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Wednesday, April 15, 2009

देशहित में साथ आएं कांग्रेस-भाजपा!


इस सुझाव का खरीदार अभी शायद ही कोई हो, किन्तु देश की वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त करने, संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को मजबूती प्रदान करने और सभी से ऊपर भयादोहन अर्थात् ब्लैकमेलिंग की राजनीति खत्म करने के लिए यह जरूरी है. अटल बिहारी वाजपेयी हों या डॉ. मनमोहन सिंह, दोनों इस कड़वे सच से इनकार नहीं कर सकते कि उन्हें किसी न किसी स्तर पर प्राय: प्रतिदिन गठबंधन की राजनीति का 'शिकार' बनना पड़ा है, बनना पड़ रहा है. छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल और उनके नेता निज-स्वार्थ (जिनका देशहित से कोई लेना-देना नहीं होता) की पूर्ति हेतु दबाव बनाते रहते हैं, ब्लैकमेलिंग करते रहते हैं. विकास को गति देने वाली अनेक लोकहितकारी योजनाएं इन दलों के दबाव के कारण ही ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं. इन लोगों को न तो आम जनता के हित की परवाह रहती है और न ही देश की छवि की. संविधान, कानून, नियम-कायदे इनके लिए महत्वहीन हैं. वस्तुत: राष्ट्रहित, देशप्रेम और जनकल्याण इनके लिए खिलौने से अधिक कुछ नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार केन्द्र में थी, तब अनेक सहयोगी दलों के ऐसे ही दबाव के कारण प्रधानमंत्री वाजपेयी मजबूरन कई बार इस्तीफे की पेशकश कर चुके थे. उदार व सरलचित्त वाजपेयी ऐसे ही दबावों के कारण अस्वस्थ हो चले थे. परेशान वाजपेयी ने तो तब अनेक मंत्रियों से मिलना भी बंद कर दिया था. सहयोगी दल शिवसेना ने तो एक बार प्रधानमंत्री कार्यालय पर ही भ्रष्टïाचार के आरोप लगा दिए थे. खिन्न वाजपेयी ने तत्काल इस्तीफे की पेशकश कर दी थी. बाद में शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के हस्तक्षेप के बाद मामला शांत हुआ था. तब के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज के रवैये से भी वाजपेयी हमेशा दु:खी रहे. छोटे सहयोगी दलों की धमकियां हमेशा सुर्खियां बनती रही थीं. ममता बनर्जी का किस्सा तो जगजाहिर है.
वर्तमान मनमोहन सरकार जब अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है, तब देश का तटस्थ विचारक वर्ग 15वीं लोकसभा के संभावित स्वरूप को लेकर चिंतित है. पिछले पांच वर्षों में वामदलों ने सरकार के हर उस प्रगतिशील कदम का विरोध किया, जिससे विकास को गति मिल सकती थी. अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार का मामला हो या फिर विनिवेश का, लोकसभा में अपने संख्याबल की धौंस जमा वामदल अंत-अंत तक विरोध करते रहे. उनकी समर्थन वापसी के खेल से पूरा देश परिचित है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, दक्षिण के डीएमके-पीएमके, सभी दबाव और भयादोहन की राजनीति करते रहे. संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 'स्थिरता' के पक्ष में इनके सामने नतमस्तक होते रहे. राजनीतिकों के ऐसे स्वार्थी खेल ने भारतीय लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंचाई है. सिर्फ तटस्थ विचारक ही नहीं, देश की युवा पीढ़ी आज बेचैन है. क्या आगे भी ऐसा ही होता रहेगा? लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी के भाग्य का निर्णय क्या ऐसे मुठ्ठी भर, सर्वथा अयोग्य, भ्रष्टï नेता ही लेते रहेंगे? आखिर कब तक ऐसे नेताओं के स्वार्थ की वेदी पर देशहित की बलि चढ़ायी जाती रहेगी? कब तक मनमोहन सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी जैसा योग्य नेतृत्व 'अयोग्यता' के समक्ष शीश नवाता रहेगा? कब तक स्वार्थी-सत्ता, योग्यता का मानमर्दन करती रहेगी? बेचैन है आज की युवा पीढ़ी! उसे समाधान चाहिए. क्या इनसे निजात पाना संभव है? है, बिल्कुल है! पुरानी वर्जनाओं, घिसे-पिटे सिद्धांत, विफल साबित हो चुके 'वाद' से मुक्ति पाकर देश को इन व्याधियों से बचाया जा सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि देश के दोनों बड़े राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रहित में एक मंच पर आएं. ये त्याग दें उन सारी कुंठाओं को, जिनके कारण ये दोनों दल उत्तर-दक्षिण के ध्रुव पर खड़े हैं. भूल जाएं लोगों को भ्रमित करने वाले उन 'वादों' को, जो सिर्फ अकादमिक स्तर पर ही अच्छे लगते हैं, किन्तु व्यवहार के स्तर पर बिल्कुल निष्फल. कुकुरमुत्ते की तरह छोटे दलों के उदय का कारण भी तो वही हैं. फिर झटक कर इनसे मुक्त क्यों नहीं हो जाते ये दोनों बड़े दल! एक बार प्रयोग कर देखें. जिस दल के सांसदों की संख्या अधिक हो, प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार उस दल को दिया जाए. दूसरे बड़े दल को उपप्रधानमंत्री पद दे दिया जाए! ....और फिर एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार कर ये दोनों दल सरकार चलाएं. संसद में सांसदों की संख्या के आधार पर मंत्रिमंडल में इन्हें आनुपातिक स्थान मिले. साझा न्यूनतम कार्यक्रम राष्ट्रहित और जनआकांक्षा को ध्यान में रख तैयार किया जाए. एक भी विवादास्पद मुद्दा इनमें शामिल न हो. ध्यान रहे, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में भाजपा का न राममंदिर निर्माण का मुद्दा था और न ही संविधान की धारा 370 को खत्म करने का! भाजपा तब इसके लिए तैयार थी. फिर भाजपा-कांग्रेस मिलकर साझा न्यूनतम कार्यक्रम क्यों नहीं बना सकते? संसद में इन दोनों दलों की सदस्य संख्या इतनी हो जाएगी कि छोटे-छोटे दल स्वत: अस्तित्वहीन बन जाएंगे. देश को इनकी ब्लैकमेलिंग से छुटकारा मिल जाएगा. विकास को गति मिलेगी. युवा पीढ़ी के सपनों का भारत साकार हो सकेगा. मजबूत भारत का उदय होगा. और तब वैश्विक ग्राम के लिए मुखिया पद पर भारत की दावेदारी और मजबूत हो जाएगी. आगे आएं कांग्रेस और भाजपा! यह समय की पुकार है, देश की पुकार है. अगर चूक गए, तब बार-बार छोटे-छोटे दलों द्वारा भयादोहन का शिकार होते-होते एक दिन इन दोनों दलों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा. क्या ऐसा चाहेंगी कांग्रेस और भाजपा?
14 अप्रैल 2009

Sunday, April 12, 2009

'सच' पर विस्मय क्यों और कब तक?


