफ है कि धर्म के कथित ठेकेदार ये तत्व समस्या का समाधान नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि हिन्दू और मुसलमान कभी मिलजुलकर शांतिपूर्वक रहें। साम्प्रदायिक वैमनस्य को जीवित रखकर ही तो ये मंदिर-मंदिर, मस्जिद-मस्जिद का खेल खेल पाएंगे। लेकिन अब समय आ गया है जब इन तत्वों को उनकी औकात बता देनी चाहिए। नई पीढ़ी का नया नेतृत्व यह जिम्मेदारी ले। सर्वधर्म समभाव भारत की सनातन अवधारणा है। यहां सभी विचारधाराओं और दृष्टिकोण के आदर की परंपरा है। एक इस्लामी विद्वान जमाएतुल उलेमा के अध्यक्ष मोहम्मद हुसैन अहमद मदनी ने एक बार कहा था कि ''जिस प्रकार हजरत मोहम्मद ने मदीना में यहूदियों और मुसलमानों की एक संयुक्त राष्ट्रीयता की स्थापना की, उसी प्रकार भारत में भी हिन्दू-मुसलमान को एक राष्ट्रीयता में बांधा जा सकता है।'' महात्मा गांधी ने इसकी कोशिश की थी। वे असफल रहे थे। किन्तु क्या एक असफलता को स्थायी मान लिया जाना चाहिए? जवाब नई पीढ़ी को देना है। धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिए हो, वैमनस्य के लिए नहीं। वर्तमान भारत हर मोर्चे पर शांति का आग्रही है। हिन्दू-मुस्लिम एकता संभव है। जरूरत है ईमानदार प्रयासों की।

Saturday, February 20, 2010

...और तब दिखेगा असली हिन्दुस्तान!

सचमुच अब बहुत हो चुका। आखिर कब तक चलता रहेगा मंदिर-मस्जिद रूपी चूहे-बिल्ली का खतरनाक देश-तोड़क खेल? वोट की राजनीति की पोषक और सत्ता के लिए सामाजिक सौहाद्र्र को भी दांव पर लगाने में नहीं हिचकिचाने वाली तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियां भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक निरूपित कर उस पर प्रहार करती हैं। सुनियोजित तरीके से उसे बचाव की भूमिका अपनाने को मजबूर करने की कोशिशें होती रहीं। उसे अल्पसंख्यक विरोधी के रूप में पेश किया जाना एक फैशन बन गया। साम्प्रदायिकता के पर्याय के रूप में भाजपा को प्रस्तुत करने की एक बड़ी साजिश इन कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने रची। लेकिन अब?
इसी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से जब इतिहास बदल डालने का आह्वान अल्पसंख्यक मुस्लिमों के लिए आया है तब इस अवसर को व्यर्थ न जाने दिया जाए। भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मंदिर और मस्जिद दोनों बनाए जाने का आह्वान कर स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष ताकतों को चुनौती दी है। धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन राजनीति की रोटी सेंकने वाली ये ताकतें बेचैन हो उठी हैं। अगर मंदिर-मस्जिद का मसला शांतिपूर्ण तरीके से सुलझ गया तब तो इनका 'वोटबैंक' दिवालिया हो जाएगा। जाहिर है कि अब ये नई साजिश रचेंगे। विवाद को जीवित रखने के नए तरीके इजाद किए जाएंगे। अंग्रेजों की अंग्रेजियत का लबादा ढोने वाली ये राजनीतिक शक्तियां शासन करने की अंग्रेजी नीति 'फूट डालो और राज करो' की पोषक भी तो हैं! लेकिन छल-कपट की राजनीति का अंत होता ही है। ब्रिटिश शासकों को अंतत: सात समंदर पार इंग्लैंड वापस लौटना ही पड़ा था। हिन्दू व मुसलमानों के बीच फूट डाल राज करने वाले नए देशी हुक्मरान इस सचाई को न भूलें।
मंदिर-मस्जिद के दुर्भाग्यपूर्ण, संवेदनशील विवाद को सुलझाने की दिशा में उठाया गया नितिन गडकरी का सकारात्मक कदम सर्वमान्य-सुखद परिणति का आकांक्षी रहेगा। तेजी से विकसित देशों की श्रेणी में प्रवेश की ओर अग्रसर भारत की जनता अब ऐसी साजिशों का शिकार होना नहीं चाहती। धर्म निहायत निजी आस्था का मामला है। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध सभी की धार्मिक परंपराओं को भारतीय समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। इसे छिन्न-भिन्न करने वाले राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते। अयोध्या में मंदिर और मस्जिद विवाद को हल करने की दिशा में पहली बार भाजपा ने व्यावहारिक कदम उठाने की पहल की है। सराहनीय है यह। इसके पूर्व ऐसा ठोस फैसला कभी नहीं किया गया। यह सुखदायी परिवर्तन का पूर्व संकेत है। हिन्दू-मुसलमान के बीच दूरी पैदा करने का घृणित खेल अंग्रेजी शासकों ने शुरू किया था। 'फूट डालो और राज करो' की उनकी नीति के कारण ही देश का विभाजन हुआ। हां, यह कड़वा सच अवश्य मौजूद है कि तब हिन्दू-मुस्लिम संप्रदाय के कुछ कथित नुमाइंदे भी अंग्रेजों की चाल में फंस दोनों संप्रदायों के बीच दूरियां बढ़ाते रहे। एक-दूसरे के दिलों में परस्पर नफरत पैदा करते रहे। अब तो उन्हें यहां से विदा हुए छह दशक से अधिक हो गए। फिर अब दोनों संप्रदायों के बीच पुराने सद्भाव को वापस क्यों न लाया जाए? इतिहास गवाह है कि सैकड़ों वर्षों तक ये दोनों एक परिवार-एक भाई की तरह मिल-जुलकर रहते आए थे।
विलंब अभी भी नहीं हुआ है। अयोध्या में राम मंदिर और मस्जिद दोनों के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करने की पहल गडकरी ने की है। यह एक अवसर है सभी शिक्षित समाज के मुंह पर साम्प्रदायिकता की कालिख पोतने वालों को बेनकाब कर समुद्र में डुबो देने का। यह अवसर है कड़वाहट को खत्म कर मिठासपूर्ण साम्प्रदायिक सौहाद्र्र कायम करने का। यह अवसर है पूरे विश्व को संदेश भेज देने का कि भारत में विश्व गुरु बनने की सभी पात्रताएं मौजूद हैं। यह अवसर है आतंकवाद की बैसाखी के सहारे देश में सांप्रदायिक आग फैलाने वालों को मौत दे देने का। निश्चय मानिए, तब सचमुच इतिहास बदल जाएगा और तब दिखेगा असली हिन्दुस्तान।

Friday, February 19, 2010

संविधान के अपराधी चिदंबरम!

पी. चिदंबरम अगर नैतिकता का अर्थ समझते हैं, संविधान का सम्मान करते हैं, राष्ट्रभक्त हैं, राष्ट्रीय अस्मिता को कायम रखना चाहते हैं और चाहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र जन-गण इच्छा आधारित रहे, तो वे तत्काल मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दें। कम से कम गृह मंत्रालय का त्याग तो कर ही दें, क्योंकि वे संविधान और देश के अपराधी बन बैठे हैं। आज देश उनके कृत्य पर शर्मिंदा है, संविधान विलाप कर रहा है। जिस गृह मंत्रालय के अधीन व्यवहार के स्तर पर राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी है, उसका मंत्री जब घोषणा करे कि उसे हिन्दी नहीं आती, वह हिन्दी में नहीं बोल सकता तब पद पर बने रहने का उसे कोई अधिकार नहीं। चिदंबरम के मुख से हिन्दी के प्रति अज्ञानता की बात सुनकर देश स्तब्ध रह गया। कोई आपसी बातचीत में नहीं, जम्मू में एक पत्रकार सम्मेलन के दौरान उन्होंने बताया कि 'आई कैनाट स्पीक इन हिन्दी।' सुनने वाले दंग, कि हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्थापित करने की जिम्मेदारी वाले मंत्रालय का मंत्री ऐलान कर रहा था कि उसे हिन्दी अर्थात्ï राजभाषा का ज्ञान नहीं है। शर्म ! शर्म!! शर्म !!!
क्या सचमुच चिदंबरम हिन्दी नहीं समझ सकते, नहीं बोल सकते? विश्वास करना कठिन है। उक्त सम्मेलन में कुछ पत्रकारों द्वारा हिन्दी में पूछे गए सवालों का समाधानकारक जवाब गृहमंत्री अंग्रेजी में दे रहे थे। साफ है कि वे हिन्दी समझते हैं। जिज्ञासावश मैंने चिदंबरम के विभाग में काम कर चुके एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी से पूछा। जवाब मिला- चिदंबरम हिन्दी समझते हैं और बोल भी सकते हैं। फिर उन्होंने हिन्दी में कुछ सवालों का जवाब दिए जाने के एक अनुरोध को ठुकराते हुए हिन्दी न समझने की बात क्यों कही? यह आश्चर्यजनक है। क्या वे राजभाषा के मुद्दे पर किसी दबाव में हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि दक्षिण की खतरनाक हिन्दी विरोधी राजनीति के वे भी एक किरदार बन बैठे हैं? राजभाषा के व्यवहार के मुद्दे पर देश के गृहमंत्री का यह आचरण निश्चय ही अलगाववादी प्रवृत्ति को चिन्हित करने वाला है। यह भविष्य के एक अत्यंत ही विकट झंझावात का पूर्वाभास है। गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम के ऊपर देश की एकता-अखंडता और आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है। राजभाषा को सम्मान दिलवाने की जिम्मेदारी भी उन पर ही है। इसके बावजूद जब वे राजभाषा के प्रति अपनी अज्ञानता को सार्वजनिक कर रहे हैं, तब इसमें कोई गुत्थी है अवश्य। यह विस्मयकारी है कि वे अपनी नेता सोनिया गांधी से कुछ नहीं सीख पाए। इटली से आईं सोनिया गांधी हिन्दी से बिल्कुल अंजान थीं। लेकिन उन्होंने राजभाषा को सम्मान देते हुए, देश की जरूरत को देखते हुए हिन्दी सीखी और इतनी सीखी कि आज वे फर्राटेदार हिन्दी बोल रही हैं। फिर हमारे गृहमंत्री क्या यह बताएंगे कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे मंत्री बने हैं, उस संविधान में घोषित संघ की राजभाषा हिन्दी से वे दूर कैस्े हैं? क्या ऐसे व्यक्ति के अधीन गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी रहनी चाहिए? कदापि नहीं। अंग्रेजी और अंग्रेजियत के ऐसे पोषक जब तक सत्ता में मौजूद रहेंगे, देश में स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वदेशाभिमान उत्पन्न हो तो कैसे? फिर क्या आश्चर्य कि देश के कुछ भागों में हिन्दी विरोध की चिंगारी सुलगते दिखने लगी है।

दूसरों की लकीर छोटी न करें!

