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Saturday, December 25, 2010

'1989' के पुनर्मंचन की ओर !

ईमानदारी का लबादा ओढ़ देश को भ्रष्टाचार के दलदल में आकं ठ डुबो चुके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह में अगर थोड़ी भी शर्म बाकी है, नैतिकता का एक कतरा भी उनमें शेष है, देश और जनता के हक में थोड़ी भी हमदर्दी है और इन सबों से ऊपर अगर वे स्वयं को सभ्य मानव अथवा मनुष्य मानते हैं तो वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें। सिर्फ इस्तीफा ही न दें बल्कि एक भारतीय नागरिक का हक अदा करते हुए तमाम घोटालों, भ्रष्टाचारों के सच को स्वयं अनावृत कर दें। घोटालों, भ्रष्टाचार के दोषियों के चेहरों से नकाब नोच उनकी असलियत को बेपर्दा कर दें। चूंकि अनेक भ्रष्टाचार उनकी जानकारी (मजबूरी में ही सही) में ही हुए हैं, उनमें लिप्त लोगों के लिए दंड क ी राह वे खुद दिखाएं। सत्ता मोह त्याग कर मनमोहन सिंह उन चेहरों को भी बेनकाब करें जो सीधे सत्ता में न होते हुए भी सत्ता संचालन कर रहे हैं और परदे के पीछे रहक र अब तक उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा और संरक्षण देते रहे हैं। हां, यहां मेरा इशारा कांग्रेस अध्यक्ष और संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की ओर ही है।
निष्पक्ष, तटस्थ हर व्यक्ति इस बात की पुष्टि करेगा कि सोनिया की अध्यक्षता वाली संप्रग सरकार में जिस पैमाने पर घोटाले हुए वैसा कभी नहीं हुआ। आम जनता के धन से निर्मित सरकारी कोष को दोनों हाथों से लूटा गया। नियम-कानून को धता बताया गया, सरकारी तंत्रों का स्वहित में इस्तेमाल किया गया, अधिकारों का दुरुपयोग किया गया, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन कि या गया, देश में घाटालेबाजों और दलालों का बोलबाला हो गया, न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिशें की गईं और यहां तक कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्य मीडिया को भी प्रलोभन के जाल में फंसा भ्रष्ट करने की कोशिशें की गईं। और ये सब देश-समाज विरोधी कार्रवाइयां होती रहीं प्रधानमंत्री की जानकारी में। फिर क्या अचरज कि विश्वमहाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत आज महाभ्रष्ट- घोटालेबाजों-दलालों के देश के रूप में देखा जाने लगा है। आज पूरा संसार भारत का नाम ले हंस रहा है कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में मंत्रियों की नियुक्तियां भी पतित दलालों की अनुशंसाओं पर की जाती हैं! दलाल सोने-चांदी के सिक्कों से न केवल सरकारी अधिकारियों बल्कि महिमामंडित मीडियाकर्मियों को भी खरीद रहे हैं? विषकन्यायुक्त ऐसी दलाल मंडली का भरपूर उपयोग बड़े औद्योगिक घरानों सहित राजनीतिज्ञ भी कर रहे हैं। इस पाश्र्व मेंं भारत देश आज गर्व करे तो किस बात पर? हमारी सारी उपलब्धियां भ्रष्टाचार के गंदले तालाब मेंं समा गई हैं। निश्चय ही इन सबों के लिए हमारे प्रधानमंत्री सीधे जिम्मेदार हैं। अपनी पार्टी अध्यक्ष और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं से ईमानदारी का प्रमाणपत्र ले प्रधानमंत्री भले खुश हो लें, देश की नजरों में वे गिर चुके हैं, आम आदमी उन्हें देश का गुनाहगार मान रहा है। हाल के चर्चित घोटालों से उत्पन्न राष्ट्रीय आक्रोश के प्रति उनकी असंवेदनशीलता निंदनीय है। उनसे अब ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं। दो टूक बात यह कि वे तत्काल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दें और पापों के प्रायश्चित के लिए भ्रष्टाचार के विरोध में स्वयं सड़क पर निकलें। क्षमाशील देश संभवत: उन्हें क्षमा कर देगा। अन्यथा, देश की मान-मर्यादा-गरिमा के पक्ष में लोकतंत्र के प्रति समर्पित जनता 1989 को दोहरा देगी। उन्हें याद दिलाने के लिए दोहरा दूं कि तब बोफोर्स घोटाले की चित्कार के बीच जनता ने राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार को उखाड़ फेंका था। 2014 अधिक दूर नहीं।

Tuesday, December 21, 2010

गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री!

अशिष्ट, असभ्य, असंस्कृति निरुपित किए जाने की पीड़ादायक संभावना के बीच मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूँ कि हमारे विद्वान अर्थशास्त्री, ईमानदार प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने झूठ बोला है, देश को गुमराह किया है और संसद का अपमान किया है। कांग्रेस महाअधिवेशन के अंतिम दिन सोमवार को उनके भाषण से ऐसा लगा ही नहीं कि उन्हें देश या संसद की चिंता है। हो भी कैसे? एक दिन पूर्व ही तो उनकी प्रेरणास्त्रोत सोनिया गांधी उन्हें ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बता चुकी थीं! फिर वे किसी और के प्रमाणपत्र की चिंता करें तो क्यों? आखिर उन्हें प्रधानमंत्री बनाया तो सोनिया ने ही! आम मतदाता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि भी तो नहीं हैं वे! फिर जनता की परवाह क्यों करें? भारत जैसे महान शक्तिशाली देश के डा. मनमोहन सिंह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो बगैर लोकसभा का चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बनते आ रहे हैं। आजादी पश्चात संसदीय लोकतंत्र की परिकल्पना को मूर्त रुप देनेवाले हमारे दिवंगत राष्ट्रनिर्माता परलोक में चाहे सौ-सौ आंसू बहा लें, लोकतंत्र के साथ 'छलÓ का यह शर्मनाक उदाहरण इतिहास में दर्ज हो चुका है। लोकतंत्र का यह एक स्याह पक्ष है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति देश के मतदाता के प्रति सीधे जिम्मेदार नहीं। फिर कौन सा मूल्य? कैसा सिद्धांत? और कैसी पारदर्शिता? फिर क्या अचरज कि पार्टी अधिवेशन के मंच से उन्होंने घोषणा कर डाली कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए वे परंपरा तोड़कर संसदीय लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं। वे कुछ छुपाना नहीं चाहते। इस बिन्दु पर प्रधानमंत्री को एक सीधी चुनौती। जब वे परंपरा तोड़कर लोकलेखा समिति के सामने पेश होने को तैयार हैं, तब वे स्थापित परंपरा को आगे बढ़ाते हुए घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से करवाने से क्यों भाग रहे हैं? अचरज है कि प्रधानमंत्री ने यह घोषणा संसद के अंदर क्यों नहीं की - पार्टी के मंच से क्यों किया? क्या यह संसदीय प्रणाली की अवमानना नहीं! सभी जानते हैं कि लोकलेखा समिति (पीएसी) के अधिकार सीमित हैं। यह समिति सिर्फ नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के दायरे में ही जांच कर सकती है। पीएसी के सामने पेश होने की मंशा को जाहिर कर तालियां बटोरने वाले प्रधानमंत्री अगर इस तथ्य से अपरिचित हैं, तब प्रधानमंत्री पद की गलतबयानी कर रहे हैं प्रधानमंत्री! उनकी पात्रता पर ही सवाल खड़े हो जायेंगे।
जेपीसी की विपक्ष की मंाग को राजनीति से जोड़कर प्रधानमंत्री ने देश की संसदीय प्रणाली का मखौल उड़ाया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी सरकार को पाक-साफ बताने के क्रम में प्रधानमंत्री गलतबयानी करते चले गए। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला व अन्य घोटालों के संदर्भ में प्रधानमंत्री का यह बयान कि उन्होंने ऐसे मामलों में तुरंत कार्रवाई करते हुए केवल संदेह के आधार पर ही मंत्री और मुख्यमंत्री हटाए, बिल्कुल गलत है। झूठ बोला है प्रधानमंत्री ने! स्पेक्ट्रम घोटाले को ही लें। संप्रग - 1 की उनकी सरकार के समय से ही यह घोटाला चर्चित था। तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए-राजा के खिलाफ भ्रष्टाचार व अनियमितता के आरोप लगाए जा रहे थे। लेकिन तब प्रधानमंत्री मौन रहे। कोई कारवाई नहीं की। संप्रग - 2 मंत्रिमंडल में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ए. राजा को न केवल शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग दे डाला! क्यों और कैसे देश इसे अब जान चुका है। सत्ता और कार्पोरेट क्षेत्र की एक दलाल के प्रभाव में ए. राजा उपकृत किए गए। दलाल और उसके दलालों को उपकृत क्यों किया प्रधानमंत्रीने? स्पेक्ट्रम की नीलामी अथवा आवंटन के लिए गठित मंत्रियों के समूह के अधिकारों में संशोधन कर स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को मनमानी करने की छूट दी थी। इस मामले में घोटालों की गूंज की अनदेखी क्या प्रधानमंत्री लगातार नहीं करते रहे? वर्षों चुप बैठने के बाद ए.राजा के खिलाफ कारवाई तब की गई जब मीडिया ने इस मामले को प्रतिदिन उछालना शुरु किया और सीएजी की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। तब तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मौन क्या घोटाले पर परदा डालना साबित नहीं करता? प्रधानमंत्री चाहे जितना इन्कार कर लें, देश की जनता अब जान चुकी है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला अगर हुआ तो प्रधानमंत्री की जानकारी में!
जेपीसी की मांग को ठुकराना और विपक्ष पर संसद का वक्त जाया करने का आरोप लगाना स्वयं प्रधानमंत्री की नीयत को संदिग्ध बनाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों पर त्वरित कारवाई करने का प्रधानमंत्री का आरोप भी खोखला है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर नटवर सिंह का उदाहरण देना हास्यास्पद हैं। तेल के बदले अनाज घोटाले में लिप्तता के आरोप में नटवर सिंह को तो हटाया गया किंतु तब यह साफ-साफ दिख रहा था कि स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उस मामले में संदिग्ध भूमिका अदा की थी। नटवर सिंह को तो बलि का बकरा बनाया गया था। भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़कर फेंकने और भ्रष्टाचारियों को दंडित किए जाने का दावा करनेवाले प्रधानमंत्री क्या यह बतायेंगे कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले के लिए अशोक चव्हाण की बलि तो ली गई किंतु उसी घोटाले में संदिग्ध विलासराव देशमुख और सुशिलकुमार शिंदे अभी तक उनके मंत्रिमंडल में कैसे बने हुए हैं? कहां गया संदेह पर तुरंत कारवाई का उनका दावा? प्रधानमंत्री से देश यह भी जानना चाहेगा कि जब यह बात सार्वजनिक हो गई कि हाईकोर्ट के एक जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर सूचित किया था कि एक केंद्रीय मंत्री ने फोन कर उन्हें कुछ आरोपियों को जमानत देने को कहा था और धमकाया था, तब उन्होंने पारदर्शिता के पक्ष में उस मंत्री की पहचान कर उन्हें दंडित क्यों नहीं किया? देश को बताया क्यों नहीं? भारत के सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का मामला तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी को सरकारी प्रश्रय सरंक्षण दिए जाने का ज्वलंत उदाहरण ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा लताड़े जाने के बावजूद प्रधानमंत्री खामोश हैं। बताएंगे क्यों? निश्चय ही प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार को संवैधानिक मान्यता देने का अपराध करते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके शब्द दिखावा मात्र हैं। यह आक्रोश व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भावना का प्रदर्शन है। परिपक्व भारतीय नागरिक ऐसे छलावे में अब नही आयेंगे। देश ने अगर अपने लिए संविधान का निर्माण कर लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली को अपनाया है तो वह जिम्मेदारी सुनिश्चित करने में भी सक्षम है। आम जनता को मूर्ख और उसकी स्मरणशक्ति को कम आंकने की भूल प्रधानमंत्री न करें।

Sunday, December 19, 2010

मुस्लिम वोट बैंक की खतरनाक राजनीति!

कभी स्वयं के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी की अभिलाषा रखने वाले दिग्गी राजा अर्थात् दिग्विजय सिंह पर तरस खाने को जी चाहता है। इस हकीकत को जान लेने के बाद कि प्रधानमंत्री पद नेहरू-गांधी वंश के लिए आरक्षित हो चुका है, दिग्विजय ने इसका मोह तो त्याग किन्तु चाटुकारिता को इस हद तक अंगीकार कर लिया कि उनके चाहने वाले भी भौचक हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 10 वर्षों तक शासन करने के बाद अपनी कांग्रेस पार्टी को वहां स्थायी मौत दे चुके दिग्विजय आखिर चाहते क्या हैं? दिग्विजय कहीं किसी अदृश्य एजेंडे पर तो नहीं काम कर रहे? उनके करीबी इस जिज्ञासा पर रहस्यमय मौन साध लेते हैं। इनके रिश्तेदार अर्जुन सिंह ने छात्र जीवन में अपने पिता की चिता के समक्ष कसम खाई थी कि वे कांगे्रस को समाप्त कर देंगे। चूंकि उस घटना की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ , आज विस्तार में नहीं जा रहा। नियति ने उन्हें उसी कांग्रेस के घर पनाह लेने को मजबूर कर दिया था, जिस घर को ध्वस्त करने की कसम खाई थी। कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल किया, जम कर इस्तेमाल किया और आज अर्जुन सिंह की वर्तमान दुर्दशा को क्या बताने की जरूरत है। हाँ, यह जरूर है कि उनके रिश्तेदार दिग्विजय सिंह की अनुकंपा से मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने कफन अवश्य ओढ़ लिया। वही दिग्विजय सिंह आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवाद की तुलना जर्मन तानाशाह हिटलर के राष्ट्रवाद से कर संघ परिवार को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित कर रहे हंै। लोगों की त्वरित प्रतिक्रिया यही आई कि वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। लेकिन, मैं इससे सहमत नहीं। निश्चय ही दिग्विजय अर्जुन सिंह की कसम को राष्ट्रीय स्तर पर पूरा हुआ देखना चाहते हैं। सरस्वती शिशु मंदिर पर हिंसा और विद्वेेश फैलाने का आरोप लगाकर दिग्विजय निश्चय ही मदरसों में जारी आतंकवादी गतिविधियों का बचाव कर रहे हैं।पूर्वानुमान को सच साबित करते हुए कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी ने हर तरह के आतंकवाद को देश के लिए खतरा बताया, किन्तु दिग्विजय ने साफ शब्दों में हिंदू संगठनों को ज्यादा खतरनाक निरूपित किया। अमेरिकी राजदूत से राहुल गांधी ने यही तो कहा था। कांग्रेस महाधिवेशन में दिग्विजय का पूरा भाषण हिंदुओं के खिलाफ था। अपने संबोधन में एक बार भी दिग्विजय ने किसी मुस्लिम संगठन का नाम नही लिया। उन्होंने यह तो पूछा कि विस्फोट की कुछ घटनाओं में जो हिन्दू पकडे गए वे सभी संघ परिवार के क्यों है, किन्तु यह बताना भूल गए कि संसद पर हमले से लेेकर मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, वाराणसी ही नहीं बल्कि पूरे संसार में आतंकी हमले में पकड़े गए सभी आतंकी मुसलमान कैसे निकले? इस तरह का उदाहरण देना और चर्चा करना उचित तो नहीं किन्तु दिग्विजय सिंह के मार्फत कांग्रेस की असली मंशा को चिन्हित करने के लिए दु:खी हृदय में इसे दोहराना पड़ रहा है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। दिग्विजय मुसलमानों को खुश करने अर्थात् कांग्रेेस पार्टी के हाथों से खिसक चुके वोट बैंक पर पुन: कब्जा करने के लिए मुसलमान-मुसलमान का रट लगाते हुए बाबरी मस्जि़द को गिराये जाने की घटना की याद करना भी नहीं भूले। देश के माथे पर इसे धब्बा बताते हुए इसे मिटाने का संकल्प लेने की बात उन्होंने कही। बता दूँ कि कतिपय कट्टरपंथियों को छोड़ कर देश का व्यापक मुस्लिम समाज अपने लिए तुष्टिकरण की कांग्रेसी नीति से घृणा करने लगा है। मुस्लिम इसे अपना अपमान समझते हंै। बिहार का ताजा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण है। कांग्रेस अब चाहे लाख कोशिश कर ले मुस्लिम समाज कांग्रेस के लिए वोट बैंक हरगिज नहीं बनेगा। हिंदू और मुसलमानों के बीच कथित रूप से बढ़ती खाई के लिए संघ परिवार को जिम्मेदार ठहराने वाले शिक्षित दिग्विजय उस समय बिलकुल अशिक्षित लगे जब उन्होंने न्यायपालिका, नौकरशाही और भारतीय सेना में संघ परिवार के घुसपैठ की जानकारी दी। हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई को कांग्रेस ही बड़ा कर रही है। दोनों समुदाय के बीच घृणा का जहर घोल रही है वह। इस तरह की बातें कोई जिम्मेदार व्यक्ति तो कर ही नहीं सकता। साफ है कि दिग्विजय कोई और ही लक्ष्य साध रहे हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के जनक के रूप में भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन का नाम लेकर दिग्विजय ने जिस पाप को छिपाने की कोशिश की है वह मोटे अक्षरों में चिन्हित हो गया। एक चोर दूसरे को चोर बताकर स्वयं चोरी के अपराध से मुक्त नहीं हो जाता। दिग्विजय अपने गुप्त एजेंडे को लागू करें, कांग्रेेेस का बंटाधार करें अपनी बला से। अनुरोध है कि इस प्रक्रिया में वे देश व समाज में सामप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा न दें। जाति-धर्म की राजनीति से घृणा करने वाली युवा पीढ़ी को भ्रमित तो नहीं ही करंे। हां, एक बात और बता दूं। अगर दिग्विजय समय रहते नहीं चेते तो उनका हश्र भी कांग्रेस में वही होगा जो अर्जुनसिंह का हुआ। पहले इस्तेमाल और फिर कूड़ादान!

Saturday, December 18, 2010

अल्पज्ञान का मंडराता खतरा!

