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Friday, January 29, 2016

मार्गदर्शक मंडल या आशीर्वाद मंडल?

अब इसे संयोग कहें, विडंबना कह लें या सुविचारित रणनीति! ऐसा हुआ और लोगबाग भौचक हैं। ज्योतिष, शेयर ब्रोकर और हिंदुत्व के झंडाबरदार अमित शाह को भारतीय जनता पार्टी द्वारा दोबारा अध्यक्ष पद सौंपे जाने के साथ ऐसी जिज्ञासा बरबस उठ खड़ी हुई।
जून 2015 !  जब अमित शाह ने बिहार चुनाव का बिगुल बजाने पटना के गांधी मैदान में पहली चुनावी रैली का आयोजन किया। तब, पटना साहिब से भाजपा के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को आमंत्रित नहीं किया गया था। बिहारी बाबू के नाम से विख्यात नेता- अभिनेता की उपेक्षा को बिहारियों ने अपना अपमान समझा। अन्य बातों के साथ 'बिहारी बाबू' भी  भाजपा की शर्मनाक पराजय का एक कारण बने। शत्रुघ्न विरोधी मुंह छुपाने के लिए भले ही सार्वजनिक रूप से इस 'कारण' को स्वीकार नहीं कर रहे, परंतु इस कड़वे सच को निगलने के लिए वे मजबूर हैं।
24 जनवरी 2016 ! ' निर्विरोध '- 'निर्विवाद ' अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की दोबारा ताजपोशी की पटकथा लिखी जा चुकी थी, मंच तैयार था, तब भाजपा मार्गदर्शक मंडल के मुखिया लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व शांताकुमार नदारद थे। दिल्ली का अशोक रोड स्थित भाजपा मुख्यालय दुल्हन की तरह सजा था, भगवा झंडे लहरा रहे थे, शंखनाद से पूरा परिसर गुंजायमान था। तब लोगों की निगाहें इन्हें ढूंढ रही थी। मालूम हुआ कि मार्गदर्शक मंडल के ये मुखिया मार्ग नहीं भूले थे, मार्ग इनसे छीन लिया गया था। आडवाणी, जोशी, शांताकुमार को पार्टी के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मौके पर आमंत्रित नहीं किया गया था। जानकार समीक्षकों ने तब टिप्पणी की कि ऐसा कर अमित शाह ने बगैर किसी परिवर्तन के अपनी वर्तमान कार्यशैली को ही अंगीकार करने का संकेत दे दिया। तो क्या बिहार की तरह पार्टी के लिए नकारात्मक परिणाम ही चाहेंगे अमित शाह? इस लखटकिया सवाल का जवाब सिर्फ शाह ही दे सकते हैं। भाजपा के प्रति समर्थन, सहानुभूति रखनेवालों की बेचैनी का समाधान उन्हें ही करना होगा। असहज सवाल का जवाब सहज नहीं है।
सवाल मार्गदर्शक मंडल की उपयोगिता पर उठने लगे हैं।  आडवाणी आदि को अपनी ताजपोशी पर आमंत्रित नहीं करनेवाले अमित शाह आशीर्वाद लेने आडवाणी के घर पर जरुर पहुंचे। बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद के महत्व से परिचित अमित शाह ने आशीर्वाद की औपचारिकता तो पूरी कर ली, किंतु उन्हें जल्द और बहुत जल्द पार्टी और देश को 'मार्गदर्शक मंडल' की उपयोगिता पर उठे सवालों का निराकरण करना होगा।
2014  लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक विजय प्राप्त करने बाद जब सत्ता और संगठन दोनों की चूलें अपने हाथों में रखने का फैसला नरेन्द्र मोदी ने किया था तभी आडवाणी सहित अन्य बुजुर्गों को हाशिये पर रखने का फैसला कर लिया गया था। भला आडवाणी आदि की उपस्थिति में 51 वर्षीय अमित शाह संगठन की कमान कैसे संभाल सकते थे? सो, सम्मानजनक - आकर्षक 'मार्गदर्शक मंडल' का मंच तैयार कर आडवाणी को उसका मुखिया घोषित कर दिया गया। मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार के साथ -साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इसके सदस्य बनाये गए। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को शामिल कर 'मार्गदर्शन मंडल' को एक गंभीर मंच के रुप में चिन्हित करने की कोशिश की गई। लेकिन, आज जब लगभग दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, 'मार्गदर्शक मंडल' की अब तक एक भी बैठक नहीं हुई। संकेत साफ है कि सत्ता और संगठन दोनों को 'मार्गदर्शक मंडल' के 'मार्गदर्शन' की जरुरत नहीं।