''.... आप पत्रकार हो, फिर भी सच लिखते हो!'' इसे टिप्पणी कहें या प्रतिक्रिया, इस स्तंभ में प्रकाशित एक आलेख पर एक पाठक ने इन शब्दों को 'मेल' किया है. दिल पर चोट पहुंची, मस्तिष्क असंतुलन के निकट पहुंच गया. पीड़ा इतनी गहरी कि पूरी की पूरी चिंतन प्रक्रिया में उबाल आ गया. क्या हम अर्थात् पत्रकार सच नहीं लिखते? उपर्युक्त प्रतिक्रिया को किसी एक पाठक की सोच नहीं माना जाना चाहिए. निश्चय ही वह समाज में व्याप्त 'पत्रकारीय सच' को प्रस्तुत कर रहा था. उसने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अगर 'सच' प्रस्तुत किया है, तब पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी कटघरे में है. ऐसी दुरूह अवस्था में कैसे पहुंच गए हम? निश्चय ही दोषी और कोई नहीं, हम स्वयं हैं. जिन 'व्याधियों' के लिए हम पत्रकार प्रतिदिन राजदलों और राजनेताओं की आलोचना करते रहते हैं, क्या वे 'व्याधियां' बिरादरी में अपनी गहरी पैठ नहीं बना चुकी हैं? 'ब्लॉग' के वर्तमान युग में बेबाकी से लिखने-बोलने वाले हर दिन ऐसे उदाहरण पेश कर रहे हैं, जो प्रमाण हैं हमारे पतन के. एक अवसर पर प्रख्यात पत्रकार-चिंतक कुलदीप नैयर ने टिप्पणी की थी, ''....आज देश की दुर्दशा के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो ये पालिटिशियन, ....मैंने इन्हें बहुत नजदीक से नंगा देखा है.'' उस कार्यक्रम में तब मैंने श्री नैयर की बातों को आगे बढ़ाते हुए यह जोड़ दिया था, ''.... जिम्मेदार पालिटिशियन तो हैं ही, किन्तु हम पत्रकार भी उनसे कम जिम्मेदार नहीं हैं.... मैंने भी पत्रकारों को बहुत नजदीक से नंगा देखा है.'' सच यही है. आज की राजनीति और व्यवस्था में हम किस भूमिका में हैं? 'गोलकीपर' बन कर पक्ष-विपक्ष में बंट कर हम उनकी रक्षा नहीं करने लगे हैं? हमारी भूमिका तो 'रेफरी' सदृश होनी चाहिए थी. बचाव करने वाले 'गोलकीपर' क्यों बन गए हम? हमने अपने घर को विभाजित क्यों होने दिया? बिरादरी इस पर चिंतन-मनन करे. हमारी कृति, कर्तृत्व और कीर्ति दांव पर लगी हैं. संदिग्ध बन गए हैं हम. इतना कि लोगबाग यह मानने को तैयार नहीं कि कोई पत्रकार सच लिख रहा है- लिख सकता है. इस अवस्था को हम समाज का बौद्धिक पतन निरूपित नहीं कर सकते. यह तो एक सहज सामाजिक जिज्ञासा है. समाधान प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी हमारी है. क्या पाठकों के सामने हम सच और सिर्फ सच नहीं परोस सकते? मैं नहीं समझता कि कोई पत्रकार ऐसी हिम्मत से वंचित है. अपने हौलखौल देखता हूं, बिरादरी के मित्रों-सहयोगियों से चर्चा करता हूं, तब 'मजबूरी' का शब्द उछाल दिया जाता है. समाज में जीने की मजबूरी, परिवार पालने की मजबूरी. यह एक कठोर व कड़वा सच तो है, किन्तु शाश्वत कदापि नहीं. 'मजबूर' करने वाला भी तो हाड़-मांस निर्मित मानव ही है! उसके पास भी दिल है, मस्तिष्क है, बुद्धि है. प्रतिदिन शब्दों से खेलने वाले इतने निपुण तो होने ही चाहिए कि वे सकारात्मक पहल कर मजबूरी से निजात पा सकें- बगैर किसी कटुता के, बगैर किसी टकराव के. मजबूरी को बहाना बना कर पतन के गर्त में गिर मुंह-हाथ पर कालिख लगा लेना पत्रकारिता नहीं है. समाज आज भी देश की दिशा-दशा के कुशल वाहक के रूप में पत्रकार और पत्रकारिता को देखना चाहता है. यह हमारी दिशाभूल है कि वह कभी-कभी हम पर सार्वजनिक संदेह प्रकट कर बैठता है. लेकिन उसकी चाहत है कि हम अपने ईमानदार कर्तव्य निष्पादन के द्वारा विश्वसनीय बने रहें. यह व्यर्थ का प्रलाप नहीं, तटस्थ आत्मचिंतन से निकले शब्द हैं ये. एक ही चाहत है, बिरादरी पर कोई संदेह की कालिख न पोते. हमारी निडरता पर कोई संदेह न करे. शपथ लें, हम सच और सिर्फ सच लिखेंगे. इतना कि भविष्य में कोई पाठक ऐसे 'सच' पर विस्मय न प्रकट करे.
2 अप्रैल 2009

Thursday, April 9, 2009

कसौटी पर सरकार की नीयत!