एक पुरानी मान्यता है कि अज्ञानी से कहीं अधिक खतरनाक अल्पज्ञानी होते हैं। क्योंकि होते तो हैं वे अल्पज्ञानी, किन्तु स्वांग भरते हैं पूर्ण ज्ञानी होने का। फिर क्या आश्चर्य कि प्रधानमंत्री सहित कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत राहुल गांधी आज चौतरफा प्रहार झेल रहे हैं। अगर राहुल को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया गया होता तो संभवत: इतना बवाल नहीं मचता। चाटुकारिता के कंधों पर रखी वंशवाद की सीढ़ी चढ़ देश के नेता बने राहुल गांधी अपनी रणनीति की विफलता के बावजूद गलतियों को दोहराते रहने का परिणाम भुगत रहे हैं। एक अल्पज्ञानी ही ऐसी दुर्घटना का शिकार हो सकता है। सलाह चाहे दिग्विजय सिंह ने दी हो या किसी अन्य ने, अल्पसंख्यक कार्ड का 'राहुल प्रयोग' अबतक विफल ही नहीं, प्रति-उत्पादक भी सिद्ध होता रहा है। सन् 2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान करोड़ों खर्च कर राहुल के लिए 'रोड शो' अर्थात् 'सड़क तमाशे' आयोजित किये गए थे। तमाशे के लिए जगह-जगह भीड़ भी जुटाए गए थे। क्या यह बताने की जरूरत है कि ऐसी भीड़ में अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों की ही बहुतायत होती है! ऐसी ही भीड़ों को तब संबोधित करते हुए राहुल गांधीने अपने 'ज्ञान' का बखान करते हुए कह डाला था कि अगर 1992 में नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जि़द का विध्वंस नहीं होता। उन्हीं सड़क तमाशों के बीच एक बार राहुल यह भी कह गए थे कि बांग्लादेश उदय का श्रेय उनकी दादी इंदिरा गांधी को जाता है। इस मुकाम पर उनके 'ज्ञान' पर स्वयं कांग्रेसी हतप्रभ रह गए थे। पहले मामले में जहां राहुल अल्पसंख्यक समुदाय की सहानुभूति बटोरना चाहते थे वहीं दूसरे मामले में अल्पसंख्यक समुदाय को आहत कर डाला। राहुल को ज्ञान देने वाले इस कठोर सत्य को बताना भूल गए थे कि अल्पसंख्यक समुदाय पूर्वी पाकिस्तान की जगह बांग्लादेश के निर्माण को आजतक पचा नहीं पाया है। नतीजतन, राहुल के तमाम तामझाम और कांग्रेस के दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगे्रस का सफाया हो गया। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने के लिए राहुल के सलाहकारों ने फिर अल्पसंख्यंक कार्ड खेला। प्रदेश अध्यक्ष के पद पर अल्पसंख्यक व्यक्ति की नियुक्ति की गई। राहुल गांधी, सोनिया गांधी व स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बिहार के तूफानी दौरे किये। अपने हर संबोधन में राहुल ने अल्पसंख्यक मतदाता को रिझाने की कोशिश की। एक बार तो यहां तक पूछ डाला कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए नीतीश सरकार ने अबतक जमीन आवंटन क्यों नहीं किया। संघ परिवार व भाजपा को निशाने पर लेते हुए राहुल चुनाव प्रचार के दौरान यह दोहराते रहे कि इन कट्टर पंथियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को मतदाता समर्थन दें। आरएसएस को प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी के समकक्ष रख अपने ज्ञान का जलवा दिखाने वाले राहुल गांधी का सारा ध्यान केंद्रित था तो कथित हिंदू कट्टरवाद के मुकाबले अल्पसंख्यक वोट पर। जदयू-भाजपा सरकार को भ्रष्ट, निकृष्ट, अकर्मण्य निरूपित कर कांग्रेस की सफलता की भविष्यवाणी करने वाले राहुल गांधी को तब मुंह छुपाना पड़ा जब बिहार के मतदाता ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। राहुल का अल्पसंख्यक कार्ड एक बार फिर बेजान साबित हुआ। कथित कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को आतंकवाद का पर्याय बन चुके लश्कर-ए-तैयबा से अधिक खतरनाक बताने वाले राहुल गांधी की 'नीयत' अब कटघरे में है। आज रविवार को राहुल ने इस पर सफाई देने का संकेत दिया है। जाहिर है उनके सलाहकार लीपापोती का प्रयास करेंगे। आतंकवाद की व्यापकता को रेखंाकित कर राहुल अपने उगले हुए शब्दों पर परदा डालने की कोशिश करेंगे। लेकिन भारत का परिपक्व लोकतंत्र, परिपक्व आबादी उनके झांसे में आएंगे यह संदिग्ध है। राहुल के 'ज्ञान' से यह देश अब निर्देशित होने वाला नहीं। बिहार का चुनाव परिणाम पूरे देश के लोकतांत्रिक भविष्य के सूचक के रूप में सामने आया है। जाति, धर्म और संप्रदाय के मुकाबले उसने विकास के पक्ष में फैसला सुनाया है। बेहतर हो राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी बिहार के सबक को स्वीकार कर लें। इस देश की परिपक्व युवा पीढ़ी इन सब व्याधियों से दूर रहना चाहती है। अपने प्रस्तावित संबोधन में राहुल सावधानी बरतें। शब्दों का मायाजाल अब नहीं चलेगा। वास्तविकता को पहचान विकास और सुशासन के पक्ष में ध्यान केंद्रित करें राहुल। वोट की राजनीति के लिए अल्पसंख्यक कार्ड खेलना तो बंद कर ही दें। देश की बहुसंख्यक आबादी इस खेल से उब चुकी है। देश के आंतरिक मामलों की चर्चा वे देश में देश के साथ करें। अमेरिका या किसी अन्य के साथ नहीं। अन्यथा, देश अपने उपर मंडराते अल्पज्ञान के खतरे से निजात पाने का अपना तरीका ढूंढ लेगा।

Friday, December 17, 2010

...तब अंग्रेज, आज कांग्रेस

देश सावधान हो जाए। एक बार फिर सांप्रदायिक आधार पर देश को बांटने की तैयारी हो रही है। बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर। इस मामले में दु:खद यह कि ताजा प्रयास गुलाम भारत में अंग्रेजों की तरह नहीं, बल्कि आजाद भारत में अपने ही लोगों द्वारा हो रहा है। वह भी, वोट और सिर्फ वोट की राजनीति के लिए। अंग्रेजों ने शासन कायम रखने के लिए वह पाप किया था, आज राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए ऐसा पाप कर रहे हैं।
अगर कांग्रेस की दृष्टि में लश्कर-ए-तैयबा से कहीं अधिक खतरनाक कट्टरवादी हिंदू संगठन हैं, तो क्षमा करेंगे, इस दल के नए नेतृत्व को न तो हिंदुस्तान की पहचान है और न ही हिंदुस्तानी सोच की। देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी को प्रस्तुत करनेवाली कांग्रेस दु:खद रूप से स्वयं अपने इतिहास को भूल रही है। भविष्य के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की प्रक्रिया में अतीत की याद की जाती है। समझदार अतीत से सबक भी लेते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे शाश्वत सत्य को कांगे्रस नजरअंदाज क्यों कर रही हैं? पार्टी के नीति निर्धारक इतने नासमझ कैसे हो गए? मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि केंद्रीय सत्ता पर काबिज पार्टी की कमान मूर्खों की कोई मंडली संभाल रही है। मैं चाहूंगा कि मेरा आकलन गलत साबित हो। लेकिन फिलहाल यह शब्दांकित करने के लिए विवश हूँ कि कहीं कोई शातिर दिमाग है जो देश के इस अभिभावक दल के कंधों पर बंदूक रख लक्ष्य साध रही है। इस अदृश्य शक्ति की पहचान जरुरी है। इतिहास गवाह है कि व्यापार के नाम पर भारत पहुंचे अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता, साजिश और अत्याचार के हथियार से भारत को गुलाम बनाया तथा धर्म संप्रदाय के विष का फैलाव कर फुट डालो और राज करो की नीति अपनाकर हम पर शासन करते रहे।
कोई दो...चार...दस साल नहीं, लगभग 200 वर्षों तक धूर्त अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाए रखा। इस बीच उन्होंने सांप्रदायिक आधार पर समाज को जिस तरह बांटा उसकी परिणति आजादी के साथ देश विभाजन के रूप में हुई, यही नहीं लगभग 10 लाख लोग उस आग की बलि चढ़ गए थे। आजादी के 63 वर्षों बाद भी उसकी तपिश समय-समय पर हमें झुलसा जाती है।
विकिलिक्स के खुलासे के अनुसार, कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत को बताया था कि ''लश्कर-ए-तैयबा जैसे इस्लामिक आंतकी संगठनों को कुछ मुसलमानों का समर्थन मिला हुआ है। लेकिन देश को उससे बड़ा खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों से है। ये संगठन धार्मिक तनाव व राजनैतिक वैमनस्य पैदा कर रहे हैं।'' ध्यान रहे इसी क्रम में राहुल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे भाजपा नेताओं द्वारा फैलाए जा रहे तनाव का भी जिक्र किया था। देश में ''भावी प्रधानमंत्री कांगे्रस की नजर में'' की यह सोच तो निंदनीय है ही, आपत्तिजनक भी कि उन्होंने अपनी ऐसी सांप्रदायिक सोच की जानकारी अमेरिका को दी। कांगे्रस की ओर से दिया गया स्पष्टीकरण बचकाना है। राहुल ने सिर्फ हिन्दू संगठनों और भाजपा की चर्चा की है। इससे तो साफ तौर पर प्रमाणित होता है कि कांग्रेस बिल्कुल ब्रिटिश शासकों की तर्ज पर देश में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना चाहती है - धर्म व जाति के आधार पर समाज को बांटने पर तत्पर है। क्या यह देशद्रोही आचरण नहीं। पिछले दिनों मुंबई में 26/11 के शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की शहादत को एक अन्य कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कथित हिंदू सांप्रदायिकता से जोडऩे की कोशिश की थी। इसके पहले राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित मुस्लिम आतंकी संगठन ''सिमी'' से कर चुके हैं। इस पाश्र्व में राहुल गांधी या कांग्रेस को संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता। राहुल गांधी को ''राहुल बाबा'' निरुपित कर क्षमा करना एक बड़ी भूल होगी। अगर वे सचमुच ना-समझ या भोले हैं तब यह संदेह और भी प्रगाढ़ हो जाता है कि कहीं कोई अदृश्य ताकत उनका इस्तेमाल कर रही है।
दोनों ही हालत में देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि दिग्विजय सिंह के रूप में कांग्रेस के अंदर लंबी हो रही चाटुकारों की पंक्ति 'राहुल सोच' को पार्टी की नीति-सिद्धांत मान आगे बढऩे को उद्दत है। भगवा आतंक और हिंदूवादी भाजपा का मंत्रजाप कर कांग्रेस सिर्फ वोट की राजनीति ही नहीं कर रही, एक और देश विभाजन का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इसे रोकना होगा और तत्काल रोकना होगा।

Tuesday, December 14, 2010

किसकी 'छवि' की चिंता करे मीडिया?

पढऩे-सुनने में यह कड़वा तो लगेगा, किंतु सच यही है कि इंडिया और भारत नाम के हमारे देश में एक ओर जहां सामथ्र्यवानों को हजारों-लाखों करोड़ लुटने की छूट मिली हुई है, वहीं दूसरी ओर आम आदमी झूठ, फरेब और धूर्तता की विशाल शासकीय चट्टान के नीचे दब छटपटा रहा है। इसकी सुननेवाला, सुध लेनेवाला कोई नहीं। दुखी मन से निकली इस टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे कि न्यायपालिका का आचरण (अपवादस्वरूप ही सही) भी सामथ्र्यवानों का पक्षधर दिखने लगा है। कुख्यात नीरा-राडिया टेप प्रकरण में टाटा उद्योग समूह के अध्यक्ष रतन टाटा की एक याचिका पर सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय मीडिया को नसीहत देता है कि ''वह छवि खराब न करे।'' क्या यह बताने की जरूरत है कि किसकी 'छवि' की चिंता न्यायालय को है? दलाल नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के टेप सार्वजनिक होने के बाद अब तक बेदाग, चमकदार आभामंडल वाले रतन टाटा की न केवल व्यक्तिगत छवि बल्कि टाटा उद्योग समूह की छवि भी खराब हुई है। रतन टाटा इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय में राहत के लिए गए कि बातचीत के प्रकाशन से उनके निजता के अधिकार का हनन हुआ है। यह ठीक है कि किसी के 'बेडरूम' में झांकने से उसकी निजता भंग होती है। किंतु जब वहां विदेशी खुफिया एजेंसियों के लिए कथित रूप से काम करनेवाली विषकन्या मौजूद हो, भारत सरकार के मंत्रियों, अधिकारियों की चर्चा हो रही हो, लाइसेंस के आबंटन की बातें हो रही हों, देश के नियम-कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हों तब मामला निजी कैसे हुआ? बल्कि रतन टाटा जैसा कद्दावर व्यक्तित्व अगर छींकता भी है तो उसकी सार्वजनिक चर्चा होती है। अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित रतन टाटा न केवल उद्योग जगत बल्कि देश के युवाओं के लिए एक रोल मॉडल हैं। इन्हें तो पूर्णत: पारदर्शी होना चाहिए। निजता के नाम पर वैसे प्रसंग पर परदा नहीं डालना चाहिए जिससे देश की राजनीति, व्यापार ही नहीं बल्कि देश की सुरक्षा का मामला भी जुड़ा हो। मीडिया ने इस मामले को सार्वजनिक कर हर दृष्टि से देश का हित साधा है। इस प्रक्रिया में रतन टाटा या अन्य किसी की छवि धूमिल होती है तो जिम्मेदार वे स्वयं हैं! अदालत का संरक्षण प्राप्त करने की उनकी कोशिश उन्हें और भी संदिग्ध बना देती है। हजारों-लाखों करोड़ का घपला और विदेशों के लिए जासूसी जैसे मामलों में जो भी नाम आएगा वह बेदाग नहीं रह सकता। चाहे वे रतन टाटा हों, बरखा दत्त हों, वीर सांघवी हों या फिर प्रभु चावला और पूर्व मंत्री ए. राजा ही क्यों न हों। स्वयं को पाक-साफ साबित करने की जिम्मेदारी इनकी ही है। फिलहाल तो यह कटघरे में हैं और तब तक रहेंगे जब तक मामले का निपटारा नहीं हो जाता।
'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' का उद्ïघोष करनेवाली सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चिंतित हैं तो किसी आम आदमी के लिए नहीं बल्कि बड़े उद्योगपतियों के लिए। एक अत्यंत ही हास्यास्पद टिप्पणी में उन्होंने टेलीफोन टैपिंग को (संदर्भ: नीरा राडिया प्रकरण) राष्ट्रहित में उचित तो ठहराया किंतु जड़ दिया कि इसका दुरुपयोग न हो! भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी कि है कि हमारे प्रधानमंत्री को यह भी पता नहीं होता है कि उनके मंत्रिमंडल में क्या हो रहा है। राडिया के टेलीफोन की टैपिंग का आदेश उन्हीं के गृहमंत्री ने दिया था, तो क्या गृहमंत्री ने अधिकार का दुरुपयोग किया? अगर प्रधानमंत्री का इशारा मीडिया द्वारा टेलीफोन वार्तालाप को सार्वजनिक किए जाने पर है तब हमारी प्रतिक्रिया वही है जो हमने ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ में की है। यह पीड़ादायक है कि प्रधानमंत्री ने भी चिंता औद्योगिक घरानों के पक्ष में व्यक्त की है। उद्योग घरानों की ङ्क्षचता से स्वयं को वाकिफ तो बताया किंतु इस 'महाघोटाले' पर वे मौन रह गए। आम आदमी की जेबों से एकत्रित हजारों करोड़ की राशि राजनेताओं, अधिकारियों व दलालों द्वारा डकार लिए जाने पर वे अनभिज्ञ बने रहे। प्रधानमंत्री ने चिंता व्यक्त की तो इर पर कि टेलीफोन टैपिंग के वार्तालाप 'लीक' कैसे हुए? संसद में घोटाले की जेपीसी से जांच कराए जाने की पूरी विपक्ष की मांग ठुकराने वाले मनमोहन सिंह ने 'लीक' कांड की जांच का आदेश ताबड़तोब जारी कर दिया! अर्थात् थानेदार इस बात के लिए चिंतित नहीं दिख रहा कि डकैती किसने और कैसे की बल्कि वह चिंतित है तो इसलिए कि डकैती की जानकारी मीडिया और उसके माध्यम से देश को क्यों और कैसे हो गई?

भ्रष्टाचार के हमाम में 'तू भी नंगा, हम भी नंगे'!