आडवाणी के लिए प्रधानमंत्री सहित अन्य बड़े नेता-मंत्री सम्मान प्रकट करते हुए जब आदरणीय-अनुकरणीय निरुपित करते हैं तब अध्यक्ष की ताजपोशी जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर उपेक्षा क्यों? और फिर आशीर्वाद लेने के लिए दरवाजे पर दस्तक देना ! मूर्ख न तो अमित शाह है और ना ही लालकृष्ण आडवाणी। देश की जनता तो कतई नहीं!
अब बहुत हो गया ! समाज में कहावत प्रचलित है कि जिस परिवार में बड़े-बुजुर्गों और नारी का आदर-सम्मान नहीं होता, वह घर- परिवार बिखर जाता है, टूट जाता है। अमित शाह संभवत: इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही आडवाणी के घर उनका आशीर्वाद लेने पहुंचे। लेकिन सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि फिर 'मार्गदर्शक मंडल' क्यों? जब आडवाणी की भूमिका 'आशीर्वाद ' देने तक सीमित कर दी गई है, 'मार्गदर्शक' आडवाणी की क्या जरुरत? बहलाने- फुसलाने की अवस्था में तो आडवाणी या उनके सरीखे बुजुर्ग को तो डाला नहीं जा सकता। दिखावे के लिए मार्गदर्शक रुपी सम्मानजनक संबोधन की अपरिहार्यता तो दूर तात्कालिक उपयोगिता भी कचरे की पेटी में रुदन को मजबूर है। अब इसे और 'नाटकीय' न बनाया जाये। इसके पूर्व कि 'नाटक' 'अपमान ' का स्थान ले ले, 'मार्गदर्शक' की तिलांजलि दे दी जाये। लालकृष्ण आडवाणी हो, मुरली मनोहर जोशी हो, शांताकुमार हो, यशवंत सिन्हा हो या अन्य कोई; वर्षों की तपस्या से अर्जित उनके 'सम्मान' को सुरक्षित रखा जाए। उनके इस सम्मान पर आंच नहीं आये, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी वर्तमान नेतृत्व की है। अत:, बेहतर हो या तो मार्गदर्शक मंडल को व्यवहार के स्तर पर सक्रिय बनाया जाये या पूर्णत: तिलांजलि दे वर्तमान मार्गदर्शकों को उनके कद के अनुरुप 'आशीर्वाद ' की भूमिका में ससम्मान रखा जाये। बेहतर यह भी होगा कि ऐसे किसी निर्णय के पूर्व 'मार्गदर्शक मंडल' को भी विश्वास में लिया जाये।
अमित शाह अपनी जिम्मेदारी के बोझ को महसूस कर रहे होंगे। जिम्मेदारी कोई साधारण नहीं। 'परिवर्तन' के पक्ष में अंगड़ाई लेते भारत की दशा- दिशा को निर्धारित करने की अहम जिम्मेदारी है यह। भाजपा और देश की अपेक्षाएं हिलोरे मार रही हैं, अपेक्षाएं राष्ट्रीय हैं। यह अवस्था अनेक अवरोधकों से टकरा उन्हें मार्ग से हटाने की चुनौती है।
वर्ष  2014  से  2015 के अंत तक की अमित-यात्रा सहज नहीं, संघर्ष व चुनौतीपूर्ण रही है। आरंभिक सफलता के बाद विफलता से भी दो-चार होना पड़ा है। प्रशंसा- आलोचनाएं यात्रा की साथी रहीं है। बावजूद इसके उनके नेतृत्व में पुन: विश्वास प्रकट कर पार्टी ने संगठन की कमान सौंपी है तो उन्हें चुनौतियों का सामना अपनी सूझबूझ व सटीक रणनीति से करना होगा। यही वह मुकाम हैं जहां आम सहमति और सामूहिक नेतृत्व की उपयोगिता चिन्हित होती है। कांटों का ताज धारण करनेवाले अमित शाह इस तथ्य से अपरिचित तो नहीं ही होंगे। 

