कवि मित्र राजेन्द्र पटोरिया और पत्रकार मित्र चंद्रभूषण की जिज्ञासा ने आज दिल में अवस्थित अंत:पुर को भेद डाला। उनका संयुक्त सवाल था- ''... आपकी पांच दशक की संघर्षपूर्ण यात्रा का अगला पड़ाव कौन सा होगा?'' मुख से त्वरित उत्तर निकला- ''बनारस का मणिकर्णिका घाट!'' प्रसंग था दो दिन बाद इस अखबार 'दैनिक 1857' के प्रकाशन को एक वर्ष पूरा होने का। वे स्तब्ध हुए। किंतु मुझमें एक नवशक्ति का संचार हुआ। मुझे अनायास पुण्यप्रसून वाजपेयी के ये शब्द याद आ गये-
''शिव ने विष पीया तो क्या पीया,
विनोदजी तो हर रोज पिये जाते हैं,
कमाल है कि फिर भी जिये जाते हैं।''
मेरी पत्रकारिता यात्रा का शायद यही सच है। 'शायद' इसलिए कि अनेक कड़वे-मीठे सच को मैंने अपने दिल के भीतर स्थायी कैद दे डाला है। इनका वजूद मेरे वजूद के साथ ही खत्म होगा। कब और किस पड़ाव के बाद, अभी बताने की स्थिति में नहीं हूं। यह तो मित्रों की जिज्ञासा है जिसने मुझे झिंझोड़कर रख दिया। वैसे तो स्वयं से पूछता ही रहता हूं, आज सवाल आप से पूछ रहा हूं। क्या, मिशन की पत्रकारिता का अवसान हो गया है? पत्रकारीय लक्ष्य पर पूंजी का लबादा क्यों? एक अखबार चलाने के लिए पूंजी की जरूरत तो ठीक है, किंतु पूंजी प्रभावित लक्ष्य क्या उद्देश्य की पवित्रता को विदू्रप नहीं कर रहा? प्रबंधन और संपादकीय के बीच पत्रकारीय मिशन के मुद्दे पर तालमेल क्यों नहीं? प्रबंधन सिर्फ पूंजीग्राही बनकर क्यों रह गया है? मिशन को पूंजी के हाथों का सहारा क्यों नहीं? 'मिशन' का स्थान 'प्रोफेशन' आत्मसात क्यों न करे? मैं अपनी इस मान्यता पर दृढ़ हूं कि प्रबंधन और संपादकीय का तालमेल व्यावसायिकता की जरूरत को पूरा करते हुए 'मिशन' को भी पवित्र-सुरक्षित रख सकता है। इसी उद्देश्य और लक्ष्य के साथ मेरी यात्रा- संघर्ष की यात्रा जारी है। पड़ाव की चिंता मैंने कभी नहीं की। लगभग 50 वर्ष पूर्व जिस ऊर्जा के साथ कार्यरत था, वह ऊर्जा आज भी मौजूद है। अपने अखबार के घोषवाक्य, 'एक आंदोलन बौद्धिक आजादी का' के साथ न्याय करने का उत्साह हर पल हिलोरें मारता रहता है। सच और साहस का आक्सीजन इसकी अतिरिक्त ऊर्जा है। मेरे अनेक शुभचिंतक, मित्र मेरे जारी संघर्ष को लेकर चिंतित रहते हैं। अंतरंग परेशान कि खाली जेब से इस यात्रा की निरंतरता कैसे कायम रहेगी? लेकिन मेरा संबल-मेरा आत्मविश्वास और मित्रों की शुभकामनाएं जब तक विद्यमान हैं, अपनी उपस्थिति के प्रति आश्वस्त कर सकता हूूं। मित्रगण पड़ाव की चिंता न करें। ये पांव बीच में नहीं रुकेंगे, ये रुकेंगे तो सिर्फ एक बार... अंतिम बार!!
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