यह भी खूब रही! नितिन गडकरी ने एक दलित के घर भोजन क्या किया कि कांग्रेसी तिलमिला उठे। आनन-फानन में प्रचारित कर दिया गया कि गडकरी राहुल गांधी की नकल कर रहे हैं। कहा गया कि राहुल गांधी की दिन-ब-दिन बढ़ती लोकप्रियता से परेशान भाजपा नेतृत्व ने ऐसा किया। पूछा गया कि इससे पहले किसी दलित के घर भाजपा नेता क्यों नहीं गए? सुविधानुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इतिहास भी अपनी सुविधानुसार लिखवाए जाने में माहिर कांग्रेसी वस्तुत: ऐसे प्रयास में अपनी अज्ञानता का ही परिचय दे डालते हैं। जाहिर है, तब उन्हें बगले झांकने पड़ते हैं- मुंह छुपाने पड़ते हैं। एक दलित के यहां गडकरी का भोजन करना कांग्रेसियों की चुभन का कारण इसलिए बना कि गडकरी ने 'नाटक' के विरुद्ध 'वास्तविकता' को खड़ा कर दिया। जी हां, सच यही है। राहुल गांधी के दिखावे को गडकरी की वास्तविकता ने हाशिये पर खड़ा कर दिया। गडकरी की पहल को नकल करार दे चुनौती देने वाले कांग्रेसी पहले हकीकत को जान लें। किस राहुल गांधी की नकल की बात कर रहे हैं वे? राहुल गांधी न तो मोहनदास करमचंद गांधी के वंशज हैं, न ही उनकी तरह लंगोटी पहनते हैं, न ही उनकी तरह हरिजन बस्ती में रहते हैं और न ही उनकी तरह हरिजन बस्ती की गंदगी की सफाई कर रहे हैं। दलित परिवार में जाकर भोजन तो करते हैं किन्तु अगर मायावती की मानें तब भोजन के बाद राहुल गांधी कीटनाशक साबुन से अपने हाथ साफ किया करते हैं। गडकरी का एक दलित परिवार में जाकर भोजन करना कोई नई बात नहीं है। गडकरी दलितों के घरों में जाकर भोजन करते रहे हैं और दलित उनके घर आकर भोजन करते रहे हैं। गडकरी की जिंदगी का एक सामान्य-सरल पक्ष है यह। प्रचार या वोट के लिए उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद ऐसा किया तो सतर्क-बेचैन मीडिया ने खबर बना दी! कांग्रेस ने चुनौती दे डाली कि इसके पहले कोई भाजपा नेता दलित के घर क्यों नहीं गया? ऐसा सवाल करने वाले या तो अज्ञानी हैं, अंधे हैं या फिर जानबूझकर अंजान बन रहे हैं। यदि किसी हरिजन के यहां भोजन करना ही दलित सेवा है तब मैं बता दूं कि देश में अगर कोई सबसे बड़ा दलित सेवक है तो वह अशोक सिंघल और विश्व हिन्दू परिषद है। जी हां, यह एक ऐतिहासिक सच है। अशोक सिंघल ने एक बार विश्व हिन्दू परिषद के अन्य साधु-संतों के साथ काशी में डोम राजा (क्षमा करेंगे, संदर्भवश मुझे इस शब्द का इस्तेमाल करना पड़ रहा है, अपने उसूलों के खिलाफ) के यहां भोजन ग्रहण किया था। कांग्रेस की ओर से गडकरी को चुनौती देने वाले यह तो जानते ही होंगे कि तब भारतीय समाज में (दुखद रूप से) डोम को दलित से भी नीचा माना जाता था। इस प्रकार अशोक सिंघल आदि ने तो हरिजन या दलित से नीचे की जाति वाले के यहां भोजन किया! उस जाति-वर्ग के यहां तो राहुल गांधी ने अभी तक बहुप्रचारित प्रायोजित भोजन नहीं किया। तब क्या हम यह मान लें कि राजनीति में आने के बाद मुखौटा पहनकर रोड शो राजनीति कर रहे राहुल गांधी अशोक सिंघल की नकल कर कभी-कभार दलितों के यहां भोजन करने लगे हैं?
राजनीति में प्रतिस्पर्धा के गिरते स्तर ने समाज-परिवार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रखा है। इस तथ्य को भुलाया जा रहा है कि संस्कार परिवार देता है, संस्कृति देश। संस्कृति के विकास की सही तिथि की जानकारी का दावा इतिहासकार भी नहीं कर पाए हैं। हां, जानकार यह दावा अवश्य करते हैं कि देश में, समाज में जो कुछ भी दर्शनीय है, शुभ है वह भारतीय संस्कृति की देन है। कुछ पात्र-चरित्र जब देशी संस्कृति-सभ्यता का त्याग कर आयातित संस्कृति-सभ्यता का वरण कर लेते हैं तो पारिवारिक कुसंस्कारों के कारण। राहुल गांधी इस तथ्य को हृदयस्थ कर लें कि कुछ अच्छा करने की ललक तो ठीक है किन्तु राजनीतिक स्पर्धा में दूसरों का सम्मान भी जरूरी है। बेहतर हो, राहुल व उनकी मंडली गडकरी की नकल करते हुए उनके शब्दों को आत्मसात कर लें कि 'आप अपनी लकीर बड़ी करें, दूसरों की छोटी न करें।'

Tuesday, February 16, 2010

जब 'न्याय' रो पड़े

भारत के अटार्नी जनरल रह चुके सुविख्यात विधिवेत्ता सोली सोराबजी ने तो सार्वजनिक रूप से कह डाला कि वे रो पड़े थे। लेकिन वास्तव में तब देश का लोकतंत्र रो पड़ा था। गांधी, नेहरू, प्रसाद, पटेल, आंबेडकर, बोस, आजाद, किदवई की आत्माएं रो पड़ी थी। लोकतंत्र को कैद कर न्यायपालिका को 'आज्ञाकारी सेवक ' जो बना डाला गया था। हालांकि सोली सोराबजी ने एक 35 वर्ष पुराने संदर्भ को प्रस्तुत किया है, लेकिन है आज भी प्रासंगिक। न्याय और न्यायपालिका से जुड़े एक अत्यंत ही मार्मिक व गंभीर प्रसंग की याद की गई है। पिछले दिन न्यायिक स्वतंत्रता पर नई दिल्ली में एक व्याख्यान के दौरान सोली सोराबजी ने भावुक होकर बताया कि आपातकाल के दौरान एक अन्य सुविख्यात विधिवेत्ता नानी पालखीवाला के साथ सर्वोच्च न्यायालय में 'हेवियस कार्पस' याचिका (बंदी को अदालत में पेश करने संबंधी याचिका) पर बहस करते हुए जब उन्होंने पाया कि न्यायमूर्ति वाई.वी.चंद्रचुड़ और न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती जैसे विख्यात जजों ने अपनी आत्मा को बेच दिया है, तब वे रो पड़े थे। चंद्रचुड़ और भगवती बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाए गए।
हालांकि यह पहला अवसर है जब सार्वजनिक रूप से भारत के दो न्यायाधीशों के उपर सरकारी दबाव के चलते अपनी आत्मा बेच देने के आरोप लगे हैं, लेकिन इस प्रसंग की चर्चा तब भी हुई थी। आज जब न्याय और न्यायपालिका सीमित रूप में ही सही विश्वसनीयता के संकट के एक दु:खद दौर से गुजर रही है, सोली सोराबजी के रहस्योद्घाटन से बहस का एक नया दौर शुरू हो चुका है। आम जनता घबराहट में है, सशंकित है। न्याय के प्रति उसके मन में एक नया भय पैदा हो गया है। वह भयभीत है कि जब भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर पहुंचे व्यक्ति अपनी आत्मा बेच सकते हैं, तब अन्य पर कैसे विश्वास किया जाए? बात कथनी और करनी का भी है। मुझे आज भी न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती के उन शब्दों की याद आ रही है, जो उन्होंने 26 नवंबर 1985 को विधिदिवस के अवसर पर अपने भाषण के दौरान कहे थे। तब उन्होंने कहा था 'मुझे यह देखकर बहुत पीड़ा हुई है कि न्यायिक प्रणाली करीब- करीब ढहने की कगार पर है। ये बहुत कठोर शब्द हैं जो मैं इस्तेमाल कर रहा हूॅं। लेकिन बहुत ही व्यथित होकर मैंने ऐसा कहा है।' इन शब्दों में कहीं ग्लानि है? ये शब्द तो देश को भुलावे में रखने वाले सरमन मात्र हैं। खुशी होती अगर वे 'अपराध' को स्वीकार कर जनता की अदालत से अपने लिए दंड मांगते। वे ऐसा नहीं कर पाए तो नैतिकता के अभाव के कारण। मेरे ये शब्द कठोर हो सकते हैं, किंतु ये जनता की सोच की अभिव्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार और पक्षपात संबंधी अनेक आरोपों से गुजर रही वर्तमान न्यायपालिका को स्वच्छ-पवित्र करने के उपाय किए जाने चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी दोनों साथ- साथ चलने चाहिए। न्यायिक स्वतंत्रता का अर्थ जवाबदेही से आजादी नहीं हो सकती। सोराबजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे सुनिश्चित कौन करे? संविधान की बात करें तो विधायिका और कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका लोकतंत्र का एक स्तंभ है। इसकी स्वतंत्रता की बातें तो की जाती है, लेकिन व्यवस्था का ताना- बाना ऐसा कि सत्ता के दबाव- प्रलोभन से यह पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। जजों की नियुक्ति और अवकाश प्राप्ति के बाद नए आकर्षक अनुबंध का अधिकार शासकों के हाथों में है। जजों के विरूध्द भ्रष्टाचार के जांच का भी अधिकार कार्यपालिका के पास है। इस व्यवस्था में संशोधन होना चाहिए। भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जिम्मेदारी कार्यपालिका या अधिवक्ताओं के हाथों में न देकर स्वच्छ छवि वाले वर्तमान और पूर्व वैसे जजों को दिया जाना चाहिए, जिन पर जनता का विश्वास हो। सोराबजी ने बिल्ली को थैले से बाहर निकाल लिया है, अब जरूरत है उन हाथों की जो उसके गले में घंटी बांध सके। प्रतीक्षा रहेगी पहल करने वाले हाथों की।

Monday, February 15, 2010

शहीदों की लाश पर ठाकरे की राजनीति!

कृपया कोई लाशों पर राजनीति न करे। यह तो शहीदों का अपमान है, पूरी मानवता का अपमान है। आतंकी विस्फोट स्थल को राजनीति का दंगल बनाया जाना, क्षमा करेंगे, राष्ट्र विरोधी कार्रवाई मानी जाएगी। न चाहते हुए भी पुन: शिवसेना और ठाकरे को उद्धृत करने की मजबूरी है। शिवसेना ने पुणे आतंकी हमले के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को दोषी ठहराते हुए जिन भौंडे शब्दों का इस्तेमाल किया है, वे निंदनीय हैं। हमले को मुख्यमंत्री के पापों का फल बताकर उद्धव ठाकरे ने एक बार फिर यही साबित किया है कि शिवसेना सिर्फ सियासत का घिनौना खेल खेलना जानती है। इसके लिए वह लाश और कफन का भी सौदा कर सकती है। ठीक उसी तरह जैसा उसने 1993 के मुंबई सिलेसिलेवार बम विस्फोट के बाद किया था। शिवसेना की प्रतिक्रिया हमले में शहीद हुए लोगों का अपमान है, संपूर्ण मानवता का अपमान है और अपमान है महान मराठा संस्कृति का।
वैसे अपेक्षा तो नहीं है, फिर भी ठाकरे पिता-पुत्र-भतीजा से प्रार्थना है कि वे पुणे आतंकी हमले को राजनीतिक रंग न दें। अगर वे ऐसा करना जारी रखते हैं तब कटघरे में उन्हें भी खड़ा किया जाएगा। उन्हें जवाब देना होगा कि शाहरुख खान की फिल्म का विरोध नहीं करने का ऐलान करने वाले बाल ठाकरे ने अपने सैनिकों को सड़क पर उतर हुड़दंग मचाने का आदेश क्यों दिया था? कानून, व्यवस्था को शिवसैनिकों द्वारा हिंसक चुनौती दिए जाने के कारण ही तो अतिरिक्त कड़ी सुरक्षा व्यवस्था करने राज्य सरकार मजबूर हुई थी। नागरिकों की जान-माल की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार पर है। शिवसैनिकों के हिंसक तेवर को देखते हुए राज्य सरकार अपने नागरिक-दायित्व का निर्वाह कर रही थी। पुणे की घटना के लिए इस व्यवस्था को दोषी ठहराकर ठाकरे ने संदेह के नए बिंदु खड़े कर दिए हैं। हो सकता है इसे मात्र लेखकीय कल्पना की श्रेणी में डाल दिया जाए, किंतु दो जोड़ दो चार का सच तो अपनी जगह कायम रहता ही है।
पूरे घटनाक्रम पर गौर करें। बाल ठाकरे के पीछे हटने के बाद शाहरूख की फिल्म के शांतिपूर्ण प्रदर्शन का माहौल बना था। मीडिया में इसे सकारात्मक स्थान भी मिला। अचानक केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार अवतरित होते हैं। देश में महंगाई के मुद्दे पर चौतरफा हमला झेल रहे पवार बाल ठाकरे के दरबार में हाजिर होते हैं। दो घंटे तक गुफ्तगूं होती है। बाल ठाकरे के तेवर बदल जाते हैं। शाहरूख की फिल्म पर पलटी मार जाते हैं वे। फिल्म प्रदर्शन पर शांत हो चुका माहौल अचानक हिंसक हो जाता है। मुंबई सहित पूरे राज्य में खौफ पैदा कर दिया जाता है। माहौल कुछ ऐसा बना कि महंगाई का मुद्दा गायब हो जाता है। उसी दिन जारी खबर कि महंगाई दर लगभग 18 प्रतिशत पर पहुंच गई है, लोगों के ध्यान में नहीं आ सकी। चूंकि शिवसेना की चुनौती सरकार के अस्तित्व के लिए थी, स्वाभाविक रूप से सरकार ने सुरक्षा के कड़े कदम उठाए। राज्य सरकार की विफलता की स्थिति में ठाकरे की समानांतर सरकार चिह्नित हो जाती, लेकिन राज्य सरकार सफल रही। ठाकरे एवं उनके शिवसैनिक नंगे हो गए। किंतु अचानक पुणे दहल उठता है, आतंकी हमला होता है। 26/11 के बाद महाराष्ट्र में आतंक का तांडव होता है। राज्य सहित जब पूरा देश, हर राजनीतिक दल एकजुट होकर हमले को पड़ोसी पाकिस्तान की साजिश निरूपित करते हुए भरत्सना कर रहा होता है, पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की मांग करता है, ठाकरे राज्य के मुख्यमंत्री को निशाने पर लेकर विस्फोट के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं! अगर यह ठाकरे की शेखी भर है, तब वे मुख्यमंत्री और राज्य से माफी मांग लें, लोग भूल जाएंगे। अन्यथा दो और दो का जोड़ आगे बढ़ता जाएगा।

Sunday, February 14, 2010

तुष्टिकरण की यह कैसी राजनीति!