Saturday, January 23, 2016

'राजधर्म' बनाम 'धर्मदंड'!

ये अनायास नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दूसरे क्रमांक पर आसीन भैयाजी जोशी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'राजधर्म' की याद दिलायी। हालांकि उन्होंने इसके साथ ही प्रधानमंत्री के अब-तक के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उनकी पीठ भी थप-थपा दी। लेकिन इसे मैं 'कटू वचन' व 'मधुर वचन' के सामंजस्य से संबंधित को 'लॉलीपॉप दे पुचकारने की बात मानता हूं। संभवत: कालांतर में यही सच भी साबित हो।
यह कटू सत्य अब प्रत्यक्ष है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के प्रति जो आशा और विश्वास जताया था, उसे लेकर अब निराशा व्याप्त है। मोदी सरकार के लगभग 20 महीने का कार्यकाल किसी सुखद 'रिपोर्ट कार्ड' से दूर है। लोगबाग चकित हैं कि जिस तेज गति के साथ मोदी सरकार का ग्राफ ऊंचा उठा था, उससे भी कहीं ज्यादा तेज गति से ग्राफ नीचे कैसे गिर रहा है? सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी से दूर लोग ऐसा क्यों मान बैठे कि सरकार हर मोर्चे पर अब तक विफल रही है, विफल हो रही है? जहां आंतरिक सुरक्षा तार-तार दिख रही है, वहीं विदेश नीति ऐसी कि पिद्दी नेपाल भी हमें आंखें दिखा रहा है। महान अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित प्रगाढ़ मित्रता के बावजूद अमेरिका की प्राथमिकता सूची में भारत के मुकाबले पाकिस्तान ऊपर है। आर्थिक मोर्चे पर हालात और भी गंभीर हैं। कुछ बड़े औद्योगिक-व्यावसायिक घरानों में तो दैनिक दिवाली दृष्टिगोचर है किंतु, अन्य घराने तबाही के मुहाने पर हैं। उत्पादन घट रहा है। निर्यात घट रहा है। वादे के ठीक उलट डॉलर के मुकाबले हमारा रुपया दिन-ब-दिन 'दीन-हीन' होता जा रहा है। इसी तरह दावों के विपरीत महंगाई रुकने का नाम नहीं ले रही, बेराजगारों से रोजगार अभी भी दूर है। एक ओर कृषि उत्पादन घटा है तो दूसरी ओर जमाखोरों की चांदी है। पूंजी निवेश और पूंजी नियोजन को लेकर बड़े-बड़े दावे तो किए जा रहे हैं किंतु इस मोर्चे पर भी सरकार को उल्लेखनीय सफलता मिलती नहीं दिख रही। स्याह भविष्य की आशंका से निम्न या मध्यम वर्ग भयभीत है। शायद यही कारण है कि पूरा देश आज सहमा-सहमा सा है। विचारणीय है कि ऐसी स्थिति कैसे पैदा हो गई?
प्रधानमंत्री मोदी की नीयत पर कोई सवाल नहीं है। उनकी राष्ट्रहित के प्रति कटिबद्धता और घोषित योजनाओं के क्रियान्वयन के प्रति समर्पण पर भी कोई सवाल नहीं। तो फिर क्या कमी या कमजोरी उनके सलाहकारों और क्रियान्वयन की जिम्मेदार एजेंसियों में है? इस बिंदू पर मंथन जरूरी है।
सत्ता और संगठन में संघ की भूमिका, बल्कि निर्णायक भूमिका, असंदिग्ध है। इस सचाई की मौजूदगी में भैयाजी जोशी द्वारा 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' को रेखांकित किया जाना? ध्यान रहे सन 2002 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। तब मोदी की कार्यशैली और नीयत दोनों को लेकर सवाल खड़े हुए थे। आज बात राजधर्म से आगे बढ़ते हुए 'धर्मदंड' की भी की जा रही है। भैयाजी जोशी का मानना कि 'राजधर्म' का निर्वाह शासक को करना होता है जबकि 'धर्मदंड' जनता निर्धारित करती है, महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण वह संदर्भ भी है, जिसकी धरातल पर भैयाजी जोशी ने सवाल पैदा किया है। ज्यादा घुमाने की जरूरत नहीं, संदेश साफ है कि अगर मोदी सरकार जन अपेक्षानुरुप  'राजधर्म' का पालन नहीं करती तो जनता 'धर्मदंड' के अनुरूप दंडित करने को तत्पर मिलेगी। मोदी सरकार के शासन को अभी तीन वर्ष शेष हैं। देश ने सरकार के कार्यों का मूल्यांकन शुरू कर दिया है। मोदी सरकार के पास वस्तुत: अब जन-भावना को पुन: अपने पक्ष में करने के लिए सिर्फ एक साल शेष है। क्योंकि आखिरी के दो वर्ष पूर्णत: चुनावी वर्ष होंगे। उस कालखंड में उठाया गया कोई भी कदम या घोषणा, चुनावी वादे या शिगूफे के रूप में लिए जाएंगे। मोदी सरकार इसे न भूले।
प्रधानमंत्री मोदी, स्वयं प्रचारक होने के नाते संघ-चरित्र से अच्छी तरह परिचित हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय किरण बेदी को लेकर संघ की नाराजगी का मामला हो या बिहार चुनाव के समय संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा उठाए गए आरक्षण का मामला, दोनों में अपरोक्ष-संदेश थे, जिन्हें नरेंद्र मोदी समझ पाने में विफल रहे। या फिर जान बूझकर ना-समझ बने रहे। परिणाम सत्ता-संगठन, दोनों के लिए दु:खदायी रहे। मुजफ्फरनगर, दादरी, मालदा और ताजा-तरीन हैदराबाद  विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र की आत्महत्या प्रकरण सिर्फ संयोग की उत्पत्ति नहीं हैं। इनके प्रति संघ के रूख को नजरअंदाज कर मोदी सरकार फिर धोखा खाएगी। इसके पहले, 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार और भाजपा विजय के बाद 'नमो-नमो' की गूंज पर संघ प्रमुख भागवत की कठोर प्रतिक्रिया को भी प्रधानमंत्री न भूलें। संघ अपने घोषित/अघोषित एजेंडे को मूर्तरूप देने के लिए कुछ भी कर सकता है। विकास और हिंदुत्व के बीच तालमेल स्थापित कर जनहित में कदम उठा कर ही इस संभावित 'अपघात' से बचा जा सकता है। क्या संघ प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस तथ्य से अनजान हैं? बेहतर हो, प्रधानमंत्री समेत सत्ता और संगठन का शीर्ष नेतृत्व व सलाहकार 'राजधर्म' और 'धर्मदंड' में निहित संदेश को समझें और व्यापक राष्ट्रहित में ठोस कदम उठाएं। शब्दों की खुराक की जरूरत अब न तो जनता को है और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को! 