देर आयद दुरुस्त आयद. कांग्रेस नेतृत्व को साधुवाद कि उसने जनभावना का सम्मान किया. यह दीगर है कि आम चुनावों ने पार्टी को मजबूर किया है. बावजूद इसके एक अर्से बाद 'जनभावना' के आदर पर मन तो प्रफुल्लित होंगे ही. भारत का जन-मन आज मुदित है. 1984 में सिख विरोधी दंगों के दो आरोपी दिग्गज कांग्रेसी जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को दी गई टिकट कांग्रेस ने वापस ले ली. खबर मिली थी कि सीबीआई ने अपनी जांच रिपोर्ट में टाइटलर को 'बेदाग' निरूपित किया है. हालांकि जांच रिपोर्ट एक बंद लिफाफे में अभी भी अदालत के पास लंबित है, सीबीआई सूत्रों के हवाले से ही मीडिया ने ऐसी खबर दे दी थी. सिख दंगों के पीडि़त ही नहीं, सिख समुदाय भी आहत हुआ. गुरुवार को जब दिल्ली की एक अदालत में टाइटलर के मामले की सुनवाई होनी थी, सिखों का उग्र प्रदर्शन सामने आया. देश भर की प्रतिक्रियाओं से यह संकेत साफ-साफ मिल गया कि अगर टाइटलर को चुनाव लडऩे की अनुमति कांग्रेस देती है, तब पार्टी को खामियाजा भुगतना पड़ेगा. पार्टी नेतृत्व की नींद टूटी और उसने न केवल टाइटलर, बल्कि दंगों के एक अन्य आरोपी सज्जन कुमार को भी चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया. कांग्रेस को भय था कि अगर इन दोनों को चुनाव लडऩे की अनुमति दी गई, तब न केवल ये 2 सीटें, बल्कि अन्य 10-12 सीटें प्रतिकूल रूप से प्रभावित होंगी. 'करो या मरो' की चुनावी लड़ाई में भला कांग्रेस नेतृत्व यह खतरा क्यों मोल लेता! टाइटलर-सज्जन को कुर्बानी की बेदी पर चढ़ा दिया गया. लेकिन क्या सिख आक्रोश कांग्रेस के इस कदम से दब जाएगा? कदापि नहीं. पिछले 25 वर्षों से दंगा पीडि़त और सिख समुदाय न्याय के लिए प्रतीक्षारत है. 31 अक्तूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सिख सुरक्षाकर्मियों ने कर दी थी. नतीजतन 31 अक्तूबर की शाम से 3 नवंबर 1984 तक राजधानी दिल्ली में योजनाबद्ध तरीके से सैकड़ों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया. हत्या, लूट, आगजनी और बलात्कार का एक बेहद क्रूर व घिनौना दौर तब चला था. सर्वाधिक शर्मनाक तो पुलिस व अन्य अधिकारियों की भूमिका थी. दंगे के दौरान वे सिर्फ मूक-दर्शक बने रहे थे. नेतागण भीड़ को उकसा रहे थे. कुछ इतना कि दंगा देश के अन्य शहरों में भी फैल गया. सरकारी आंकड़े के अनुसार ही लगभग 4,000 सिख मौत के घाट उतार दिए गए थे. इस बीच सरकार की भूमिका? सिख समुदाय और देश यह देखकर स्तब्ध था कि दंगों में शामिल अनेक नेता तो राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे. घटना के 12 वर्षों बाद 27 अगस्त 1996 को सिख विरोधी दंगों में शामिल 89 लोगों को सजा सुनाते समय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश शिवनारायण धिंगड़ा ने दंगे की सचाई को स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया था. उन्होंने अपने आदेश में कहा था कि 'यह अपने राजनीतिक आकाओं के आदेश पर पुलिस द्वारा दिखाई गई उदासीनता यानि दंगों के समय सरकार की अकर्मण्यता का मामला ही नहीं था, बल्कि उसके बाद भी सरकार का व्यवहार मारे गए लोगों के प्रति उसकी उदासीनता का परिचायक था. सरकार नागरिकों की रक्षा का अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी निभाने में असफल रही. साफ पता चलता है कि पुलिस दंगाइयों के साथ मिली हुई थी.' उन्हीं सफेदपोश नेताओं में से एक जगदीश टाइटलर को अगर सीबीआई क्लीन चिट देती है (जैसी कि खबर है) और कांग्रेस चुनाव लडऩे के लिए टिकट, तब समाज में उबाल तो आएगा ही. टिकट वापस लेकर कांग्रेस ने अपने विरुद्ध आक्रोश को कम करने की कोशिश की है. लेकिन यह काफी नहीं. 1984 की भूल का सही पश्चाताप तभी होगा, जब दंगों के आरोपियों को अर्थात् 4,000 सिखों के हत्यारों को वही सजा मिले, जो इंदिरा गांधी के हत्यारों को मिली थी. सरकार की 'नीयत' तब तक कसौटी पर रहेगी.

Tuesday, April 7, 2009

बिसात राहुल की, चाल पवार की!


प्रधानमंत्री पद के लिए आधा दर्जन से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी के बीच शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में लगता है कि एक अलग प्रकार की खिचड़ी पक रही है. एक ऐसी खिचड़ी जिसकी सुगंध योजनाबद्ध तरीके से सोनिया गांधी के खेमे में पहुंचाई जा रही है. निगाहें और निशाने तय हैं. चतुर पवार का आज्ञाकारी खेमा योजना की सफलता को लेकर आश्वस्त है. अन्यथा पवार की पार्टी के लोग कांग्रेस के युवा महासचिव सोनिया पुत्र राहुल गांधी को देश का वर्तमान व भविष्य निरूपित नहीं करते. याद दिला दूं कि यह वही शरद पवार हैं, जिन्होंने 1999 में सोनिया गांधी के नेतृत्व को चुनौती देते हुए विद्रोह का बिगुल बजाया था. 15 मई 1999 को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए पवार ने सोनिया को संबोधित करते हुए कहा था, 'कांग्रेस आपके विदेशी मूल के मुद्दे पर भाजपा के प्रचार का जवाब देने में सफल नहीं हो पाई है, हमें इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए.' पवार की इस बात को आगे बढ़ाते हुए उसी बैठक में पी.ए. संगमा ने कहा था, 'जब लोग पूछते हैं कि भारत में 98 करोड़ नागरिक होने के बावजूद कांग्रेस प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में एक भी योग्य भारतीय को क्यों नहीं खोज पाई तो हमारे पास कोई जवाब नहीं होता. मुझे लगता है कि वे सही हैं.' इसके बाद के घटनाक्रम से देश परिचित है. पवार, संगमा कांग्रेस से अलग हुए और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. ध्यान रहे, विदेशी मूल के साथ-साथ पवार समर्थक तब 'परिवारवाद' का भी विरोध कर रहे थे. ऐसे में जब पवार की पार्टी राहुल गांधी को देश का वर्तमान और भविष्य बता रही है तो क्या अकारण? बिल्कुल नहीं! राहुल में 'भविष्य' देखने वाले शरद पवार के करीबी यह भी बताने से नहीं चूक रहे हैं कि राकांपा प्रमुख में प्रधानमंत्री बनने की पूरी क्षमता है. चंद्रशेखर और गुजराल मु_ी भर सांसदों के सहयोग से अगर प्रधानमंत्री बन सकते थे तो पवार क्यों नहीं? इस मुकाम पर पवार खेमा अपनी योजना पर से आवरण हटाता दिख रहा है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी और दिग्विजय सिंह पहले ही राहुल गांधी में प्रधानमंत्री की पात्रता के लिए आवश्यक सभी गुण देश को बता चुके हैं. यह निर्विवादित है कि कांग्रेस की इस मंडली ने शीर्ष नेतृत्व की सहमति के बाद ही राहुल का नाम उछाला है. कांग्रेस संस्कृति से परिचित लोगों को इसमें कोई अजूबा नहीं दिखेगा. स्वार्थपरक, अवसरवादी राजनीति के ऐसे किस्से आम हैं. लोगों को आश्चर्य पवार की पार्टी की इस पहल पर है. राकांपा को राहुल में देश का वर्तमान और भविष्य कैसे नजर आने लगा? प्रधानमंत्री बनने की पवार की महत्वाकांक्षा पहले से जगजाहिर है. इसके लिए पवार खुद सभी संभावनाओं पर काम भी कर रहे हैं, लेकिन यह तो तय है कि अकेले राकांपा के बलबूते पवार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. उनकी पार्टी की ओर से चंद्रशेखर और इंद्रकुमार गुजराल का उद्धरण पेश करना महत्वपूर्ण है. इन दोनों को कांग्रेस का बाहर से समर्थन प्राप्त था. सच यह भी है कि कुछ महीनों के अंदर कांग्रेस ने समर्थन वापस लेकर इन्हें भूतपूर्व बना दिया था. कहीं शरद पवार चंद्रशेखर-गुजराल की 'गति' प्राप्त करना तो नहीं चाहते? शायद सच यही है. लोकसभा चुनाव के संभावित परिणाम को भांप कर पवार प्रधानमंत्री बनने संबंधी अपनी अधूरी इच्छा को पूरी करना चाहते हैं. अगर कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो- चुनावी पंडितों के अनुसार- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों प्रमुख दलों के सांसदों की संख्या घटेगी. ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय दलों की शक्ति में इजाफा होगा.
वामदल, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक और अन्नाद्रमुक जैसी पार्टियां तब सौदेबाजी को तत्पर दिखेंगी. कांग्रेस से नाराज वामदलों पर पवार की दृष्टि लगी हुई है. मुलायम सिंह, लालू प्रसाद से उनके मधुर संबंध रहे हैं. मायावती, जयललिता को साधने में उन्हें दिक्कत नहीं होगी. अर्थात् प्रधानमंत्री पद के लिए तीसरे विकल्प के रूप में पवार अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं. परंतु तब जरूरत पड़ेगी कांग्रेस व भाजपा में से एक के समर्थन की. कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन और यूपीए का अंग होने के कारण पवार कांग्रेस का समर्थन चाहेंगे. जाहिर है राहुल गांधी को 'भविष्य' बताकर पवार 'वर्तमान' पर सौदेबाजी करेंगे. अपने राजनीतिक जीवन में पोषित स्वप्न को अल्पावधि के लिए ही सही, पूरा करने को व्यग्र शरद पवार की चिंता अपनी राजनीतिक विरासत को लेकर भी है. पुत्री सुप्रिया सुले को अपने निर्वाचन क्षेत्र बारामती से चुनाव लड़वाने की घोषणा यूं ही नहीं की गई है. कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में राहुल गांधी की एक विश्वसनीय सलाहकार के रूप में सुप्रिया स्थापित हो जाएं. भारतीय लोकतंत्र के इस 'रंग' पर तब आप अचंभित होंगे?
8 अप्रैल 2009