निर्वाचित जनप्रतिधियों के जनविरोधी ऐसे आचरण पर लोकतंत्र एक बार फिर कलंकित हुआ। कांग्रेस व सत्तारूढ़ संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भाजपा को भ्रष्टाचार का आईना दिखा स्वयं के पाप पर परदा डालने की कोशिश की है- 'तू भी नंगा, हम भी नंगे' की तर्ज पर। तो क्या हमाम के इन नंगों के भ्रष्टाचार को देश स्वीकार कर स्वयं को लुटता देखता रहे? कदापि नहीं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, भ्रष्टाचार के इनके कारनामों को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाने की कोशिश करने वाले भी भ्रष्टाचार के पाप में बराबर के हिस्सेदार हैं। सोनिया गांधी ने जब भाजपा पर प्रहार करते हुए पूछा कि भ्रष्टाचार की नसीहत देने वाले ये कौन होते हैं, तब बरबस उनकी सास स्व. इंदिरा गांधी की याद आ गई। सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व की केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर चुकी थी, तब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को विश्वव्यापी समस्या निरूपित कर इस महारोग को मामूली बताने की कोशिश की थी। बात इतिहास की है, दोहरा दूं। तब जब संसद व कानून भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कारगर साबित नहीं हुआ था तब एक व्यक्ति जयप्रकाश नारायण के रूप में सामने आया। सत्ता को चुनौती दी और उसके पीछे-पीछे पूरे देश की जनता सड़कों पर उतर आई। शासन ने अपनी निरंकुशता का विकृत चेहरा भी सामने लाया, जनता के दमन के लिए संविधान प्रदत्त उसके मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, जेपी सहित अनेक बड़े नेता जेलों में डाल दिए गए। हजारों बेकसूर जनता के साथ। किन्तु अतत: विजयी लोकतंत्र हुआ, जनता हुई। इंदिरा शासन जनता के हुंकार में उड़ गया था। आज सोनिया गांधी विपक्ष को भी भ्रष्ट बताकर क्या भ्रष्टाचार को शासकीय स्वीकृति प्रदान नहीं कर रही हैं? लगभग एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ के 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच करवाए जाने की विपक्षी मांग को अनुचित बता सरकार खारिज क्यों कर रही है? सरकार इस तथ्य को क्यों भूल जाती है कि संसद जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सर्वोच्च मंच है? संविधान ने संसद को लोकतंत्र मेें सर्वोच्च स्थान दे रखा है। फिर इसकी उपेक्षा अथवा इस पर अविश्वास क्यों? इस संदर्भ में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का आचरण भी निंदनीय है। संदिग्ध भी। स्पेक्ट्रम घोटाले पर संसद में जारी गतिरोध पर उन्होंने मौन तोड़ा तो विदेशी धरती पर! समीक्षक इसे भारतीय संसद का अपमान बता रहे हैं तो ठीक ही है। लोगबाग स्तब्ध हैं प्रधानमंत्री के उन शब्दों को लेकर जिसके द्वारा उन्होंने कहा कि वे संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान घोर आपत्तिजनक है। आखिर उनके दिमाग में चल क्या रहा है? विश्व की सर्वश्रेष्ठ-सफल भारतीय संसद प्रणाली के भविष्य पर यह कैसी चिंता? जेपीसी की विपक्षी मांग को एक सिरे से खारिज करने वाले प्रधानमंत्री जब यह दलील देते हैं कि मौजूदा संसदीय तंत्र (अर्थात् सरकार द्वारा घोषित एक सदस्यीय जांच समिति) वही कर सकता है जो जेपीसी कर सकती है तब देश उनसे जानना चाहेगा कि फिर संसदीय कार्यप्रणाली में जेपीसी का प्रावधान ही क्यों रखा गया? अगर इसकी जरूरत नहीं तब क्यों नहीं इस प्रावधान को ही हटा दिया जाए? अगर हिम्मत है तो सरकार तत्संबंधी प्रस्ताव संसद में लाए। विपक्ष की जेपीसी संबंधी मांग बिल्कुल न्यायोचित है। स्पेक्ट्रम घोटाले से संबंधित जो तथ्य उभरकर बाहर आ रहे हैं वे अत्यंत ही विस्फोटक हैं। रिश्वत व कमीशन के लेनदेन से आगे बढ़ता हुआ यह घोटाला विदेशों के लिए जासूसी से भी जुड़ चुका है। बड़े-बड़े राजनेताओं, उद्योगपतियों, पत्रकारों और नौकरशाहों की संलिप्तता सीधे-सीधे शासन को चुनौती है। प्रधानमंत्री अगर संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो बेहतर हो वे संदर्भ में परिवर्तन कर लें। हमारी संसदीय प्रणाली का भविष्य अगर संकट में है तो किसी राजदल विशेष के कारण नहीं बल्कि सत्ता मेें मौजूद भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों व दलालों के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो ऐसे भ्रष्ट तत्वों को संरक्षण प्रदान किए जाने के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो सत्ता पक्ष द्वारा संसद की उपेक्षा के कारण। संसदीय प्रणाली अगर खतरे में है तो गठजोड़ की राजनीति की उस मजबूरी के कारण जहां सत्ता वासना के पक्ष में समझौते-दर-समझौते किए जा रहे हैं- नग्न हो सत्ता की देवी भ्रष्टाचार के दानवों के समक्ष समर्पित होने को मजबूर है। अगर प्रधानमंत्री व उनका दल संसदीय प्रणाली अर्थात्ï लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहता है तब वह सत्ता मोह त्याग देशहित में भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों आदि के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल के सीखचों के पीछे भेजे। क्या सोनिया गांधी और उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे? सत्ता का त्याग करने को तैयार होंगे ये? अगर नहीं तब फिर ये लोकतंत्र के भविष्य के प्रति चिंता का नाटक न करें। जनता स्वयं भ्रष्टों को दंडित कर लोकतंत्र को सुरक्षित, कायम रखने में सक्षम साबित होगी।

Sunday, December 12, 2010

'वॉच डॉग' की भूमिका खतरनाक कैसे?

'वॉच डॉग' की भूमिका का निर्वाह करने वाला मीडिया भला 'खतरनाक' कैसे हो सकता है? निष्ठापूर्वक अपने इन कर्तव्य का पालन-अनुसरण करने वाले मीडिया को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने खतरनाक प्रवृत्ति निरूपित कर वस्तुत: लोकतंत्र के इस चौथे पाये की भूमिका और कर्तव्य निष्ठा को कटघरे में खड़ा किया है। वैसे बिरादरी से त्वरित प्रतिक्रिया यह आई है कि चव्हाण की टिप्पणी ही वस्तुत: लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। मुख्यमंत्री चव्हाण ने मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटाले के संदर्भ में ऐसी विवादास्पद टिप्पणी की। चव्हाण के अनुसार 'मीडिया ट्रायल' के कारण ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण परेशानी में पड़े। यहां तक तो ठीक है। किन्तु इसमें 'खतरनाक' क्या है। मीडिया ने आदर्श सोसाइटी घोटाले का पर्दाफाश कर अपने कर्तव्य का ही तो निष्पादन किया। लोकतंत्र में ऐसे ही 'प्रहरी' की भूमिका मीडिया से अपेक्षित है। घोटालों-घपलों में अंतर्लिप्तता के कारण अगर कोई मुख्यमंत्री हटता है या हटाया जाता है तो इसके लिए मीडिया को पुरस्कृत किये जाने की जगह उसे 'खतरनाक' बताना अनुचित है। मीडिया ने कोई राजनीति नहीं की बल्कि नियम-कानूनों को धता बता, कारगिल के शहीदों-पीडि़त परिवारों के हक पर सामथ्र्यवानों द्वारा डाका डाले जाने की बात को सार्वजनिक किया। राजनीति तो राजनीतिक कर रहे हैं। अशोक चव्हाण ने एक और पूर्व मंत्री पर आरोप जड़ दिया कि उन्हें हटाने के लिए आदर्श के नाम की सुपारी दी गई थी। राजनीतिक राजनीति करें अपनी बला से, हमारी आपत्ति मीडिया की कर्तव्य-परायणता को खतरनाक निरूपित किये जाने पर है।
मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण सहित सभी राजनीतिक क्या इस बात से इन्कार करेंगे कि यह मीडिया ही है जो सरकार के स्तर पर हो रहे ऐसे बड़े घोटालों का पर्दाफाश कर लोकतंत्र की अपेक्षा की पूर्ति कर रहा है? मामला चाहे 50 के दशक का सिराजुद्दीन कांड हो या 70 के दशक का पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला हो, 80 के दशक का बोफोर्स-फेयर फैक्स कांड हो, 90 के दशक का सांसद रिश्वत कांड हो, बिहार का चारा घोटाला कांड हो, या फिर ताजातरीन 2-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला हो। इन सभी पापों को अनावृत किया तो मीडिया ने ही। संसद हो या राज्य विधानसभाएं, सांसदों-विधायकों के लिए मुद्दे मीडिया ही देता आया है- लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी के रूप में। फिर इसे कटघरे में कैसे खड़ा किया गया? जिस संदर्भ में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने ऐसी टिप्पणी की है वह अत्यंत ही गंभीर है। आदर्श सोसाइटी घोटाला कांड के सिलसिलें में केंद्रीय जांच ब्यूरो नेताओं-अधिकारियों के नाम के साथ प्राथमिकी दर्ज कराने की तैयारी में है। जो तथ्य उभर कर सामने आए हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि नेताओं-अधिकारियों ने अपनी पूर्ण जानकारी में नियम-कानून की धज्जियां उडऩे दीं। फ्लैटों के वास्तविक हकदार युद्ध पीडि़तों-विधवाओं के हक पर डाका डाला गया है। इस अपराध को सार्वजनिक करने वाले मीडिया को तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए। लगता है मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण या तो विषय को समझ न पाये या फिर उन्हें गलत तथ्य उपलब्ध करवाये गये। अपनी कुशल प्रशासकीय क्षमता के लिए मशहूर मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण केंद्र में अनेक जटिल शासकीय समस्याओं को सुलझाने में सफल रहे हैं। आदर्श सोसाइटी घोटाला तो हर दृष्टि से शासकीय अकर्मण्यता व साजिश का ज्वलंत उदाहरण है। अपने साथी अशोक चव्हाण का दुख अगर उन्हें साल रहा है तो उसकी भरपाई राजनीतिक स्तर पर हो सकती है- मीडिया ट्रायल को खतरनाक निरूपित कर कदापि नहीं।

Friday, December 10, 2010

अभिव्यक्ति की यह कैसी आजादी?

अगर लोकतंत्र में वाणी स्वतंत्रता का यही अर्थ है, यही अंजाम है, यही रूप है, यही चरित्र है तो बगैर समय गंवाए इसे मौत दे दी जाए। देश को नहीं चाहिए ऐसी वाणी स्वतंत्रता। नहीं चाहिए अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी जो पूरे देश के चरित्र पर ही सवालिया निशान जड़ दे। उस भारत देश का चरित्र संदिग्ध दिखे जिसकी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति पूरे संसार के लिए आदर्श है, अनुकरणीय है।
70 के दशक में आपातकाल के दिनों में मशहूर और अब जनता पार्टी के एकल नेता सुब्रह्मïण्यम स्वामी ने गुरुवार (9 दिसंबर) को कहा कि 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं, विषकन्या हैं और धार्मिक ग्रंथों की ताड़का हैं' तो पूरे देश को स्वयं के चरित्र पर संदेह होने लगा। अभी कुछ ही दिनों पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्शन ने जब टिप्पणी की थी कि सोनिया गांधी सीआईए एजेंट हैं और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की हत्या के षडय़ंत्र में वे शामिल थीं, तब भी ऐसी शंका उठी थी। अतीत में चलें तब लगभग 4 दशक पूर्व तब के एक कांग्रेसी नेता सी.एम. इब्राहिम ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय '....' हैं, तब भी देश स्तब्ध रह गया था। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर स्वाभाविक है। कभी सबूतों के साथ तो कभी बगैर सबूतों के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते रहे हैं। संसद, विधान मंडलों और बाहर भी इन पर चर्चा होती है, हंगामा होता है, कभी-कभी जांच आयोग और जांच समितियां भी गठित हो जाती हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन जब मर्यादा का अतिक्रमण कर व्यक्तिगत चरित्र पर अश्लील लांछन लगाए जाते हैं तब उसे स्वीकार करना संभव नहीं। सुब्रह्मïण्यम स्वामी ऐसे ही अपराध के दोषी बन गए हैं। सोनिया गांधी को भ्रष्टाचार की गंगोत्री निरूपित करने तक को एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु उन्हें विषकन्या व ताड़का अर्थात्ï राक्षसी बताना अक्षम्य अपराध की श्रेणी का है। सुशिक्षित सुब्रह्मïण्यम स्वामी विषकन्या और ताड़का के अर्थ से अपरिचित नहीं हो सकते। यह हमारी भारतीय संस्कृति को चुनौती भी है। अगर बात भ्रष्टाचार की की जाए तब शायद सुब्रह्मïण्यम स्वामी कुछ सबूत पेश भी कर दें। लेकिन क्या वे सोनिया गांधी को विषकन्या व ताड़का साबित कर पाएंगे? शत प्रतिशत आधारहीन ऐसे आरोप को हमारी संस्कृति स्वीकार नहीं करती। फिर स्वामी ने ऐसे आरोप लगाए तो कैसे? अगर वे अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, तो इलाज करवाया जाना चाहिए। अगर नहीं तब चुनौती है कि वे सोनिया के खिलाफ इस्तेमाल किए गए अश्लील शब्दों के औचित्य को साबित करें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तब न केवल पूरे देश से माफी मांगें, बल्कि प्रायश्चित के लिए हिमालय की किसी गुफा में चले जाएं। जब पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन अपने बयान के बाद अलग-थलग पड़ गए थे, तब उन्होंने भी क्षमा मांग ली थी। स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने उनके बयान से स्वयं को अलग कर लिया था। इंदिरा गांधी के चरित्र पर उंगली उठाने वाले इब्राहिम का मामला अवश्य विचित्र है। एक विस्मयकारी (रहस्यमय भी कह सकते हैं) निर्णय लेते हुए इंदिरा गांधी ने इब्राहिम को कांग्रेस में वापस ले लिया था। तब फुसफुसाहटों में अनेक सवाल पूछे गए थे। लेकिन इंदिरा गांधी के आभा मंडल के तेज में वे सब निस्तेज बन गए थे। वैसे सोनिया गांधी को लेकर ताजा विवाद के बीच कुछ कोनों से, दबी जुबान में ही सही, ऐसे सवाल अवश्य उभर रहे हैं कि सुदर्शन या फिर सुब्रह्मïण्यम स्वामी कोई सड़कछाप नेता तो हैं नहीं। फिर इन्होंने सड़कछाप वक्तव्य दिए तो कैसे? पड़ताल, हां पड़ताल की जरूरत है।

Tuesday, December 7, 2010

पराजय राहुल गांधी की, विजय गडकरी की !

''... कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को बिहार की जनता ने उनका असली मुकाम दिखा दिया।'' बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशीलकुमार मोदी के इन शब्दों में वैसे नया तो कुछ नहीं किन्तु भविष्य के लिए कुछ संकेत अवश्य निहीत हैं। साथ ही राजनीतिक समीक्षकों के लिए एक चुनौती भी। ध्यान रहे, जब पिछले वर्ष नागपुर के नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तब प्राय: सभी समीक्षकों ने नियुक्ति को कांग्रेस के युवा महासचिव और कांग्रेस के घोषित 'भविष्य' राहुल गांधी के मुकाबले युवा गडकरी को मैदान में उतारने की बातें कही थीं। आकलन सही भी था। तब राहुल गांधी के 'रोड शो' और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राएं सुर्खियां बन रही थीं। समाचारपत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में राहुल गांधी ही छाये हुए थे। उनके 'श्रम' की प्रशंसा करते मीडियाकर्मी थकते नहीं थे। अपवादस्वरूप कुछ वैसे अवश्य थे जो 'राहुल-श्रम' के टायं-टायं फिस्स होने की भविष्यवाणियां कर रहे थे। लेकिन इनकी संख्या नगण्य थी। जब बिहार चुनाव की घोषणा हुई तब समीक्षकों ने राहुल और गडकरी दोनों के लिए इसे अग्नि परीक्षा निरूपित कर डाला था। राहुल गांधी के पक्ष में जहां कहा गया था कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करेगी, परिणाम के बाद वह 'किंगमेकर' की भूमिका में रहेगी, वहीं गडकरी के लिए कहा गया था कि भाजपा के लिए सीटें कम होंगी और तब दिल्ली की चौकड़ी उन पर नए सिरे से प्रहार शुरू कर देगी। बिहार चुनाव को वस्तुत: राहुल बनाम गडकरी के रूप में प्रचारित किया गया। अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला चुनाव गडकरी के लिए सचमुच अग्नि परीक्षा ही था। विफलता की हालत में अपने हश्र से वे अच्छी तरह परिचित थे। अपनी सांगठनिक कुशलता के लिए विख्यात गडकरी ने अपने ढंग से जंग की रणनीति तैयार की, उसे क्रियान्वित किया। परिणाम आने के बाद न केवल कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, बल्कि राहुल गांधी के कथित करिश्मे का भी पर्दाफाश हो गया। औंधे मुंह गिरे वे। देहातों में लोगों ने टिप्पणी की कि ''राहुल को गडकरी ने धोबिया पछाड़ दे डाला।'' स्वयं भाजपा के अनेक बड़े नेता बगले झांकने लगे। ऐसे अप्रत्याशित परिणाम की कल्पना उन्होंने नहीं की थी। लेकिन गडकरी की सफल रणनीति ने सभी के मुंह पर ताला जड़ दिया। आश्चर्यजनक रूप से मीडिया के उन समीक्षकों को भी लकवा मार गया जिन्होंने चुनाव को राहुल बनाम गडकरी निरूपित किया था। सत्ता के पक्ष में भौं-भौं कर अपने लिए कुछ सुनिश्चित करने का मीडिया चरित्र एक बार फिर कलंक के रूप में सामने आया। जब युद्ध राहुल बनाम गडकरी था तब परिणाम के बाद राहुल की पराजय पर परदा डाल उनका बचाव क्यों किया गया? साफ है कि चुनाव में राहुल को एक सिरे से बिहार की जनता ने नकार दिया। उनके 'रोड शो' के तमाशे से वहां की जनता प्रभावित नहीं हुई। गरीबों के घरों में जाकर भोजन-भजन को नौटंकी से ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। राहुल और कांग्रेस के लिए यह एक ऐसी सीख है जिसे शायद वे भूल नहीं पाएंगे। राजनीतिक समीक्षको के गालों पर भी परिणाम एक तमाचे के रूप में आया है। अगर समीक्षक अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं तब उन्हें देश को यह बताना चाहिए कि मतदाता ने राहुल गांधी की जगह नितिन गडकरी को स्वीकार किया है। गडकरी की घोषित 'विकास की राजनीति' पर मतदाता ने मुहर लगाई है। जाति, वर्ग, धर्म से पृथक गडकरी के शब्दों पर विश्वास किया गया। इसे कोई अतिरंजना के रूप में न ले। बिहार की धरती का यह सच एक बार फिर उजागर हुआ कि जब वहां की जनता करवट लेती है तब वह पूरे देश के लिए आदर्श को स्थापित करती है। अगर कांग्रेस और राहुल गांधी ने जमीनी हकीकत से पुन: हाथ झटकने की कोशिश की तो आज इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव में भी 'बिहार-परिणाम' दोहराया जाएगा। राहुल गांधी के सलाहकार सच को स्वीकार कर रणनीति बनाएं। आज देश का मतदाता परिपक्व हो चला है। वह किसी 'हवा' के साथ चल मतदान नहीं करता। नई पीढ़ी जात-पात-धर्म से दूर विकास देखना चाहती है। बिहार में यह सिद्ध भी हो गया। जातीयता के ज्वर से अब तक पीडि़त बिहार ने ठंडे पानी से स्वयं को धो डाला है। विकास की रोशनी देख उसने स्वयं के लिए विकास की राजनीति को अंगीकार किया है। राहुल गांधी और कांग्रेस की विडंबना यह है कि वे चाटुकारिता की संस्कृति का त्याग नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन भविष्य का उनका नेता गलत सलाह और नीति के कारण बिहार में औंधे मुंह गिर चित हो गया। जंग में विजयी नितिन गडकरी रहे।

Friday, December 3, 2010

शासक के लिए जरूरी है 'हार्ट', 'हेड', 'टंग'!