काठियावाड़ा (गुजरात) के मोहनदास करमचंद गांधी जी को देश ने महात्मा कहकर संबोधित किया, उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं? यह सवाल इन दिनों बार-बार पूछा जा रहा है। इसका जवाब क्यों नहीं आ रहा? निजी बातचीत में सत्तारूढ़ नेता फुसफुसा देते हैं कि यह जिम्मेदारी तो आजादी के बाद पं. जवाहरलाल नेहरु की सरकार की ही थी। ब्रिटिश शासकों के चंगुल से देश को आजादी दिलाने वाले और फिर 6 माह के अंदर आजाद हिन्दुस्तान के एक हिन्दू की गोली खाकर शहीद हो जाने वाले महात्मा को तो प्रथम भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था। पंडित नेहरु तो महात्मा के प्रिय शिष्य थे। कांग्रेस पार्टी सहित पूरा देश महात्मा गांधी का ऋणी था। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले महात्मा गांधी को पार्टी या सरकार कैसे भूल गई? पिछले दिनों शासकीय अलंकरणों पर उठे कतिपय विवादों के बीच उस बिंदु पर महात्मा की उपेक्षा को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं। चूंकि पिछले 6 दशक से सत्ता की ओर से इस सवाल का जवाब नहीं आया, अब उम्मीद करना बेकार है। तो क्या सवाल को अनुत्तरित छोड़ देना चाहिए? देश की जिज्ञासा को मौत देने के पक्ष में हम नहीं।सत्तापक्ष के मौन से विस्मित समीक्षक अपने अनुमान के लिए स्वतंत्र हैं। इस प्रक्रिया में संभावित गलतियों के लिए दोषी उन्हें नहीं ठहराया जा सकता। कहते हैं कि आजादी के बाद देश के कर्णधारों ने जिस धर्म निरपेक्षता को संविधान में शामिल किया वह सत्तापक्ष का चुनावी हथियार बन गया। सत्तापक्ष इस हथियार को सुरक्षित रखना चाहते थे। गांधी की हत्या का सच यह था कि उनके हत्यारे हिन्दू थे। विभाजन की शर्तों व वायदों सेे पीछे हटते हुए नेहरु की सरकार ने पाकिस्तान को न केवल तयशुदा राशि देने से इंकार कर दिया था बल्कि पाकिस्तान को सैन्य सामग्री की आपूर्ति भी बंद कर दी। इससे नाराज महात्मा गांधी ने अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा कर दी थी। नेहरु की सरकार जहां इससे परेशान हुई, देश चकित था। उन्हीं दिनों अफवाह फैली कि गांधी चाहते हैं कि पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आए लगभग 70 लाख शरणार्थी वापस पाकिस्तान अपने घरों को लौट जाएं ताकि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए वे वापस हिन्दुस्तान लौटकर हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्वक रहे। वह काल एक अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण काल के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। गांधी, जो महात्मा बन चुके थे, देश के रक्षक थे, स्वतंत्रता सेनानी थे, संत थे और जो कभी कुछ गलत नहीं कर सकते थे, अचानक शरणार्थियों की नजरों में हिन्दुओं के प्रति घृणा करने वाले और मुसलमानों को प्यार करने वाले बन गए। रोटी और छत की तलाश में जब पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी दिल्ली की गलियों में भटकते रहे थे तब उन्होंने विस्मित नेत्रों से बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को साधिकार मोहल्लों में रहते देखा। उन दिनों सत्ता में, व्यवसाय में, सरकारी कार्यालयों में प्रभावशाली अल्पसंख्यक मौजूद थे। गांधी उन शरणार्थी शिविरों में स्वयं जाकर अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहित करते थे। गांधी ने तब नेहरु और पटेल पर दबाव डाला था कि हिन्दुओं और सिखों को हथियारों से वंचित कर दिया जाए ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम निर्भय वहां रह सकें। महात्मा गांधी की हत्या का एक बड़ा कारण अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पन्न आक्रोश था। तो क्या वर्ग विशेष की नाराजगी के भय से देश के नवशासकों ने महात्मा गांधी को भारत रत्न से अलंकृत नहीं किया। तुष्टिकरण व वोट की राजनीति पर आज चिल्ल-पों करने वाले इतिहास के इन पन्नों पर गौर करें। इस 'राजनीतिÓ के जन्म को याद रखें। जब महात्मा गांधी को इस 'राजनीतिÓ का शिकार बनाने से शासक नहीं चूके तब औरों की क्या बिसात! आजाद भारत की कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति बदले हुए स्वरूप में आज भी देश, समाज को बांट रही है। तुष्टिकरण का बेशर्म खेल चुनावी राजनीति का खतरनाक किंतु मजबूत हथियार बन गया है। बाल ठाकरे ने शाहरुख खान को निशाने पर इसलिए नहीं लिया कि शाहरुख ने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के हक में दो शब्द बोले थे, ठाकरे की परेशानी का सबब वह 'खानÓ शब्द बना जो पूरे संसार में अचानक लोकप्रिय बन बैठा। फिल्म में किरदार शाहरुख गर्व से कहते हैं कि हां, मेरा नाम खान है, किन्तु मैं आतंकवादी नहीं। पूरे संसार में संदेश गया कि सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं हैं। मुस्लिम विरोध की सांप्रदायिक राजनीति करने वाले बाल ठाकरे को भला यह कैसे बर्दाश्त होता? यह वोट की ही राजनीति है, जिसमें सत्ता पक्ष को शाहरुख का बचाव करना पड़ा। यही आज की राजनीति का कड़वा सच है। और यही कारण है राजनीति के प्रति सभ्य-शिक्षित युवा वर्ग की घृणा का। किसी ने ठीक कहा है कि मछली पकडऩे और राजनीति करने में कोई फर्क नहीं है। ------------------------

Saturday, February 13, 2010

कुचल दें अलगाववाद के बीज को!

पहले राहुल गांधी की मुंबई यात्रा और अब शाहरुख खान अभिनित फिल्म 'माई नेम...' की रिलीज पर चाक चौबंद सफल पुलिसिया बंदोबस्त! दोनों अवसरों पर यह साबित हुआ कि प्रशासन चाहे तब कानून-व्यवस्था को कोई चुनौती नहीं दे सकता, लोगों को सुरक्षा दी जा सकती है। लेकिन इसे लेकर फिर जो 'राजनीति' का दौर शुरू हुआ है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है।
महत्वपूर्ण यह नहीं कि मुंबई दंगल में कौन जीता और कौन हारा। महत्वपूर्ण है मुंबई को निशाने पर रखकर खेली जा रही खतरनाक राजनीति। जी हां! यह देश की पतित राजनीति का वह विद्रूप चेहरा है जो अलगाववाद का बीजारोपण करने को आतुर है। लोकतंत्र के प्रहरी सावधान हो जाएं। मुंबई की ताजा घटनाएं 30 साल पहले के पंजाब की यादें ताजा करने वाली हैं। अकाली दल के बढ़ते प्रभाव से चिंतित कांग्रेस ने संत जरनैलसिंह भिंडरावाले नामक कट्टरपंथी को विशुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए वहां सींचा था। अरुचिकर सच यह भी है कि पहल स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी। चंडीगढ़ में आज भी वह 'होटल रोमा' मौजूद है जहां ज्ञानी जैलसिंह (जो बाद में राष्ट्रपति बने) ने संत भिंडरावाले की इंदिरा गांधी से मुलाकात करवाई थी। बाद की सभी घटनाएं इतिहास मेंं दर्ज हैं। पंजाब में अलग खालिस्तान का हिंसक अभियान चला। भिंडरावाले कांग्रेस के लिए भस्मासुर बन गए। पवित्र स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले का शरण लेना, वहां सेना का प्रवेश, गोलीबारी, सैकड़ों मौत और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में पूरी घटना की दुखद परिणति! यूं कहें कि संत भिंडरावाले और स्वयं इंदिरा गांधी पतित राजनीति के शिकार बने थे। मुंबई की 'राजनीति' के रणनीतिकार इतिहास के उन पन्नों को पलट लें। स्वार्थ, षडय़ंत्र, घृणा, विश्वासघात और खून खराबे से रंगे हुए पन्ने किसी के भी रोंगटे खड़े कर देंगे। लेकिन लगता है वर्तमान कालखंड में राजनीतिकों की मोटी खालों से रोंगटे गायब हो गए हैं। फिर एहसास अथवा अनुभूति इनके पास फटके तो कैसे? स्वार्थ में अंधे भी तो हो गए हैं ये! लोकतंत्रीय व शासकीय दायित्व का महत्व ये नहीं समझ पा रहे हैं। यह अवस्था प्रदेश व देश दोनों के लिए खतरनाक है।
महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे मुंबई की ताजा घटनाओं के लिए शरद पवार को दोषी ठहरा रहे हैं। कह रहे हैं कि शरद पवार की बाल ठाकरे से मुलाकात के कारण शिवसेना पुनर्जीवित हो गई। शिवसैनिकों की हिम्मत बढ़ी और वे सड़क पर निकल आए। कांग्रेस के ही मंत्री नारायण राणे ने निर्वाचन आयोग को पत्र लिखकर शिवसेना की मान्यता रद्द करने की मांग की है। कांग्रेस की केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी की टिप्पणी है कि शिवसेना 1600 लोगों की पार्टी बनकर रह गई है। क्या यह बताने की जरूरत है कि केंद्र में और प्रदेश में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कांग्रेस नेतृत्व की सरकार में सहयोगी पार्टी के रूप में शामिल है? भारतीय जनता पार्टी ने मुंबई में जारी कोहराम के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया है। दोषारोपण और चुटकी समस्या के समाधान नहीं हैं। भिंडरावाले के उदय पर किसी ने घटित परिणति की कल्पना नहीं की थी। तब कांग्रेस सिर्फ अपना राजनीतिक लाभ देख रही थी। कांग्र्रेस भले ही इंकार करे किन्तु यह तथ्य निर्विवादित है कि शिवसेना के खिलाफ कांग्रेस ने राज ठाकरे को प्रोत्साहित किया। पूरी मुंबई और आसपास के क्षेत्रों के राज ठाकरे के गुंडे भाषा, धर्म और क्षेत्रीयता के नाम पर जब अराजकता का तांडव कर रहे थे, तब कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने उनके खिलाफ कभी कोई गंभीर कदम नहीं उठाया। कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिला भी। सत्ता हथियाने का दावा करने वाली शिवसेना राज्य में चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई। राज ठाकरे मजबूत हुए। लेकिन राजनीति का खेल सचमुच निराला है। शरद पवार ने अपनी 'राजनीति' के लिए कुछ ऐसा दांव चलाया कि बाल ठाकरे और राज ठाकरे आमने-सामने हो गए। अब राज ठाकरे दबे नजर आ रहे हैं। अपनी सहयोगी शिवसेना को दूर होता देख भाजपा ने कांग्रेस-राकांपा सरकार को निशाने पर लिया। भाजपा ने इस तथ्य को चिन्हित कर दिया कि कांग्रेस-राकांपा मुंबई की शांति व विकास की कीमत पर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हैं। इस खेल में विजेता का ताज चाहे जिसके सिर पर जाए, पराजित एक बार फिर लोकतंत्र हुआ है। आहत हुई है मुंबई की महान संस्कृति। आहत हुए हैं मुंबईकर। लेकिन जो खतरे संभावित हैं, मेरी चिंता उन्हें लेकर है। अलगाववाद के बीज को तत्काल अग्रि के हवाले कर दिया जाए, अन्यथा अंकुरित होकर यह सिर्फ मुंबई ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र प्रदेश की हवा को जहरीला बना देगा। पंजाब पर तब अगर काबू पाया जा सका था तो इंदिरा गांधी की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण। हालांकि कीमत उन्हें अपनी जान से चुकानी पड़ी। लेकिन राष्ट्रनेता कोई यूं ही नहीं बनता। आज मुंबई अराजकता और अलगाववाद के पहले पायदान पर है। अभी विलंब नहीं हुआ है। इसके पूर्व कि यह दूसरे-तीसरे पायदान को तय करे, इसके पैर काट डाले जाएं। दायित्व प्रदेश व केंद्र सरकार पर है। स्वार्थ का त्याग करें, समय की मांग को समझें। बचा लें मुंबई को, बचा लें महाराष्ट्र को- अलगाववाद के षडय़ंत्र से!

Friday, February 12, 2010

'गुंडा राज' को शासकीय स्वीकृति?