राबड़ी का अशोभनीय कृत्य!


और अब राबड़ी देवी! मायावती और मेनका गांधी के बाद बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी अशोभनीय आचरण के लिए कटघरे में हैं. राबड़ी न केवल बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, बल्कि उस लालू प्रसाद यादव की पत्नी हैं जो सार्वजनिक रूप से कई बार प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं. वैसे जब राबड़ी को लालू ने अपनी जेल यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था, तब एक स्वर से सभी ने टिप्पणी की थी कि एक अशिक्षित, जाहिल, गंवार को मुख्यमंत्री बना लालू ने पूरे बिहार का अपमान किया है. लेकिन धीरे-धीरे राबड़ी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी एक अच्छी पहचान बना ली थी. सदा चुप रहने वालीं राबड़ी ने बोलना सीख लिया था, अधिकारियों से विचार-विमर्श करना सीख लिया था, आदेश जारी करना और उन्हें क्रियान्वित करवाने का माद्दा भी वे अर्जित कर चुकी थीं. उन्हें जाहिल-गंवार कहने वाले लोगों ने भी राबड़ी की प्रगति पर संतोष जाहिर किया था. फिर अचानक ऐसा क्यों हुआ कि अब वे अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए अशोभनीय, आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करने लगीं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विरुद्ध अपशब्द का इस्तेमाल कर राबड़ी ने अर्जित अपनी अच्छी नई प्रतिमा को धूमिल कर डाला. चुनावी जंग में शब्द प्रहार तो स्वाभाविक है- अपशब्द मान्य नहीं. बदलती चुनावी हवा के साथ प्रत्याशियों के तेवर में बदलाव भी स्वाभाविक है- किन्तु भोंडापन स्वीकार्य नहीं. राबड़ी को इन आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की जानकारी होनी चाहिए. बिहार व लालू परिवार वैसे भी अनेक 'दोषÓ के लिए जाना जाता है. इस पाश्र्व में उचित तो यह होता कि राबड़ी एक अच्छी महिला नेत्री के रूप में जनता के बीच जातीं. विरोधियों के लिए अपशब्द नहीं, प्रशंसनीय शब्दों का इस्तेमाल करतीं. आज जब विधायिका में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था की जा रही है, वर्तमान महिला नेत्रियों से समाज आदर्श प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखता है. ऐसे आदर्श जो राजनीति में प्रवेश की इच्छुक महिलाओं के लिए अनुकरणीय बनें, ताकि विधायिका में महिला आरक्षण का पक्ष और भी मजबूत हो सके. दु:ख है कि उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और अब बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने इस अपेक्षा पर देश को निराश किया है. विलंब अभी भी नहीं हुआ है, अपनी-अपनी गलतियों को सुधार ये तीनों अभी भी आदर्श प्रस्तुत कर सकती हैं. देश की राजनीतिक स्वच्छता के लिए यह जरूरी है. माया-मेनका-राबड़ी पहल करें, देश प्रतीक्षारत है.
7 अप्रैल 2009

Monday, April 6, 2009

समाज के अपराधी बन गए माया-मेनका ...!