असंवेदनशीलता और संस्कृति की अवमानना की पराकाष्ठा की इस नई जानकारी पर पूरा भारत देश शर्मिंदा है। दुख के क्षणों में संवेदना और सहानुभूति की एक विशिष्ट परंपरा भारतीय संस्कृति में समाहित है। कठोर हृदय भी ऐसे अवसरों पर मोम बन द्रवित हो जाता है। शैतान मनमस्तिष्क धारक भी तब मौन रहता है। फिर स्वयं को देश का अभिभावक दल बताने वाली कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी इतनी निर्मम-कठोर-असवंदेनशील कैसे? ताजा जानकारी हृदयभेदी है।
आंध्रप्रदेश के विद्रोही कांग्रेसी सांसद जगनमोहन रेड्डी ने जिन परिस्थितियों में कांग्रेस का त्याग किया उससे सोनिया गांधी का एक नया चेहरा सामने आया है। मानव का मानव के प्रति कठोरता व संवेदनशून्यता का यह मामला एक राष्ट्रीय बहस का आग्रही है। जगन के पिताजी वाई.एस. राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के सर्वमान्य, सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात उनके गांव में अनेक लोग इतने शोकाकुल हुए कि उन्होंने अपने प्राण दे दिए, आत्महत्या कर ली थी उन लोगों ने! जगन ने तब उस गांव की यात्रा कर मृतकों के आत्मजनों से मिलने का निर्णय लिया था। बहुप्रचारित ''ओदरपू'' यात्रा की योजना तभी बनी थी। पता नहीं क्या कारण थे जो सोनिया गांधी ने जगन को यात्रा से मना कर दिया। कांग्रेस की ओर से साफ-साफ कह दिया गया कि जगन यात्रा पर नहीं जा सकता। चंूकि जगन ने मृतकों के परिवारों से वादा किया था, वे अड़े रहे। अपनी मां को लेकर जगन सोनिया गांधी से मिले। उनकी मां विजयालक्ष्मी ने गिड़गिड़ति हुए सोनिया गांधी से विनती की कि 'पिता की आत्मा की शांति' के लिए जगन को यात्रा की अनुमति प्रदान करें। सोनिया की त्वरित प्रतिक्रिया विस्मयकारी थी। जगन की मां की गिड़गिड़ाहट पर भी वे ने केवल अडिग रहीं बल्कि उपेक्षा व अपमान की मुद्रा में टिप्पणी कर बैठीं कि ''सो वॉट?'' (तो क्या?) क्या कोई संवेदनशील भारतीय नारी किसी मृतात्मा के संदर्भ में ऐसी अपमानजनक टिप्पणी कर सकती है? और मृतात्मा कौन? उन्हीं की कांग्रेस पार्टी का मुख्यमंत्री! कहते हैं तब जगन की मां रो पड़ी थीं। सोनिया का दिल फिर भी नहीं पिघला। मां की गिड़गिड़ाहट तथा रूदन को देख जगन ने तभी पार्टी छोडऩे का मन बना लिया था! क्या सोनिया गांधी का आचरण महान भारतीय संस्कृति-सभ्यता के विपरीत नहीं? सोनिया गांधी निश्चय ही इस बिंदु पर भारत और भारतीयता की अपराधी बन जाती हैं। मैं यहां जगनमोहन रेड्डी की पैरवी नहीं कर रहा। सोनिया गांधी की असंवेदनशीलता से आहत मेरा मन पाठकों के साथ पीड़ा बांटने को मजबूर है। राज और राजनीति से दूर मन इस टिप्पणी के लिए भी बाध्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अब 'भारतीय' नहीं रह गई है! अन्यथा हिंदुस्तानी कांग्रेस की हिन्दुस्तानी संस्कृति सोनिया गांधी को एक 'दुखी विधवा', उसके पुत्र की भावना और मृतात्मा का उपहास उड़ाने की इजाजत नहीं देती।
ऐसी घटनाएं अंतत: आत्मघाती सिद्ध होती हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण... 60 के दशक में बिहार में कृष्णवल्लभ सहाय नाम के एक दबंग मुख्यमंत्री हुआ करते थे? वे हमेशा कहा करते थे कि एक शासक में तीन चीजों का होना जरूरी है - 'हार्ट' (दिल), 'हेड' (मस्तिष्क) व 'टंग' (जुबान)। विडंबना यह कि इनमें से एक 'जुबान' ने ही सहाय की ही नहीं बल्कि कांग्रेस की भी गद्दी छीन ली थी। बिहार सरकार के अराजपात्रित कर्मचारी हड़ताल पर थे। हड़ताली कर्मचारियों ने सचिवालय जा रहे मुख्यमंत्री सहाय का घेराव कर पूछा कि, ''आप हमारी मांगों की पूर्ति क्यों नहीं करते? हमारे बच्चे तब क्या करेंगे?'' क्रोधित सहाय ने तब चिल्लाकर जवाब दिया था कि, ''उनसे (बच्चों से) मूंगफलियां बिकवाओ!'' आग की तरह फैली सहाय की उस टिप्पणी से बिहारवासी स्तब्ध रह गए थे। उसके बाद हुए आम चुनाव (1967) में पराजित होकर कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। कृष्णवल्लभ सहाय स्वयं भी चुनाव हार गए थे। उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि उनके पास
'हार्ट' और 'हेड' तो है किंतु 'टंग' नहीं! नतीजतन जनता ने उन्हें रास्ता दिखा दिया। बदजुबानी की ऐसी परिणति हर काल में चिन्हित होती रही है- कांग्रेस और सोनिया गांधी इसे याद रखें!

Thursday, December 2, 2010

भ्रष्ट को तोहफा, भ्रष्टाचार को संरक्षण!

क्षमा करेंगे। एक 'कमजोर व दबाव में काम करने वाले प्रधानमंत्री' की अपनी छवि से निजात पाना तो दूर, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसे बार-बार मोटे अक्षरों में लिख स्वयं ही चिन्हित कर रहे हैं। अब तक कुख्यात हो चुके 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों में अपनी संलिप्तता को अनावृत कर चुके प्रधानमंत्री केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर एक दागदार अधिकारी पी.जे. थॉमस की नियुक्ति और बाद में उनके बचाव के कारण पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र सदमे में है। थामस का ताजा मामला लोकतंत्र व संविधान के रक्षकों, संसद व न्यायपालिका के गालों पर तमाचे मार रहा है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मामले में भी अपनी संदिग्ध भूमिका से इन्कार कर पाएंगे? तर्कसंगत शब्दों के सहारे तो कदापि नहीं। कुतर्क या झूठ की बात कुछ और है। लेकिन अंतत: ये अपने मुंह के बल ही गिरते हैं। भारत के सतर्कता आयुक्त के पद पर नियुक्ति से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को मानते हुए केंद्र सरकार ने लोकतांत्रिक भावना का आदर करते हुए एक स्वस्थ प्रक्रिया अपनाई थी। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और नेता विपक्ष की समिति को नियुक्ति की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस प्रक्रिया को सम्मान दिया गया। किन्तु थॉमस के मामले में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की बिल्कुल जायज आपत्ति को नजरअंदाज कर नियुक्ति कर दी गई। थॉमस के दागदार पाश्र्व के आलोक में सुषमा ने थॉमस की नियुक्ति के खिलाफ मंतव्य दिया था। भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोप में जमानत पर चल रहे थॉमस जैसे व्यक्ति को भला भारत का सतर्कता आयुक्त नियुक्त कैसे किया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति पर सवालिया निशान जड़ते बिल्कुल सही टिप्पणी की थी कि जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हों वह दूसरों के भ्रष्टाचार की जांच कैसे कर सकता है? साफ है कि सर्वोच्च न्यायालय ने थॉमस की पात्रता को अयोग्य घोषित कर दिया। इसके बावजूद अगर थॉमस पद पर बरकरार हैं तब निश्चय ही पूरा का पूरा मामला एक महाघोटाले की चुगली कर रहा है। आखिर वह कौन सी मजबूरी है जिसके दबाव में प्रधानमंत्री थॉमस को हटा नहीं पा रहे हैं? सर्वोच्च न्यायालय के मंतव्य की उपेक्षा और नियुक्ति पैनल की सदस्य नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की आपत्ति को दरकिनार कर भ्रष्ट पी.जे. थॉमस को पुरस्कृत करना निश्चय ही भ्रष्टाचार को संरक्षण प्रदान करना माना जाएगा। चाहे कोई कितना भी इन्कार कर ले, प्रधानमंत्री किसी दबाव में हैं अवश्य। क्या यह बताने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री पर दबाव कौन बना सकता है? यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकासक्रम है। पूरा का पूरा भारतीय लोकतंत्र आज दांव पर लगाया जा रहा है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि सत्तर के दशक के आरंभ में जब लोकतांत्रिक संस्थाओं को दबाने और अवमूल्यन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी तब परिणति स्वरूप ही देश में आंतरिक आपातकाल लगा। संवैधानिक संस्थाएं तक कैद हो बिलखने को मजबूर थीं। अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित नागरिक दूसरी गुलामी की जिंदगी जीने को बाध्य थे। वह तो भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव थी जिसने लोकतंत्र को पुनर्जीवित कर दिया था। आज संसद और न्यायपालिका के अवमूल्यन का प्रयास अगर हो रहा है तो इस प्रवृत्ति को तुरंत दफना दें। पी.जे. थॉमस की यह घोषणा कि वे पद पर कायम हैं, लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रही है। और केंद्र सरकार का यह निर्णय कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की निगरानी से केंद्रीय सतर्कता आयुक्त थॉमस दूर रहेंगे, कमजोर प्रधानमंत्री और कमजोर सरकार के आरोप को ही सही ठहरा रहा है। बेहतर हो थॉमस को तुरंत हटा दिया जाए अन्यथा देश का मजबूत लोकतंत्र जब अंगड़ाई लेगा तब एक बार फिर इतिहास दोहराया जाएगा। भारत देश भ्रष्ट को पुरस्कृत किए जाने और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के कृत्य को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।

Wednesday, December 1, 2010

तब विदर्भ 'भिखारी' नहीं रहेगा!

हर दृष्टि से, जी हां, हर दृष्टि से समृद्ध, सक्षम विदर्भ भिखारी क्यों बना रहे? चुनौती है विदर्भवीरों को कि वे विदर्भ को सदैव भिखारी बना रखने की चाल को निरस्त्र कर दें। हमें 'भिखारी' का विशेषण स्वीकार्य नहीं। अगर 'अखंड महाराष्ट्र' किसी का धर्म है तो स्वाभिमान विदर्भ की अस्मिता। इस पर कोई समझौता नहीं। मैं यहां न तो अलगाववाद को हवा दे रहा हूं, और न ही पृथक विदर्भ की जायज मांग को उठा रहा हूं। मैं चर्चा कर रहा हूं उस राजनीति की जिसने छल-प्रपंच से विदर्भ को पराश्रित बना रखा है। अपेक्षित विकास से इस क्षेत्र को दूर कर रखा है। किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा है। और प्रत्येक वर्ष सर्दियों में विधानमंडल के मंच से विदर्भ को आश्वासनों का झुनझुना थमाया जाता रहा है। क्या कभी इन व्याधियों की निरंतरता पर पूर्णविराम लग सकेगा? भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार युवा विधायक देवेन्द्र फडणवीस ने जब विधानसभा में टिप्पणी की थी कि विदर्भवासियों के साथ महाराष्ट्र में भिखारियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, तब निरीह विदर्भ रो पड़ा था। प्रतिक्रियास्वरूप पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में सभी एकमत हुए थे। अपवादस्वरूप कुछ को छोड़ पक्ष-विपक्ष दोनों के तरफ से स्वतंत्र विदर्भ राज्य के पक्ष में आवाजें उठी थीं। विकास के क्षेत्र में उपेक्षा और अन्याय से क्षुब्ध विदर्भवासी पूछने लगे कि तब हम महाराष्ट्र के साथ रहें तो क्यों? रेखांकित कर दूं कि पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में इस सोच को हवा मिली तो विदर्भ के प्रति राज्य सरकार की सौतेजी नीति के कारण! आज भी ऐसा ही हो रहा है। हवा रुकी नहीं, चल ही रही है! जब नागपुर करार के तहत विधानमंडल के नागपुर अधिवेशन की चर्चा करते हैं तब मजबूरी और छलावा जैसे शब्द अधिवेशन का मजाक उड़ाते दिखते हैं। मुंबई से नागपुर पहुंची सरकार आगमन के साथ ही प्रस्थान की तैयारियों में जुट जाती है। अधिवेशन की औपचारिकता को मजबूरी माननेवाले असहज विधायक, मंत्री व सरकारी कर्मचारी अधिवेशन के प्रति अपनी अगंभीरता छुपाने की कोशिश भी नहीं करते। विदर्भ के विधायकों की मांगों पर सहानुभूति प्रदर्शित कर सरकार आश्वासनों की झड़ी तो लगा देती है, किंतु दस्तावेज गवाह हैं कि व्यवहार के स्तर पर न तो घोषित आश्वासनों की पूर्ति हो पाती है और न ही विकास के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति! विदर्भ विकास के प्रति यह सरकारी उदासीनता ही है जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही है। ऐसी आत्महत्याओं में निहीत कारणों की जानकारी के बावजूद सरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है। राज्य के बाहर स्तंभित समीक्षक इस सवाल का हल ढूंढते रहते हैं कि आर्थिक रूप से दमित उत्तर भारत के किसान तो आत्महत्या नहीं करते फिर मजबूत आर्थिक आधार वाले महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या के लिए मजबूर क्यों हो जाते हैं? महाराष्ट्र सरकार के नीति नियामकों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए। क्योंकि किसान आत्महत्या के संदर्भ में विदर्भ की जमीनी सचाई से ये अच्छी तरह परिचित हैं। सिंचाई सुविधा, नगदी फसल की प्राथमिकता, इनके लिए आवश्यक जलस्रोतों का पिछले कुछ दशकों में क्षरण, वैकल्पिक फसलों के प्रति उदासीनता, अर्थव्यवस्था में किसानों की भूमिका का अभाव, वेतनभोगी वर्ग का प्रादुर्भाव और क्षेत्र का जीवनस्तर आदि पहलुओं का ईमानदार विश्लेषण वास्तविकता को सामने ला देगा। क्षेत्र के लिए कृषि संबंधी योजना बनाते वक्त अगर इन बातों का ध्यान रखा जाए तब क्षेत्र का न केवल अपेक्षित उल्लेखनीय विकास होगा बल्कि किसान आत्महत्या पर भी पूर्णविराम लग जाएगा। शर्त यह कि राज्य सरकार ईमानदारी से विदर्भ विकास के पक्ष में योजनाएं बनाये, धनराशि मुहैया कराए और कड़ाई से उन्हें क्रियान्वित करे। क्या विदर्भवासी अपेक्षा करें कि चालू विधानमंडल अधिवेशन के दौरान सरकार की ओर से ऐसी पहल की जाएगी? 'हां' की हालत में तब डंके की चोट पर ऐसी मुनादी की जा सकेगी कि विदर्भ कभी भिखारी नहीं बनेगा।

Thursday, November 18, 2010

सत्ता के लिए आपराधिक समझौते!

सत्ता पाने के लिए या सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाकर अनैतिक समझौते किए जाने का इतिहास पुराना है। सत्तारूढ़ संप्रग और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बार-बार इसे दोहराया है। इस प्रक्रिया में सोनिया अपने दिवंगत पति राजीव गांधी के सिद्धांत को उनके द्वारा प्रस्तुत आदर्श उदाहरण को भी भूल गईं। बल्कि, जानबूझकर भूलती रहीं। 1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पराजित हुई, लेकिन सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद उसने सरकार बनाने का दावा नहीं किया। राजीव गांधी ने तब विपक्ष में बैठना स्वीकार किया था। अगर राजीव गांधी चाहते तब जोड़-तोड़कर सरकार का गठन कर प्रधानमंत्री बन सकते थे। राष्ट्रपति द्वारा तद्हेतु आमंत्रण को राजीव गांधी ने ठुकरा दिया था। इसके ठीक विपरीत सन्ï 2004 में बहुमत नहीं मिलने के बावजूद सोनिया गांधी ने पहल कर कांग्रेस के नेतृत्व में अनेक छोटे-बड़े दलों की मिलीजुली सरकार का गठन किया। सन्ï 2009 में भी ऐसा ही किया गया। सन्ï 2004 में सरकार गठन हेतु किया गया समझौता तो नैतिकता के हर मानक को मुंह चिढ़ाने वाला था। बिहार के कुख्यात चारा घोटाला के मुख्य आरोपी लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का सहयोग लेने से कांग्रेस पीछे नहीं हटी। बल्कि, लालू को मंत्रिमंडल में शामिल कर रेल मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि चारा घोटाला को लेकर सोनिया गांधी सहित कांग्रेस के सभी छोटे-बड़े नेता लालू यादव को भ्रष्टाचार का दानव निरूपित किया करते थे? लालू यादव की उस घोटाले में गिरफ्तारी भी हो चुकी थी। भ्रष्टाचार और हत्या जैसे अपराध के आरोपी झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन की भी सहायता तब सोनिया गांधी ने ली थी। सोरेन को मंत्री बना कोयला जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंपा गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में तब अनेक दागी चेहरे शामिल किए गए थे। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि ऐसे समझौते सिर्फ सत्तावासना की पूर्ति के लिए किए गए थे। ए. राजा को वर्षों भ्रष्टाचार व लूट की छूट प्रधानमंत्री ने दे रखी थी, तो सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए ही। अब तो यह प्रमाणित हो चुका है कि 2 जी स्पेक्ट्रम के मामले में स्वयं प्रधानमंत्री ने नियमों में छूट दी थी। एक अत्यंत ही सनसनीखेज खुलासे में यह तथ्य सामने आया है कि 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए गठित मंत्रियों के समूह (जीओएम) के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हुए स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा के दबाव में समूह के कुछ अधिकार छीन लिए थे। इसके बाद ही ए. राजा ने मनमाने दर पर स्पेक्ट्रम के लाइसेंस जारी किए थे। प्रधानमंत्री निश्चय ही 2 जी स्पेक्ट्रम के घोटाले में शामिल माने जाएंगे। चाहे उन्होंने जानबूझकर ऐसा किया हो या फिर सत्ता की मजबूरी में, अपराध तो उन्होंने किया ही है। मंगलवार को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) को उसकी 150वीं वर्षगांठ पर नसीहत देते हुए प्रधानमंत्री ने जब यह कहा कि आलोचना और गलती ढूंढऩे, तुक्केबाजी करने और तर्कसंगत अनुमान लगाने, क्षम्य त्रुटि और जानबूझकर की गई गलती में बहुत कम अंतर होता है, प्रधानमंत्री अपरोक्ष में अपने अपराध पर परदा डाल रहे थे। यह भूलकर कि 2 जी स्पेक्ट्रम के मामले में उनकी 'भूल' कोई क्षम्य त्रुटि नहीं बल्कि, जानबूझकर किया गया अपराध है। उन्होंने देश के राजस्व के 1,76,000 करोड़ रुपयों की लूट की छूट दी थी। देश के कुल राजस्व घाटा (3.81 लाख करोड़) की एक तिहाई इस राशि से देश का न केवल राजस्व घाटा कम होता बल्कि धन के अभाव में लंबित विकास की अनेक योजनाओं पर काम शुरू किया जा सकता था। लेकिन सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों ने वरीयता 'सत्ता' को दी, समझौते कर भ्रष्टाचार को सिंचित किया, भ्रष्ट मंत्री और अधिकारियों को संरक्षण प्रदान किया। सत्ता और सिर्फ सत्ता के लिए किए गए ऐसे समझौते अपराध हैं, अक्षम्य अपराध हैं।

Wednesday, November 17, 2010

क्या अब प्रधानमंत्री इस्तीफा देंगे?