कभी 'मातोश्री' (ठाकरे आवास) के लिए 'व्यवस्था' करने-देखने वाले नारायण राणे अब जब यह कह रहे हैं कि आज मुंबई में जो हंगामा मचाया जा रहा है वह सिर्फ 'मातोश्री' में 'ब्रेड-बटर' के इंतजाम के लिए, तब क्या इस रहस्योद्ïघाटन को कोई चुनौती दे सकता है? राणे महाराष्ट्र के 'शिवसैनिक मुख्यमंत्री' रह चुके हैं। बाल ठाकरे के विश्वस्त थे, दाहिने हाथ माने जाते थे। उनके शब्दों को झुठलाया नहीं जा सकता। साफ है, यही मुंबई कोहराम का सच है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि एक ठाकरे परिवार अपनी दुकानदारी चलाने के लिए मुंबई में आतंक का पर्याय बन बैठा है! मुखौटा उसने राजनीति का, हिन्दुत्व का और मराठी माणुस का लगा रखा है। मध्यप्रदेश से मुंबई आकर बसे इस ठाकरे परिवार ने कुछ स्थानीय बेरोजगारों-हुड़दंगबाजों को बरगलाकर दहशत और गुंडागर्दी का साम्राज्य कायम कर लिया। हिन्दुत्व के नाम पर आदर्श-सिद्धांत दिखावे के। 'ब्रेड-बटर' के जुगाड़ के लिए सब कुछ अवसरवादी। बिल्कुल हिन्दी फिल्मों की पटकथाओं का अनुसरण करते हुए मुंबई को 'गैंगलैण्ड' में बदल डाला है। डेमोक्रेसी का अर्थ इन्होंने 'दे मोको राशि' बना डाला है। नारायण राणे ने इसी की पुष्टि की है। अब चुनौती यह कि क्या मुंबई को इनके रहमोकरम पर छोड़ दिया जाना चाहिए?
चूंकि मामला 'ब्रेड-बटर' अर्थात्ï 'वसूली' का है, अपने हिस्से की राशि में इजाफे के लिए भतीजे राज ठाकरे ने बाल ठाकरे को नंगा करना शुरू कर दिया तो क्या आश्चर्य। हिन्दी फिल्मों के 'गैंगस्टर' परिवार में यही सबकुछ तो होता है। अपने लाभ के लिए भाई भाई को, बाप बेटा को, बेटा बाप को नंगा करता है, पीठ में छुरा घोंपता है। परिवार से अलग होकर राज ठाकरे ऐसा ही करते रहे हैं। शाहरुख खान को लेकर उभरे ताजा हंगामे में बाल ठाकरे की शिवसेना को लाभान्वित होते देख भला राज ठाकरे चुप कैसे बैठते? जयचंद व विभीषण की भूमिका में आ गए। बाल ठाकरे को नंगा कर डाला। उन्होंने बिल्कुल ठीक ही सवाल किया है कि जब शाहरुख खान के पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडिय़ों के बारे में बोलने पर शिवसेना हिंसक विरोध कर रही है, माफी मांगने की मांग कर रही है, तब अमिताभ बच्चन को क्यों बख्शा गया? अभी कुछ दिनों पूर्व ही तो अमिताभ बच्चन मुंबई में एक कार्यक्रम में मंच पर पाकिस्तानी कलाकारों के साथ शिरकत कर रहे थे! शिवसेना ने उन पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध क्यों नहीं किया? अमिताभ बच्चन से माफी क्यों नहीं मंगवाई गई? जबकि वे पाकिस्तानी कलाकारों के साथ गलबहिया कर रहे थे? राज के अनुसार शिवसेना का शाहरुख विरोध एक स्टंट मात्र है। क्या बाल ठाकरे इस आरोप को गलत साबित कर पाएंगे? तर्क के सहारे तो कदापि नहीं। ये वही बाल ठाकरे हैं जिन्होंने 90 के दशक में नरगिस पुत्र संजय दत्त की फिल्मों का विरोध किया था। शिवसैनिकों ने उनकी फिल्मों के पोस्टर-बैनर फाड़ डाले थे। सिर्फ इसलिए तो नहीं कि संजय की मां नरगिस एक मुस्लिम थीं? बाद में एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता-नेता के हस्तक्षेप करने पर ठाकरे ने संजय को बख्श दिया था। तथापि ठाकरे की सांप्रदायिक सोच तो प्रकट हो ही चुकी थी। ठाकरे ने फिर इतिहास को दोहराया है। लेकिन इस मुकाम पर कानून-व्यवस्था की जिम्मेदार महाराष्ट्र सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा कि उसके शासन में समानांतर गुंडा राज कैसे चल रहा है? क्यों और कैसे पनपने दिया गया ऐसे 'राज' को? शाहरुख संबंधी ताजे मामले में शासन की विफलता से अनेक संदेह जन्म ले रहे हैं। जब सरकार की ओर से आम जनता को भरोसा दिलाया गया था कि शाहरुख की फिल्म रिलीज होगी और आम जनता को पूरी सुरक्षा दी जाएगी तब अब सरकार असहाय क्यों दिख रही है? शरद पवार की तरह झुकते हुए अब सरकार यह क्यों कह रही है कि शाहरुख और ठाकरे परिवार मिलकर मामले को सुलझा लें? क्या यह समानांतर गुंडा राज की शासकीय स्वीकृति नहीं है? लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिसिया बंदोबस्त तो तगड़ा किया गया किन्तु थिएटर के मालिकों को आश्वस्त सरकार क्यों नहीं कर पाई? उनमें से अधिकांश ने फिल्म के प्रदर्शन से स्वयं को अलग कैसे कर लिया? लोगों के मन से खौफ दूर क्यों नहीं हुआ? क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? गुंडाराज के सामने सरकार का आत्मसमर्पण है यह। यह अवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। अगर तत्काल इस पर अंकुश नहीं लगा तब आने वाले दिनों में स्वयं लोकतंत्र अपनी पहचान के लिए हाथ-पांव मारता दिखेगा।

Thursday, February 11, 2010

लोकतंत्र को धमकी तंत्र की खतरनाक चुनौती!

मुंबई को आग में झुलसाने से बचाना है तो अशोक चव्हाण जन हितैषी, राष्ट्र हितैषी और प्रदेश हितैषी मुख्यमंत्री बन जाएं। अवसर उनके सामने खड़ा है। चूके तो अनेक नकारात्मक, असहज विशेषणों के साथ इतिहास के कुछ काले पन्नों में वे कैद कर दिए जाएंगे। फैसला कर लें- इस पार या उस पार।
धमकी से आगे बढ़ मुंबई में कोहराम मचाने के षडय़ंत्र को शिवसेना ने अंजाम देना शुरू कर दिया है। एक अत्यंत ही खतरनाक षडय़ंत्र। जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता के जहर से बुझे तीर चलाने का षडय़ंत्र रचा गया है। अगर ये षडय़ंत्रकारी सफल हो गए तब मुंबई सिर्फ आग में झुलसेगी ही नहीं, खून से नहा भी जाएगी। षडय़ंत्र में शामिल होने से भारतीय जनता पार्टी के इन्कार के बाद बाल ठाकरे एवं उनके साथी चोट खाए नाग की तरह फुफकार रहे हैं। दूध के नए कटोरों की तलाश भी कर रहे हैं। इसके पहले कि यह फन काढ़ कर मुंबई एवं आसपास की सड़कों पर डसने के लिए निकलें, इनके फन को कुचल दिया जाए। यह जिम्मेदारी अशोक चव्हाण पर है। पढऩे-सुनने में शायद यह अभी असहज लगे लेकिन निश्चय मानिए, ये राष्ट्रहित विरोधी तत्व मुंबई में 1992-93 के दंगों की पुनरावृत्ति चाहते हैं। इस पर बहाना इन्होंने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को बनाया है।
बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे ने आखिर यह क्यों कहा कि शासकीय सुरक्षा की जरूरत उन्हें नहीं, गिरफ्तार आतंकवादी कसाब को है। एक मजहब विशेष को निशाने पर लेकर शिवसेना का नया अभियान कसाब से शुरू होकर शाहरुख खान पर क्यों खत्म हो रहा है? न तो मैं बाल की खाल निकाल रहा हूं और न ही तिल का ताड़ बना रहा हूं। महाराष्ट्र को राष्ट्र से अलग करने की साजिशकर्ताओं के मुख से शब्द ही ऐसे निकल रहे हैं। क्रोध में, आवेश में उगले शब्द वस्तुत: व्यक्ति के अंदर छुपा सच ही होता है। संजय राऊत शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' के संपादक हैं, राज्यसभा के सदस्य हैं और बाल ठाकरे के प्रवक्ता भी हैं। शाहरुख खान पर प्रहार करते हुए संजय राऊत जब यह ऐलान करते हैं कि 'कोहराम तो अब मचेगा', तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। पिछले कुछ दिनों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में शिवसैनिकों द्वारा जारी तोडफ़ोड़ क्या राऊत घोषित 'कोहराम' का अभ्यास नहीं? 1992-93 में भी तो कोहराम ही मचा था। उस समय तो मुद्दा एक बाबरी मस्जिद विध्वंस का था। 1992-93 के उत्पातियों ने इस बार तो क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को मुद्दा बना लिया है। सभी के सभी मुद्दे राष्ट्र विरोधी! हित किसी का नहीं, सिर्फ अहित ही अहित। स्वयं मुंबई और महान महाराष्ट्र का अहित। क्या इसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए? फैसला जनता को करना है, मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को करना है।
मुख्यमंत्री जागें। संविधान से इतर समानांतर सत्ता चलाने वालों को उनकी औकात बताना शासन का धर्म है। शिवसेना तो अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लुप्त हो रहे बाल ठाकरे के आभा मंडल में शेष चमक के द्वारा लोकतंत्र के मुकाबले धमकी तंत्र को खड़ा किया जा रहा है। पागल हैं ये षडय़ंत्रकारी! उन्होंने यह कैसे समझ लिया कि लोकतंत्र के 200 करोड़ हाथों को कुछ सौ-हजार दागदार हाथ चुनौती दे पाएंगे? भारत के लोकतंत्र की नींव अत्यंत ही मजबूत है। और लोकतंत्र की बुनियाद को रेखांकित 1942 में इसी मुंबई शहर में किया गया था जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 'अंगे्रजों भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया था। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करा लोकतंत्र स्थापना की पहल करने वाले मुंबई को अलगाववाद के सहारे आग में झोंकने की कोशिश कोई न करे। अनेक मायनों में मुंबई भारत का सिरमौर है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने बिल्कुल ठीक कहा है कि मुंबई की रक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। मुख्यमंत्री चव्हाण देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र के पक्ष में नीडर हो कानून का डंडा चलाएं। वे पाएंगे कि सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश की जनता उनके पीछे खड़ी है।

Wednesday, February 10, 2010

शरद पवार-बाल ठाकरे का साझा एजेंडा?

कहीं बाल ठाकरे-शरद पवार किसी साझा एजेंडे पर तो काम नहीं कर रहे हैं? ऐसी शंका अनेक लोगों के जेहन में उठ रही है। पिछले एक सप्ताह की घटनाओं पर गौर करें। बाल ठाकरे फरमान जारी करते हैं कि करण जौहर निर्मित और शाहरुख खान अभिनित फिल्म 'माई नेम इज खान' के प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जाएगी। शर्त लगा दी कि जब तक खान माफी नहीं मांगते, फरमान लागू रहेगा। अमेरिका से शाहरुख खान बयान जारी करते हैं कि वे माफी नहीं मांगेगे। जो कहा है (मुंबई पर सभी का अधिकार है) सही कहा है। राहुल गांधी की मुंबई यात्रा का विरोध करते हुए बाल ठाकरे शिवसैनिकों को आदेश देते हैं कि मुंबई में राहुल का स्वागत काले झंडों से किया जाए। राहुल मुंबई पहुंचते हैं, लोगों से मिलते-जुलते हैं, लोकल ट्रेन में सफर करते हैं और यह टिप्पणी कर वापस चले जाते हैं कि मुंबई भी अन्य शहरों की तरह भारत का एक अंग है। बाल ठाकरे व उनके शिवसैनिक राहुल का कुछ नहीं बिगाड़ पाते। राहुल की यात्रा को शेर की मांद में घुस चुनौती के रूप में निरूपित किया गया। कहा गया कि राहुल ने बाल ठाकरे को उनकी औकात बता दी। दूसरे दिन बाल ठाकरे घोषणा कर देते हैं कि शाहरुख की फिल्म के प्रदर्शन पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। तीसरे दिन शरद पवार, भारत सरकार के एक मंत्री, बाल ठाकरे के दरबार में हाजिर होते हैं। दो घंटे गुफ्तगू होती है। प्रचारित किया गया कि आईपीएल के क्रिकेट मैचों में ऑस्ट्रेलिया के खिलाडिय़ों को खेलने देने की अनुमति लेने पवार पहुंचे थे। चौथे दिन पवार का नसीहत सामने आता है कि बाल ठाकरे अब बूढ़े हो चुके हैं, उन्हें घर बैठना चाहिए और नई पीढ़ी को राष्ट्रीय एकता के लिए काम करने के लिए कहना चाहिए। पांचवें दिन अर्थात्ï आज बुधवार, 9 फरवरी 2010 को बाल ठाकरे की पूर्व घोषणा के उलट शिवसैनिक सड़कों पर उतरते हैं, नारेबाजी करते हैं, उन थिएटरों में तोडफ़ोड़ करते हैं जहां शाहरुख की फिल्म का प्रदर्शन होना है। क्यों? क्या शिवसैनिक अपने सुप्रीमो के आदेश का उल्लंघन कर रहे थे?
यह तो सभी जानते हंै कि बगैर बाल ठाकरे की रजामंदी के शिवसैनिक टॉयलेट तक नहीं जा सकते। जाहिर है कि आज की तोडफ़ोड़ शिवसैनिकों ने बाल ठाकरे के आदेश पर ही की। और ऐसा हुआ मराठा क्षत्रप शरद पवार से मुलाकात के बाद! पवार को नजदीक से जानने वाले इस बात की पुष्टि करेंगे कि उनका अब एक ही एजेंडा है। सुपुत्री सुप्रिया सुले की ताजपोशी। वे अपनी विरासत सुप्रिया के हाथों सौंपना चाहते हैं। वसंतदादा पाटिल को धोखा देकर कभी खुद मुख्यमंत्री बनने वाले शरद पवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा सर्वविदित है। सीताराम केसरी से कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में पराजित होने वाले पवार ने कांगे्रस का त्याग किया- सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर। तब इनकी हिम्मत की दाद दी गई थी। लेकिन सत्ता सुख के आदी पवार उसी सोनिया गांधी के दरबार में हाजिर हो गए। कांग्रेस की गठबंधन सरकार में अपने सहयोगियों के साथ मंत्री बन बैठे। उत्तराधिकारी के रूप में अब तक पेश किए जाते रहे भतीजे अजितदादा पवार को किनारे कर बेटी सुप्रिया को सामने लाया गया। सुप्रिया का राजनीति में प्रवेश पूर्वनियोजित था। पवार की तरह अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम पारी खेल रहे बाल ठाकरे ने भी पूर्व में घोषित उत्तराधिकारी भतीजे राज ठाकरे को किनारे कर पुत्र उद्धव ठाकरे को विरासत सौंपने की घोषणा कर दी। मुंबई में आतंक की पर्याय शिवसेना को वर्तमान तोडफ़ोड़ की राजनीति में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। पवार इसका अवसरवादी उपयोग करना चाहते हैं। बाल ठाकरे से उनकी मुलाकात एक सोची-समझी योजना के अंतर्गत हुई। वर्तमान राजनीति का यह एक स्याह पक्ष है। पवार ने मुंबई के 'घायल शेर' ठाकरे को जीवित रखने के लिए उनसे मुलाकात की। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार की अवमानना की कीमत पर। सहसा विश्वास नहीं होता लेकिन इस बात के पुख्ता संकेत मिल रहे हैं कि अगर भयादोहण व दबाव के समक्ष मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार झुकी नहीं तब शरद पवार और बाल ठाकरे मराठी माणुस की अस्मिता का नया खेल खेलेंगे। शरद पवार की राकांपा कांग्रेस को और शिवसेना भाजपा को धता बता राज्य की सत्ता पर कब्जे के लिए एक साथ कदमताल करेंगे। जिस नई पीढ़ी को सामने लाने की बात पवार ने कही है, उसकी दो पंक्तियों में से एक में सुप्रिया सुले और दूसरी में उद्धव ठाकरे आगे दिखेंगे। रही बात दिल्ली की तो अवसर आने पर गठबंधन की राजनीति की मजबूरी का फायदा तो ये उठा ही लेंगे। क्या लोकतंत्र के इन खिलाडिय़ों के चरित्र पर आप विलाप करना चाहेंगे?