गलत दोनों हैं. मायावती भी, मेनका भी. पीड़ादायक तो यह कि दोनों महिला हैं. दोनों जिम्मेदार महिला हैं. एक मुख्यमंत्री हैं, तो दूसरी केन्द्रीय मंत्री रह चुकी हैं. फिर इतने गैर-जिम्मेदाराना बयान! निश्चय ही यह दु:खद है कि मायावती को मेनका भ्रष्ट महिला और मौत का सौदागर घोषित कर रही हैं. दु:खद यह भी कि मेनका को मायावती एक गैर-जिम्मेदार मां बता रही हैं. मेनका को नसीहत दे रही हैं कि उन्हें अपने बेटे वरुण को अच्छे संस्कार देना था, मेनका ने ऐसा नहीं किया इसीलिए बेटा वरुण जेल की कोठरी में बंद है.
भारतीय राजनीति का इससे भी अधिक पतन हो सकता है? संसदीय लोकतंत्र का यह एक अत्यंत ही वीभत्स चेहरा है. राजनीति में चुनावों के समय ही नहीं, हमेशा आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहता है, कभी-कभी निम्रस्तर पर उतर कर. लेकिन माया-मेनका का द्वंद्व हर दृष्टि से अशोभनीय है, निंदनीय है. इस वाक्युद्ध के केन्द्रबिन्दु वरुण को लेकर तथ्य आधारित आरोप लगाए जाते, तब योग्यता के आधार पर उन पर राष्ट्रीय बहस होती. शायद तब उपलब्ध तथ्य वरुण के पक्ष में सहानुभूति का कारण बनते. देशवासी वैसे भी वरुण गांधी पर रासुका लगाए जाने से संतप्त हैं. दलीय प्रतिबद्धता से पृथक लोग नाराज हैं. और अब, जब जेल के अंदर वरुण के साथ हो रहे दुव्र्यवहार की खबरें बाहर आ रही हैं, देशवासियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है. जेल में वरुण से मिलने की अनुमति मां मेनका गांधी को नहीं दी जाती. जबकि जेलों में बंद आतंकवादियों से भी उनके परिजानों को मिलने दिया जाता है. क्या वरुण गांधी आतंकवादियों से भी खतरनाक हैं? जेल के अंदर उनके साथ एक सजायाफ्ता कैदी की तरह व्यवहार किया जा रहा है. उन्हें जेल का खाना दिया जा रहा है और खूंखार सजायाफ्ता कैदियों के समीप रखा गया है. चूंकि जेल प्रशासन राज्य सरकार के अधीन है, मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ एक मां मेनका का गुस्सा स्वाभाविक है. वरुण इकलौती संतान है. युवावस्था में विधवा बनीं मेनका गांधी को तब घर से निकाल दिया गया था, जब वरुण दो वर्ष का था. मेनका की पीड़ा कोई भी समझ सकता है. हां, यह जरूर है कि उन्हें अपने गुस्से के इजहार पर नियंत्रण रखना चाहिए था. मायावती को कातिल और मौत का सौदागर तो नहीं ही निरूपित करना चाहिए था. ऐसा करने के बाद उन्हें मायावती की ओर से हुए पलटवार का सामना करने को तैयार रहना चाहिए था.
हां, मायावती ने 'संस्कारÓ की बात कर मेनका को भड़काने की कोशिश अवश्य की. उन्हें भी संयम बरतना चाहिए था. देश की वर्तमान अस्थिर राजनीति सच पूछिए तो एक ऐसे संकट के दौर से गुजर रही है, जो भविष्य के लिए खतरनाक संकेत दे रही है. यह कालखंड सभी राजदलों व सभी नेताओं से संयम की अपेक्षा रखता है. देश किसी की बपौती नहीं. जनता का है यह देश ! जनप्रतिनिधि बन राजनेता शासन चलाने के अधिकारी बनते तो हैं, किन्तु जिम्मेदार वे जनता के प्रति ही हैं. अपने किसी आचरण से इस मूल भावना को चोट पहुंचाने के अपराधी वे न बनें. मायावती और मेनका दोनों इस बिन्दु पर देश के अपराधी बन गए हैं. लोकतंत्र के अपराधी बन गए हैं. जनता के अपराधी बन गए हैं. अब भी बहुत ज्यादा नहीं बिगड़ा. दोनों अपनी-अपनी गलतियों का एहसास कर समाज से माफी मांग लें. अन्यथा आहत समाज समय आने पर उन्हें दंडित करने में पीछे नहीं हटेगा. क्या मायावती और मेनका ऐसा चाहेंगी?
6 अप्रैल 2009

Sunday, April 5, 2009

'बच्चा वरुण' और पवार की चिन्ता...!


खेद है कि शरद पवार अर्धसत्य, वितंडावाद और राजनीतिक अवसरवादिता के दोषी बन गए हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए था. भारतीय राजनीति में बहुत ही ऊंचा कद है पवार का. विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गांधी को चुनौती दे कांग्रेस छोड़ देने का साहस दिखा चुके हैं वे. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सटीक व उपयोगी विचार देने वाले पवार की विद्वता भी समय-समय पर चिह्निïत होती रही है. फिर ऐसी भूल वे कैसे कर बैठे! जयप्रकाश नारायण और वरुण गांधी को लेकर आडवाणी पर ऐसा आरोप कैसे लगा दिया कि उन्होंने वरुण गांधी की तुलना जयप्रकाश नारायण से की है. राजनीति में अक्सर लोग किसी की बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते रहते हैं. साफ कह दूं, जनता ऐसे लोगों को हिकारत की नज़र से देखती है. पवार जैसे कद्दावर व्यक्तित्व के स्वामी के मुख से हल्की बातें शोभा नहीं देतीं. आडवाणी ने कहीं भी, कभी भी वरुण की तुलना जयप्रकाश नारायण से नहीं की है. आइए देख लें, आडवाणी ने असल में कहा था क्या? एक निजी टेलीविजन से साक्षात्कार के दौरान वरुण की गिरफ्तारी व रासुका लगाए जाने पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि ''वरुण की गिरफ्तारी से आपात्काल के उन दिनों की याद ताजा हो जाती है, जब सरकार ने जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए 'मीसा' के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया था.'' आडवाणी ने आगे यह भी कहा कि ऐन चुनाव के मौके पर वरुण पर रासुका लगा कर गिरफ्तार किया जाना अनुचित है. क्या इसे वरुण गांधी को जयप्रकाश नारायण के समकक्ष खड़ा करना माना जा सकता है? कदापि नहीं. आडवाणी ने तो तब और अब की सरकारी मंशा की चर्चा की है. शरद पवार यहां चूक कर बैठे. बल्कि उन्होंने अपने बयान से वरुण गांधी जैसे नौसिखिए को राजनीतिक क्षितिज में ऊंचा आसन दे दिया है. आडवाणी की मंशा कदापि ऐसी नहीं रही होगी. उनके शब्द गवाह हैं. जनता मीमांसा करने में सक्षम है. अगर आडवाणी ने वरुण को जयप्रकाश की बराबरी में बिठाया होता, तो देश की जनता प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री आडवाणी को अभी ही खारिज कर देती. शरद पवार बात का बतंगड़ बनाने के दोषी बन गए हैं. स्वयं को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रस्तुत करने के बाद पवार को शालीनता व गंभीरता का वरण कर लेना चाहिए था. यह देश अपने 'नायक' को एक धीर-गंभीर ओजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी के रूप में देखना चाहता है. साधारण राजनेताओं के छिछोरेपन को जनता पसंद नहीं करती. वरुण को 'छोटा बच्चा' निरूपित कर कोई टिप्पणी नहीं करने संबंधी उनकी बात सभी को जंचती, अगर वे आडवाणी-वरुण-जेपी की गलत चर्चा नहीं करते.
एक तरफ तो पवार बच्चों सरीखा आचरण बता कर वरुण प्रसंग को खारिज कर देना चाहते हैं, दूसरी ओर 'हाथ तोडऩे' संबंधी वरुण के कथित बयान की आलोचना कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश भी करते दिख रहे हैं पवार! यह निम्र स्तर की राजनीतिक अवसरवादिता है. 'बच्चा वरुण' के शब्दों का संज्ञान लेकर पवार स्वयं को 'बज्जा' बना लेंगे! हां, अगर वे किन्हीं अन्य कारणों से नेहरू-गांधी परिवार के इस 'बज्जे' को राजनीति की रोशनी से आज्छादित कर रोशन करना चाहते हों, तब बात अलग है. पवार साहब यह न भूलें कि देश की जनता सबकुछ जानती है.
5 अप्रैल 2009

Saturday, April 4, 2009

टाइटलर मुक्त, सीबीआई कटघरे में!