अगर अब भी प्रधानमंत्री कार्यालय या केंद्र सरकार हटाए गए संचार मंत्री ए. राजा का बचाव करती है तब, क्षमा करेंगे, उन्हें सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कह दिया कि तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद आरोपी मंत्री राजा के खिलाफ जानबूझकर कार्रवाई नहीं की गई। सुब्रमण्यम स्वामी ने राजा के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने की अनुमति मांगी थी, जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय 2 साल निष्क्रिय बैठा रहा। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने अत्यंत ही तल्खशब्दों में टिप्पणी की है कि स्वामी की शिकायत हवाई नहीं है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ए. राजा को बचाने की कोशिश की? लगभग 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के राजस्व घोटाले के मामले में 2 वर्षों तक चुप्पी स्वयं प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर रही है। मीडिया द्वारा परत-दर-परत मामले को उभारने और संसद में विपक्ष के कड़े आक्रामक रवैये के बाद राजा से इस्तीफा तो ले लिया गया किंतु इससे न तो राजा का अपराध खत्म हो जाता है और न ही मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा के आधार पर प्रधानमंत्री सहित पूरा मंत्रिमंडल जिम्मेदारी से हाथ झटक सकता है। दोषी सभी हैं। प्रधानमंत्री अधिक! चूंकि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सन् 2009 में नए मंत्रिमंडल के गठन के पूर्व ही सार्वजनिक हो चुका था, मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे मंत्रिमंडल में पुन: न केवल राजा को शामिल किया बल्कि वही दूरसंचार विभाग भी दे दिया, घोटाले में प्रधानमंत्री बराबर के भागीदार माने जाएंगे। सीबीआई और आयकर विभाग के दस्तावेज इस सवाल का जवाब देंगे। राजा ने कुख्यात 'फिक्सरÓ नीरा राडिया की सहायता ली थी। सीबीआई दस्तावेजों के अनुसार राडिया ने राजा को मंत्री बनवाने और दूरसंचार विभाग ही दिलवाने में दो प्रख्यात पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांगवी की मदद ली थी। इनकी कोशिशों के बाद ही राजा दूरसंचार विभाग के मंत्री बने। जाहिर है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसे प्रभाव या दबाव में ही राजा को पुन: मंत्री बनाया था। स्वच्छ छवि और किसी भी प्रभाव से इतर काम करने का दावा करनेवाले मनमोहन सिंह अगर सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर 2 साल चुप बैठे रहे तो क्या अचरज? 2-जी स्पेक्ट्रम जैसा महाघोटाला अगर फलता-पनपता रहा तो निश्चय ही प्रधानमंत्री की जानकारी में ही! प्रधानमंत्री इससे इन्कार नहीं कर सकते। कांग्रेस महासचिव राहुल गंाधी दावा करते रहे हैं कि सरकार में भ्रष्टाचारियों के लिए कोई स्थान नहीं है। भ्रष्टाचार को स्वयं अंजाम देना ही किसी को भ्रष्टाचारी नहीं बनाता, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष इसके मददगार भी भ्रष्टाचारी माने जाएंगे। क्या राहुल गांधी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगेगे? ऐसी नैतिकता दिखाने का साहस राहुल में नहीं है। चूंकि मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार को बचाए रखने के लिए पहले मजबूरी में डीएमके के राजा को मंत्री बनाया और बाद में मजबूरी में उन्हें कायम रखा! कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र जब यह तर्क देते हैं तो बड़ा दु:ख होता है। सत्ता में बने रहने के लिए भ्र्रष्टाचार के पक्ष में देशहित के साथ समझौता एक राष्ट्रीय अपराध है। डीएमके के सामने कांग्रेस का नतमस्तक होना एक त्रासदी से कम नहीं है। बता दूं कि यह वही कांग्रेस है जिसने 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस ले लिया था, क्योंकि उसमें डीएमके भी शामिल कर ली गई थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तब कहा था कि जो डीएमके पार्टी उनके पति राजीव गांधी की हत्या की जिम्मेदार रही है, उससे युक्त सरकार को समर्थन कैसे दिया जा सकता है? तब सोनिया की बात ठीक लगी थी, लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के लिए उसी सोनिया गांधी ने सन् 2004 में अपने पति की कथित हत्यारी डीएमके को सरकार में शामिल कर लिया! सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक समझौते का यह एक अत्यंत ही घृणित उदाहरण है। ऐसे में डीएमके के घोटालेबाज भ्रष्ट मंत्री के पापों पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परदा डालते रहे तो सत्ता में बने रहने के मजबूरी के कारण ही!

Thursday, November 11, 2010

...तब तो लोकतंत्र ही खत्म हो जाएगा!

एक बार फिर लोकतंत्र आहत हुआ -परिभाषा के विपरित आचरण देखकर! लोकतंत्र के आज के पहरूओं के कृत्य पर लोकतंत्र के शिल्पकार सौ-सौ आंसू बहाने पर मजबूर हैं। ऐसा क्यों, कि लोकतंत्र के तानेबाने में, लोकतांत्रिक संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक सरकार की मौजूदगी तो है किंतु इसके संरक्षक-प्रतिनिधि बेशर्मी से इसकी पूरी अवधारणा को नंगा करने पर तुले है?
ठेठ देहाती शब्दों में कहूँ तो लोकतंत्र के ऐसे कथित जनप्रतिनिधि अब नंगई पर उत्तर आए हैं। प्रतिकार करनेवाले स्वर गुम हैं - हाथ गायब हैं। क्यों उत्पन्न हुई ऐसी स्थिति? क्या पूरा का पूरा देश लोकतंत्र विरोधी आचरण करने वाले ऐसे तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर चुका है? अगर हाँ, तो क्यों और कैसे? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे भारत देश के सभी वासियों को चुनौती है कि वे इसका सही समाधानकारक उत्तर ढूँढें। कठीन नहीं, सहज है यह ! घोर व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वकांक्षा का त्याग कर हम ऐसा कर सकते हैं। समाधान के रुप में जो सच सामने आयेगा उसका वरण् कर हम लोकतंत्र के मूल स्वरुप की पुनस्र्थापना कर पायेंगे।
दु:खद रुप से प्रसंग महाराष्ट्र प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के चयन का है। भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए अशोक चव्हाण की जगह पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को 'नियुक्त' किया गया। जी हाँ! नियुक्ति ही हुई उनकी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उनका निर्वाचन नहीं हुआ। दिखावे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने दूत मुंबई भेज विधायकों की इच्छा जानी। लेकिन सभी जानते हैं कि दूतों के आदेश का पालन करते हुए विधायकों ने एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को मुख्यमंत्री की नियुक्ति के लिए अधिकृत कर दिया। विधायकों की 'सर्वसम्मत इच्छा' के नाम पर पहले से तय पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। मैं यहां पृथ्वीराज की पात्रता-योग्यता को चुनौती नहीं दे रहा। उपलब्ध इच्छितों और प्रदेश की जरुरत के मापदंड पर वे मुख्यमंत्री के रुप में निश्चय ही खरे साबित होंगे। मेरी पीड़ा और आपत्ति लोकतंात्रिक प्रक्रिया को दी जा रही मौत को लेकर है। क्योंकि इसकी निरंतरता एक दिन लोकतंत्र को ही खत्म कर देगी। क्या देश ऐसा चाहेगा? हरगिज नहीं! फिर क्यों नहीं कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों में प्रविष्ट लोकतंत्र विरोधी ऐसी प्रवृत्ति को कुचल दिया जाता? पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में ऐसा कभी नहीं हुआ। तब हर प्रदेश के विधायक अपना नेता चुनने के लिए स्वतंत्र होते थे। एक से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी में बाजाप्ता लोकतांत्रिक ढंग से मतदान हुआ करते थे। बहुमत प्राप्त व्यक्ति विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री चुना जाता था। उपर से कभी भी नेता थोपे नहीं जाते थे। प्रदेश सरकारों की स्थिरता और तब कांग्रेस की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी था। तब और आज में कोई तुलनात्मक अध्ययन करवा लें, कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में क्षरण के ये कारण सामने आ जायेंगे। कोई खुलकर विरोध न करें लेकिन लोकतंत्र विरोधी आचरण को देश की जनता बर्दाश्त नहीं करती। यह तो सचमुच लोकतांत्रिक भावना के विपरित है कि कोई और गैर विधायक, विधायक दल का नेता चुना जाय! वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के 'नाटक' के मंचन के साथ!

Wednesday, November 10, 2010

अब एक मजबूत प्रधानमंत्री !

शाबाश मनमोहन सिंह, शाबाश....!!! कम-अज-कम (फिलहाल) अब कोई मनमोहन सिंह को एक 'कमजोर प्रधानमंत्री' के रुप में तो संबोधित नहीं ही करेगा। विगत सोमवार को नई दिल्ली में जब मनमोहन सिंह अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा के साथ मीडिया से रू-ब-रू थे तब उनका सख्त दो टूक लहजा एक मजबूत देश के मजबूत प्रधानमंत्री की मौजूदगी को चिन्हित कर रहा था। मनमोहन सिंह के वे आलोचक भी भौचक्क रह गए जो प्रधानमंत्री पर अमेरिका के समक्ष नतमस्तक घुटने टेकने का आरोप लगाते रहे हैं। विनिवेश से लेकर परमाणु उर्जा तथा अनेक राजनीतिक व राजनयिक मामलों में मनमोहन सिंह अमेरिका के सामने गिडगिड़ाते नजर आते हैं। इस पाश्र्व में बराक ओबामा की भारत यात्रा के परिणाम को लेकर आलोचक-समीक्षक बहुत आश्वस्त नहीं थे। लेकिन विगत सोमवार ने एक नए मनमोहन सिंह को पेश किया। मनमोहन सिंह ने जब अमेरिकी राष्ट्रपति की तरफ रुख कर टिप्पणी की कि, ''मिस्टर प्रेसिडेंट, हम भारतीय नौकरी चोरी नहीं करते!'', तब ओबामा ही नही टेलीविजन पर कार्यवाही को देखनेवाला प्रत्येक भारतीय पहले तो स्तब्ध फिर प्रसन्न उछल पड़ा। पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री ने कह डाला कि आतंकवाद और बातचीत दोनों एकसाथ नहीं चल सकता। निश्चय ही मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय भावना को प्रदर्शित किया। इसमें दो राय नहीं कि भारत पूरे संसार के लिए अब एक अपरिहार्य व बड़ी आर्थिक और सामरिक शक्ति बन चुका है। उसकी उपेक्षा अब संभव नहीं। बावजूद इसके अगर शक्तिशाली अमेरिका चीन तथा तुलनात्मक दृष्टि से कमजोर पाकिस्तार अगर रह-रहकर हमें चुनौती देते हैं तो सिर्फ हमारी बटी हुई ताकत के कारण! केंद्र में खिचड़ी सरकार की जरुरतों के मद्देनजर नीतियों के साथ किए जा रहे समझौते हमें कमजोर बना देते हंै। नितियों की विफलता के लिए स्वयं शासक मिलीजुली सरकार के साझा कार्यक्रमों को दोषी ठहराने में नहीं हिचकते। एक मजबूत व स्थिर केंद्र सरकार की अपरिहार्यता के बावजूद खंडित जनादेश इस जरुरत को पूरा नहीं होने देते। अब समय आ गया है, जब मतदाता इस विडंबना को समझ निर्णायक कदम उठाएं।

Sunday, November 7, 2010

यथास्थिति से संतुष्ट हम!

''अंकल सॅम'' के वारिस ओबामा और क्या करते? भारत आकर वे वही सब कर रहे हैं, कह रहे हैं, जो पहले के अमेरिकी राष्ट्राध्यक्षों ने किया। ओबामा को कोई दोष न दे। उन्होंने तो भारत की धरती पर पांव रखते ही दो टूक शब्दों में घोषणा कर दी कि अमेरीकी हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। फिर ओबामा से ऐसी शिकायत क्यों कि उन्होंने एक आतंकवादी राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का नाम क्यों नहीं लिया? सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर ओबामा की चुप्पी (अब तक) पर भी सवाल इस आलोक में निरर्थक है। यह सवाल भी फिर बेकार ही है कि मुंबई के ताज होटल पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के सूत्रधार डेविड कोलमन हेडली के मामले में ओबामा लगातार झूठ क्यों बोलते रहे हैं? कोई पूछ कर देख ले, ओबामा सीधे इनके जवाब नहीं देंगे। अमेरिकी नीति उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। अब सवाल यह कि फिर हमने अर्थात भारत ने उनसे ऐसी अपेक्षाएं की ही क्यों की थी? वस्तुत: यह हमारी अमेरिका के प्रति आसक्ति और समर्पण आधारित सोच की परिणति है। हमारा सरल दिल भावनाओं के साथ बह जाता है। बौद्धिक रूप से अभी भी गुलाम हमारा मन-मस्तिष्क सचाई पर परदा डाल देता है। अमेरिका और ओबामा के सच के साथ भी हमने ऐसा ही किया। आतंकवाद के खिलाफ जंग में हमारा साथ देने की घोषणा करनेवाले ओबामा और उनका देश अमेरिका सामरिक कारणों से पाकिस्तान को व्यवहार के स्तर पर नाराज कर ही नहीं सकता। और अब आर्थिक कारणों से वह भारत को भी नाराज करने की स्थिति में नहीं है।
भारत और पाकिस्तान दोनों उसकी मजबूरी बन चुके हैं। अन्यथा, मुंबई के हमलावरों को माफी के लायक नहीं माननेवाले ओबामा पाकिस्तान का नाम लेने से स्वयं को नहीं बचा लेते! अमेरिकी खुफिया एजंसियों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि किए जाने के बावजूद कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान को दी गई आर्थिक एवं सैन्य सहायता का भारत के खिलाफ उपयोग किया गया, ओबामा की अमेरीकी सरकार ने पुन: पाकिस्तान को 2 अरब डालर की सहायता क्यों की?
अब यह सच सामने आ चुका है कि मुंबई पर 26/11 के हमले की योजना को अंजाम दिलवाने वाले हेडली के संबंध में अमेरिकी खुफिया एजंसियों को पूर्व जानकारी थी। अगर अमेरीकी एजंसियां भारत को पहले सतर्क कर देतीं तब आतंकवादी अपने मनसूबे को पूरा करने में सफल नहीं होते। उन्हें पहले ही गिरफ्त में ले लिया जाता। इस तथ्य के उजागर होने के बावजूद ओबामा ऐसा दावा कैसे कर गए कि दोनों देशों की खुफिया एजंसियों के बीच बेहतर तालमेल है? और तो और, अमेरिका अभी भी हेडली को हमें सौंपने को तैयार नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे भोपाल त्रासदी के मुख्य अभियुक्त वॉरन एंडरसन को वह भारत को सौंपने को तैयार नहीं। अमेरीकी कथनी और करनी में फर्क का इतिहास पुराना है। ओबामा भारत से वापस जायेंगे अमेरीकी हितों का पुलिंदा लेकर! अमेरिका वापस जाकर वे अपने देशवासियों को 'सफल भारत यात्रा' का विवरण दे अपने लिए फूल-हार बटोर लेंगे। अमेरीकी यह जानकर प्रसन्न हो जायेंगे कि उनके राष्ट्रपति ने भारत को यह एहसास करवा दिया कि अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली एवं धनि देश है। भारत सरकार पूर्व की भांति यथास्थिति में संतुष्ट रहेंगी।

Friday, November 5, 2010

राहुल गांधी की परिपक्वता?

