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Wednesday, April 1, 2009

'छाया' उम्मीदवारों पर भी रोक लगे!


सजायाफ्ता संजय दत्त को लोकसभा चुनाव लडऩे पर रोक लगा कर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रभावी शब्दों में यह संदेश दे दिया है कि कानून सभी के लिए समान है. और, यह भी कि कोई सजायाफ्ता चुनाव नहीं लड़ सकता. अगर अदालतों से सजा प्राप्त लोगों को चुनाव लडऩे की छूट मिलने लगे, तब के परिदृश्य की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाएंगे. जेलों में बंद या कानूनी दांव-पेंच से जेलों से जमानत पर रिहा सजायाफ्ता, जिनमें निश्चय ही खूनी, आतंकवादी, डकैत या अन्य खूंखार अपराधी शामिल होंगे, चुनावी जंग में ताल ठोंकते नजर आएंगे. 'येन-केन प्रकारेण' इनमें से अधिकांश संसद या विधानसभा में पहुंच भी जाएंगे. इनका 'आतंक' इन्हें जीत दिला देगा. ऐसे में देश का कानून बिल्कुल ठीक ही इन तत्वों को चुनाव लडऩे से वंचित रखता है. संजय दत्त को इसका एहसास होना चाहिए. टाडा अदालत ने 'आम्र्स एक्ट' के तहत संजय को दोषी करार दे सजा दी है. सजा से कुछ खोने की पीड़ा ही अपराध से दूर रहने की चेतावनी देती है. समाज में कानून- अदालत के माध्यम से सजा अथवा दंड का प्रावधान ही इसीलिए होता है. ऐसे अदालती आदेशों का सम्मान-आदर होना चाहिए. संजय दत्त के मामले में अदालती फैसले का व्यापक स्वागत स्वाभाविक है. लेकिन इस मुकाम पर एक सवाल शंका के रूप में टीस मार रहा है. क्या सचमुच कानून सभी के लिए समान है? यह शंका इसलिए कि 1979 में संपन्न लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल को इजाजत कैसे दे दी गई थी? मालूम हो कि तब नामांकन दाखिल करते समय तक 'किस्सा कुर्सी का' मामले में इन्हें सजा हो चुकी थी. इनकी अपील सर्वोच्च न्यायालय में लंबित थी- ठीक संजय दत्त की तरह. उन दोनों को चुनाव लडऩे की अनुमति मिली, चुनाव लड़े और चुनाव जीत भी गए. तब सीबीआई के जांच अधिकारी प्रताडि़त भी किए गए थे. सभी के लिए 'समान कानून' और 'न्याय होता हुआ दिखे भी' की अवधारणा पर तब प्रश्नचिह्नï लगे थे. यह उदाहरण इसलिए कि 'वर्तमान' पर 'भूत' का संतप्त अध्याय भविष्य में कभी हावी न हो. राजनीतिक दलों के लिए भी अदालत का यह फैसला एक चेतावनी है. सजा प्राप्त उम्मीदवारों को वे सामने लाने की कोशिश न करें. बल्कि, अगर राजनीति को बाहुबलियों के प्रभाव से मुक्त रखना है तब ऐसे लोगों को राजदल अपने निकट भटकने न दें. पिछले दिनों हत्या समेत अनेक आपराधिक मामलों में सजा प्राप्त बिहार के कुख्यात शहाबुद्दीन की पत्नी हिना को राष्ट्रीय जनता दल ने न केवल अपना उम्मीदवार बनवाया, बल्कि उसके चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत स्वयं राजद सुप्रीमो एवं केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने की. क्या यह बताने की जरूरत है कि पत्नी को सामने रख हत्या के दोषी सजायाफ्ता शहाबुद्दीन स्वयं चुनाव लड़ रहे हैं? कानून की आंखों में धूल झोंक इस 'अनैतिकता' के अपराधी बन गए हैं लालू यादव. ऐसे 'छाया' उम्मीदवारों को भी चुनाव लडऩे से रोका जाना चाहिए. किसी सजायाफ्ता के लिए चुनाव लडऩे पर रोक संबंधी कानूनी प्रावधान की जानकारी क्या राजदलों को नहीं है? संजय के मामले में समाजवादी पार्टी को इस बात का पूरा ज्ञान था कि सर्वोच्च न्यायालय चुनाव लडऩे संबंधी संजय की याचिका को खारिज कर देगा. इसके बावजूद उसने संजय को ले कर उत्तरप्रदेश में जो तामझाम खड़ा कर दिया था, सिर्फ पार्टी पक्ष में माहौल बनाने के लिए. समाजवादी पार्टी ने वस्तुत: कांग्रेसी दत्त परिवार के संजय को कांग्रेस के खिलाफ एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया. संजय को झूठा दिलासा देकर बेवकूफ बनाते रहे. रोड शो और पत्रकार सम्मेलन में प्रस्तुत कर संजय का भावनात्मक शोषण किया गया. संजय समाजवादी पार्टी के जाल में फंस गए. संजय को अब इस बात का एहसास हो चला है कि समाजवादी पार्टी ने उनकी 'लोकप्रियता' को भुनाने की कोशिश की है. फैसले के बाद उनकी यह टिप्पणी कि 'लखनऊ मेरी सीट है, यहां का उम्मीदवार मेरा उम्मीदवार होगा', अर्थपूर्ण है. उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता और फैसले के बाद उत्पन्न सहानुभूति नए उम्मीदवार के पक्ष में निर्णायक साबित हो सकती है.
1 अप्रैल 2009

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