Saturday, January 16, 2016

मीडिया मंडी

मीडिया का बढ़ता कुनबा
पतित बिरादरी
पहले समाचार पत्र-पत्रिकाएं होती थीं। कम पारिश्रमिक या वेतन के बावजूद पत्रकारों का झुंड जुड़ा था। इन्हें 'प्रेस' का सम्मानित दर्जा प्राप्त था। फिर दौर आया 'छोटे बाक्स' अर्थात 'इडियट बाक्स' का मतलब 'टेलीविजन' का। 'प्रेस' का आकार बढ़कर 'मीडिया' हो गया। 'प्रिंट' व 'इलेक्ट्रानिक' में विभाजित। और फिर दौर चला 'सामाजिक माध्यम' अर्थात 'सोशल मीडिया' का। कहा गया, लोकतंत्र का चौथा खंभा और मजबूत हो गया। इनकी निगरानी में लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। क्या सचमुच? बहस के पहले वीभत्स परिणाम सामने आने लगे। रोग साधारण मलेरिया से बढ़कर टायफाइड और फिर कैंसर में परिवर्तित हो गया। 'सोशल मीडिया' अर्थात सामाजिक माध्यम तो बिल्कुल असामाजिक बन महामारी के रूप में फैलता जारहा है। यह एक ऐसा अकेला मीडिया, जिसमें न तो कोई संपादक है और न ही जवाबदेही निर्धारित करनेवाला संचालक। बेलगाम यह कथित मीडिया झूठ और अश्लीलता के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनता जा रहा है। अब इलाज हो तो भी कैसे, जब चिकित्सक स्वयं रोगी बन बैठे।
मीडिया के हाथों प्रताडि़त या अपमानित राजनेताओं को मौका मिला और उन्होंने प्रेमपूर्वक मीडिया को 'बाजारु' और 'वेश्या' के विशेषण से विभूषित कर डाला। मीडिया तिलमिलाया तो किंतु भ्रष्टाचार, व्यभिचार और कथित रूप से चमचागिरी में आपादमस्तक डूबे रहने के कारण जवाब क्या देता, प्रतिरोध में भी अक्षम! कुछ अपवाद छोड़ दें, तो समाचार पत्र-पत्रिकाएं और खबरिया चैनल हर पल - हर दिन समाज को स्वच्छ अनुकरणीय बनाने, शिक्षित करने की जगह गंदगी और भ्रम से प्रदूषित करते पाये जाते हैं। कोई किसी का महिमा-मंडन कर रहा होता है या फिर कपड़े फाड़ नंगे करता। सच से दूर प्रायोजित और सिर्फ प्रायोजित उपक्रम-कार्यक्रम मुद्रित और प्रसारित होते देखे जा रहे हैं। समाज और शासकों को प्रतिदिन नैतिकता, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता का उपदेश देने में तो मीडिया चार कदम आगे दिखता है किंतु जब बात खुद पर आती है तब घोर अनैतिक बेईमान और कर्तव्यविमुख चिन्हित होता है-कतिपय अपवाद छोड़कर। आज मीडिया का कड़वा सच यही है।
 इस पाश्र्व में, ईमानदार पत्रकारिता की ओर उन्मुख कुछ पुराने और नई पीढ़ी की बड़ी फौज अगर हतप्रभ है, निराश है तो दोषियों की पहचान क्यों न की जाये?
नागपुर से प्रकाशित साप्ताहिक 'सेंट्रल ऑब्ज़र्वर' ने अपने एक स्तंभ 'मीडिया मंडी' के माध्यम से इसी का बीड़ा उठाया है। बगैर किसी पूर्वाग्रह के, राग-द्वेष या कुंठा के। प्रत्येक सप्ताह 'मीडिया मंडी' जहां मीडिया को आईना दिखाने का काम करेगा, वहीं ईमानदारी से कर्तव्य निष्पादन के कटिबद्ध नये-पुराने पत्रकारों को अपनी सीमा के अंतर्गत शिक्षित व प्रोत्साहित करने का भी। तथ्य और भाषा की पवित्रता-गरिमा को कायम रखते हुए ऊंचाई देने को भी 'मीडिया मंडी' कृत संकल्प हैं। हम यहां दोहरा दे कि इस स्तंभ का उद्देश्य किसी को भी नीचा दिखाने या अपमानित करने का नहीं है। झूठ का पर्दाफाश कर सच को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में कुछ छीटें तो पड़ेगें, किंतु हमें विश्वास है कि वे छींटे संशोधन के लिए संबंधित पात्र को प्रेरित करेंगे। 'मीडिया मंडी' के अभियान की सफलता इसी पर निर्भर है। और तब शायद कोई राजनेता मीडिया को 'बाजारु' या 'वेश्या' निरुपित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा।
 'मीडिया मंडी' पाठकों का आह्वान करता है कि वे भी मीडिया को लेकर अपनी शिकायतें हमें प्रेषित करें। बेखौफ होकर हमें बताएं, हम उनके नाम गुप्त रखते हुए समुचित स्थान देगें। सिर्फ स्थान ही नहीं देंगे, निराकरण भी सुनिश्चित करेगें। हां शिकायतें सप्रमाण हों, बेबुनियाद नहीं।  'मीडिया मंडी' का यह अभियान जोखिम भरा है, क्योंकि हम उस घर की सफाई करने निकले है, जिसके हमाम में सभी नंगे कहे जाते हैं। हम इस धारणा को कालांतर में बदल देने को कटिबद्ध हैं।  बगैर किसी स्वार्थयुक्त अपेक्षा के। समय चाहे जो लगे, परिणाम चाहे आत्मघाती ही क्यों न निकले।

शत्रुघ्न : खामोशी बनाम दहाड़!