राहुल गांधी मानते हैं कि राजनीतिक रूप से वे उन लोगों से ज्यादा परिपक्व हैं जो उन्हें 'बच्चाÓ समझते हैं। अगर यह सच है तो उन्हें सलाम। लेकिन अब उनके सामने चुनौती अपने शब्दों को सच साबित करने की है। और यह तभी संभव हो पाएगा जब वे मन, वचन, कर्म से उन चाटुकारों को स्वयं से दूर रखें जिन्हें वे 15 मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करने की घोषणा कर चुके हैं। इसके लिए जरूरी है कि वे स्वाध्याय की प्रवृत्ति को संरक्षित कर स्वयं अध्ययन करें, दूसरों द्वारा बताए-सुझाए गए शब्दों पर न चलें। अपने लिए राजनीतिक परिपक्वता की बात उन्होंने बिहार चुनाव अभियान के दौरान कही। शंका भी यहीं से उठी। इसी चुनाव अभियान के दौरान राहुल एक जगह यह कह बैठे कि ''बिहार के चमकने का श्रेय नीतीश (मुख्यमंत्री) को नहीं जाता है।ÓÓ याद दिला दूं कि बिहार में ही राहुल कुछ दिनों पूर्व यह कह चुके हैं कि ''बिहार में कोई विकास नहीं हो रहा है... प्रदेश पिछड़ा का पिछड़ा है।ÓÓ अब सच क्या है? अगर बिहार में कोई विकास नहीं हुआ, कोई बदलाव नहीं हुआ तब फिर राहुल किस 'चमकÓ के श्रेय से नीतीशकुमार को वंचित करना चाह रहे हैं? साफ है कि बिहार चमक रहा है अर्थात्ï विकास हुआ है- हो रहा है। राहुल गांधी तथ्यों से दूर एक अत्यंत ही अपरिपक्व राजनीतिक की भांति व्यवहार कर रहे हैं। अपने पक्ष में परिपक्वता का उनका दावा खोखला है। मैं यहां उनकी नीयत पर शक नहीं कर रहा। उस सचाई को रेखांकित कर रहा हूं जो नागपाश बन राहुल गांधी को जकड़ चुकी है। उन्हें इससे मुक्त होना पड़ेगा। अन्यथा उन्हें हर अवसर पर शातिर राजनीतिक शर्मिंदा करते रहेंगे। परस्पर विरोधाभासी वक्तव्य दिलाकर उन्हें कटघरे में खड़ा करते रहेंगे। जहां तक बिहार और कांग्रेस के भविष्य का प्रश्न है, राहुल गांधी को पहले सच की खोज करनी पड़ेगी। उस सच की जो चीख-चीखकर कह रहा है कि प्रदेश में अब पार्टी को सर्वमान्य नेतृत्व की जरूरत है। आर्थिक दृष्टि से अत्यंत ही पिछड़ा यह प्रदेश दुखद रूप से जात-पात के जहर का शिकार है। झारखंड के अलग होने के बाद इसकी आय का स्रोत भी लगभग बंद हो चुका था। अगर विभाजन के समय ही प्रदेश में कृषि पर ध्यान दिया जाता तो बिहार डेनमार्क बन अत्यधिक समृद्ध हो जाता। लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाया तो इसका मुख्य कारण सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार और वहां कांग्रेस का प्रभावहीन हो जाना रहा। उत्तरप्रदेश की तरह कभी बिहार भी कांग्रेस का गढ़ रहा था। किन्तु जातीय राजनीति ने धीरे-धीरे इसे निगल लिया। कांग्रेस नेतृत्व किन्हीं कारणों से जानबूझकर इसे अनदेखा करता गया। परिणाम सामने है। राहुल गांधी तो प्रयास कर रहे हैं किन्तु जनसमर्थन अभी भी कोसों दूर है। राहुल का प्रयास इसलिए फलदायक नहीं हो सकता कि उन्हें यथार्थ से दूर रखा जा रहा है। जातीय समीकरण के नाम पर आधारहीन नेताओं को प्रश्रय दे राहुल गांधी दल को मजबूती नहीं दे पाएंगे। प्रदेश कांग्रेस आमूलचूल परिवर्तन का आग्रही है। राहुल इस सच को भी जान लें कि बिहार कभी भी पूर्वाग्रही नहीं रहा है। उसने हमेशा ईमानदार नेतृत्व का साथ दिया है। भ्रष्टाचार उसे सहन नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने इसी बिहार की धरती से सफल 'संपूर्ण क्रांतिÓ का संचालन किया था। उनकी क्रांति को राष्ट्रीय समर्थन मिला था और तब इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली नेता व उनकी पार्टी कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन इंदिरा के क्षमा मांग लेने के बाद बिहार ने फिर उनका साथ भी दिया था। परंतु कांग्रेस इस भावना को समझ नहीं पाई। उसने फिर बिहार की उपेक्षा की। नतीजतन आज कांग्रेस वहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। राहुल का लक्ष्य युवाओं को साथ ले पार्टी को पुनर्जीवित करने का है। लेकिन यही काफी नहीं। पहले वे दिल्ली के चाटुकारों से छुटकारा पा प्रदेश स्तर पर सर्वमान्य नेतृत्व ढूंढें- इस मुकाम पर जातीय समीकरण को दूर रखें। प्रदेश का इतिहास गवाह है कि जातीय आधार पर अल्पमत में रहने के बावजूद प्रदेश में समय-समय पर अच्छे कुशल नेतृत्व सामने आ चुके हैं। राहुल इस तथ्य को ध्यान में रख सरलता-सहजता से लोगों के पास जाएं। लोगों के बीच से नेतृत्व तलाशें, लोगों के विश्वास को जीतें। हां, इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि वहां के लोग सरलता को स्वीकार करते हैं, चालबाजी को नहीं। बेहतर हो राहुल तत्काल इसे समझ लें।

साम्प्रदायिकता को हवा न दे कांग्रेस!

देश सावधान हो जाए। विशेषकर युवा पीढ़ी। देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने और फिर टुकड़े करने की साजिश रची जा रही है। ठीक आजादी के पूर्व की भांति। 'फूट डालो राज करोÓ की ब्रिटिश (कु) नीति को कब्र से निकाल संजीवनी पिलाई जा रही है। इस बार कोई गोरा ब्रिटिश हाथ नहीं, भारतीय हाथ इसे अंजाम दे रहे हैं। धिक्कार है ऐसी भारतीय नस्लों को जो अपनी ही धरती के खिलाफ रचे जा रहे षडय़ंत्र में शामिल हैं- सिर्फ तात्कालिक निज स्वार्थ पूर्ति के लिए। जरा इन घटना विकासक्रमों पर गौर करें। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भारतीय करदाताओं के 70,000 करोड़ रुपये का घोटाला। मुंबई में गठित आदर्श सोसाइटी में आबंटन की प्रक्रिया में सैनिकों की विधवाओं, उनके पीडि़त परिवारों के बदन से उनके हिस्से के कपड़े छिन लेने की शर्मनाक घटना। हजारों करोड़ रुपये का 2-जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों की घटनाओं पर सत्तारूढ़ कांगे्रस का मौन। किन्तु उसी कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी संगठन घोषित करना! अयोध्या की विवादित जमीन (राममंदिर-बाबरी मस्जिद) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की मूल भावना को हाशिये पर रख कांगे्रस द्वारा यह घोषित करना कि मस्जिद विध्वंस करने वालों को माफी नहीं मिल जाती! यह प्रचारित करना कि फैसले से मुसलमानों की भावना आहत हुई है! यह भी प्रचारित करना कि उच्च न्यायालय का दरवाजा खुला है! जब फैसले को पूरा देश सराह रहा था, कांगे्रस द्वारा फैसले के खिलाफ मुस्लिम संगठनों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के लिए उकसाना! और अब जबकि पूरा देश घोर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांगे्रस नेतृत्व से दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की अपेक्षा कर रहा था, उन्हें दंडित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था, कांग्रेस नेतृत्व ने इन सभी पापों पर परदा डाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी और भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक साबित करने की मुहिम छेड़ दी! लानत है ऐसी सोच पर और लानत है ऐसे तत्वों पर। बात इतनी सरल भी नहीं। अमीरों के लिए एक इंडिया और गरीबों के लिए दूसरा भारत की बातें करने वाले कांगे्रस महासचिव राहुल गांधी बाबर से लेकर कलावती तक की बातें करते हैं, साथ ही भारत में प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तराजू के एक ही पलड़े में रख देते हैं। गांव-गांव में पहुंचकर गरीबों की सुध लेने का ढोंग करते हैं, ट्रेन के साधारण डिब्बे में यात्रा कर स्वयं को गरीब भारत का हिस्सा बताने की कोशिश करते हैं। किन्तु जब बात राष्ट्रीय एकता-अखंडता की आती है तब सांप्रदायिकता और आतंकवाद उनके सिर चढ़ बोलने लगता है। यह देश के लोकतंत्र के खिलाफ एक गहरी साजिश है। केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस नहीं चाहती कि राष्ट्रीय स्तर पर उसका कोई विकल्प तैयार हो। विकल्प के रूप में केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व कर चुकी भारतीय जनता पार्टी को जमींदोज करने की चाल चली जा रही है। लोकतंत्र में स्वस्थ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का तो स्वागत है किन्तु अलोकतांत्रिक देश विरोधी हथकंडों का कदापि नहीं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की विगत मंगलवार को हुई बैठक की कार्यवाही हर दृष्टि से देश के लोकतांत्रिक बुनियादी ढांचे को आहत करने वाली है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सांप्रदायिक सौहाद्र्र के पक्ष में देश ने जो एकजुटता दिखाई थी, उसे तोडऩे की कोशिश कर रही है कांगे्रस। क्या यह वही कांगे्रस है जिसे आगे कर महात्मा गांधी ने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया था? क्या यह वही कांग्रेस है जिसने डा. राजेंद्र प्रसाद जैसा प्रथम राष्ट्रपति, पं. जवाहरलाल नेहरू जैसा प्रथम प्रधानमंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसा गृहमंत्री और डा. भीमराव आंबेडकर जैसा संविधान का शिल्पकार दिया था? राजनीतिक दल के रूप में सत्ता प्राप्ति के लिए होड़ तो वह करे किन्तु सांप्रदायिकता और अलगाववाद की नाव पर चढ़ सत्ता की वैतरणी पार करने की कोशिश वह न करे।

Sunday, October 31, 2010

'हमाम' के ये अश्लील, भ्रष्ट नंगे!

राजनीति और राजनीतिकों के ऐसे पतन की कल्पना हमारे लोकतंत्र ने कभी नहीं की होगी। क्या हो गया है लोकतंत्र के हमारे कथित कर्णधारों को, युवा पीढ़ी के कथित मार्गदर्शकों को और लोकतंत्र व संविधान के कथित रक्षकों को? सत्ता के लिए मर्यादा भूल नंगा हो जाने की ऐसी दशा के लिए आखिर जिम्मेदार है तो कौन? पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार को 'मौत के सौदागर' निरूपित कर एक अत्यंत ही घृणित परंपरा की नींव डाली थी। जनता ने चुनाव में तब कांग्रेस को पराजित कर सोनिया के बयान के प्रति के अपनी नाराजगी प्रकट कर दी थी। भारतीय संस्कृति की यह खूबी बरकरार है। फिर राजनेता इससे सीख क्यों नहीं ले रहे? बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'चोर और बेईमान' बताती घूम रही हैं। कांग्रेस सांसद संजय निरूपम नीतीश सरकार को महाभ्रष्ट बताते हुए गंगा में डुबो दिए जाने की मांग कर रहे हैं। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती देश के ब्राह्मïणों को जूते मारे जाने की घोषणा कर चुकी हैं। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अपने भतीजे राज ठाकरे के 'पिछवाड़े' पर जूते मारने की बात कर रहे हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) अध्यक्ष शरद यादव कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को गंगा में फेंक देने का ऐलान कर रहे हैं। यह कौन सी राजनीति है? राजनीति का यह स्तर आदर्श तो नहीं हो सकता। युवा पीढ़ी विस्मित है लोकतंत्र के इन कथित पहरुओं के आचरण पर। एक समय था जब राजनेता अनुकरणीय आदर्श हुआ करते थे। किन्तु आज? खेद है कि वे लोकतंत्र की हत्या को अंजाम देने पर तुले हुए हैं। चरित्र और नैतिकता के साथ दिनदहाड़े चौराहे पर बलात्कार करने से भी इन्हें परहेज नहीं। 80 के दशक में एक अवसर पर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अब्दुल गनी खान चौधरी ने जब बंगाल की माक्र्सवादी सरकार को बंगाल की खाड़ी में डुबो दिए जाने की बात कही थी तब पूरे देश ने गनीखान चौधरी के शब्दों को अश्लील करार दिया था। उन्हीं दिनों एक और केंद्रीय मंत्री के.के. तिवारी के कड़वे शब्दों को अश्लीलता की श्रेणी में रखकर एक मराठी दैनिक के तत्कालीन संपादक ने तिवारी की तुलना 'राजीव गांधी के बेलगाम कुत्ते' से कर दी थी। हालांकि आपत्तिजनक संपादक की वह टिप्पणी भी थी। उन्होंने स्वयं को पतित राजनीतिकों की पंक्ति में खड़ा कर लिया था। मुझे दुख इस बात का हुआ कि घोर आपत्तिजनक राजनीति की ऐसी शैली अभी भी बरकरार है। इस प्रवृत्ति पर अंकुश की आवश्यकता है। क्या कोई पहल करेगा? लोकतंत्र और महान भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए यह जरूरी है। एक ओर जब विकास के नाम पर चुनावी मैदान में उतरने की बातें की जा रही हैं तब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में आपत्तिजनक अश्लील शब्दों का सहारा क्यों? मेरा मानना है कि इस पर अंकुश के लिए सार्थक पहल युवा पीढ़ी कर सकती है। चुनाव में ऐसे तत्वों को पराजित कर उन्हें सबक सिखा दिया जाना चाहिए।
इसी क्रम में भ्रष्टाचार की गंगोत्री की चर्चा भी इन दिनों तेज हे। मुंबई के कुलाबा स्थित आदर्श सोसाइटी में फ्लैट आबंटन को लेकर जो हृदयविदारक तथ्य सामने आए हैं वे भ्रष्टाचार के हमाम में सभी नंगे को रेखांकित कर रहे हैं। कथित रूप से करगिल युद्ध पीडि़तों के लिए निर्मित उस भवन में राजनीतिकों, सेनाधिकारियों व सरकारी अधिकारियों ने जो बंदरबाट की उससे एक बार फिर यह साबित हो गया कि आज के राजनीतिक व अधिकारी अपने हक में लूट के लिए युद्धपीडि़तों एवं सैन्य विधवाओं के हक पर भी डाका डाल सकते हैं। भ्रष्टाचार की पुरानी परंपरा पर चूंकि रोक लगाने की सार्थक व गंभीर कोशिश कभी नहीं की गई, यह रोग फलता-फूलता चला आया। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में सिराजुद्दीन जीप घोटाले से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्र्यकाल में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तक की भ्रष्ट यात्रा सामने है। इनके बीच में इंदिरा गांधी के कार्यकाल का पाइप लाइन घोटाला व पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला, राजीव गांधी के कार्यकाल का बोफोर्स व फेयरफैक्स घोटाला, नरसिंहराव के कार्यकाल का सांसद रिश्वत कांड, हर्षद मेहता कांड व दूरसंचार घोटाला, अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल का ताबूत घोटाला आदि लोकतांत्रिक भारतीय इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हैं। सभी शामिल हैं इनमें। भ्रष्टाचार की गंगोत्री की पहचान कठिन नहीं। हां, अधिकारियों के साथ मिलकर राजनेताओं ने इन पर परदा डाल रखा है। चूंकि इस लूट में प्रताडि़त आम जनता होती रही है, उसकी गाढ़ी कमाई को उसकी जेबों से निकाल लिया जाता है, विरोध व अंकुश की पहल जनता को ही करनी होगी। आगे युवा पीढ़ी को ही आना होगा। आह्ïवान है कि वे दलगत राजनीति से इतर लोकतंत्र व देशहित में कदमताल करते हुए भ्रष्ट, स्वार्थी, देशद्रोही ऐसे तत्वों को कुचल डालें।

Tuesday, October 26, 2010

झूठी एवं मक्कार हैं अरुंधति!

अहंकारी किन्तु मूर्ख बिल्ली सरीखी लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति राय ने स्वयं ही अपने थैले के बंधन खोल डाले हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में देशद्रोही स्वर अपनाने वाली अरुंधति ने क्षमा मांगने की जगह देश की सत्ता का और पूरी जनता की समझ का मखौल उड़ा डाला। जरा उनके शब्दों पर गौर करें, ''उस मुल्क पर (मुझे) दया आती है जहां इंसाफ की बात करने वालों को जेल में डाला जाता है... मैंने तो कश्मीरियों के लिए सिर्फ इंसाफ की आवाज उठाई है। किस मुल्क और किन कश्मीरियों की बात कर रही हैं अरुंधति? दया तो मुझे उनकी समझ पर आ रही है। दया 'बुकर पुरस्कार के निर्णायकों की समझ पर भी आ रही है। अगर बुकर पुरस्कार से अरुंधति समान मन-मस्तिष्क की धारक सम्मानित हो सकती है तो कूड़ेदान में डाल दें ऐसे पुरस्कार को। अपने देश भारत को 'उस मुल्क से संबोधित कर और अपने ही देश के एक राज्य कश्मीरवासियों के लिए पृथक कश्मीरी स्वर निकालकर अरुंधति ने स्वयं ही यह प्रमाणित कर दिया कि वे विघटनकारी तत्वों के साथ मिलकर अलगाववाद को बढ़ावा दे रही हैं। और यह भी कि अरुंधति स्वयं को शायद भारतीय भी नहीं मानतीं। यह पूरे भारतीयों का अपमान है कि उन्होंने भारत के लिए ऐसे शब्द-स्वर निकाले। अपनी बातों के समर्थन में अरुंधति का यह कहना कि उन्होंने वही बात कही 'जो कश्मीर के लाखों लोग रोजाना कहते हैं, निश्चय ही अलगाववाद है। अरुंधति ने कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों की गिनती कब की? कहां हैं वे लाखों कथित कश्मीरी? झूठ बोल रही हैं अरुंधति। बिल्कुल एक मक्कार की भाषा इस्तेमाल कर रही हैं वे। ऐसे में तो वे अलगाववादी-आतंकवादी भी सही थे जिन्होंने कभी खलिस्तान की आवाजें उठाई थीं। वह देशद्रोह था जिसे कुचल दिया गया। आज बेशर्मी के साथ अपनी बातों को सही ठहराकर अरुंधति ने अपने लिए कालकोठरी को आमंत्रित किया है। उनके ताजा वक्तव्य का एक-एक शब्द अलगाववाद प्रेरित है। उनकी कपटभरी नीयत रेखांकित हुई है। जरा गौर करें। अपने खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग पर टिप्पणी करते हुए जब वे कहती हैं कि ''इंसाफ की बात करने वाले लेखकों को तो इस देश में जेल में डाल दिया जाता है किन्तु साम्प्रदायिक हिंसा करने वाले, नरसंहार करने वाले, कार्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों पर जुल्म ढाने वाले खुले घूम रहे हैं तब उनकी नीयत स्वत: सामने आ जाती है। अरुंधति नाम की यह लेखिका बड़ी चालाकी से संसद पर हमले के दोषी, फांसी की सजा प्राप्त अफजल गुरु का नाम गोल कर जाती हैं। क्यों छुपाया अफजल का नाम उन्होंने? क्या वे बताएंगी? अरुंधति! सच तो यह है कि यह भारत देश ही है जहां अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आसानी से अरुंधतियों की ऐसी फौज खड़ी हो जाती है जो खाती तो भारत का है, ऐश भारत में करती है, लेकिन जुबान और कलम भारत के खिलाफ चलाती है। ऐसा कर वे विदेशियों के लिए महान बन जाती है। विदेशी धन और पुरस्कारों से नवाजी जाती है। भारत देश अपनी उदार और सहिष्णु नीति के कारण इनके खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं कर पाता। भारत की इसी कमजोरी का लाभ अरुंधतियां उठाती रहती हैं। लेकिन अब और नहीं। मैंने खलिस्तान की चर्चा की है तो भिंडरावाले की याद कर ली जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की घटना की याद कर ली जाए। इन अरुंधतियों ने कभी भी इन घटनाओं के पीछे की शक्तियों को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए देश के विकास हेतु उठाए गए कदमों का विरोध कर सुर्खियां बटोरने में ऐसे लेखक माहिर हैं। जिन 'कश्मीरियों और 'मुल्क की बात अरुंधति ने की है, कथित लाखों कश्मीरियों की चर्चा की है, बेहतर हो पहले वे इतिहास के पन्नों को पलट लें। पता चल जाएगा कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के अन्य प्रदेशों की तरह भारत का अभिन्न अंग है और कश्मीरी पहले भारतीय हैं, बाद में कश्मीरी-पंजाबी, बिहारी, बंगाली, मराठी, मद्रासी आदि की तरह। अगर अरुंधति या उनके समान सोच वालों के खिलाफ तत्काल कठोर कार्रवाई नहीं की जाती तब कोई आश्चर्य नहीं अगर ये तत्व लगभग एक हजार वर्ष गुलाम रहे भारत के अतीत को स्वर्णिम युग बताते हुए पुराने शासकों की वापसी की मांग भी कर डालें। ऐसे लेखक अपनी कल्पना की उड़ान में इस तरह की देशद्रोही सोच को कलमबद्ध करने में हिचकेंगे नहीं। चूंकि अरुंधति ने घोर अलगाववादी सोच को सही ठहराया है, देशद्रोह के आरोप में उन्हें तत्काल दंडित करने की मांग हर भारतीय करेगा। एक अनुरोध शासकों से भी। उदारता तो ठीक है, किन्तु इतने उदार भी न बनें कि हम अपनी जमीन देशद्रोहियों को कबड्डïी खेलने के लिए उपलब्ध कराते रहें। ऐसे तत्वों को दंडित करने के लिए अगर आवश्यक हो तो संविधान-कानून बदल डालें।

देश निकाला दें गिलानी व अरुंधति को!

