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Sunday, April 12, 2009

'सच' पर विस्मय क्यों और कब तक?


''.... आप पत्रकार हो, फिर भी सच लिखते हो!'' इसे टिप्पणी कहें या प्रतिक्रिया, इस स्तंभ में प्रकाशित एक आलेख पर एक पाठक ने इन शब्दों को 'मेल' किया है. दिल पर चोट पहुंची, मस्तिष्क असंतुलन के निकट पहुंच गया. पीड़ा इतनी गहरी कि पूरी की पूरी चिंतन प्रक्रिया में उबाल आ गया. क्या हम अर्थात् पत्रकार सच नहीं लिखते? उपर्युक्त प्रतिक्रिया को किसी एक पाठक की सोच नहीं माना जाना चाहिए. निश्चय ही वह समाज में व्याप्त 'पत्रकारीय सच' को प्रस्तुत कर रहा था. उसने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अगर 'सच' प्रस्तुत किया है, तब पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी कटघरे में है. ऐसी दुरूह अवस्था में कैसे पहुंच गए हम? निश्चय ही दोषी और कोई नहीं, हम स्वयं हैं. जिन 'व्याधियों' के लिए हम पत्रकार प्रतिदिन राजदलों और राजनेताओं की आलोचना करते रहते हैं, क्या वे 'व्याधियां' बिरादरी में अपनी गहरी पैठ नहीं बना चुकी हैं? 'ब्लॉग' के वर्तमान युग में बेबाकी से लिखने-बोलने वाले हर दिन ऐसे उदाहरण पेश कर रहे हैं, जो प्रमाण हैं हमारे पतन के. एक अवसर पर प्रख्यात पत्रकार-चिंतक कुलदीप नैयर ने टिप्पणी की थी, ''....आज देश की दुर्दशा के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो ये पालिटिशियन, ....मैंने इन्हें बहुत नजदीक से नंगा देखा है.'' उस कार्यक्रम में तब मैंने श्री नैयर की बातों को आगे बढ़ाते हुए यह जोड़ दिया था, ''.... जिम्मेदार पालिटिशियन तो हैं ही, किन्तु हम पत्रकार भी उनसे कम जिम्मेदार नहीं हैं.... मैंने भी पत्रकारों को बहुत नजदीक से नंगा देखा है.'' सच यही है. आज की राजनीति और व्यवस्था में हम किस भूमिका में हैं? 'गोलकीपर' बन कर पक्ष-विपक्ष में बंट कर हम उनकी रक्षा नहीं करने लगे हैं? हमारी भूमिका तो 'रेफरी' सदृश होनी चाहिए थी. बचाव करने वाले 'गोलकीपर' क्यों बन गए हम? हमने अपने घर को विभाजित क्यों होने दिया? बिरादरी इस पर चिंतन-मनन करे. हमारी कृति, कर्तृत्व और कीर्ति दांव पर लगी हैं. संदिग्ध बन गए हैं हम. इतना कि लोगबाग यह मानने को तैयार नहीं कि कोई पत्रकार सच लिख रहा है- लिख सकता है. इस अवस्था को हम समाज का बौद्धिक पतन निरूपित नहीं कर सकते. यह तो एक सहज सामाजिक जिज्ञासा है. समाधान प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी हमारी है. क्या पाठकों के सामने हम सच और सिर्फ सच नहीं परोस सकते? मैं नहीं समझता कि कोई पत्रकार ऐसी हिम्मत से वंचित है. अपने हौलखौल देखता हूं, बिरादरी के मित्रों-सहयोगियों से चर्चा करता हूं, तब 'मजबूरी' का शब्द उछाल दिया जाता है. समाज में जीने की मजबूरी, परिवार पालने की मजबूरी. यह एक कठोर व कड़वा सच तो है, किन्तु शाश्वत कदापि नहीं. 'मजबूर' करने वाला भी तो हाड़-मांस निर्मित मानव ही है! उसके पास भी दिल है, मस्तिष्क है, बुद्धि है. प्रतिदिन शब्दों से खेलने वाले इतने निपुण तो होने ही चाहिए कि वे सकारात्मक पहल कर मजबूरी से निजात पा सकें- बगैर किसी कटुता के, बगैर किसी टकराव के. मजबूरी को बहाना बना कर पतन के गर्त में गिर मुंह-हाथ पर कालिख लगा लेना पत्रकारिता नहीं है. समाज आज भी देश की दिशा-दशा के कुशल वाहक के रूप में पत्रकार और पत्रकारिता को देखना चाहता है. यह हमारी दिशाभूल है कि वह कभी-कभी हम पर सार्वजनिक संदेह प्रकट कर बैठता है. लेकिन उसकी चाहत है कि हम अपने ईमानदार कर्तव्य निष्पादन के द्वारा विश्वसनीय बने रहें. यह व्यर्थ का प्रलाप नहीं, तटस्थ आत्मचिंतन से निकले शब्द हैं ये. एक ही चाहत है, बिरादरी पर कोई संदेह की कालिख न पोते. हमारी निडरता पर कोई संदेह न करे. शपथ लें, हम सच और सिर्फ सच लिखेंगे. इतना कि भविष्य में कोई पाठक ऐसे 'सच' पर विस्मय न प्रकट करे.
2 अप्रैल 2009

4 comments:

श्यामल सुमन said...

दीप्ती मिश्र की पँक्तियाँ हैं कि-

सच को मैंने सच कहा जब कह दिया तो कह दिया।
अब जमाने की नजर में ये हिमाकत है तो है।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अजित गुप्ता का कोना said...

पत्रकारों को इस कटु सत्‍य को समझना ही नहीं चाहिए उसे सुधारने की ओर भी बढ़ना चाहि‍ए। आज केवल पीतपत्रकारिता ही वे कर रहे हैं। किसी का भी चरित्र-हनन करना उनका उद्देश्‍य रह गया है। ऐसा झूठ वे परोसते हैं जिसकी कल्‍पना तक नहीं होती। आज सबसे अधिक इस देश को खतरा है तो ऐसे पत्रकारों से ही है। राजनेता तो अब इनके आगे चिलम भरते हैं।

anandsingh said...

chunav ke is mausam men patrakaron ki asliyat samne aa rahi hai. sach kis chidiya ka naam hai, ye patrakar shayad jante bhi na hon. paise leker paid news ke naam se khabar chhapna hi hamari patrakarita hai kya?

Unknown said...

आज के युग में पत्रकारिता का गंदा और घिनौना स्वरूप देखने को मिल रहा है। आज संपादक, वास्तव में संपादक के स्थान पर मैनेजरों की भूमिका में आ गए है। पत्रकार भी अपने मूल मिशन से इतर अन्य कामों में जुट गए है।
मेरे विचार में यह स्थिति इसलिए निर्मित हुई है क्योंकि मीडिया की कमान अब पत्रकारों के स्थान पर व्यवसाईयों के हाथों में चली गई है। समाचार पत्रों के प्रधान संपादक आज धनाड्य व्यवसाई बन गए हैं, जो पत्रकारों का उपयोग जनता के बजाए अपने हित साधने में ज्यादा कर रहे हैं।
आज आवश्यक्ता इस बात की है कि पत्रकारिता पढा रहे संस्थानों को चाहिए कि वे पत्रकारों को वास्तविक पत्रकारिता और पत्रकारिता के सिद्धांतों को विस्तार से समझाएं। साथ ही अगर अब भी मीडिया नहीं संभला तो आने वाले समय में प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ ढेर होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा
लिमटी खरे
9311119312
9425011234