Tuesday, October 12, 2010
दोषी राज्यपाल भी, दोषी विधानसभा अध्यक्ष भी!
कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष ने कार्रवाई की, वस्तुत: वह दलबदल तो कभी हुआ ही नहीं! बागी विधायक इस कानून के अपराधी तब बनते जब वे पार्टी द्वारा जारी 'व्हिप' का उल्लंघन कर विश्वासमत के खिलाफ वोट देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन विधायकों को सदन में घुसने भी नहीं दिया गया। इन्हें बलपूर्वक बाहर रोका गया। फिर ये दलबदल के दोषी कैसे बन गए? आखिर विधानसभा अध्यक्ष ने किस आधार पर उन्हें दलबदलू करार दिया? उन्होंने विश्वासमत के खिलाफ न तो वोट दिया और न ही किसी अन्य दल की सदस्यता ग्रहण की थी। ये विधायक दंडित किए गए एक ऐसे अपराध के लिए जो कभी घटित हुआ ही नहीं! निश्चय ही यह न्याय नहीं, अन्याय है। भाजपा के ऐसे 11 विधायकों के अलावा जिन 5 निर्दलीय विधायकों को दलबदल कानून के तहत निलंबित किया गया, वह तो अत्यंत ही हास्यास्पद है। विधानसभा अध्यक्ष ने जिन दस्तावेजों के आधार पर निर्दलीय विधायकों के निलंबन को जायज ठहराने की कोशिश की है, वे मान्य नहीं हो सकते। स्वयं विधानसभा अध्यक्ष जानते हैं कि आदेश पर हस्ताक्षर करने के समय तक वे पांचों विधायक निर्दलीय ही थे। फिर वे दलबदलू कैसे हो गए? साफ है कि सत्ता के इस घिनौने खेल में राज्यपाल के साथ-साथ विधानसभा अध्यक्ष भी अपनी मर्यादा, अपना दायित्व भूल पक्षपाती बन गए- लोकतंत्र के हत्यारे बन गए। मामला अदालत में चला गया है, केंद्र सरकार ने पाक साफ दिखने के लिए कानूनी दांवपेंच खेलना शुरू कर दिया है। केंद्र सरकार आरंभ से ही अपनी सुविधानुसार राज्यपालों की नियुक्ति और उनको अपनी कठपुतली के रूप में इस्तेमाल करती रही है। 50 के दशक में केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद की निर्वाचित साम्यवादी सरकार को पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में बर्खास्त कर दिया गया था। तब से यह खेल जारी है। हां, केंद्र में अब खिचड़ी सरकार होने के कारण इस प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश अवश्य लगा है। विभिन्न दलों में इस मुद्दे पर मतभेद होने के कारण कर्नाटक सरकार की भाजपा सरकार का भविष्य चाहे जो हो, बेहतर हो कि राज्यपाल पद पर राजनीतिकों की नियुक्ति न किए जाने की पुरानी मांग को प्राथमिकता के आधार पर स्वीकार किया जाए। जब तक ऐसे लोग राज्यपाल बनते रहेंगे, लोकतंत्र की हत्या होती रहेगी।
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