रीढ़ विहीन शासक वर्ग और मुखौटाधारी राष्ट्रविरोधी कथित बुद्धिजीवी वर्ग को चेतावनी है कि वे भारत को एक नपुंसक देश प्रमाणित करने की कोशिश न करें। यह असह्ïय है, देशवासी इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। आज हर देशवासी यह जानना चाहता है कि कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को अपनी ही भूमि पर, अपनी ही भूमि के लिए 'आजादी' का नारा बुलंद करने की इजाजत कैसे दी गई? सभी यह भी जानना चाहते हैं कि कथित बुद्धिजीवी लेखिका अरुंधति राय को यह घोषणा करने की अनुमति किसने दी कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा? राष्ट्रद्रोह के ऐसे स्वर को क्यों नहीं तत्काल कुचल दिया जाता? और देश यह भी जानना चाहता है कि कश्मीर मामलों में बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त प्रमुख वार्ताकार दिलीप पाडगांवकर ने यह किस हैसियत से कह दिया कि बगैर पाकिस्तान को शामिल किए कश्मीर मामले का स्थायी समाधान संभव नहीं? साफ है कि कश्मीर में षडय़ंत्र रचे जा रहे हैं ताकि पाकिस्तान की मांग के अनुरूप कश्मीर के कथित विवाद को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना कर तीसरे पक्ष की घुसपैठ करा दी जाए! क्या यह कश्मीर मामले में हमारी घोषित नीति के खिलाफ नहीं?
'कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है' इस सत्य को चुनौती देनेवाले निश्चय ही देश के गद्दार हैं- विभीषण, जयचंद तथा मीरजाफर की भूमिका में अवतरित हैं ये! इस घटना विकासक्रम को कोई हल्के से न ले। देश के एक और विभाजन का पूर्वाभ्यास है यह! सांप ने फन उठाया है, अपनी चाल को वह गति प्रदान करे, इससे पूर्व उसे कुचल दिया जाए। पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की जगह भारतीय अंग कश्मीर की आजादी की बातें करनेवालों को इस धरती पर जगह कैसे मिल गई? अलगाववादी घोषित गिलानी को इतनी छूट क्यों कि वह हमारी राजधानी दिल्ली में आकर कश्मीर के लिए आजादी की बातें करे? शर्म और पीड़ा गहरी हो गई यह जानकर कि हमारे केंद्रीय गृहमंत्रालय ने गिलानी के खिलाफ नफरत फैलाने वाला भाषण देने का आरोप लगाते हुए पुलिसिया कार्रवाई की अनुशंसा की है। उन्हें तो देशद्रोह के आरोप में मामला दर्ज कर तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए था। गिलानी का अपराध कभी कश्मीर के प्रधानमंत्री व बाद में मुख्यमंत्री रहे शेख अब्दुल्ला से भी अधिक गंभीर है। शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर के खिलाफ षडय़ंत्र रचने का आरोप लगा था। पारिवारिक मित्र होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने 8 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी करवाई। वह घटना कुख्यात ''कश्मीर षडय़ंत्र'' के रूप में इतिहास में दर्ज है। शेख अब्दुल्ला 11 वर्षों तक जेल में रहे। फिर हमारे वर्तमान शासक कमजोर क्यों दिख रहे हैं? वह भी गिलानी जैसे आदमी के सामने! कहीं किसी और ''कश्मीर षडय़ंत्र'' की तैयारी हो रही है। तो फिर भारत सरकार पंडित नेहरू की तरह कड़े कदम क्यों नहीं उठाती? गिलानी को अविलंब गिरफ्तार कर देश निकाला दे दिया जाए! इसी प्रकार अरुंधति राय के खिलाफ भी राष्ट्रदोह का मुकदमा चलाया जाये। भारत में कश्मीर के विलय को चुनौती देकर अरुंधति ने देशद्रोह को अंजाम दिया है। अपने कथन को ऐतिहासिक सच बतानेवाली अरुंधति राय इतिहास के पन्नों को पलट लें। कश्मीर के तत्कालीन सदर-ए-रियासत डॉ. कर्णसिंह अभी उपलब्ध हैं। सभी जानते हैं कि उनके पिता राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का औपचारिक विलय भारत में कर दिया था।
वह तो तब नवनिर्मित पाकिस्तानियों की चाल थी जो उन्होंने कबायली देश में अपने सैनिकों की घुसपैठ करवाकर कश्मीर के कुछ हिस्से पर कब्जा करवा लिया था। यह संभव हो पाया था नेहरू की ढुलमुल नीति के कारण! ऐसे में अरुंधति राय की चुनौती हर दृष्टि से राष्ट्रविरोधी कार्रवाई है। अरुंधति ने न केवल कश्मीर पर खतरनाक बयानबाजी की है बल्कि भारत को औपनिवेशिक ताकत निरूपित कर दुश्मनों की पंक्ति में खड़ी हो गई हैं। विभिन्न संगठनों के नाम पर विदेशी धन प्राप्त करनेवाली इस महिला को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। कश्मीर के लिए आजादी को एकमात्र विकल्प बतानेवाली अरुंधति राय भारतीय हित के खिलाफ काम कर रही हैं।
नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में जाने जानेवाले पत्रकार दिलीप पाडगांवकर भी एक पालतू पशु की तरह व्यवहार कर गए। कश्मीर मामले में पाकिस्तानी पक्ष की अपरिहार्यता को रेखांकित करनेवाले दिलीप पाडगांवकर इस मुद्दे पर भारतीय मत को कैसे भूल गए? कश्मीर संदर्भ में अगर पाकिस्तान का कोई पक्ष है तो सिर्फ आतंक और आतंकवादियों के निर्माण और पोषक के रूप में! कश्मीरी भूमि का वह पक्षकार कभी नहीं हो सकता! संसद और संसद के बाहर भारत सरकार की ओर से ऐसे ऐलान किए जा चुके हैं कि भारत में कश्मीर के अस्तित्व के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ कोई बातचीत नहीं हो सकती। फिर पाडगांवकर ऐसी गलती कैसे कर बैठे? लगता है पाडगांवकर ने वार्ताकार के रूप में अपनी नियुक्ति को भारत सरकार की नौकरी मान लिया!!

Saturday, October 23, 2010

अज्ञानी हैं, पागल हैं, चाटुकार हैं मोहन प्रकाश!

कांग्रेस प्रवक्ता मोहन प्रकाश या तो घोर बदतमीज हैं, घोर अज्ञानी हैं या फिर अव्वल दर्जे के चाटुकार। वैसे शंका यह भी उठी है कि कहीं वे कांग्रेसी लंका के विभीषण तो नहीं बन रहे! कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की लोकनायक जयप्रकाश नारायण से तुलना कर मोहन प्रकाश ने जयप्रकाश नारायण की आत्मा को तो रूलाया ही है, देश का अपमान भी किया है। आज अगर पूरा देश क्रोधित है तो बिल्कुल सही। स्वयं कांग्रेसियों की भौंहें तन गई हैं। वे मोहन प्रकाश के शब्दों में निहीत नीयत की पड़ताल करने लगे हैं। समझ में नहीं आता कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्या वे सचमुच इतने बड़े अज्ञानी हैं कि उन्हें जयप्रकाश नारायण और उनकी संपूर्ण क्रांति की जानकारी नहीं? सत्ता की राजनीति से हमेशा दूर रहने वाले जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री, राहुल गांधी की दादी, इंदिरा गांधी के कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन चलाया था। उन्होंने तत्कालीन सत्ता को खुली चुनौती दी थी। कुशासन और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वर्गहीन समाज की स्थापना की मुहिम चलाई थी। जेपी तब जन-जन की आवाज बन बैठे थे। पूरा देश उनके साथ मर-मिटने को तैयार हो उठा था। सत्तालोलुप इंदिरा गांधी ने तब आंदोलन को कुचलने के लिए हर तरह के अलोकतांत्रिक कदम उठाए थे। जयप्रकाश नारायण सहित देश के प्राय: सभी बड़े नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे। इंदिरा ने तब जनता से उसके मौलिक अधिकार भी छिन लिए थे। लोकतंत्र की हत्या कर देश पर आपातकाल थोप दिया था। सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं बाड़े में कैद कर दी गई थीं। उनकी जुबान पर बड़े-बड़े ताले लगा दिए गए थे। और तो और न्यायपालिका की आजादी और गरिमा भी तब सवालिया निशानों के घेरे में थी। अत्याचार का तब एक ऐसा दौर चला था कि स्वयं भारत माता लहूलुहान दिखने लगी थी। विरोध के स्वर कुचल दिए गए थे। यह सब इंदिरा गांधी ने अर्थात्ï राहुल गांधी की दादी ने किया था सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए। जयप्रकाश नारायण का विरोध उन्हें सहन नहीं था। उनका लोकनायक बनना इंदिरा को नहीं सुहाया था। लेकिन देश की जनता ने जयप्रकाश नारायण का साथ दिया, इंदिरा को झुकना पड़ा, देश दूसरी आजादी से रूबरू हुआ। जयप्रकाश नारायण पूरे देश के हृदय सम्राट के रूप में स्वीकार किए गए थे। आज मोहन प्रकाश ने जब राहुल गांधी की तुलना जयप्रकाश से कर इतिहास के उस घिनौने अध्याय की याद दिला दी है तब निश्चय ही उनकी नीयत और उनके ज्ञान पर सवाल उठेंगे। बिहार में चुनाव के मौके पर ऐसी टिप्पणी कर सच पूछिए तो मोहन प्रकाश ने कांग्रेस का बहुत बड़ा अहित कर डाला है। वे अपनी टिप्पणी में पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को बच्चों से प्यार होने की बात कहकर पता नहीं कांग्रेस का हित में कौन सा हित साधना चाहते थे! कहीं ऐसा तो नहीं कि सोनिया गांधी द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा बिहार में खोले जाने का मुद्दा उठाने के बाद मोहन प्रकाश ने मुस्लिम मतदाताओं को खुश करने के लिए कलाम का नाम ले लिया! अगर ऐसा है तब निश्चय ही मोहन प्रकाश अव्वल दर्जे के चाटुकार हैं। यह विडंबना ही है कि अभी कुछ दिनों पूर्व राहुल गांधी ने चाटुकारों को 15 मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करने की बात कही थी, उसी राहुल गांधी पर टनों मक्खन उंडेलकर मोहन प्रकाश ने स्वयं को क्या बड़ा चाटुकार साबित नहीं किया? अब देखना है राहुल गांधी उन्हें कितने मिनट के अंदर पार्टी से निकाल बाहर करते हैं। मोहन प्रकाश अपनी नादानी अथवा चाटुकारिता में यह भी भूल गए कि जिस राहुल की तुलना वे जयप्रकाश नारायण से कर रहे थे, उस राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी को एक तराजू पर तौला था। संभवत: मोहन प्रकाश को यह नहीं मालूम कि जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख सेनापति नानाजी देशमुख संघ के ही सदस्य थे। नानाजी देशमुख ने भी आंदोलन के दौरान एक बार जयप्रकाश नारायण को मौत के मुंह से बचाया था। तब इंदिरा शासन ने षडय़ंत्र कर जेपी की हत्या करानी चाही थी। खेद है कि मोहन प्रकाश यह सब भूल राहुल-वंदना कर बैठे। लेकिन, उनकी टिप्पणी प्रतिउत्पादक सिद्ध हुई है। लोगों में विशेषकर बिहार के लोगों में चुनाव के दौरान आपातकाल की यादें ताजा हो गईं। उन मौलिक अधिकारों की चर्चा होने लगी जिन्हें आपातकाल के दौरान छिन लिया गया था। मोहन प्रकाश ने लोगों को यह भी याद दिला दिया कि राहुल गांधी लोकतंत्र की हत्या करने वाली इंदिरा गांधी के पोते हैं। सचमुच जब कोई व्यक्ति चाटुकारिता की होड़ में आगे निकलना चाहता है तब वह अपना विवेक खो बैठता है। ऐसे में वह बदतमीज, पागल और अज्ञानी तो लगेगा ही।

Tuesday, October 19, 2010

यह कैसी धर्मनिरपेक्षता?

''क्या संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द को मिटा देना चाहिए?'' एक पाठक ने संदेश देकर यह सवाल पूछा। संदर्भ बिहार चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा नीतीश कुमार को सांप्रदायिक निरूपित किए जाने का है। सवाल मौजू है और राष्ट्रीय बहस का आग्रही भी है। चूंकि इस शब्द का इस्तेमाल अब स्वार्थपूर्ति के लिए राजनीतिक करने लगे हैं, यह तो साफ है कि ऐसे लोगों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं। अवसरवादी राजनीति के लिए धर्मनिरपेक्षता शब्द का पत्ता फेंकनेवाले तथ्य से कोसों दूर हैं। उन्हें इसकी परवाह भी नहीं। उनकी ङ्क्षचता है तो सिर्फ वोटों की। कथित धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में अभियान से समाज बंटता है, देश बंटता है तो अपनी बला से। सांप्रदायिक दंगों को उकसाने से भी इन्हें परहेज नहीं। बल्कि ऐसे दंगों की आग में भी ये राजनीतिक रोटी सेंकने से बाज नहीं आते। इन्हें तो सिर्फ वोट चाहिए। जहां तक बिहार चुनाव और मनमोहन, सोनिया, नीतीश का सवाल है, मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मनमोहन और सोनिया दोनों ने सांप्रदायिक ज्वाला भड़काने की कोशिश की है। बिहार में सोनिया गांधी ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जमीन आबंटित नहीं किए जाने से नीतीश की आलोचना की, तब निश्चित ही वे मुस्लिम तुष्टीकरण की उस सीढ़ी पर चढ़ रही थीं, जो अंतत: सांप्रदायिकता की आग पैदा करती है। सोनिया ने बड़े गर्व से कहा कि केंद्र की संप्रग सरकार की अनुमति के बावजूद मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जमीन मुहैया नहीं कराई। साफ है कि ऐसी टिप्पणी कर सोनिया गांधी वहां के मुस्लिम मतदाता को नीतीश के खिलाफ अपने पक्ष में लुभा रही थीं। सोनिया गांधी इस बिंदु पर सांप्रदायिक आधार पर वोट मांगने का कानून विरुद्ध आचरण की दोषी बन जाती हैं। गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव में नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर बता वहां कांग्रेस का सफाया करवा देने वाली सोनिया गांधी ने लगता है उससे सबक नहीं सीखा। बिहार में मुस्लिम तुष्टीकरण का पांसा फेंक उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी का अहित ही किया है। अपनी नेता की तरह मनमोहन सिंह भी कुछ ऐसी ही गलती कर बैठे हैं। नरेन्द्र मोदी से हाथ मिलाने के कारण नीतीश कुमार को सांप्रदायिक बतानेवाले प्रधानमंत्री पहले इतिहास के पन्नों को पलट लें। नीतीश के असली पाश्र्व की जानकारी ले लें। अक्टूबर 1990 में जब रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी को लालूप्रसाद यादव (तत्कालीन मुख्यमंत्री ) ने गिरफ्तार करवाया था, तब नीतीश कुमार लालू मंत्रिमंडल के सदस्य थे। बल्कि तब वे लालू के 'फ्रेंड-फिलासॉफर-गाइड' के रूप में जाने जाते थे। जाहिर है आडवाणी की गिरफ्तारी में नीतीश की भूमिका महत्वपूर्ण रही होगी। अब अगर नीतीश भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं, तब निश्चय ही राजनीतिक अवसरवादितावश। यही वर्तमान राजनीति का सच है। धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी वोट और सिर्फ वोट के लिए कर रहे हैं। अवसरवादिता का ऐसा नंगा तांडव हर काल में राजनीतिकों ने किया है। जरा याद करें जयप्रकाश के आंदोलन के दिनों की। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कथित शासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव, नीतीशकुमार, रामविलास पासवान, सुबोधकांत सहाय, जार्ज फर्नांडिस आदि की भूमिकाएं कालांतर में क्या रहीं? लालू और नीतीश उसी कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के हिस्सा बने जिसे ये सभी लोकतंत्र विरोधी, संविधान विरोधी और भ्रष्ट बताया करते थे। आरोप गलत भी नहीं थे। सत्ता में बने रहने के लिए तब कांग्रेस नेतृत्व ने देश पर आपातकाल थोपा, नागरिकों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के साथ-साथ हजारों अन्य नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था। स्वयं लालू, रामविलास और सुबोध आदि जेलों में बंद कर दिए गए थे। आपातकाल खत्म हुआ, चुनाव हुए तब जनता ने कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया। कहा गया कि भारत को दूसरी आजादी मिली है। वामदलों को छोड़कर तब का जनसंघ (अब की भाजपा) सहित प्राय: सभी विपक्षी दल आपसी भेदभाव भुला एकमंच पर एकत्रित हुए और जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पार्टियां भी इसमें शामिल हुईं। लेकिन, सत्ता-स्वार्थ ने एक बार फिर इन लोगों को अलग-अलग कर दिया। वही लालू, रामविलास बाद में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार में मंत्री बने। सुबोधकांत तो कांग्रेस में ही शामिल हो आज मंत्री हैं। क्या कहेंगे इसे? क्या ये उदाहरण मूल्य, नैतिकता और सिद्धांत को चुनौती नहीं देते? एक और उदाहरण। 1996 के आम चुनाव के बाद जब भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तब बहुमत के लिए आवश्यक संख्या जुटाने में वह विफल रही। भाजपा को अछूत करार देते हुए कोई भी राजनीतिक दल उसके समर्थन में साथ नहीं गया था। नतीजतन अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों में सत्ता से बाहर हो गई। लेकिन बाद में? चुनाव पश्चात पुन: जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी तब उसके साथ लगभग दो दर्जन दल चले गए थे। अटलबिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में तब जार्ज फर्नांडिस सरीखे समाजवादी भी शामिल थे। साफ है कि सत्ता की राजनीति में अब न कोई स्थायी दोस्त है, दुश्मन है, न अछूत। इसलिए कथित धर्मनिरपेक्षता का नारा अब कोई मायने नहीं रखता। संविधान से इस शब्द को मिटाया तो नहीं जाना चाहिए किंतु हां, इसकी पुनव्र्याख्या अवश्य हो।

ठाकरे-मनमोहन दोनों कटघरे में!