शत्रुघ्न और खामोश? सवाल ही नहीं पैदा होता। शत्रुघ्न न कभी खामोश थे, न हैं और न कभी रहेंगे। कदमकुआं पटना के सोनू और मायानगरी मुंबई के  'शॉटगन' शत्रुघ्न सिन्हा। चाहे निजी जिंदगी में रेखा, जीनत अमान या फिर रीना रॉय का मामला हो या राजनीतिक जिंदगी का, हमेशा वाचाल रहे। खामोशी तो इनके तत्वों में नहीं। स्वामी विवेकानंद के विचार कि 'हम तत्व से नहीं, तत्व हमसे हैं' का अनुसरण करते हुए, शत्रुघ्न सिन्हा अपनी बेबाक-बेलाग जिंदगी जीते रहे हैं ... और जीते रहेंगे। उन्हें खामोश करने की कोशिश करनेवाले, तय है अपना समय बर्बाद कर रहे हैं।
मुझे याद है 1967 का वह दिन। पटना का पैलेस होटल। प्रसिद्ध पत्रकार व फिल्म निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास की मौजूदगी। तब बिहार में भयंकर सूखा पड़ा था। अब्बास साहब तब मुंबई से प्रकाशित, बहुप्रसारित लोकप्रिय  साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' की ओर से  सूखाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने आये थे। दौरे के दौरान हर जगह मैं उनके साथ गया था। शत्रुघ्न सिन्हा उनसे मिलने होटल पहुंचे। लगभग बीस मिनट की बातचीत के बाद जब शत्रुघ्न वापस गए तब अब्बास साहब ने टिप्पणी की '.... विनोद, पूना फिल्म इंस्टीट्यूट का यह (शत्रुघ्न) बेस्ट प्रोडक्ट है.... यह बहुत तरक्की करेगा... मैं अपनी रंगीन फिल्म 'गेहूं और गुलाब' में इसे मुख्य भूमिका देने जा रहा हूं।' तब हमें, अर्थात मित्र मंडली को आश्चर्य लगा था, लेकिन अब्बास की पारखी निगाहों ने जो देखा था, वह सच निकला। तरक्की की हर मंजिलें पार करते चले गए शत्रुघ्न।...प्रतिभा चिह्नित हुई।
सत्तर के दशक के मध्य में जब जयप्रकाश आंदोलन की तीव्रता से पूरा देश आंदोलित था, तब शत्रुघ्न भी उससे जुड़ गए। ध्यान रहे तब शत्रुघ्न का फिल्मी कैरिअर भी ऊफान पर था, लेकिन उसे हाशिये पर रख देशहित में जयप्रकाश आंदोलन में योगदान को प्राथमिकता दी- नि:स्वार्थ। आंदोलन सफल हुआ, 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पराजित हुई, जेपी के आशीर्वाद से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। सत्ता की चासनी का स्वाद बड़ों के साथ- साथ औसत और औसत के नीचे के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने चखा। शत्रुघ्न ने कुछ नहीं लिया। ...नि:स्वार्थ चरित्र चिह्नित हुआ।
1990 में सक्रिय राजनीति में उनकी   दिलचस्पी की खबरें आने लगीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का न्योता दिया। प्रस्ताव विचाराधीन ही था कि भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी उन्हे अपने पाले में लेने की कोशिशें शुरू हो गई। राजधानी दिल्ली में उच्च स्तर पर बातचीत-प्रयास के अलावा तब महाराष्ट्र के कद्दावर नेता, अब केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अपने एक सहयोगी रमेश मंत्री के साथ मुझसे भी मिले थे। आग्रह था कि शत्रुघ्न सिन्हा को पार्टी में शामिल होने को तैयार करवाऊं। पेशकश थी कि उन्हें मुंबई में मुरली देवड़ा के खिलाफ लोकसभा के लिए टिकट दी जाएगी। जाहिर है भाजपा ने तब राजनीति में उनके महत्व को चिन्हित किया था। ...महत्व चिह्नित हुआ।
1991 में जब  इच्छा के विरुद्ध भाजपा ने उन्हें कांग्रेस के  राजेश खन्ना के खिलाफ चुनावी मैदान में उतारा था तब कोलकाता में 'टेलिग्राफ'  की ओर से एक संवाद का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम में शत्रुघ्न और राजेश खन्ना दोनों आमंत्रित थे। शत्रुघ्न सिन्हा के अनुरोध पर मैं भी कोलकाता गया था। 'संवाद' के पूर्व होटल के कमरे में चर्चा के दौरान उन्होंने अपने मन की पीड़ा व्यक्त की थी। पार्टी, विशेषत: लालकृष्ण आडवाणी के आदेश पर वे राजेश खन्ना के खिलाफ मैदान में उतरे थे। स्वयं नहीं चाहते थे। 'संवाद' में जब शत्रुघ्न-राजेश आमने सामने थे, शत्रुघ्न के शब्दों में उनके दिल में छिपी पीड़ा सामने आ गई थी। पार्टी के आदेश पर व्यक्तिगत इच्छा और पसंद की कुर्बानी की एक अनुकरणीय मिसाल!...पार्टी के प्रति समर्पण चिह्नित हुआ।
