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Monday, October 4, 2010

एक चुनौती कुविचारों को

स्वामी विवेकानंद ने एक अवसर पर कहा था, ''विष और शस्त्र से केवल एक की हत्या होती है, कुविचार से बहुतों का नाश होता है।'' आज जब आपका 'दैनिक 1857' अपने प्रकाशन का प्रथम वर्ष पूरा कर रहा है तो, मैं शपथपूर्वक यह कहने की स्थिति में हूं कि आपके इस अखबार ने कुविचारों को कभी स्थान नहीं दिया। हां, सच और साहस को प्रतिपादित करते हुये हमने निडरता, निष्पक्षतापूर्वक कुछ कड़वे सच अवश्य उकेरे। हमने पिछले एक वर्ष की यात्रा कांटों भरी ही नहीं, अवरोधक के रूप में खड़ी विशाल चट्टानों का सामना करते पूरी की है। क्या नहीं झेलना पड़ा हमें? मुझे याद है 4 अक्टूबर 2009 की वह संध्या जब स्थानीय पत्रकार भवन सभागृह में 'दैनिक 1857' का लोकार्पण हो रहा था, लोकमत समाचारपत्र समूह के अध्यक्ष श्री विजय दर्डा व अंग्रेजी दैनिक हितवाद के प्रबंध संपादक श्री बनवारीलाल पुरोहित ने इसे लोकार्पित किया था। सभागृह के अंदर और बाहर कुछ फुसफुसाहटें उभरी थीं- ''...आखिर कब तक?... हफ्ते-10 दिन या महीना भर से ज्यादा चलेगा क्या?'' आशंका व्यक्त करने के कारण मौजूद थे। प्रकाशक के रूप में कोई बड़ा मीडिया हाउस या बिजनेस हाउस नहीं। नौकरीपेशा- एक श्रमजीवी पत्रकार जब दैनिक अखबार निकाले तब लोगों के दिलों में स्वाभाविक रूप से ऐसी शंका तो उठनी ही थी। मित्रों, शुभचिंतकों और पाठकों के विश्वास की पूंजी के साथ मैंने इस 'दैनिक 1857' का प्रकाशन शुरू किया। एक बिल्कुल पृथक, बौद्धिक आजादी के आंदोलन के रूप में। यात्रा शुरू हुई तो आज इसने आरंभ का 1 वर्ष पूरा भी कर लिया। जिन अवरोधकों की मैंने चर्चा की है, उसकी टीस हमेशा सालती रहेगी। नागपुर जैसे अपेक्षाकृत शांत शहर के भीड़ भरे चौराहे पर 'दैनिक 1857' की प्रतियां जलाई गईं। हमारा दोष यह था कि हमने एक अंग्रेज द्वारा लिखित उस पुस्तक के कुछ अंश प्रकाशित किए जिसमें उस लेखक द्वारा महात्मा गांधी को चरित्रहीन साबित करने की कोशिश की गई है। प्रसंगवश बता दूं कि हमने जितना प्रकाशित किया था, उससे कई गुना ज्यादा अंश बड़े समाचारपत्रों एवं पत्रिका में प्रकाशित हो चुके थे। लेकिन प्रतियां जलाई गईं सिर्फ 'दैनिक 1857' की। और बता दूं, वह पुस्तक 'गांधी: नेकेड एम्बिशन' आज नागपुर सहित देश के प्राय: सभी शहरों में बिक रही है। लेकिन आपके अखबार की होली जलाने वाले कथित गांधीवादियों ने आंखें मूंद रखी हैं। यह एक उदाहरण काफी है यह साबित करने के लिए कि अखबार को जलाने के पीछे उनकी मंशा क्या थी। गांधी के प्रति उनका पे्रम तो सिर्फ दिखावा था। षड्यंत्र यहीं नहीं रुका, जब विदर्भ के हर क्षेत्र से इस अखबार की मांग होने लगी, अखबार वहां पहुंचने लगा तब इसका वितरण षड्यंत्रपूर्वक रोका गया। विरोधस्वरूप हम यह लड़ाई लड़ रहे हैं और लड़ते रहेंगे। बड़े अखबारों के बीच देश में स्पर्धा के नाम पर जारी हथकंडों की जानकारी तो हमें है किंतु 'दैनिक 1857' जैसे एक पत्रकार के अखबार के विरुद्ध ऐसा षड्यंत्र? लेकिन मैं आश्वस्त हूं पाठकीय सहयोग-समर्थन के प्रति। मैं जानता हूं कि वार करनेवालों के खिलाफ एक दिन यह पाठकवर्ग हमारा सुरक्षा कवच बनकर चट्टïान की तरह तनकर खड़ा रहेगा। षड्यंत्रकारियों को बेनकाब वह स्वयं कर देगा। अब 1 वर्ष की यात्रा के पश्चात् जब हम आगे की यात्रा की योजना बना रहे हैं तो हमारे सुधी पाठक यह जान लें कि 'दैनिक 1857' कुविचारों से दूर, सुविचारों के साथ प्रत्येक पाठक को आंदोलित करता रहेगा। प्रत्येक सुबह उनके दरवाजों पर दस्तक देता रहेगा। सीमित संसाधन से शुरू यह अखबार आकांक्षी है आपके सहयोग-समर्थन का। हमने चुनौती कुविचारों को दी है, सद्विचारों की गूंज हर पाठकके आंगन में पहुंचाने का बीड़ा उठाया है हमने। इस दौर में कदम तो नहीं रुकेंगे, सांसें भले रुक जाएं।

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