संविधान व लोकतंत्र के अपराधी पवार !

'गुंडाराज' अथवा 'आतंकराज' को मराठा क्षत्रप शरद पवार की यह कैसी स्वीकृति? एक बार उद्धव ठाकरे ने घोषणा की थी कि ''हां, मुंबई मेरे बाप की जागीर है।'' बाल ठाकरे मुंबई को अपनी जागीर समझ कभी दक्षिण भारतीयों के खिलाफ, कभी उत्तर भारतीयों के खिलाफ, कभी पाकिस्तानी खिलाडिय़ों-गायकों के खिलाफ, तो कभी आस्ट्रेलियाई खिलाडिय़ों के खिलाफ आदेश-फरमान जारी करते रहते हैं। यहां तक कि किसी फिल्म का प्रदर्शन हो या न हो इस बात का एकतरफा फैसला करते रहने के वे आदी हैं। ये मशक्कत लोगों को सिर्फ यह एहसास दिलाने के लिए है कि मुंबई उनकी जागीर है, इस पर सिर्फ उनका अधिकार है। केंद्र व महाराष्ट्र सरकार से इतर मुंबई पर सिर्फ उनका शासन चलेगा। इसके विरुद्ध राष्ट्रीय रोष के बावजूद ठाकरे अविचलित अपनी मनमानी करते रहे। लेकिन ठाकरे के डर को अभी पिछले सप्ताह ही कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी ने अपने पैरों तले रौंद डाला। ठाकरे व उनकी शिवसेना अवाक देखते रहे, राहुल गांधी ठाकरे की चेतावनी के बीच निर्भीक मुंबई में विचरते रहे। पूरे देश ने देख लिया कि अपनी मांद में कथित रूप से दहाडऩे वाला शेर वास्तव में शेर का खाल ओढ़े एक गीधड़ है। राहुल गांधी ने ठाकरे को हर तरह से बेनकाब कर दिया। सभी ने चैन की सांस ली थी। फिर शरद पवार राहुल की मुंबई यात्रा के 48 घंटे के अंदर ही ठाकरे के घर पहुंंच गिड़गिड़ा क्यों रहे थे? पवार भारत सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। हाल तक प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी रहे। फिर ऐसी कायरता! शिवसेना की गतिविधियों को अलोकतांत्रिक घोषित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम दिल्ली में घोषणा कर रहे थे कि शिवसेना जैसी पार्टियां आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं, पवार के रूप में केंद्र सरकार का ताकतवर नुमाइंदा शिवसेना प्रमुख के घर हाजरी दे रहा था, विनती कर रहा था कि आईपीएल में आस्ट्रेलिया के खिलाडिय़ों को खेलने से वे न रोकें। संविधान और कानून-व्यवस्था को चुनौती देने वाले ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई की जगह जब केंद्र सरकार का मंत्री उसके पांव पकड़े तब निश्चय ही उसे सरकार में रहने का हक नहीं। ठाकरे की संविधानेतर सत्ता के समक्ष समर्पण कर शरद पवार लोकतंत्र व संविधान के अपराधी बन गए हैं। या तो वे तत्काल इस्तीफा दे दें या प्रधानमंत्री उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दें। यह निष्पक्ष जनता का निष्पक्ष फैसला है।
मुंबई का अपना एक विशिष्ट चरित्र है। कड़वा तो लगेगा किन्तु यह सच मौजूद है कि अपनी कतिपय परेशानियों, समस्याओं से निजात पाने के लिए व्यापारी, नेता, अधिकारी और कुछ मामलों में सामान्य जन भी मोहल्ले- टोले के गुंडों से लेकर अंडरवल्र्ड की शरण में जाते हैं। उनकी मदद लेते हैं। ऐसी स्थिति प्रशासन की अकर्मण्यता के कारण पैदा हुई है। कानून- व्यवस्था और नागरी सुरक्षा के मुद्दे पर लोग प्रशासन पर विश्वास नहीं कर पाते। अंडरवल्र्ड या मोहल्ले- टोले के गुंडे घोपित असामाजिक तत्व हैं, किंतु बाल ठाकरे एवं उनकी शिवसेना? ये तो सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त राजदल के नेता हैं। विधानसभा व संसद में इनके निर्वाचित नुमाइंदे मौजूद हैं! ये जब संविधान को चुनौती देते हुए हर उस गैरकानूनी हरकतों को अंजाम देते हैं जो घोषित गुंडे या अंडरवल्र्ड के लोग किया करते हैं, तब उन्हें भी इसी वर्ग में शामिल क्यों न कर लिया जाए? इनकी पार्टी की मान्यता क्यों न रद्द की जाए? जब केंद्रीय गृहमंत्री सार्वजनिक रूप से शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर चुके हैं, तब विलंब क्यों?
लेकिन हम बात शरद पवार की कर रहे हैं। ठाकरे से उनकी मुलाकात को जितना सीधा-सरल दिखाने की कोशिश की जा रही है, वैसा है नहीं। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले चतुर पवार इतना सीधा खेल खेलते ही नहीं। क्रिकेट के बहाने उन्होंने प्रधानमंत्री और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी को चेतावनी दी है। महंगाई के मुद्दे पर घिर जाने से परेशान पवार राजनीति में अपनी अपरिहार्यता को चिन्हित करना चाहते थे। एक ओर उन्होंने उत्तर भारतीयों व गैर मराठियों के मुद्दे पर अकेली पड़ी शिवसेना की हौसला अफजाई की, दूसरी ओर विकल्प के रूप में राज्य में नए राजनीतिक समीकरण का संकेत भी दे दिया। लेकिन भौंडे ढंग से। ऐसा कि वे स्वयं नंगे हो गए। जिस क्रिकेट खेल को उन्होंने बहाना बनाया, वह उनके ही गले की फांस बन गया। खिलाडिय़ों को सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार गृह मंत्रालय पवार की ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के आर.आर.पाटिल के पास है। बाल ठाकरे के सामने गिड़गिड़ाकर पवार ने यही तो साबित किया कि स्वयं अपने ही गृहमंत्री पर उनको भरोसा नहीं है! पवार ने शायद इस पहलू की कल्पना नहीं की थी। शरद पवार ने पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बाल ठाकरे के आतंकराज के समक्ष बौना साबित कर दिया है। क्या ऐसे व्यक्ति को और उनकी पार्टी को सरकार में बने रहने का हक है? कदापि नहीं- कानून व नैतिकता दोनों दृष्टि से।

Monday, February 8, 2010

प्रधानमंत्री देशहित की सोंचे, विदेशहित की नहीं!

क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारत को 'कल के ईस्ट इंडिया कंपनियों' का हब बना देना चाहते हैं? खुदरा कारोबार के द्वार को विदेशी निवेश के लिए खोल दिए जाने संबंधी उनके सुझाव क्या इस संभावना को चिन्हित नहीं कर रहे? अत्यंत ही खतरनाक सुझाव है यह। शत प्रतिशत देश हित के खिलाफ। क्या चाहते हैं प्रधानमंत्री? कहीं वे अपने किसी छुपे एजेन्डे को अमल में तो नहीं ला रहे हैं। मामला सीधा नहीं। कहीं न कहीं दाल में काला है अवश्य। बैंक, इंश्योरेन्स, शिक्षा, चिकित्सा, व्यापार आदि क्षेत्रों के द्वार विदेशियों के लिए खोल दिए जाने के बाद प्रतिस्पर्धा के नाम पर खुदरा बाजार को भी विदेशियों के हवाले कर प्रधानमंत्री भारत का कौन सा हित साधना चाहते हैं? लोगों की स्मरणशक्ति कमजोर नहीं है। 1991 में जब मनमोहन सिंह को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने देश का वित्त मंत्री बनाया था तब यह कहा गया था कि मनमोहन सिंह वस्तुत: अमेरिका द्वारा नामित हैं। उसी काल में पाकिस्तान के वित्त मंत्री पद पर भी मनमोहन सिंह की तरह विश्व बैंक के एक पूर्व अधिकारी की नियुक्ति हुई थी। प्रचारित हुआ था कि दोनों की नियुक्ति अमेरिका की इच्छा पर हुई थी। दोनों को अमेरिकी प्रतिनिधि के रूप में निरूपित किया गया था। पिछली सरकार में जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार के मुद्दे पर सरकार के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया था, तब भी अमेरिकी हित साधने का आरोप उन पर लगा था। कार्यकाल के अंतिम दिनों में जिस गति से मनमोहन सिंह ने करार संबंधी प्रस्ताव को संसद में पारित करवाया था, उससे अनेक संदेह पैदा हुए थे। निश्चय ही वह करार डॉ. मनमोहन सिंह का एजेंडा था। आज जब वे खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की वकालत कर रहे हैं तब कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री इसके लिए किसी से प्रतिबद्ध हैं, उनके गुप्त एजेंडों में से ही यह निकला है। उनकी यह दलील कि अगर कीमतों पर काबू पाना है तो खुदरा व्यापार के द्वार विदेशियों के लिए खोल देने चाहिए, आपत्तिजनक है। अगर सरकार कीमतों पर काबू पाने में असमर्थ है तो अपनी गलत नीतियों के कारण, व्यवस्था में प्रविष्ट भ्रष्टाचार के कारण, राजनेताओं, व्यापारियों, नौकरशाहों के नापाक गठबंधन के कारण। इस व्यापार में विदेशियों के प्रवेश से क्या इन पर अंकुश लग जाएगा? प्रतिस्पर्धा के लिए विदेशी मौजूदगी की दलील अनुचित है। यह तो अपने लोगों के बीच में भी हो सकती है। निर्भरता अपने संसाधनों, अपनी मानव शक्ति, अपनी पूंजी और अपनी व्यवस्था पर हो, न कि फिरंगियों पर। अभी पिछले दिनों खबर आई थी कि प्रधानमंत्री कार्यालय में स्थापित कम्प्युटरों से चीन महत्वपूर्ण जानकारियां उड़ा ले गया था। तो क्या प्रधानमंत्री कार्यालय की सुरक्षा व्यवस्था विदेशियों को सौंप देनी चाहिए? सीमा पर घुसपैठ रोकने में विफल हमारे जवानों को हटाकर विदेशियों को तैनात कर देना चाहिए? आतंकी हमलों को रोकने में विफल हमारी सुरक्षा बलों को हटाकर विदेशी बलों को तैनात कर देना चाहिए? ऐसे सुझाव हास्यास्पद एवं आत्मघाती हैं। विदेशी प्रतिस्पर्धा के द्वारा कीमतों में कमी नहीं हो सकती। जिन-जिन क्षेत्रों में विदेशी निवेश हुए हैं उनकी स्थिति पर गौर करें। उदाहरण के लिए एक चिकित्सा क्षेत्र को ही लें। जीवनरक्षक दवाओं की कीमतें आम आदमी की पहुंच के बाहर है। महंगी चिकित्सा के कारण अनेक मरीज बिना इलाज समयपूर्व दम तोड़ देते हैं। खुदरा बाजार के बड़े खिलाड़ी बनकर विदेशी अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को और चौड़ा कर देंगे। कल-कारखाने स्थापित करने, उत्पादन करने, की अनुमति के बाद विदेशी कंपनियों को उपभोक्ता बाजार में प्रवेश दिया जाना किसी भी दृष्टि से देश हित में नहीं होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भारत के प्रति संदिग्ध निष्ठा के कारण अनेक सवाल खड़े हो गए हैं। इस आरोप पर कि उनकी मूल निष्ठा अमेरिका, यूरोप और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अर्थ व्यवस्था एवं वैश्वीकरण में है, को चुनौती देने वाले कम ही मिलेंगे। अगर प्रधानमंत्री विदेश हित में अपने एजेंडों को भारत में लागू करने में सफल हो गए तब शायद एक दिन ऐसा भी आएगा जब भारतीय राजनीति के सूत्र विदेशी पूंजी धारकों के हाथों में होंगे। ब्रिटिश शासन प्रणाली का गुणगान करने वाले भारतीय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ऐसे विदेशियों को दावत देकर भारत को आखिर कहां ले जाना चाहते हैं? पीड़ा तो हो रही है किन्तु एक प्रतिबद्ध भारतीय नागरिक होने के कारण सच को सामने रखना अपना कर्तव्य समझता हूँ। भय लगता है इतिहास के उन पन्नों को पलटने में जिनमें भारत के गद्दार सामंतों का वर्णन है। मुगल और ब्रिटिश शासकों को भारत में राजपाट संभालने के लिए आमंत्रण उन्हीं गद्दार सामंतों ने ही तो दिए थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतिहास के उस काले अध्याय को दोहराने की कोशिश न करें। महंगाई रोकने के लिए देसी उपाय करें, विदेशी नहीं। यह संभव है-शत प्रतिशत संभव है। शर्त यह है कि निज स्वार्थ से ऊपर उठ, भ्रष्टाचार का त्याग कर, ईमानदार प्रयास किए जाएं। गद्दारी संबंधी इतिहास के काले अध्यायों को कैद ही रखा जाए, मुक्त करने पर पुनरावृत्ति देश को फिर से गुलाम बना देगी।