 1996 का लोकसभा चुनाव पटना के गांधी मैदान में अटल बिहारी वाजपयी की सभा होनी थी। तब आलम यह था कि जिस चुनावी सभा मंच पर शत्रुघ्न मौजूद रहते थे, श्रोता किसी अन्य का भाषण सुनने को तैयार नहीं होते थे। विचार-विमर्श के बाद तय पाया कि जब तक अटलजी का भाषण चलता रहेगा, शत्रुघ्न कदमकुआं स्थित अपने निवास पर रहेंगे। भाषण खत्म होने के बाद शत्रुघ्न को मंच पर लाया जाएगा। इसकी जिम्मेदारी कुछ कार्यकर्ताओं को दी गई। लेकिन 'संवाद' में कुछ गड़बड़ी हुई और अटलजी के भाषण के दौरान ही कार्यकर्ता उन्हें मंच पर ले गए। भीड़ से बिहारी बाबू-बिहारी बाबू के नारे गूंजने लगे। अटलजी को कहना पड़ा कि अरे भाई मैं भी बिहारी हूं- अटल बिहारी! मेरी भी तो सुन लो।  लेकिन श्रोता शांत नहीं हुए। अटलजी को बैठ जाना पड़ा। उसी चुनाव में अटलजी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ में शत्रुघ्न सिन्हा को आमंत्रित कि या। एक दिन चुनावी सभाओं के बाद अटलजी ने आग्रह कर शत्रुघ्न सिन्हा को दो दिन और रोक लिया था। शत्रुघ्न सिन्हा की लोकप्रियता और मतदाताओं पर प्रभाव का वह अटलजी द्वारा दिया गया प्रमाणपत्र था। ...उपयोगिता चिह्नित हुई।
 उसी शत्रुघ्न सिन्हा को 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान हाशिये पर रख अपमानित करने की कोशिश की गई तब वे भला 'खामोश' कैसे रहते ?  बोले, दो टूक बोले, बेबाक बोले! अपने अंदाज में, अपने शब्दों से उन्होंने पार्टी नेतृत्व को बिहार की चुनावी हकीकत से अवगत कराते हुए अग्रिम चेतावनियां भी दीं। लेकिन विघ्नसंतोषियों द्वारा बुरी तरह गुमराह कर दिये गए नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। शत्रुघ्न के शब्दों और चेतावनी की उपेक्षा की गई। परिणाम? दुनिया के सामने है।
बावजूद इसके शत्रुघ्न सिन्हा की पार्टी में उपेक्षा जारी है। बल्कि उनके साथ एक अछूत की तरह व्यवहार किया जा रहा है। दीवार की लिखावट पढऩे में असमर्थ पार्टी नेतृत्व शत्रुघ्न के खिलाफ अगर अनुशासनात्मक कारवाई की सोच रहा है तब वे जान लें कि ऐसा कर वे पार्टी का हित नहीं, अहित ही करेंगे। बिहार और बिहारी बाबू के बीच मौजूद भावनात्मक गांठ बहुत मजबूत है। इसे खोल पाना सहज नहीं। चुनाव परिणाम ने यह बता भी दिया है। आश्चर्य हे कि वर्तमान पार्टी नेतृत्व इस हकीकत को समझ क्यों नहीं पा रहा? लगता है अज्ञानतावश पार्टी नेतृत्व जानबूझकर 'खामोश' की शांति को भंग करना चाहता है। संभवत: अधिकांश राजनीतिक समीक्षक इससे सहमत नहीं होंगे, किंतु कड़वा सच है कि पार्टी नेतृत्व ऐसा कर बिहार में भाजपा के लिए सुखद वापसी तो नहीं ही कर पाएगा। कोई भी राजनीतिक सफलता, राजनीतिक उदारता और सह्रयता व क्षमा का आग्रही है। राजनीति में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब शब्द भ्रम पैदा कर देते हैं। समझदार नेतृत्व शब्द के शाब्दिक अर्थ पर नहीं जाता, नीयत की पड़ताल करता है। शत्रुघ्न सिन्हा की नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। सत्तारुढ कांग्रेस की पेशकश को ठुकराते हुए उन्होंने भाजपा की सदस्यता तब स्वीकार की थी, जब लोकसभा में पार्टी के सिर्फ दो सांसद थे। नि:स्वार्थ राजनीति प्रवेश के उनके कदम पर फिर सवालिया निशान क्यों?
 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी से देश को बहुत आशायें हैं। देश राजनीति और शासकीय दोनों स्तर पर पूरी प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन चाहता है। वह बदबूदार भ्रष्टाचार को जन्म देनेवाली पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहता है। इसकी पूर्ति की आशा में पूर्ण विश्वास के साथ देश ने भाजपा को सत्ता सौंपी है। आज देश यह देखकर दु:खी है कि वर्तमान शासक उनकी आशा के विपरीत, उनके द्वारा खारिज 'कांग्रेस संस्कृति' को गले लगाने के लिए आतुर हैं। यह विश्वासभंग देश को स्वीकार नहीं। शब्द कठोर हैं, अरुचिकर हैं, असहज हैं किंतु सचाई से ओत-प्रोत। देशहित में और स्वयं पार्टी हित में, सत्ता और संगठन का वर्तमान नेतृत्व इनकी उपेक्षा न करें। अन्यथा, 'आत्मघाती' शब्द अभी शब्दकोश से हटा नहीं हैं। और हां, खामोश को खामोश ही रहने दें, दहाडऩे को विवश न करें। 