1984 में सिख विरोधी दंगों के एक वीआईपी अभियुक्त जगदीश टाइटलर को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने क्लीन चिट दे दी है. होना तो यह चाहिए था कि देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी के इस कदम के बाद कोई बहस न हो. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. स्वयं दिल्ली का एक बहुत बड़ा वर्ग टाइटलर को 'बेकसूर' मानने को तैयार नहीं. सीबीआई द्वारा अदालत में दाखिल रिपोर्ट को लोग सही मानने को तैयार नहीं. हो सकता है, ऐसी सोच वाला वर्ग गलत हो. फिर भी इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि टाइटलर के मामले में सीबीआई की भूमिका संदिग्ध है. 'कानून में समानता' का बुनियादी सिद्धांत एक बार फिर तार-तार होता दिख रहा है. जिस जसबीर सिंह के आरोपों को सीबीआई ने अविश्वसनीय व बेकार मान खारिज कर दिया है, उनके आरोपों पर गौर करें. अब कैलिर्फोनिया (अमेरिका) में बसे जसबीर ने हलफनामा दाखिल कर बताया था कि 3 नवंबर 1984 को उन्होंने दिल्ली के सदर इलाके में टाइटलर को दंगाई भीड़ से यह कहते हुए सुना था कि ''.... यहां इतने कम लोग क्यों मारे गए?.... दूसरे इलाके में तो काफी लोग मारे गए.'' कहते हैं कि अपनी रक्षा के लिए जसबीर सिंह सपरिवार अमेरिका चले गए. बाद में ऐसी खबर आई थी कि पर्याप्त सुरक्षा मिलने पर वे गवाही देने को तैयार हैं. कोर्ट के आदेश पर सीबीआई अधिकारी अमेरिका तो गए, किंतु उनके द्वारा दाखिल रिपोर्ट से लोग भौंचक हैं. मामले का सर्वाधिक आश्चर्यजनक पहलू तो सीबीआई रिपोर्ट का 'लीक' होना है. सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट बंद लिफाफे में गुरुवार को अदालत में पेश की. लेकिन मंगलवार को ही मीडिया में यह खबर प्रसारित हो चुकी थी कि सीबीआई ने टाइटलर को क्लीन चिट दे दी है. गुरुवार को अदालत में लिफाफा खुलने पर मीडिया की खबर सच साबित हुई. क्या यह सीबीआई की कार्यप्रणाली पर शक पैदा नहीं करता? पूरे मामले पर गौर करें. सीबीआई कटघरे में खड़ी मिलेगी. 1984 के सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए गठित नानावटी आयोग की सिफारिश पर सीबीआई ने टाइटलर के विरुद्ध मामला दर्ज किया था. जसबीर सिंह ने आयोग के समक्ष उपस्थित होकर टाइटलर के ऊपर रोंगटे खड़े करने वाले आरोप लगाए थे. नानावटी आयोग ने जसबीर की गवाही पर संज्ञान लिया था. सीबीआई ने जांच में टाइटलर को निर्दोष पाया. 29 सितंबर 2007 को सीबीआई ने टाइटलर के विरुद्ध मामले को बंद करने की इजाजत अदालत से मांगी. सीबीआई का कहना था कि दंगों में टाइटलर की लिप्तता का कोई प्रमाण नहीं है. सीबीआई के अनुसार गवाह जसबीर सिंह का कोई अता-पता नहीं मिला. लेकिन इस बीच एक समाचार पत्र ने अमेरिका में जसबीर सिंह के टेलीफोन नंबर के साथ उनसे हुई बातचीत के अंश प्रकाशित कर दिए. जिस जसबीर सिंह को सीबीआई 'बेपता' बता रही थी, उसे समाचार पत्र ने सामने खड़ा कर दिया. अदालती हस्तक्षेप के बाद सीबीआई जसबीर सिंह से पूछताछ के लिए अमेरिका तो गई, किंतु अपनी रिपोर्ट में उसे अविश्वसनीय और बेकार घोषित कर डाला. पूरे मामले से जनता के बीच यही संदेश गया कि सत्ता से जुड़े रसूखदार गंभीर आरोपों के बावजूद बच निकलते हैं- सीबीआई उन्हें बचा लेती है. जगदीश टाइटलर इसके ताजा उदाहरण हैं. यह खेदजनक है कि एक बार फिर सीबीआई की प्रतिष्ठा दागदार हुई है. इस संदर्भ में सिखों के कत्लेआम में शामिल 89 लोगों के खिलाफ आदेश देने वाले अतिरिक्त सेशन जज शिवनारायण धिंगड़ा के शब्दों पर गौर करें. 27 अगस्त 1996 को आदेश जारी करते हुए धिंगड़ा ने टिप्पणी की थी कि ''कानून में समानता के जो बुनियादी सिद्धांत संविधान में निरूपति हैं, वे देश में अब बेअसर हो चुके हैं.... अमीर-असरदार लोगों के खिलाफ मामले या तो अदालतों तक पहुंचते ही नहीं हैं और अगर पहुंचते भी हैं तो कभी-कभार एकाध मामले में ही सुनवाई हो पाती है. इनमें भी पीडि़तों की आवाज अनसुनी होकर रह जाती है. आपराधिक न्याय व्यवस्था ने पीडि़तों की मदद करने से ज्यादा उन्हें चोट पहुंचाई है.'' तो क्या सिख विरोधी दंगों के पीडि़तों की आवाजें भी हमेशा के लिए दबी रह जाएंगी? समान न्याय का बुनियादी सिद्धांत बेकार की 'वस्तु' बनी रहेगी? असरदार समाज और कानून को ठेंगा दिखा अट्टहास करने को स्वतंत्र रहेंगे? समाज- लोकतांत्रिक भारत के विशाल समाज- के इन सवालों का समाधानकारक जवाब कोई कभी देगा?

Friday, April 3, 2009

कसौटी पर धर्मनिरपेक्षता और आस्था!


शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बेचैन न हों. सरकार ने भले ही हिन्दुत्व की बात करने वाले वरुण गांधी पर रासुका लगा दिया हो किन्तु भारत के राष्ट्रपति ने हिन्दुत्व पर मुहर लगा दी है. जी हां, ऐसा ही हुआ है. राष्ट्रपति के कृत्य से धर्म, धर्मनिरपेक्षता और आस्था एक बार फिर शासकीय कसौटी पर है. विगत बुधवार को देशवासियों ने टेलीविजन के पर्दों पर देखा कि किस प्रकार राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने वायुसेना के एक अत्याधुनिक वीवीआईपी जेट विमान में प्रवेश के पूर्व हिन्दू पंडित की मौजूदगी में पूजा-अर्चना की. सामान्य दिनों में शायद इसकी चर्चा नहीं होती. यह एक निहायत निजी आस्था का मामला है. किन्तु जब चुनावी सरगरर्मियों के बीच ऐसी गतिविधियों के खिलाफ चुनाव आयोग कड़े कदम उठा रहा हो तब राष्ट्रपति द्वारा की गई पूजा-अर्चना पर सवालिया निशान लग रहे हैं, तो बिल्कुल ठीक ही. ध्यान रहे कि अवसर व्यक्तिगत अनुष्ठान का नहीं था. हर व्यक्ति अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप पूजा-पाठ के लिए इस देश में स्वतंत्र है. किन्तु यह मामला अलग है. राष्ट्रपति उस संविधान की संरक्षक हैं जिसमें भारत देश को हिन्दू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है. इस तथ्य से सारा देश परिचित है, दोहराने की जरूरत नहीं. जिस विमान के समक्ष राष्ट्रपति नारियल फोड़ रही थीं, तिलक लगा रही थीं, पंडि़त मंत्रोच्चार कर रहा था, वह विमान उनकी निजी संपत्ति नहीं थी. विमान भारत सरकार का था अर्थात उस सरकार का जो धर्म निरपेक्ष है. अगर विमान के लिए पूजा ही आयोजित करनी थी तो वहां पर सिर्फ हिन्दू पंडित को क्यों बुलाया गया? मुस्लिम मौलवी, ईसाई पादरी और सिख ग्रंथी क्यों नहीं बुलाए गए? किसी सरकारी संपत्ति की पूजा सिर्फ हिन्दू पंडित से क्यों कराई गई? यह जिज्ञासा तमाम धर्मनिरपेक्ष भारतीयों की है. बगैर किसी पूर्वाग्रह के हमें प्रतिभा पाटिल से कोई शिकायत नहीं. वहां मौजूद हिंदू पंडित से भी नहीं. हम चर्चा कर रहे हैं धर्मनिरपेक्ष भारत के राष्ट्रपति के एक व्यवहार की. प्रसंगवश मैं याद दिला दूं कि जब एक बार भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन हेतु बनारस गए थे, वहां उन्होंने अपनी आस्था व श्रद्धा के अनुरूप जल से पुजारी के पांव धोए थे. इस बात की खबर मिलने पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति के आचरण पर कड़ा विरोध जताया था. प्रधानमंत्री नेहरू ने पत्र लिखकर डॉ. प्रसाद को याद दिलाया था कि वे देश के राष्ट्रपति हैं, उन्हें पुजारी के पैर नहीं धोने चाहिए थे. डॉ. प्रसाद नेहरूजी की बातों से सहमत नहीं हुए. उन्होंने भी पत्र लिखकर नेहरूजी को स्पष्ट शब्दों में बता दिया था कि काशी विश्वनाथ मंदिर की उनकी यात्रा और पूजा निहायत निजी मामला होने के कारण राष्ट्रपति पद से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. बेशक डॉ. प्रसाद का वह निजी मामला था बावजूद इसके प्रधानमंत्री नेहरू ने आपत्ति दर्ज की थी. वर्तमान मामले में तो मामला सरकारी था. तब देशवासियों की जिज्ञासा अथवा आपत्ति के औचित्य पर क्या कोई सवालिया निशान लगा सकता है?
3 अप्रैल 2009

Thursday, April 2, 2009

'मैं' नहीं, 'लोक' की बात करें राहुल!


चूंकि किस्मत इनके साथ है, सत्ता सिंहासन इन्हें मिलते रहे हैं. शायद इसीलिए नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य इतिहास तो छोडि़ए, प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाली ताजातरीन घटनाओं से भी ये सबक लेने को तैयारी नहीं. विरासत में मिली 'राजनीति' का भरपूर उपयोग करना ये अच्छी तरह जानते हैं. 'परिवार' के आभामंडल से प्रभावित कांग्रेस जन पलक बिछाकर इनके लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं. बावजूद इसके यह सचाई भी तो अपनी जगह कायम है कि 'सत्ता' इनके लिए अब अस्थायी आवास नहीं रह गई है. मीमांसा करने पर कारण तो अनेक मिलेंगे, मुख्य कारण पारिवारिक अहं और चाटुकारिता को प्रोत्साहन है. कांग्रेस अगर बीच-बीच में धराशायी होती रही तो इसी कारण. नेहरू की नई पीढ़ी का 'अज्ञान' भी इन कारणों के फलने-फू लने का सबब बना है. अगर ऐसा नहीं होता तो परिवार के उत्तराधिकारी राहुल गांधी वर्धा के सार्वजनिक संबोधन में 'मैं' का इस्तेमाल नहीं करते. चूंकि यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी पहले से बताए गए तैयार भाषण दिया करते हैं, अधिक दोषी चाटुकार सलाहकार हैं. 'गरीबी हटाओ' का आकर्षक -लोकप्रिय नारा इंदिरा गांधी ने तब दिया, जब उनके नेतृत्व को ही कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिली थी. आज राहुल जब वर्धा में यह कहते हैं कि 'जब तक देश में एक भी गरीब बचा रहेगा, तब तक मैं व सोनिया गांधी गरीबों की आवाज सुनते रहेंगे.', उन्होंने इस कड़ी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम अवश्य लिया. किन्तु सभी जानते हैं कि ऐसा सिर्फ उन्हें फुसलाने के लिए किया गया. वह भी इसलिए, ताकि मनमोहन का इस्तेमाल ढाल के रूप में किया जा सके. राहुल के सलाहकार यहां चूक गए. वे भूल गए कि 'मैं' से 'डिक्टेटर' की बू आती है. लोकतंत्र की आजाद जनता इसे पसंद नहीं करती. उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान राहुल गांधी ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की चर्चा करते हुए यह कह डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार का कोई व्यक्ति तब प्रधानमंत्री होता, तो मस्जिद नहीं गिरती. 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध और बांग्लादेश उदय का श्रेय भी राहुल गांधी ने अपनी दादी इंदिरा गांधी को दे दिया था. नतीजतन उत्तरप्रदेश के उस चुनाव में न केवल कांग्रेस की सीटें घटीं, बल्कि वोट का प्रतिशत भी गिरा. क्या यह बताने की जरूरत है कि मतदाता ने राहुल की बातों को खारिज कर दिया था. देश का लोकतंत्र सामूहिक नेतृत्व का आग्रही है, न कि व्यक्तिवादी नेतृत्व का. सलाहकारों की अज्ञानता (या कुटिलता) की चर्चा के बीच गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी के आत्मघाती तेवर की चर्चा प्रासंगिक होगी. ध्यान रहे, उस काल में देश के सभी राजनीतिक समीक्षक लगभग सहमत थे कि वहां नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली भाजपा का सफाया कर कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी. चुनावी हवा कुछ ऐसी ही बह रही थी. लेकिन तभी सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार को 'मौत का सौदागर' निरूपित कर डाला. रातोंरात सारी फिजा बदल गई. हवा ने रुख पलट लिया. कांग्रेस पराजित हो गई. उत्तरप्रदेश में राहुल की तरह गुजरात की पराजय का दोष सोनिया के सिर मढ़ दिया गया. सोनिया-राहुल ऐसे सलाहकारों से सावधान रहें. उत्तेजक व लुभावने शब्द तालियां तो बटोर लेते हैं, वोट नहीं. और दु:खद पहलू यह कि छवि खराब होती है नेतृत्व की. सलाहकार अपनी कुटिल मुस्कानों के साथ ऐश करते मिल जाएंगे.
2 अप्रैल 2009

