लोकतंत्र प्रदत्त वाणी की यह कैसी स्वतंत्रता कि जब चाहे जनता की समझ को चुनौती दे दी जाए? हमारे राजनेता यह मानकर कैसे चलते हैं कि जनता बेअक्ल है और उसकी याददाश्त कमजोर होती है! फैशन के रूप में जारी इस परंपरा ने इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को एकसाथ कटघरे में खड़ा कर दिया है। अब इन दोनों में से किसी को शर्म आएगी यह कहना कठिन है। राजनीतिक बेशर्मी का लबादा जो इन्होंने ओढ़ रखा है! जरा इनकी बानगी देखिए! मुंबई में दशहरा रैली को संबोधित करते हुए बाल ठाकरे ने घोषणा की कि वे वंशवाद राजनीति में विश्वास नहीं करते। क्या यह जनता की समझ को चुनौती नहीं है? जिस मंच से ठाकरे रैली को संबोधित कर रहे थे, उसी मंच पर उनके 20 वर्षीय पोते आदित्य ठाकरे को तीसरी पीढ़ी के नेता के रूप में पेश किया गया। बाल ठाकरे ने आदित्य को तलवार पेश करते हुए युवा सेना के प्रमुख पद को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। क्या यह वंशवाद की परंपरा की स्वीकृति नहीं? 83 वर्षीय बाल ठाकरे ने यह सफाई देकर कि पुत्र उद्धव ठाकरे को राजनीति में वे नहीं ले आए, एक और झूठ को रेखांकित किया। उनके अनुसार अगर राज ठाकरे ने उद्धव को राजनीति में लाया था तब उन्होंने स्वीकार क्यों किया? जब पार्टी में उनकी और सिर्फ उनकी चलती है तब वे उद्धव के प्रवेश को रोक सकते थे। साफ है कि बाल ठाकरे झूठ बोल रहे हैं। जिस नेहरू-गांधी परिवार को वंशवाद का पोषक बताते हुए बाल ठाकरे पानी पी-पीकर आलोचना करते रहते हैं, उसी वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाकर बाल ठाकरे निश्चय ही गांधी-नेहरू परिवार के अनुयायी बन गए हैं। शिवसेना की कार्यप्रणाली को लोकतंत्र से अलग शिवशाही पर चलने की घोषणा करने वाले बाल ठाकरे जब निडरतापूर्वक यह स्वीकार कर सकते हैं कि पार्टी में कोई भी निर्णय उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं लिया जा सकता, तब उसी निडरता के साथ वंशवाद का पोषक होने को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते? तानाशाह या हिटलर का आरोप कोई नहीं लगाएगा। सभी जानते हैं कि भाषा और प्रांतीयता की तुच्छ राजनीति करने वाले ठाकरे मराठी माणूस के नाम पर अराजकता और अवसरवादिता की राजनीति करते हैं। शालीन लोकतंत्र को इन्होंने हमेशा ठेंगे पर रखा है। क्या अब भी ठाकरे वंशवाद की अपनी नीति को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेंगे? बेहतर हो कर लें। जनता सब समझती है।
बाल ठाकरे की तो अपनी एक नीति है। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी स्वयं को ठाकरे की पंक्ति में खड़ा कर देश को निराश किया है। अर्थशास्त्री डॉ. सिंह ने एक बिल्कुल अवसरवादी राजनीतिक की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार की धर्मनिरपेक्षता पर सवालिया निशान जड़ दिया। उनका यह कहना कि '' जिस नीतीशकुमार ने एक मंच पर नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाया, उससे मुझे उनके धर्मनिरपेक्ष होने पर संशय होता है,ÓÓ हास्यास्पद है। तथ्य की कसौटी पर गलत भी। एक प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री को अछूत करार देकर प्रधानमंत्री ने निश्चय ही अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है। मुझे तो शक है कि मनमोहन सिंह को धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की जानकारी है भी या नहीं? वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में फर्क है प्रधानमंत्रीजी! अगर नरेंद्र मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं अर्थात्ï साम्प्रदायिक हैं तब गुजरात प्रदेश की जनता उनके साथ कैसे है? विधानसभा में उनकी बहुमत की सरकार है। ताजातरीन मनपा चुनावों में उनकी भारतीय जनता पार्टी की भारी विजय ही नहीं हुई बल्कि प्रधानमंत्री की कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ गया। क्या गुजरात की पूरी की पूरी जनता धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ साम्प्रदायिक हो गई है? ऐसा नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी को हिन्दुत्व की बातें कहने पर कोई साम्प्रदायिक घोषित करता है तब मुस्लिम तुष्टीकरण की बातें करने वाला, नीति पर चलने वाला निश्चय ही उनसे कहीं अधिक साम्प्रदायिक है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लें कि देश की जनता मूर्ख नहीं समझदार है। अच्छाई-बुराई में फर्क करना वह जानती है। उसे गुमराह करने की कोशिश कोई न करे। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता से पृथक विकास के मोर्चे पर नरेंद्र मोदी और नीतीशकुमार की सरकारें कांग्रेस शासित प्रदेशों को क्या चुनौतियां नहीं दे रहीं? मनमोहनसिंहजी आप देश के प्रधानमंत्री हैं, कम से कम आप तो प्रदेश-प्रदेश में फर्क न करें।
1 comment:
दोनों के लिये अच्छी सलाह...
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