Sunday, February 7, 2010

चीनी की कड़वाहट के बीच रावण- शूर्पणखा

वैचारिकता का यह कैसा पतन! भारत की राजनीति एक दिन पतन की खाई में चली जाएगी, ऐसी कल्पना समीक्षक- विश्लेषक आजादी मिलने के साथ ही कर चुके थे। तब कारण प्रतिभा- योग्यता की उपेक्षा और अयोग्य चाटुकारों के उदय को बताया गया था। लेकिन कभी विचार पतित राजनीति के बोझ तले दब सिसकारी मारने को मज़बूर हो जाएगी, ऐसी कल्पना नहीं की गई थी। ऐसे में उत्तम विचार आए तो कहॉं से? भारतीय समाज चिंतित है, ऐसी अवस्था के प्रादुर्भाव को लेकर। कौन दिलाएगा समाज को ऐसी स्थिति से निजात?
विगत कल शनिवार के दिन मराठा छत्रप केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार नेहरू-गांधी परिवार के युवा भाजपा नेता वरूण गांधी, बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे और फिल्म अभिनेता शाहरूख खान सत्तामद, अयोग्यता, अहंकार और समर्पण का बेशर्म प्रदर्शन करते देखे गए। पूरे देश को अज्ञानी और विवश मान इन लोगों ने वस्तुत: भारतीय सोच को चुनौती दे डाली। इनके कृत्य पर पूरा का पूरा समाज हतप्रभ है। क्या हो गया है राजनीतिकों की सोच को। शरद पवार जैसा अनुभवी राजनीतिक अपनी विफलता को छुपाने के लिए जब यह कहे कि चीनी नहीं खाएंगे तो मर जाएंगे क्या? तब निश्चय ही उन्हें देश व समाज हितैषी नहीं माना जा सकता। चीनी की बढ़ती कीमतों के लिए दोषी करार दिए जाने पर आई उनकी यह प्रतिक्रिया, क्या उनकी हताशा व खीज को चिह्नित नहीं करती। विफलता स्वीकार कर मंत्रिपद से इस्तीफा देने की जगह जनता को यह बताना कि 45-50 फीसदी लोग डायबिटीज के कारण मरते हैं, क्या शासकीय विफलता को महिमामंडित करना नहीं है। लोगों को चीनी नहीं खाने की सलाह देकर पवार ने वस्तुत: यह स्वीकार कर लिया कि इस मुद्दे पर सरकार कोई राहत नहीं दे सकती, देश इसे स्वीकार नहीं करेगा। पवार ने जब यह स्वीकार कर लिया कि सरकार महंगाई पर काबू नहीं पा सकती, तब उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है। बेहतर हो वे तत्काल पद त्याग दें, अन्यथा जनता उन्हें इसके लिए मजबूर कर देगी। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि मराठा छत्रप आम जनता के प्रति इतने असंवेदनशील हो सकते हैं। उन्हें महंगाई के कारण आम जनता की पीड़ा की अनुभूति कैसे नहीं हुई? सभी चकित हैं कि कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार शरद पवार एक मंत्री के रूप में आम जनता के दु:ख से तटस्थ कैसे रह सकते हैं? और तो और उन्होंने तो जनता के जख्मों पर नमक छिड़क दिया है। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि ज्ञान की तरह अनुभूति उधार नहीं मिलती। परम ज्ञानी को मिली अनुभूति का कारण उसका अपना अनुभव होता है। अनुभव ही सारे तर्कों- कुतर्कों और विश्लेषणों का जज होता है। फिर अनुभवी पवार ऐसी अनुभूति से वंचित कैसे रह गए? कहीं राजनीतिक व निजी स्वार्थ ने तो उन्हें पतित नहीं कर डाला।
लोग- बाग निराश वरूण गांधी से भी हुए। पिछली भूल को दोहराते हुए महंगाई को आधार बना वरूण ने शरद पवार को रावण और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को शूर्पणखा करार देकर उस भारतीय संस्कृति और सभ्यता को छलनी करने की कोशिश की है, जो उनकी पार्टी भाजपा का लक्ष्य-मंत्र है। भारतीय समाज निहायत निजी स्तर पर किसी के चरित्र हनन की इजाजत नहीं देता। राजनीतिक विरोध अथवा प्रतिद्वंदिता जब स्तरहीन हो जाता है तब भी वरूण जैसा निम्न स्तर प्राप्त नहीं करता। वरूण ने बिल्कुल सड़क छाप राजनीति का प्रदर्शन किया है। टपोरी बना दिया अपने को। देश के युवाओं के एक बड़े वर्ग को वरूण ने अपनी इस आपत्तिजनक हरकत से निराश किया है।
पवार और वरूण इस बिंदु पर श्रीकृष्ण के शब्दों को याद कर लें। कृष्ण ने कहा है कि राजनीति कर्मयोग से जुड़ी हुई है। केवल कर्मयोगी ही राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकता है। कर्म के बिना मनुष्य सहित किसी भी प्राणी का अस्तित्व नहीं है। जो मूढ़ व्यक्ति अपने कर्मेद्रियों का इस्तेमाल नहीं करता, वह नष्ट हो जाता है।
क्या पवार और वरूण ऐसी गति को प्राप्त करना चाहेंगे? अगर हां तो बेशक वे जीवनावश्यक वस्तुओं से जनता को वंचित करते रहें, समाज में रावण व शूर्पणखा पैदा करते रहें। लेकिन हां, तब जनता न्यायाधीश की भूमिका में न्यायदंड के साथ तत्पर मिलेगी।
शाहरूख और उद्धव ठाकरे के घालमेल ने भी पतित राजनीति का एक घिनौना चरित्र सामने ला दिया है। राहुल गांधी के मुंबई मिशन की सफलता से घबराए बाल ठाकरे ने अपने पहले के फरमान को वापस ले लिया कि शाहरूख खान की फिल्म के प्रदर्शन पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं। समय की नजाकत को देखते हुए अनुभवी बाल ठाकरे का यह फैसला बिल्कुल सही था। किंतु पुत्र उद्धव अपने दंभ को फिर भी प्रदर्शित करते रहे। मुंबई पर अपने एकाधिकार का भ्रम वे त्याग नहीं पा रहे। 'मुंबई राजा' की तरह शाहरूख खान को कह डाला कि अगर वे अपना पक्ष रखना चाहते हैं, तब घर पर आकर बाल ठाकरे से मिल लें। कितना हास्यास्पद है उद्धव का यह फरमान! क्या 'मातोश्री' मुंबई का राज-दरबार है, जहां शाहरूख अपनी फरियाद लेकर पहुंचे। ठाकरे का यह अंहकार बिल्कुल रावण के अहंकार की तरह है। ऐसे में रावण- दर्प की तरह ठाकरे- दर्प को भी एक दिन चूर- चूर तो होना ही है। अभिनेता शाहरूख ने विदेश से मुंबई लौटकर एक कुटिल बयान दे डाला। कहा कि वे आज जो कुछ हैं, मुंबई की वजह से हैं। मुंबई के कथित राजा ठाकरे प्रसन्न हो गए। लेकिन ठाकरे यह नहीं समझ पाए कि वस्तुत: शाहरूख के कहने का अर्थ क्या था। शाहरूख ने अपनी उपलब्धियों का श्रेय तो मुंबई को दिया किंतु यह तो नहीं कहा कि वे जो कुछ हैं ठाकरे की वजह से हैं। यानि ठाकरे, मुंबई तो कतई नहीं है।

Saturday, February 6, 2010

पुन: सुषुप्तावस्था में न जाए महाराष्ट्र सरकार ...!

चार घंटे, सिर्फ चार घंटे में राहुल गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि शिवसेना के बालठाकरे, पुत्र उद्धव ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे अपने दरबे मात्र में दहाडऩे वाले शेर, बल्कि कागजी शेर हैं। ठाकरे के 6 बंद मुठ्ठियों को राहुल ने एक झटके में खोल डाला। अब चाहे ठाकरे एंड कंपनी राहुल की मुंबई यात्रा और उनके क्रियाकलापों को विफल और नौटंकी निरुपित करते रहें, वे बेनकाब हो चुके हैं। राहुल गांधी ने हर मोर्चे पर ठाकरे को पराजित किया। उनकी रणनीति पूर्णत: सफल रही। बिहार में उन्होंने ठाकरे को कुछ यूं निशाने पर लिया कि उनकी चार घंटे की मुंबई यात्रा के दौरान पूरे देश की नजरें मुंबई पर टिकीं रहीं। सभी न्यूज चैनल राहुल को विजेता और ठाकरे को पराजित घोषित कर रहे थे। ऐलान किया जा रहा था कि 'निकल गई ठाकरे की ठसक, राहुल ने दिखाया ठाकरे को ठेंगा', 'ठाकरे भभकी के जवाब में राहुल की गांधीगीरी' आदि-आदि। राज्य प्रशासन ने पूरे मुंबई को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया था। कुछ ऐसा कि इस उत्तर भारतीय राहुल गांधी का ठाकरे बंधु कुछ नहीं बिगाड़ पाए। शहर में उन्होंने मीटिंग की, दलितों की सुध ली और बेखौफ आम यात्रियों के साथ लोकल ट्रेन में दूसरे दर्जे में एक घंटे की यात्रा भी की। लेकिन इसी बिंदु पर विचारणीय प्रश्न यह अवतरित होता है कि ठाकरे एंड कंपनी की गुंडागर्दी पर पूर्व में अंकुश क्यों नहीं लगाई गई? जब ठाकरे के गुंडे खुलेआम उत्तर भारतीय टैक्सी-ऑटो चालकों, दूधवालों, सब्जी बेचने वालों और छोटे-मोटे रोजगार करने वालों को पीट रहे थे तब शासन की नींद क्यों नहीं खुल रही थी? साफ है कि तब शासन ने जान बूझकर उन अराजक तत्वों की ओर से मुंह फेर रखा था। आज भी सरकार वही है जो तब थी। आज जब शासन सुरक्षा के मोर्चे पर सफल रहा, तब यह सवाल तो पूछा जाएगा ही कि तब वह विफल क्यों रहा था? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि तब शिवसेना से बिलग हो अपनी पार्टी बनाने वाले राज ठाकरे गुंडागर्दी का नेतृत्व कर रहे थे? शिवसेना के मूल चरित्र को राज ठाकरे ने अगवा कर लिया था? कांग्रेस को ठाकरे बनाम ठाकरे की उस लड़ाई में राजनीतिक लाभ मिल रहा था? सच यही है। तब कांग्रेस सियासत की राजनीति कर रही थी। उसने गुंडागर्दी के खिलाफ आंखें मूंद रखी थी। उत्तर भारतीय पिटते हैं तो पिटते रहें। लेकिन आज जब शिवसेना की ओर से उनके युवराज को चुनौती दी गई थी, तब भला वे मौन कैसे रहते? रणनीति बनी और शिवसेना-मनसे को उनकी औकात बता दी गई। शुक्रवार को यह भी साबित हो गया कि राज्य सरकार चाहे तो ठाकरे व उनके गुंडों पर लगाम कस सकती है। मैं इस बिंदु पर शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के इस बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि अगर राहुल की मुंबई यात्रा के दौरान की गई चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था मुंबई में पहले रहती तब शायद आतंकी अपने हमलों को अंजाम नहीं दे पाते। राहुल की यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री सहित सभी नेता, पुलिस आयुक्त एवं उनका महकमा एक पांव पर खड़े दिखे। इसके विपरीत कुख्यात 26/11 के आतंकी हमले के दौरान ये क्या कर रहे थे, सभी जानते हैं। मुंबई जल रही थी, नेता-अधिकारी नदारद थे। जो अधिकारी मौके पर पहुंचे वे प्रशासकीय समन्वय के अभाव के कारण बेमौत मारे गए। इन शहीदों पर भी राजनीति से बाज नहीं आए हमारे नेता। राहुल गांधी की सफल-सुरक्षित मुंबई यात्रा के बाद सुखद नींद लेने वाले नेता अधिकारी आत्मचिंतन करें। अपने कर्तव्य को पहचानें। बगैर भेदभाव के नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा संबंधी कर्तव्य को पुन: चिन्हित करें।
कहते हैं कि सरकार अब जग गई है। चलो मान लिया। लेकिन आगे भी अर्थात राहुल गांधी की यात्रा की समाप्ति के बाद भी वह जगी रहेगी, पुन: सुसुप्तावस्था में नहीं जाएगी, क्या राज्य सरकार इस बात की गारंटी देने को तैयार है? लोग-बाग प्रतीक्षारत रहेंगे। अगर शुक्रवार 5 फरवरी 2010 को शासन-प्रशासन सफल हो सकता है तो 26 नवंबर 2008 को विफल कैसे रहा? अन्य मौकों पर भी उन पर कर्तव्यहीनता और विफलता के आरोप कैसे लगे? मुंबई तो सबकी जान है। शासन-प्रशासन इस सत्य को ह्रदयस्थ कर लें। ताजमहल भले आगरा में हो, देश का ताज तो मुंबई ही है। मुंबई के इस सच को मूक-रुदन का अवसर कोई न दे।