Friday, January 8, 2016

पद्म-सम्मान, लॉबिंग और नितिन गडकरी!

क्या 'दो टूक बोलना अपराध है ? समाज में इस पर मतविभाजन हो सकता है, किंतु अधिकांश 'दो टूक' के पक्षधर ही मिलेंगे।  इसे नकारात्मक रूप में देखने वालों की भी कमी नहीं।  कारण, दो दूक रुपी बाण की 'चोट' कभी-कभी असहनीय होती है। लेकिन सकारात्मक सोच वाले 'दो टूक' को प्रेरणा के रूप में ले, अनुसरण करने में पीछे नहीं रहते। हालांकि, 'दो टूक' प्राय: विवाद पैदा कर बहस का मुद्दा भी बनते रहे है। एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो टूक को सकारात्मक रूप में ले समर्थक-प्रशंसक प्रेरणा पुंज के रुप में उद्धृत करते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर मंत्री द्वय जनरल वी. के. सिंह, गिरिराज सिंह तथा सांसद योगी आदित्यनाथ, साध्वी निरंजना आदि के 'दो टूक' को लोगबाग नकारात्मक श्रेणी में डाल आलोचना करने से नहीं चूकते। किंतु, मंत्री नितिन गडकरी इन सबों से पृथक 'दो टूक' उवाचक हैं। निश्छल, निष्काम, निडर, 'दो टूक' के स्वामी नितिन गडकरी  परिणाम से बेखौफ आम जिंदगी से
दो-चार कड़वी सचाईयों को 'दो टूक' पेश करने से नहीं हिचकते। उद्देश्य साफ है- लोगबाग सचाई से अवगत हो सके।
ताजा 'दो टूकश' का उद्भव नागपुर के एक कार्यक्रम में तब हुआ जब अपने संबोधन के दौरान गडकरी ने मजाकिया लहजे में पहले तो कथित 'मीडिया मैनेजमेंट' को आड़े हाथों लिया, वहीं यह टिप्पणी कर सनसनी पैदा कर दी कि इन दिनों पद्म पुरस्कार के लिए 'लाबिंग' आम बात हो गई है। तब गडकरी सामान्य मजाकिया 'मूड' में थे। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गडकरी ने प्रसंग को यह कहकर गंभीर बना दिया कि अपने जमाने की विख्यात अभिनेत्री आशा पारेख ने एक बार, लिफ्ट खराब होने के कारण सीढिय़ों से चढ़ बारहवें माले पर स्थित उनके निवास पर पहुंच 'पद्म भूषण' सम्मान की याचना की थी। पद्मश्री सम्मान प्राप्त आशा पारेख पद्म भूषण सरीखा उच्च सम्मान चाहती थीं। अतिरिक्त उत्साहित किंतु गैर-जिम्मेदार मीडिया ने गडकरी के मजाकिया कथन को गंभीर विवादित बयान के रुप में परोस दिया। गैर-जिम्मेदाराना बयान बताने से भी वे नहीं चूके। मीडिया के इस चरित्र से परिचित लोगों ने तो ध्यान नहीं दिया लेकिन गडकरी जैसे कद्दावर नेता के मुख से निकले इन शब्दों को जिस रुप में मीडिया ने परोसा उसने एक प्रकार से गडकरी के खिलाफ नकारात्मक वातावरण तैयार करने का कार्य किया। अपने उल्लेखनीय कार्यों के कारण मोदी सरकार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुके गडकरी के लिए क्या जानबूझकर ऐसे वातावरण का निर्माण किया गया? यह एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है किंतु सत्य के धरातल पर आलोच्य विषय को मैं आगे ले जाना चाहूंगा।
गडकरी तब गलत थे जब उन्होंने कहा कि 'इन दिनों' लाबिंग होती है। 'दो टूक' सच जान लीजिए- लाबिंग 'पद्म पुरस्कारों' के जन्म के समय अर्थात 50 के दशक से ही शुरू हो चुकी थी। बगैर किसी दुराग्रह या विपरीत मंशा के, मैं सचाई को रेखांकित करने के लिए ये उदाहरण दे रहा हूं। व्यक्तिगत संबंध होने के बावजूद, एक प्रत्यक्षदर्शी के नाते मैं यह बताने को मजबूर हूं। तब पटना में विख्यात ज्योतिष विष्णुकांत झा हुआ करते थे। उन्होंने प्रथम राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद पर संस्कृत में 'राजेंद्र वंशों प्रशस्ति' (जहां तक मुझे स्मरण है) नामक एक पुस्तक लिखी। पटना से ध्यान आकृष्ट करते हुए राष्ट्रपति को एक पत्र लिख पंडित विष्णुकांत झा को पद्मश्री सम्मान के लिए अनुशंसा की गई। पंडित विष्णुकांत झा को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। दूसरी घटना भी 50 के दशक की है। राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने दक्षिण की एक महिला का नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिए तत्कालीन गृह मंत्री गोविंदवल्लभ पंत को सुझाया। गृह मंत्रालय ने पता लगा कर उस नाम की एक शिक्षिका का नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिए अनुशंसित कर राष्ट्रपति के पास भेज दिया। तब राष्ट्रपति की ओर से संशोधन किया गया कि वह शिक्षिका नहीं बल्कि एक नर्स है जिसने अस्वस्थता के दौरान कभी उनकी सेवा-सुश्रुषा की थी। उसे भी पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ। निश्चय ही ये दोनों उदाहरण उच्चस्तरीय 'लॉबिंग' को ही रेखांकित करते हैं। नितिन गडकरी ने तो बात 'इन दिनों' के लिए की। उन्हें आश्वस्त हो जाना चाहिए कि सिलसिला नया नहीं, पुराना है।
ताजा उदाहरण क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर का भी है। पद्म सम्मान के बाद तेंदुलकर को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। यह स्वयं में एक चौंकाने वाला निर्णय था। जिस आयु वर्ग में और जिस क्षेत्र से सचिन तेंदुलकर का भारत रत्न के लिए चयन किया गया उसे 'दो टूक' कहा जाये तो भारत राष्ट्र ने स्वीकार नहीं किया। कुछ निहित स्वार्थियों को छोड़ दें, तो किसी के गले के नीचे वह निर्णय नहीं उतरा। निर्विवाद रुप से सचिन तेंदुलकर विश्व के एक महान क्रिकेट खिलाड़ी रहे हैं। किंतु, 'भारत रत्न' जैसे सर्वोच्च सम्मान के लिए उनकी 'पात्रता'?  नि:संदेह संदिग्ध ! बाद में खबरें प्रकट भी हुईं कि तेंदुलकर को 'भारत रत्न' सम्मान सत्ता पक्ष की एक तगड़ी लॉबिंग के कारण संभव हुआ। कहने का लब्बो-लुआब यह कि समाज के हर क्षेत्र में चाहे राजनीति हो, शिक्षा हो, उद्योग व्यापार हो या फिर सार्वजनिक जीवन हो, 'लॉबिंग' का बोलबाला पहले भी था और आज भी है। नितिन गडकरी की इस मुद्दे पर आलोचना करने से पूर्व इस सत्य को भी जान लेना चाहिए। और गडकरी भी आश्वस्त हो जाए कि वे गलत नहीं हैं।

Friday, January 1, 2016

'दाग' के खिलाफ जरूरत साहसी पहल की !