लोकतंत्र प्रदत्त वाणी की यह कैसी स्वतंत्रता कि जब चाहे जनता की समझ को चुनौती दे दी जाए? हमारे राजनेता यह मानकर कैसे चलते हैं कि जनता बेअक्ल है और उसकी याददाश्त कमजोर होती है! फैशन के रूप में जारी इस परंपरा ने इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को एकसाथ कटघरे में खड़ा कर दिया है। अब इन दोनों में से किसी को शर्म आएगी यह कहना कठिन है। राजनीतिक बेशर्मी का लबादा जो इन्होंने ओढ़ रखा है! जरा इनकी बानगी देखिए! मुंबई में दशहरा रैली को संबोधित करते हुए बाल ठाकरे ने घोषणा की कि वे वंशवाद राजनीति में विश्वास नहीं करते। क्या यह जनता की समझ को चुनौती नहीं है? जिस मंच से ठाकरे रैली को संबोधित कर रहे थे, उसी मंच पर उनके 20 वर्षीय पोते आदित्य ठाकरे को तीसरी पीढ़ी के नेता के रूप में पेश किया गया। बाल ठाकरे ने आदित्य को तलवार पेश करते हुए युवा सेना के प्रमुख पद को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। क्या यह वंशवाद की परंपरा की स्वीकृति नहीं? 83 वर्षीय बाल ठाकरे ने यह सफाई देकर कि पुत्र उद्धव ठाकरे को राजनीति में वे नहीं ले आए, एक और झूठ को रेखांकित किया। उनके अनुसार अगर राज ठाकरे ने उद्धव को राजनीति में लाया था तब उन्होंने स्वीकार क्यों किया? जब पार्टी में उनकी और सिर्फ उनकी चलती है तब वे उद्धव के प्रवेश को रोक सकते थे। साफ है कि बाल ठाकरे झूठ बोल रहे हैं। जिस नेहरू-गांधी परिवार को वंशवाद का पोषक बताते हुए बाल ठाकरे पानी पी-पीकर आलोचना करते रहते हैं, उसी वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाकर बाल ठाकरे निश्चय ही गांधी-नेहरू परिवार के अनुयायी बन गए हैं। शिवसेना की कार्यप्रणाली को लोकतंत्र से अलग शिवशाही पर चलने की घोषणा करने वाले बाल ठाकरे जब निडरतापूर्वक यह स्वीकार कर सकते हैं कि पार्टी में कोई भी निर्णय उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं लिया जा सकता, तब उसी निडरता के साथ वंशवाद का पोषक होने को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते? तानाशाह या हिटलर का आरोप कोई नहीं लगाएगा। सभी जानते हैं कि भाषा और प्रांतीयता की तुच्छ राजनीति करने वाले ठाकरे मराठी माणूस के नाम पर अराजकता और अवसरवादिता की राजनीति करते हैं। शालीन लोकतंत्र को इन्होंने हमेशा ठेंगे पर रखा है। क्या अब भी ठाकरे वंशवाद की अपनी नीति को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेंगे? बेहतर हो कर लें। जनता सब समझती है।
बाल ठाकरे की तो अपनी एक नीति है। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी स्वयं को ठाकरे की पंक्ति में खड़ा कर देश को निराश किया है। अर्थशास्त्री डॉ. सिंह ने एक बिल्कुल अवसरवादी राजनीतिक की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार की धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान जड़ दिया। उनका यह कहना कि '' जिस नीतीशकुमार ने एक मंच पर नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाया, उससे मुझे उनके धर्मनिरपेक्ष होने पर संशय होता है,ÓÓ हास्यास्पद है। तथ्य की कसौटी पर गलत भी। एक प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री को अछूत करार देकर प्रधानमंत्री ने निश्चय ही अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है। मुझे तो शक है कि मनमोहन सिंह को धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की जानकारी है भी या नहीं? वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में फर्क है प्रधानमंत्रीजी! अगर नरेंद्र मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं अर्थात्ï साम्प्रदायिक हैं तब गुजरात प्रदेश की जनता उनके साथ कैसे है? विधानसभा में उनकी बहुमत की सरकार है। ताजातरीन मनपा चुनावों में उनकी भारतीय जनता पार्टी की भारी विजय ही नहीं हुई बल्कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ गया। क्या गुजरात की पूरी की पूरी जनता धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ साम्प्रदायिक हो गई है? ऐसा नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी को हिन्दुत्व की बातें कहने पर कोई साम्प्रदायिक घोषित करता है तब मुस्लिम तुष्टीकरण की बातें करने वाला, नीति पर चलने वाला निश्चय ही उनसे कहीं अधिक साम्प्रदायिक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लें कि देश की जनता मूर्ख नहीं समझदार है। अच्छाई-बुराई में फर्क करना वह जानती है। उसे गुमराह करने की कोशिश कोई न करे। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता से पृथक विकास के मोर्चे पर नरेंद्र मोदी और नीतीशकुमार की सरकारें कांग्रेस शासित प्रदेशों को क्या चुनौतियां नहीं दे रहीं? मनमोहनसिंहजी आप देश के प्रधानमंत्री हैं, कम से कम आप तो प्रदेश-प्रदेश में फर्क न करें।

Saturday, October 16, 2010

औकात बता दें कट्टरपंथियों को!

अब बातें दो टूक हों, फैसला भी हो ही जाए। सांप्रदायिक सौहाद्र्र और सर्वधर्म समभाव का पक्षधर मैं आज गहरी पीड़ा के साथ इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड चाहता ही नहीं कि अयोध्या अर्थात्ï मंदिर-मस्जिद मसले का कोई हल निकले। वे चाहते हैं कि विवाद बना रहे, सांप्रदायिक तनाव चलता रहे। निष्पक्ष सोच के धारक पहले से ही कहते आये हैं कि कट्टरपंथी जब तक इस मामले में हस्तक्षेप करते रहेंगे, समाधान नहीं निकल पाएगा। ये तत्व समाधान चाहते ही नहीं। मामला अगर सुलझ गया तो फिर इनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी! आजादी पश्चात विभाजन के साथ ही इन कट्टरपंथियों ने अपनी-अपनी दुकानें खोल ली थीं। धर्म-संप्रदाय का मुलम्मा चढ़ा इन्होंने मंदिर-मस्जिद को बेचना शुरू कर दिया। अयोध्या विवाद को आजादी पूर्व अंग्रेज शासकों ने हवा दी और आजादी पश्चात इन कट्टरपंथियों ने! विवाद में राजनीतिकों के प्रवेश ने मामले को विस्फोटक बना दिया। विवाद को वोट बैंक से भी जोड़ दिया गया। फिर क्या आश्चर्य कि समय-समय पर इस विस्फोटक के पलीते को चिंगारी मिलती रही! बड़ी कोफ्त होती है यह देख-सुनकर की विशाल भारत का विशाल समाज कथित धर्मगुरुओं व कट्टरपंथियों के इशारे पर संचालित होता है। झुठला दें इस सोच को! न तो हमारी संस्कृति इसकी इजाजत देती है और न प्राचीन सभ्यता। भारत देश का गौरवशाली इतिहास सर्वधर्म समभाव का पक्षघर है। कुछ टुच्चे-लुच्चे अवश्य धर्म को हथियार बना समाज को कांटने-बांटने का घृणित खेल खेलते रहते हैं। इनके चेहरे सामने हैं। ढूंढने की जरूरत नहीं। फिर क्यों न इन्हें इनकी औकात बता दी जाए? वो औकात जो इन्हें समाज में वजूद रखने की इजाजत नहीं देता फिर कैसे ये तत्व बेखौफ विचर रहे हैं? क्या हमारा समाज शक्तिहीन बन गया है?
इसे स्वीकारना संभव नहीं। हमारा समाज इतना अशक्त कदापि नहीं। जरूरत है पहल की। जरूरत है त्वरित निर्णय की! मुस्लिम समुदाय घोषणा कर दे कि ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता। वे वस्तुत: कुछ स्वार्थी राजनीतिकों की गोद में बैठकर धर्म की राजनीति कर रहे हैं। जब सभी पक्ष यह घोषणा कर चुके थे कि अयोध्या मसले पर अदालत का फैसला उन्हें मान्य होगा, तब फिर फैसले पर सवालिया निशान क्यों! फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का उनका निर्णय मामले को लंबा खींचने के मकसद से लिया गया है, मामले को सुलझाने के मकसद से नहीं! वे नहीं चाहते कि मामले का सर्वमान्य हल निकले। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी अगर उनके मन मुताबिक नहीं आया तब वे कानून-संविधान के खिलाफ जाकर कोई नया पैंतरा ढूंढेंगे। अब चुनौती है मुस्लिम समुदाय के विवेक को! ठुकरा दें ऐसे कथित रहनुमाओं को, उनकी दुकानों पर ताले लगा दें! ये तत्व समुदाय का हित चाहनेवाले नहीं, सिर्फ उनका उपयोग करने वाले हैं।

Friday, October 15, 2010

सुसंस्कृति की पक्षधर है जनता!

वसूली संस्कृति पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के मौन पर कोई अचंभित न हो। यही तो कांग्रेस संस्कृति है। परंपरा के रूप में जारी और विरासत के रूप में प्राप्त वसूली संस्कृति पर मौन साध वस्तुत: सोनिया गांधी ने इस पुख्ता संस्कृति की पुष्टि कर दी है। कहां तो यह संभावना व्यक्त की जा रही थी कि वसूली के भंडाफोड़ होने के बाद सोनिया गांधी अपनी यात्रा रद्द कर देंगी, किन्तु उन्होंने रैली में न केवल भाग लिया बल्कि वसूली में कथित रूप से अंतर्लिप्त या यूं कहिए वसूली के लिए जिम्मेदार नेताओं की प्रशंसा कर इस 'संस्कृति' को मजबूती प्रदान कर दी। यही वर्तमान राजनीति का सच है। लेकिन, सच यह भी है कि राजनीति से जुड़े अनेक लोग आज भी मौजूद हैं जो कि 'संस्कृति' को स्वीकृति देने को तैयार नहीं। और सच यह भी है कि व्यापक भ्रष्टाचार-कदाचार, सड़-गल चुकी व्यवस्था, घोर अराजकता और परस्पर अविश्वास के बावजूद देश का बहुमत आज भी सुसंस्कृति का पक्षधर है, वसूली संस्कृति का नहीं। वर्धा रैली के नाम पर महात्मा गांधी की आत्मा को चाक-चाक कर जिस प्रकार धन उगाही की गई, उसे स्वीकार कर कांग्रेस नेतृत्व ने जो संदेश दिया है, वह बिल्कुल साफ है। कांग्रेस नेतृत्व को भी ऐसे ही लोग चाहिए जो धन उगाही कर खजाना भर सकें। चुनाव के दौरान उम्मीदवारों द्वारा घोषित संपत्ति के ब्यौरे गवाह हैं कि धनबल उम्मीदवारी के लिए अनिवार्य पात्रता है। जिसके पास यह शक्ति नहीं वह उम्मीदवार बनने की सोच भी नहीं सकता। वह जमाना चला गया जब उम्मीदवार की ईमानदारी और निर्धनता उसकी शक्ति के रूप में चिन्हित होती थी। मतदाता भी ऐसे उम्मीदवारों को अपना समर्थन प्रदान करते थे। अब सबकुछ बदल गया। धनबल और बाहुबल ने लोकतंत्र का हरण कर लिया है। नेता और कार्यकर्ता दोनों को धन चाहिए। अपने इसी धनबल के इस्तेमाल से वे मतदाता का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। योग्यता को पैमाना मानने वाले मतदाता तब असहाय हो जाते हैं जब उनके सामने योग्य विकल्प नहीं दिखता। 'अंधों में काना' ढूंढने के लिए वे विवश हो जाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे जब धनबल से सज्जित (अयोग्य) उम्मीदवार सर्वथा योग्य उम्मीदवार को पछाड़ विजयी होते आए हैं। दरबार में पूछ ऐसे ही उम्मीदवारों की होती है, आदर इन्हें ही मिलता है। सोनिया गांधी ने इस कसौटी पर कुछ अनपेक्षित नहीं किया। वे तो यह देख पुलकित हुईं कि सैकड़ों बसों की व्यवस्था की गई और हजारों लोगों को उनके दर्शनार्थ उपस्थित कर दिया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने वसूली के जिम्मेदार सभी राजनेताओं के कामों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर डाली। तो क्या इसे देशवासी वर्तमान लोकतंत्र की नीयति मान स्वीकार कर लें? नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि आज चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है, किन्तु सच यह भी है कि आज चारों ओर ऐसे भ्रष्टाचार के विरोध में आवाज उठाने वाले भी कम नहीं। जब-जब ऐसे लोगों ने सीमा पार की है, मर्यादा का उल्लंघन किया है, विरोध के स्वर की तीव्रता ने इन्हें हमेशा परास्त किया है। लोकतंत्र के इस मजबूत पक्ष को कोई अनदेखा न करे। वसूली के लिए जिम्मेदार लोग आज भले ही पुलकित हो उठे हों, कल उन्हें जनआक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। आज की उनकी मुस्कान तब मातम में बदल जाएगी। महात्मा गांधी ऐसा ही चाहते थे। लोकतंत्र आश्वस्त रह सकता है कि महात्मा गांधी की इच्छा को पूरा करने वाले वे हाथ आज मौजूद हैं। कांग्रेस नेतृत्व अब भी संशोधन कर ले। इसके पूर्व कि अत्यधिक विलंब हो जाए, वसूली संस्कृति को बढ़ावा देने के जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए। जनता के सब्र की परीक्षा कोई न ले।

नंगी हुई कथित कांग्रेस संस्कृति!

क्या यही कांग्रेस संस्कृति है? अगर हां, तो फिर कांग्रेस ऐलानिया यह स्वीकार कर ले कि उसे शिष्टाचार नहीं भ्रष्टाचार ही चाहिए। ईमानदारी व मूल्यों का ढोल वह न पीटे। घोषणा कर दे कि हां, हमारी संस्कृति ही ऐसी है जिसे हमारे नेता-कार्यकर्ता जब चाहे सड़क-चौराहे पर नीलाम कर दें। कोई उंगली न उठाए। गांधीवाद हमारा ढोंग है, लोकतंत्र एक दिखावा। देश को वह बता दे कि संविधान व लोकतांत्रिक व्यवस्था के इस्तेमाल पार्टी देश की जनता की जेबों में हाथ डालने और खुद का पेट भरने के लिए करती है।
सचमुच महात्मा गांधी की आत्मा आज विलाप कर रही है। उनकी कर्मभूमि वर्धा तो खैर पहले से ही नकली गांधियों के कारण आक्रांत है, आज कांग्रेस ने एक बार फिर उनकी आत्मा की बोली लगा दी। गांधी को याद कर महाराष्ट्र कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 वर्ष पूर्ण होने पर 'ग्राम से सेवाग्राम' रैली के आयोजन को सफल बनाने के लिए जिस कदाचार का सहारा लिया उससे हम स्तब्ध हैं। हालांकि ऐसे आयोजनों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा, विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा, 'वसूली' कोई नई बात नहीं है। वर्तमान घटना में नया कुछ है तो यह कि स्वयं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और एक पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी ने ऐसी वसूली की पुष्टि की। बल्कि अपनी जुबान से पूरे देश को बता दिया। हर बार ऐसी घटना से इन्कार करने वाला दल इस बार कटघरे में है। पूरा वाकया कैमरे में कैद होकर जनता के सामने सार्वजनिक हो चुका है। गांधी उपनाम का भरपूर दोहन करने वाले नेहरू परिवार की सोनिया गांधी की शिरकत के कारण इस रैली को व्यापक प्रचार मिला। आयोजन को महत्वपूर्ण बताया गया। लेकिन प्रदेश कांग्रेस और कांग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार ने कांग्रेस संस्कृति को नंगा कर चौराहे पर खड़ा कर दिया। अब चाहे कांग्रेस दल जितना भी खंडन-मंडन कर ले, यह सच प्रमाणित हो गया कि सत्ता का दुरुपयोग करते हुए रैली के लिए धन वसूला गया। सार्वजनिक वीडियो टेप से यह साबित हो गया कि मुख्यमंत्री व उनके मंत्रियों ने आयोजन के लिए कई करोड़ रुपये दिए। क्या इस पर कोई विवाद हो सकता है कि यह धन मुख्यमंत्री अथवा मंत्रियों ने अपनी जेब से न देकर किसी अन्य स्रोत से उगाहे! क्या स्रोत को चिन्हित करने की जरूरत है? काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था में ऐसे धन सहज उपलब्ध हैं। हमारी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था की उपज ही है ऐसी समानांतर अर्थव्यवस्था। लोकतंत्र के नाम पर और जनसेवा की घोषणा के साथ राजनीतिक और राजदल आज धनशक्ति को सींचने में मशगूल हैं। यह वही धनबल है जिसने लोकतंत्र की मूल भावना को कैद कर रखा है। यह धनबल ही है जिसने बाहुबलियों की एक लंबी कतार को जन्म दिया है। धनबल और बाहुबल ने मिलकर पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा कर लिया है। धन की असीम लोलुपता ने प्राय: हर दल को भ्रष्ट बना दिया है। वर्धा की इस रैली ने इसके एक छोटे रूप को ही उजागर किया है। 3-4 करोड़ रुपये की उगाही तो अत्यंत ही मामूली बात है। सभी जानते हैं कि चुनावों के दौरान एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो यह आंकड़ा कई सौ करोड़ में पहुंच जाता है। और यह सब संभव होता है काले धन से ही। क्या कभी लग सकेगा इस प्रवृत्ति पर अंकुश? विभाग और अधिकारी तो मौजूद हैं, किन्तु उनके चरित्र? व्यवस्था ने उन्हें भी या तो पंगु बना डाला है या फिर वे नेताओं के साथ साठगांठ कर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में स्वयं उतर पड़े हैं। तो क्या भ्रष्टाचार और अनाचार के इस दैत्य के सामने देश समर्पण कर दे? नहीं, कदापि नहीं। विरासत में प्राप्त हमारी महान संस्कृति और सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। आशा की रोशनी इस देश में हमेशा विद्यमान है। कहीं किसी कोने से कभी न कभी इसकी किरणें फूटेंगी और तब भ्रष्टाचार का दैत्य इन्हें सहन नहीं कर पाएगा। उसे पलायन करना ही होगा। हम अर्थात्ï देश हतोत्साहित कदापि नहीं। प्रतीक्षा रहेगी देर आयद दुरुस्त आयद के साकार होने की।