Friday, February 5, 2010

ठाकरे पर सरकार की रहस्यमय बेबसी!

जब दिल- दिमाग असंतुलित हो जाए तब स्मरणशक्ति भी कमजोर हो जाती है। अपने ही उगले शब्दों की याद नहीं रहती। नतीजतन नए वाचित शब्द अपने पूर्व के शब्दों अर्थात बातों को झूठा साबित कर देते हैं। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है।
यह निष्कर्ष गलत नहीं है। पता नहीं बाल ठाकरे 'मी मराठी' की जगह 'मी मुंबईकर' के पार्टी आंदोलन को कैसे भूल गए? पहले मराठी भाषियों को आकर्षित करने के लिए 'मी मराठी' आंदोलन उन्होंने खुद चलाया था। बाद में सन 2003 में जब पार्टी की कमान पुत्र उद्धव ठाकरे को सौंपी तब सरलचित्त उद्धव ठाकरे ने उत्तर भारतीयों को आकर्षित करने के लिए 'मी मुंबईकर' आंदोलन की शुरूआत की। उद्धव ने मुंबई में रस-बस जाने के लिए उत्तर- भारतीयों का आह्वान किया कि वे मराठी सीखें, महाराष्ट्र का सम्मान करें और 'मुंबईकर' बन जाएं। यहां तक कि संजय निरूपम द्वारा आयोजित उत्तर भारतीयों के छठ-पर्व कार्यक्रम में उद्धव ठाकरे उत्साह के साथ शामिल हुए थे। उद्धव के इस अभियान को बाल ठाकरे ने आशीर्वाद दिया था। अगर बाल ठाकरे यह भूल गए हैं तब मैं उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि सन 2007 में स्वयं बाल ठाकरे ने गति देने के लिए शिवसेना कार्यकर्ताओं और उत्तर भारतीयों का आह्वान किया था। ठाकरे ने तब कहा था कि हिंदुओं को चाहिए कि वे भाषा की दीवार तोड़ मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ एकजुट हो जाएं। क्या यह बताने की जरूरत है कि ठाकरे किस भाषा की दीवार तोडऩे की बात कर रहे हैं। अब जबकि ठाकरे मुंबई पर सिर्फ मराठियों के अधिकार की बात कर रहे हैं तब निश्चय ही लोगों की यह आशंका सच साबित हो रही है कि ठाकरे अपना दिमागी संतुलन खो चुके हैं, उनकी स्मरणशक्ति कमजोर पड़ गई है।
कोई आश्चर्य नहीं कि तब ऐसी अवस्था में बाल ठाकरे सभ्यता, शिष्टाचार भूल जाएं। उत्तर भारतीयों को समर्थन से राहुल गांधी पर वार करते हुए उन पर दिमागी संतुलन खो देने का जुमला तब तो ठीक था किंतु विवाह सरीखे निहायत निजी मामले पर वार कर ठाकरे ने घोर असभ्यता का परिचय दिया है।
इसके पूर्व बाल ठाकरे कभी भी इतना नीचे नहीं गिरे थे। उनकी यह टिप्पणी कि जब किसी का विवाह एक खास आयु तक नहीं हुआ तब वह व्यक्ति असंतुलित हो जाता है...और इसी पागलपन के कारण राहुल ने महाराष्ट्र का अपमान किया है, श्लीलता की सीमा पार कर गई है। बुजुर्ग बाल ठाकरे से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
'हिंदु सम्राट' के विशेषण से विभूषित बाल ठाकरे यह भी भूल गए कि हिंदु संस्कृति में किसी के नाम, रूप, धर्म, जाति और व्यवसाय को लेकर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जाती। लेकिन बाल ठाकरे पता नहीं किस रौ में ऐसी टिप्पणी कर गए कि मुंबई राहुल की 'इटालियन मां' की नहीं है। यह हिंदु संस्कृति ही नहीं, पूरी भारतीय संस्कृति और भारतीयता का अपमान है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। समझ से परे यह भी है कि एक व्यक्ति व उसका परिवार बेखौफ महाराष्ट्र का अपमान कर रहा है, भारतीय संविधान को चुनौती दे रहा है किंतु सरकार कानूनी कार्रवाई करने की जगह सिर्फ वक्तव्यों से जवाब दे रही है। क्या ठाकरे कानून से उपर हैं? आखिर राज्य सरकार उनसे भयभीत क्यों है? मुंबई के बड़े से बड़े अंडरवल्र्ड और माफियाओं पर अंकुश लगाने में सफल राज्य सरकार की ठाकरे के मामले में बेबसी रहस्यमय है।

...और तब पश्चाताप के आंसू बहाते दिखेंगे ठाकरे

बहस अरुचिकर तो है, किंतु अगर यह निर्णायक परिणति को प्राप्त करती है तब अंत भला तो सब भला। इसके लिए बधाई दे दूं सरसंघचालक मोहन भागवत को और कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी को, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंंत्री अशोक चव्हाण को भी और साथ ही शिवसेना के वृद्ध शेर बाल ठाकरे को विशेष रूप से। उत्तर भारतीयों एवं अन्य गैर-मराठियों के खिलाफ ठाकरे परिवार ने जो हिंसक रूप अपनाया, उनके खिलाफ विषवमन किए, उस पर यदा-कदा प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आती रही हैं। लेकिन इस बार सर संघ चालक मोहन भागवत ने उत्तर भारतीयों की रक्षा किए जाने का आह्वान कर सभी की नींदें तोड़ दी है। हिंदुत्व के मुद्दे पर परस्पर एक-दूसरे का साथ देने वाली शिवसेना और संघ परिवार इस मुद्दे पर कुछ यूं टकराए कि कांग्रेस और भाजपा भी मैदान में ताल ठोंकने लगे। यह पहला अवसर है जब सभी दल शिवसेना के खिलाफ एक स्वर में विरोध जता रहे हैं। यह एक उत्साहवर्धक घटना विकास क्रम है। चूंकि कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी ने गैर-मराठियों के मुद्दे पर शिवसेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, राज्य के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी अक्रामक मुद्रा में हैं। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी पहले ही मोहन भागवत की बातों का समर्थन कर चुके हैं। मुद्दा ही ऐसा है। भला इससे कैसे इनकार किया जा सकता है कि भारत संघ का हर प्रदेश पर सभी भारतीयों का अधिकार है। यह तो सियासत की अलगाववाद राजनीति है, जिसकी सीढिय़ों पर चढ़कर ठाकरे एंड कंपनी मराठी भाषियों को बरगला कर राजनीति की रोटी सेंकना चाहती है। ठाकरे इस मुद्दे को भावनात्मक शोषण का हथियार मानते हैं, जबकि हकीकत कुछ और है। कोई भी सर्वेक्षण करा ले, परिणाम यही दर्शाएगा कि शत-प्रतिशत मराठीभाषी राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हैं। पूरे देश को अपना माननेवाले ये लोग अपनी समृद्ध अवस्था से बगैर क्षेत्रीय भेद-भाव के सभी की सहायता को तत्पर रहते हैं। पूरा देश इसके लिए महाराष्ट्र का कृतज्ञ है। भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद (राष्ट्रपति) पर महाराष्ट्र की प्रतिभा पाटिल आज अगर स्थापित हैं तो पूरे राष्ट्रीय समर्थन के कारण ही। क्या इस सचाई को कोई चुनौती दे सकता है? कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक भारत के बीच विभेद करने की कोशिश ही वस्तुत: राष्ट्रद्रोह है और बाल ठाकरे इस द्रोह के अपराधी हैं। बहरहाल, अब देश यह आशा कर रहा है कि ताजा प्रज्ज्वलित विवाद पर एक बार फैसला हो ही जाए। संघ और भाजपा द्वारा भारत और भारतीयता के पक्ष में घोषणा किए जाने के बाद कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी का अक्रामक तेवर सराहनीय है। उन्होंने साफ-साफ घोषणा कर दी है कि गैर-मराठियों के खिलाफ किसी भी कार्रवाई का विरोध किया जाएगा और वे शांत नहीं बैठेंगे। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे द्वारा इस पर व्यक्त प्रतिक्रिया हास्यास्पद है। उद्धव का यह कहना कि राहुल का बयान मराठा विरोधी है और इससे मुंबई हमले के शहीदों का अपमान हुआ है, बिलकुल मजाकिया टिप्पणी है। उद्धव को हम एक अध्ययनशील, बुद्धिमान युवा नेता मानते थे, लेकिन उनके ताजा बयान से लोग निराश हुए हैं। वस्तुत: शहीदों का अपमान उनके बयान से हुआ है, राहुल के बयान से नहीं। दिक्कत यह है कि ठाकरे इस भ्रम से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं कि मुंबई उनकी जागीर है। लेकिन अब चूंकि राहुल गांधी के रूख से उत्साहित मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण सक्रिय दिख रहे हैं, यह आशा की जा सकती है कि इस बार इस अरूचिकर मुद्दे का वार-न्यारा हो जाएगा। तब निश्चय ही ठाकरे बंधुओं का भ्रम टूट जाएगा और वे मुंबई के किसी कोने में पश्चाताप के आंसू बहाते दिखेंगे।

Tuesday, February 2, 2010

क्षेत्रीयता- एक खतरनाक संक्रामक रोग!