Wednesday, April 1, 2009

'छाया' उम्मीदवारों पर भी रोक लगे!


सजायाफ्ता संजय दत्त को लोकसभा चुनाव लडऩे पर रोक लगा कर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रभावी शब्दों में यह संदेश दे दिया है कि कानून सभी के लिए समान है. और, यह भी कि कोई सजायाफ्ता चुनाव नहीं लड़ सकता. अगर अदालतों से सजा प्राप्त लोगों को चुनाव लडऩे की छूट मिलने लगे, तब के परिदृश्य की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाएंगे. जेलों में बंद या कानूनी दांव-पेंच से जेलों से जमानत पर रिहा सजायाफ्ता, जिनमें निश्चय ही खूनी, आतंकवादी, डकैत या अन्य खूंखार अपराधी शामिल होंगे, चुनावी जंग में ताल ठोंकते नजर आएंगे. 'येन-केन प्रकारेण' इनमें से अधिकांश संसद या विधानसभा में पहुंच भी जाएंगे. इनका 'आतंक' इन्हें जीत दिला देगा. ऐसे में देश का कानून बिल्कुल ठीक ही इन तत्वों को चुनाव लडऩे से वंचित रखता है. संजय दत्त को इसका एहसास होना चाहिए. टाडा अदालत ने 'आम्र्स एक्ट' के तहत संजय को दोषी करार दे सजा दी है. सजा से कुछ खोने की पीड़ा ही अपराध से दूर रहने की चेतावनी देती है. समाज में कानून- अदालत के माध्यम से सजा अथवा दंड का प्रावधान ही इसीलिए होता है. ऐसे अदालती आदेशों का सम्मान-आदर होना चाहिए. संजय दत्त के मामले में अदालती फैसले का व्यापक स्वागत स्वाभाविक है. लेकिन इस मुकाम पर एक सवाल शंका के रूप में टीस मार रहा है. क्या सचमुच कानून सभी के लिए समान है? यह शंका इसलिए कि 1979 में संपन्न लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल को इजाजत कैसे दे दी गई थी? मालूम हो कि तब नामांकन दाखिल करते समय तक 'किस्सा कुर्सी का' मामले में इन्हें सजा हो चुकी थी. इनकी अपील सर्वोच्च न्यायालय में लंबित थी- ठीक संजय दत्त की तरह. उन दोनों को चुनाव लडऩे की अनुमति मिली, चुनाव लड़े और चुनाव जीत भी गए. तब सीबीआई के जांच अधिकारी प्रताडि़त भी किए गए थे. सभी के लिए 'समान कानून' और 'न्याय होता हुआ दिखे भी' की अवधारणा पर तब प्रश्नचिह्नï लगे थे. यह उदाहरण इसलिए कि 'वर्तमान' पर 'भूत' का संतप्त अध्याय भविष्य में कभी हावी न हो. राजनीतिक दलों के लिए भी अदालत का यह फैसला एक चेतावनी है. सजा प्राप्त उम्मीदवारों को वे सामने लाने की कोशिश न करें. बल्कि, अगर राजनीति को बाहुबलियों के प्रभाव से मुक्त रखना है तब ऐसे लोगों को राजदल अपने निकट भटकने न दें. पिछले दिनों हत्या समेत अनेक आपराधिक मामलों में सजा प्राप्त बिहार के कुख्यात शहाबुद्दीन की पत्नी हिना को राष्ट्रीय जनता दल ने न केवल अपना उम्मीदवार बनवाया, बल्कि उसके चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत स्वयं राजद सुप्रीमो एवं केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने की. क्या यह बताने की जरूरत है कि पत्नी को सामने रख हत्या के दोषी सजायाफ्ता शहाबुद्दीन स्वयं चुनाव लड़ रहे हैं? कानून की आंखों में धूल झोंक इस 'अनैतिकता' के अपराधी बन गए हैं लालू यादव. ऐसे 'छाया' उम्मीदवारों को भी चुनाव लडऩे से रोका जाना चाहिए. किसी सजायाफ्ता के लिए चुनाव लडऩे पर रोक संबंधी कानूनी प्रावधान की जानकारी क्या राजदलों को नहीं है? संजय के मामले में समाजवादी पार्टी को इस बात का पूरा ज्ञान था कि सर्वोच्च न्यायालय चुनाव लडऩे संबंधी संजय की याचिका को खारिज कर देगा. इसके बावजूद उसने संजय को ले कर उत्तरप्रदेश में जो तामझाम खड़ा कर दिया था, सिर्फ पार्टी पक्ष में माहौल बनाने के लिए. समाजवादी पार्टी ने वस्तुत: कांग्रेसी दत्त परिवार के संजय को कांग्रेस के खिलाफ एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया. संजय को झूठा दिलासा देकर बेवकूफ बनाते रहे. रोड शो और पत्रकार सम्मेलन में प्रस्तुत कर संजय का भावनात्मक शोषण किया गया. संजय समाजवादी पार्टी के जाल में फंस गए. संजय को अब इस बात का एहसास हो चला है कि समाजवादी पार्टी ने उनकी 'लोकप्रियता' को भुनाने की कोशिश की है. फैसले के बाद उनकी यह टिप्पणी कि 'लखनऊ मेरी सीट है, यहां का उम्मीदवार मेरा उम्मीदवार होगा', अर्थपूर्ण है. उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता और फैसले के बाद उत्पन्न सहानुभूति नए उम्मीदवार के पक्ष में निर्णायक साबित हो सकती है.
1 अप्रैल 2009