साहसी पहल की !
सन 2015 के अवसान और 2016 के पहले सूर्योदय के साथ केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्यत: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है। यह स्वाभाविक भी है। केंद्रीय सत्ता की शपथ लेने के 220 दिन बाद जब सन 2015 की शुरुआत हुई थी तब घोषित कर दिया गया था कि यह वर्ष प्रधानमंत्री मोदी के लिए चुनौती का वर्ष होगा। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में संसद में अपने पहले सारगर्भित, बल्कि भावनात्मक संबोधन में देश के सामने सपनों का समंदर परोसा था। समाज के हर क्षेत्र में, हर विधा में आमूल-चूल परिवर्तन का भरोसा दिया था। सभी धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग के लिए समान अवसर शिक्षा,रोजगार, स्वास्थ्य, कृषि-उद्योग-व्यापार,महिला सुरक्षा, आदि के साथ- साथ उदार विदेश नीति के अंतर्गत पड़ोसियों से मधुर संबंध की बातें प्रधानमंत्री ने की थीं।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्घोषणा प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को लेकर की थी। प्रधानमंत्री ने अत्यंत ही भावुक शब्दों में घोषणा की थी कि सन 2015 तक भारतीय संसद पूर्णत: दागमुक्त होगी, सांसद दागमुक्त होंगे। अर्थात,भ्रष्टाचार मुक्त एक नये भारत का उदय होगा। तब 2015 के बारह माह शेष थे जब देश की जनता हर दिन इस बिंदु पर सपने बुनती रही- दागमुक्त संसद के सपने के पूर्ण होने के पक्ष में। चूंकि प्रधानमंत्री ने वादा संसद के अंदर किया था उसे चुनावी जुमले के रुप में जनता ने नहीं लिया। प्रधानमंत्री के शब्दों पर भरोसा कर जनता प्रतीक्षारत रही। उसकी आशावान निगाहें पूरे विश्वास के साथ प्रतिदिन प्रतीक्षा करती रही। आज 2015 की समाप्ति पर जनता, बिल्कुल सही,स्वयं को छला महसूस कर रही है। वादापूर्ति के खाते में शून्य देख जनता निराश है। क्या अब भी वह प्रधानमंत्री पर भरोसा करे?
किसी भी वादापूर्ति की सफलता-विफलता के आकलन की प्रक्रिया में 'नीयत' महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। साफ नीयत से संदेह का लाभ मिल जाता है। इस बिंदु पर यक्षप्रश्न कि क्या प्रधानमंत्री इस 'संदेह का लाभ' के हकदार हैं? हमारी कसौटी पर सिर्फदागमुक्त संसद और दागमुक्त सांसद का वादा है। साफ है कि न तो कथित दागी सांसद दागमुक्त हुए और न ही संसद दागमुक्त हुई। क्यों हुआ ऐसा? क्या प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के प्रयास के बावजूद परिणाम के खाते में सिफर आया? उत्तर 'ना' में मिल रहा है। तब कहा गया था कि दागी सांसदों के मामलों के त्वरित सुनवाई और निर्णय के लिए न्यायपालिका से कहा जाएगा अथवा दबाव बनाया जाएगा। ताकि, एक वर्ष के अदर या तो दाग धुल जाएं या दागी दंडित हो संसद के बाहर हो जाएं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। चूंकि, इस बिंदु पर नीयत भी संदिग्ध बन जाती है, देश निराश हुआ है। निराशा तब और गहरी हो जाती है जब जनता दागियों को फलते-फूलते देखती है, उन्हें सत्ता की कुर्सी सौंपे जाते देखती है। मंत्रिपरिषद में मौजूद दागी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई का न होना और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद भी कतिपय दागियों को स्थान मिलने से नीयत पर संदेह स्वाभाविक है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने वादों के प्रति गंभीर नहीं थे? जनता को झूठे सपने दिखा रहे थे? देश अभी भी ऐसा
मानने को तैयार नहीं। वह कथित 'नीयत' पर 'मजबूरी' का चादर डाल प्रधानमंत्री को संदेह का लाभ देने को तैयार है। अब ये प्रधानमंत्री के लिए चुनौती है कि वे जनता की इस 'सद्भावना' को समझ पाते हैं या नहीं, उसका आदर कर पाते हैं या नहीं।
यह प्रधानमंत्री को ही बताना होगा कि किस मजबूरी के तहत वे संसद से किए वादे को पूरा नहीं कर पाये। संसद में ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त भाजपा के सर्व शक्तिमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  आखिर मजबूर कैसे और क्यों? उनके फैसलों को कोई चुनौती देनेवाला तो है नहीं ! देश में भावना व्याप्त है कि वे जो चाहते हैं करते हैं।
इच्छाशक्ति में भी कोई कमी नहीं। तब इस 'दाग' के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी 'अ-गंभीर' कटघरे में क्यों खड़े हैं? उपलब्ध जानकारियां चुगली कर रही हैं कि कोई दाग मुक्ति अभियान नहीं चलाया गया, दाग धोये जाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुए, दागियों को कुर्सियां मिलती रहीं, दागियों के खिलाफ कारवाई की जगह उन्हें संरक्षण मिलते रहे। क्या हम ये मान लें कि पूर्व के शासकों की तरह देश के चहेते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी 'दाग' अच्छे लगने लगे हैं? नहीं ! मैं यह मानने को तैयार नहीं। शोध करें, पता चल जायेगा कि मामला अच्छाई पर बुराई के हावी हो जाने का है। साफ नीयत प्रधानमंत्री मोदी राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि इस स्थिति से बाहर निकलने की पूरी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही है। साहस दिखा पहल करें प्रधानमंत्री, जनमानस एक बार फिर समर्थन का हाथ उनकी पीठ पर रख देगा। शर्त वही-नीयत और साहसी पहल !