राजनीति के दलदल से जब कमल खिलता है तब उसका स्वागत होता है। लेकिन जब उस दलदल में रंगबिरंगे मेंढक टर्र-टर्र करते हैं तब शांति भंग होती है। खेद है कि लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष मनोहर जोशी को इन दलदली मेढकों की श्रेणी में रखने को मजबूर हैं। यह हमारी सर्व स्वीकृत संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है जिसने विशाल भारत को एकसूत्र में बांध रखा है। सफल लोकतंत्र का पिछला छह दशक इसकी गवाह है। मनोहर जोशी मुंबई से चुनाव जीत राजधानी दिल्ली स्थित लोकसभा के अध्यक्ष बने थे- इसी प्रणाली की सीढिय़ां चढ़। आज जब जोशी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यह याद दिला रहे हैं कि मुंबई सिर्फ मराठियों की है, तब क्षमा करेंगे, जोशी अवश्य ही अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं। अगर मुंबई सिर्फ मराठियों की है तब वे मुंबई की सीमा लांघ दिल्ली क्यों पहुंच गए थे? दिल्ली में वे उस आसन पर बैठे थे जहां से पूरे देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को संसदीय अनुशासन के घेरे में रख उन्हें देश के सार्वभौमिक चरित्र की याद दिलाया करते थे। आज वे मुंबई और मराठी के बाड़े में सिकुड़ कैसे गए? क्या शिक्षक रह चुके मनोहर जोशी देश की इस जिज्ञासा का जवाब देंगे?
न तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने गलत कहा था और न ही भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी गलत कह रहे हैं। कांग्रेस के गृहमंत्री पी.चिदंबरम भी शतप्रतिशत सही हैं। इन लोगों ने यही तो कहा कि देश के सभी क्षेत्रों के भारतीयों को भारतीय सीमा के भीतर कहीं भी रहने और रोजी कमाने का अधिकार प्राप्त है- मुंबई अपवाद नहीं हो सकती। भारत में विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। ऐसे में जब बाल ठाकरे की शिवसेना और वस्तुत: उसी का एक अंश राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हिन्दी भाषियों और उत्तर भारतीयों पर हमला करती है- प्रताडि़त करती है, तब इनका विरोध कर भाजपा, संघ और कांग्रेस ने गलत क्या किया? संघ ने अपने स्वयंसेवकों को बिल्कुल सही निर्देश दिया है कि वे ऐसे हमलों से उत्तर भारतीयों की रक्षा करें। भाजपा ने इसका समर्थन किया और कांग्रेस ने भी शिवसेना की आलोचना की। 'हम सब भारतीय हैं' की अवधारणा का विरोध करने वाली शिवसेना का तिलमिलाना राष्ट्रविरोधी हरकत है। सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए इन दो सेनाओं का अभियान खतरनाक अलगाववाद को समर्थन देने वाला है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उध्दव ठाकरे की तिलमिलाहट एक गैरजिम्मेदार, तथ्यों से अनभिज्ञ की तिलमिलाहट है। संघ पर आक्रमण करते हुए उध्दव कहते हैं कि मुंबई में हुए दंगों के समय आरएसएस दुम दबाकर बैठा हुआ था। उध्दव के इस आरोप की सत्यता संदिग्ध है। लेकिन क्या उध्दव ठाकरे देश को यह बताएंगे कि मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमलों के समय शिवसैनिक किस दरबे में दुम दबाकर छुपे बैठे थे? क्यों नहीं बाहर निकलकर उन्होंने आतंकियों का सामना किया? आतंकियों ने हमला 'ठाकरे की मुंबई' पर किया था, उत्तर भारत के किसी शहर पर नहीं। कांग्रेस महामंत्री राहुल गांधी ने यह बता ही दिया कि आतंकियों का सामना करने में उत्तर भारतीय ही आगे रहे थे। उन्होंने वस्तुत: भारत के एक भाग पर हमले का मुकाबला किया था। क्षेत्रीयता और भाषा की संकीर्ण व आत्मघाती राजनीति को ठाकरे सिंचित न करें। यह एक खतरनाक संक्रामक रोग है। अगर इसका प्रसार होता रहा तब इसके विषाणु किसी को नहीं बख्शेंगे- न मराठी को, न उत्तर भारतीय को और न ही देश के किसी अन्य भाषा-भाषी को।

Monday, February 1, 2010

ठाकरे परिवार की यह कैसी स्पर्धा!

अब बहुत हो गया। क्या अब भी महाराष्ट्र सरकार तटस्थ बनी रहेगी? इस प्रवृति से सरकार छुटकारा पा ले। अन्यथा मुंबई महानगर में सांप्रदायिक तनाव और संभावित अराजकता का पूरा दोष राज्य सरकार के सिर मढ़ दिया जाएगा। सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाली शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ कार्रवाई से मुंह फेरने वाली राज्य सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारी से आंख नहीं मूंदे। यह समझ से परे है कि राज्य सरकार इन दोनों सेनाओं को समानांन्तर सरकार चलाने की अनुमति कैसे दे रही है? आम जनता इस सवाल का जवाब चाहती है। कभी कोई उत्तर भारतीयों को महानगर छोड़ देने का फतवा जारी कर देता है, तो कभी कोई गैर-मराठियों को संस्कृति के नाम पर जूते लगा देता है। और तो और विधानसभा के अंदर सभाध्यक्ष, मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों की आंखों के सामने एक विधायक की इसलिए पिटाई कर दी जाती है कि वह सदस्यता की शपथ राजभाषा हिंदी में लेता है। एक समाचार चैनल के दफ्तर में इस सेना के गुंडे तोड़-फोड़ करते हैं, संपादक को मारने की कोशिश करते हैं, क्योंकि इस चैनल ने शिवसेना प्रमुख की आलोचना की थी। कानून को अपने हाथों में लेने वाले सेना के नेताओं, कार्यकर्ताओं के खिलाफ कभी कोई दंडात्मक कदम नहीं उठाए गए। दिखावे के लिए इनके खिलाफ यदा-कदा मामूली किस्म के मामले दर्ज हुए, अदालत में पेशी के नाटक हुए और फिर सब कुछ शांत। ऐसे में ये तत्व बेखौफ अपनी मनमानी करने से चुके क्यों? वे अगर बार-बार देश को यह एहसास दिलाते रहते हैं कि मुंबई उनकी और सिर्फ उनकी जागीर है, तो क्या आश्चर्य।
ताजा मामला ह्रदयाग्राही है। शिवसेना ने मुंबई और ठाणे सहित महाराष्ट्र के अन्य शहरों के सिनेमागृह मालिकों को फतवा जारी कर कहा है कि वे प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता शाहरूख खान के फिल्मों को थियेटर में न लगाएं। क्या दोष है शाहरूख का? पिछले दिनों आईपीएल द्वारा आयोजित किए जा रहे क्रिकेट मैचों के लिए खिलाडिय़ों की नीलामी में किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी के लिए बोली नहीं लगाई गई। शाहरूख ने इस पर टिप्पणी करते हुए सिर्फ यह कहा था कि पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ गलत हुआ। शिवसेना प्रमुख बिफर उठे। उन्होंने शाहरूख को देशद्रोही करार दे दिया। ठाकरे की राजनीतिक सोच ने बयान को पाकिस्तान समर्थक निरूपित कर डाला। फरमान जारी हो गया कि शाहरूख की फिल्में थियेटरों में न लगाई जाए। बाल ठाकरे की इस 'अदालत' को किस रूप में देखा जाए? देशद्रोही या राष्ट्रभक्ति पर फैसला लेने का अधिकार इन्हें किसने दिया? सिर्फ शाहरूख की फिल्में नहीं लगाए जाने का फरमान ही जारी नहीं हुआ, यह भी ऐलान किया गया कि जब तक शाहरूख खान शिवसेना प्रमुख बालठाकरे से माफी नहीं मांगते, तब तक उनके फिल्मों का बहिष्कार जारी रहे। देश का लोकतंत्र क्या ऐसे किसी संविधानेत्तर सत्ता को स्वीकार करेगा? तोड़-फोड़, भय और अलगाववाद की बुनियाद पर राजनीति करने वाली ठाकरे एंड कंपनी की इन हरकतों को आखिर कब तक बर्दाश्त किया जाएगा? यह तो अब स्पष्ट हो गया है कि शिवसेना की ताजा अराजक सक्रियता वस्तुत: राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की गुंडागर्दी से ज्यादा कठोर दिखने के लिए है। अब लगभग अशक्त हो चुके बाल ठाकरे नहीं चाहते कि अराजकता की जिस बुनियाद पर शिवसेना खड़ी हुई थी, उसका राज ठाकरे अपहरण कर ले जाएं। वे इस बुनियाद पर एकाधिकार चाहते हैं, अपने उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के लिए। क्या यह शर्मनाक नहीं कि गुंडागर्दी की इस स्पर्धा में पूरे महाराष्ट्र राज्य का अपमान किया जा रहा है? ठाकरे बंधु तो इसकी चिंता करेंगे नहीं। खेद है कि राज्य सरकार भी इस मुद्दे पर तटस्थ दिख रही है। शासक यह न भूलें कि ऐसी अवस्थाएं ही कालांतर में आत्मघाती सिद्ध होती हैं।

क्या राजनीति की परिभाषा बदलेंगे गडकरी?

सत्ता वासना के दुष्प्रभाव से अद्र्धमूर्छित राजनेताओं की बड़ी फौज! सत्ता सुंदरी के हरण को तैयार। अयोग्यता से उपजी अतृप्त इच्छाओं की तत्काल पूर्ति को व्यग्र। धनबल, बाहुबल के कंधों पर सवार। वैश्वीकरण की चकाचौंध में संस्कृति की 'माल' के रूप में बोली लगाते। मूल्य, सिद्धांत, नैतिकता हाशिये पर। पूर्णत: लक्ष्यविहीन। चहुंओर लालचियों-मूर्खों की स्वार्थजनित हुंकार। इन रोग-रोगियों के बीच से अगर यह स्वर उठे कि 'राजनीति का उपयोग आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये किया जाना चाहिए, न कि शक्ति के लिए', तब लोगबाग चौंकेंगे ही। लोगबाग की इस स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया से कंपित, तथापि प्रफुल्लित मेरी कलम इस आशा-विश्वास को चिन्हित कर रही है कि सत्ता की राजनीति से इतर समाज-देश के हित में सक्रिय कुछ लोग अभी भी मौजूद हैं। वैसे इस विचार के राजनीतिक धारक अपवाद की श्रेणी में ही रखे जाएंगे। उस समय तक, जब तक इनकी पंक्ति लंबी नहीं हो जाती।
बहरहाल, इस विचार के प्रतिपादक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सशर्त साधुवाद। शर्त यह कि वे अपने विचार पर कायम रहें और व्यवहार के स्तर पर उन्हें क्रियान्वित करें। क्या गडकरी सत्ता शक्ति और सत्ता प्रलोभन के बाड़े को तोड़कर ऐसा कर पाएंगे? यह सवाल आज प्रत्येक राजनीतिक चिंतक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित कर रहा है। घोर निजी स्वार्थ और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था क्या गडकरी को उनकी 'राजनीतिक क्रांति' के लिए मार्ग सुलभ होने देगी? उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों के जानकार निराश नहीं हैं। आशावान हैं वे कि गडकरी लक्ष्य-मार्ग स्वयं तलाश कर राजनीति की परिभाषा बदल देंगे। लक्ष्य कोई भी असाध्य नहीं होता। दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण अंतत: लक्ष्य को अपनी गोद में बैठाने में सफल हो जाता है। गडकरी ने लगभग 2 दशक से अधिक की अवधि में उन्हें नजदीक से देखा-परखा है। कोई आडम्बर नहीं, प्रलोभन नहीं। ख्याली पुलाव से स्वयं को मुगालते में नहीं रखते। कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं। पूर्णत: व्यावहारिक। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं तो पालते हैं। किन्तु उनकी सीढिय़ां आर्थिक और सामाजिक विकास के दालान में जाकर समाप्त होती है। एक समीक्षक ने उनकी तुलना अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से यूं ही नहीं की है। अभिमान की जगह आत्मविश्वास के अस्त्र से लैस गडकरी की सोच कि 'गरीबी हटाना राजनीति का अंत होना चाहिए', उनका संपूर्ण वाङ्गमय है। अब फिर वही सवाल कि क्या गडकरी सफल हो पाएंगे?
दिल्ली के पत्रकार-राजनीतिक मित्र पूर्णत: आश्वस्त नहीं हैं। दिल्ली की दलदली राजनीति ही ऐसी है। सफेद बेदाग कपड़ों से उसे एलर्जी है। उसे यह बर्दाश्त नहीं कि किसी ऐसे बाहरी का वहां प्रवेश हो जो अपनी कार्यकुशलता का सफल मंचन कर दिखाए। इस मुकाम पर दिल्ली एक है- कोई पक्ष-विपक्ष नहीं। अपना-पराया नहीं। सो सुनियोजित तरीके से षड्यंत्र रच प्रचारतंत्र सक्रिय कर दिए गए- अनजान, अनुभवहीन के जुमले उछाले गए। लेकिन ये तत्व इस तथ्य को भूल गए कि गडकरी का अर्थ ही होता है- दुर्ग रक्षक। मेरे ये शब्द किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं, एक सोच, एक राष्ट्र हितचिंतक और एक सामाजिक सिद्धांत की स्वीकृति है। ध्यान रहे, आज देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है। प्राय: सभी राजनीतिक दल समय की इस मांग के प्रवाह के साथ हैं। निश्चय ही इसकी परिणति राष्ट्रीय स्तर पर बड़े परिवर्तन के रूप में होगी। अधिकार-एकाधिकार के ताने-बाने बिखर जाएंगे। नए परिदृश्य में राजनीति का पहिया आर्थिक, सामाजिक विकास की गाड़ी से जुड़ा मिलेगा। राजनीति में प्रवेश कर रहा कर्मठ युवा वर्ग इसे सुनिश्चित करेगा। यही तो है 'गडकरी लक्ष्य'! हां, इस बिंदु पर एक चेतावनी सभी राजदलों-राजनेताओं के लिए- पुजारी का अस्तित्व तभी तक है, जब मंदिर साबुत खड़ा हो। मंदिर ढहेगा तब पुजारी भी खत्म हो जाएंगे। ऐसे में मंदिर रूपी भारत देश की आभा, अखंडता पर कोई वार न करे।