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Friday, January 1, 2016

'दाग' के खिलाफ जरूरत साहसी पहल की !

साहसी पहल की !
सन 2015 के अवसान और 2016 के पहले सूर्योदय के साथ केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्यत: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कटघरे में खड़ा किया जाने लगा है। यह स्वाभाविक भी है। केंद्रीय सत्ता की शपथ लेने के 220 दिन बाद जब सन 2015 की शुरुआत हुई थी तब घोषित कर दिया गया था कि यह वर्ष प्रधानमंत्री मोदी के लिए चुनौती का वर्ष होगा। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में संसद में अपने पहले सारगर्भित, बल्कि भावनात्मक संबोधन में देश के सामने सपनों का समंदर परोसा था। समाज के हर क्षेत्र में, हर विधा में आमूल-चूल परिवर्तन का भरोसा दिया था। सभी धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग के लिए समान अवसर शिक्षा,रोजगार, स्वास्थ्य, कृषि-उद्योग-व्यापार,महिला सुरक्षा, आदि के साथ- साथ उदार विदेश नीति के अंतर्गत पड़ोसियों से मधुर संबंध की बातें प्रधानमंत्री ने की थीं।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्घोषणा प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को लेकर की थी। प्रधानमंत्री ने अत्यंत ही भावुक शब्दों में घोषणा की थी कि सन 2015 तक भारतीय संसद पूर्णत: दागमुक्त होगी, सांसद दागमुक्त होंगे। अर्थात,भ्रष्टाचार मुक्त एक नये भारत का उदय होगा। तब 2015 के बारह माह शेष थे जब देश की जनता हर दिन इस बिंदु पर सपने बुनती रही- दागमुक्त संसद के सपने के पूर्ण होने के पक्ष में। चूंकि प्रधानमंत्री ने वादा संसद के अंदर किया था उसे चुनावी जुमले के रुप में जनता ने नहीं लिया। प्रधानमंत्री के शब्दों पर भरोसा कर जनता प्रतीक्षारत रही। उसकी आशावान निगाहें पूरे विश्वास के साथ प्रतिदिन प्रतीक्षा करती रही। आज 2015 की समाप्ति पर जनता, बिल्कुल सही,स्वयं को छला महसूस कर रही है। वादापूर्ति के खाते में शून्य देख जनता निराश है। क्या अब भी वह प्रधानमंत्री पर भरोसा करे?
किसी भी वादापूर्ति की सफलता-विफलता के आकलन की प्रक्रिया में 'नीयत' महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। साफ नीयत से संदेह का लाभ मिल जाता है। इस बिंदु पर यक्षप्रश्न कि क्या प्रधानमंत्री इस 'संदेह का लाभ' के हकदार हैं? हमारी कसौटी पर सिर्फदागमुक्त संसद और दागमुक्त सांसद का वादा है। साफ है कि न तो कथित दागी सांसद दागमुक्त हुए और न ही संसद दागमुक्त हुई। क्यों हुआ ऐसा? क्या प्रधानमंत्री या उनकी सरकार के प्रयास के बावजूद परिणाम के खाते में सिफर आया? उत्तर 'ना' में मिल रहा है। तब कहा गया था कि दागी सांसदों के मामलों के त्वरित सुनवाई और निर्णय के लिए न्यायपालिका से कहा जाएगा अथवा दबाव बनाया जाएगा। ताकि, एक वर्ष के अदर या तो दाग धुल जाएं या दागी दंडित हो संसद के बाहर हो जाएं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। चूंकि, इस बिंदु पर नीयत भी संदिग्ध बन जाती है, देश निराश हुआ है। निराशा तब और गहरी हो जाती है जब जनता दागियों को फलते-फूलते देखती है, उन्हें सत्ता की कुर्सी सौंपे जाते देखती है। मंत्रिपरिषद में मौजूद दागी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई का न होना और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद भी कतिपय दागियों को स्थान मिलने से नीयत पर संदेह स्वाभाविक है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने वादों के प्रति गंभीर नहीं थे? जनता को झूठे सपने दिखा रहे थे? देश अभी भी ऐसा
मानने को तैयार नहीं। वह कथित 'नीयत' पर 'मजबूरी' का चादर डाल प्रधानमंत्री को संदेह का लाभ देने को तैयार है। अब ये प्रधानमंत्री के लिए चुनौती है कि वे जनता की इस 'सद्भावना' को समझ पाते हैं या नहीं, उसका आदर कर पाते हैं या नहीं।
यह प्रधानमंत्री को ही बताना होगा कि किस मजबूरी के तहत वे संसद से किए वादे को पूरा नहीं कर पाये। संसद में ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त भाजपा के सर्व शक्तिमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  आखिर मजबूर कैसे और क्यों? उनके फैसलों को कोई चुनौती देनेवाला तो है नहीं ! देश में भावना व्याप्त है कि वे जो चाहते हैं करते हैं।
इच्छाशक्ति में भी कोई कमी नहीं। तब इस 'दाग' के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी 'अ-गंभीर' कटघरे में क्यों खड़े हैं? उपलब्ध जानकारियां चुगली कर रही हैं कि कोई दाग मुक्ति अभियान नहीं चलाया गया, दाग धोये जाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुए, दागियों को कुर्सियां मिलती रहीं, दागियों के खिलाफ कारवाई की जगह उन्हें संरक्षण मिलते रहे। क्या हम ये मान लें कि पूर्व के शासकों की तरह देश के चहेते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी 'दाग' अच्छे लगने लगे हैं? नहीं ! मैं यह मानने को तैयार नहीं। शोध करें, पता चल जायेगा कि मामला अच्छाई पर बुराई के हावी हो जाने का है। साफ नीयत प्रधानमंत्री मोदी राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि इस स्थिति से बाहर निकलने की पूरी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही है। साहस दिखा पहल करें प्रधानमंत्री, जनमानस एक बार फिर समर्थन का हाथ उनकी पीठ पर रख देगा। शर्त वही-नीयत और साहसी पहल ! 

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