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Tuesday, April 27, 2010

लोकतंत्र के दुश्मन, विश्वासघाती ये जनप्रतिनिधि!

'चोर-चोर मौसेरे भाई' की कहावत को सार्थक करते हुए हमारे कथित निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने एक बार फिर 'नापाक राजनीतिक सौदेबाजी' का घृणित, बेशर्म मंचन किया है। कठोर शब्दों के इस्तेमाल के लिए क्षमा करेंगे। मैं मजबूर हंू अपने राष्ट्रीय दायित्व को लेकर, निर्भीक, ईमानदार पाठकीय मंच की पवित्रता को लेकर। इसी स्तंभ में मैंने पिछले 25 अप्रैल को कांग्रेस और मायावती की बसपा के बीच 'लव डील' की आशंका व्यक्त की थी। संसद में सरकार के विरुद्ध भाजपा-वामपंथी दलों के कटौती प्रस्ताव पर मायावती के साथ कांग्रेस अर्थात्ï सरकार की उक्त 'डील' हुई थी। मायावती को तैयार कर लिया गया था कि वे कटौती प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेंगी। ऐसा ही हुआ। जिस मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी को कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी, महामंत्री राहुल गांधी, उत्तर प्रदेश के प्रभारी महामंत्री दिग्विजय नारायण सिंह, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा आदि पानी पी-पी कर भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति निरूपित करते आए हैं, उत्तरप्रदेश की बसपा सरकार को भ्रष्टाचार में लिप्त और नकारा बताते आए हैं, उसी की मदद लेने को मजबूर कांग्रेस और केंद्र सरकार ने क्या दिया, क्या देगी? इसी तरह केंद्र सरकार और कांग्रेस को भ्रष्ट, नकारा और पूर्वाग्रही बताती रहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी को निशाने पर लेती रहीं, केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने का संकल्प दोहराते रहीं मायावती आज केंद्र सरकार को बचाने के लिए ढाल कैसे बन गईं? 'माया' की दुनिया को एक यथार्थ के रूप में स्वीकार करने वाली मायावती मुफ्त में ऐसा नहीं कर सकतीं। जाहिर है 'डील' संपन्न हुआ है। कांगे्रस, सरकार और मायावती के इन्कार को देश स्वीकार नहीं करेगा। लोकतंत्र की पवित्र अवधारणा की बखिया उधेडऩे वाले ये लोग जन-प्रतिनिधि कहलाने लायक तो कतई नहीं। ये तो देश व लोकतंत्र के गद्दार हैं। एक-दूसरे को भ्रष्ट कहनेवाले जब हाथ मिलाते हुए एक मंच पर आते हैं, तब निश्चय ही परदे के पीछे अनैतिक 'डील' के बाद ही। यह जनता के साथ विश्वासघात है। लोकतंत्र के साथ विश्वासघात है। भ्रष्टाचार और भयादोहन की इस शासकीय स्वीकृति को जनता कब तक बर्दाश्त करेगी? सत्ता में बने रहने के लिए ऐसी अनैतिकता का सहारा लेना वस्तुत: लोकतंत्र और आम जनता को मुंह चिढ़ाना है। जनता के साथ दगाबाजी के हमाम में कांग्रेस, बसपा ही नहीं, मुलायम की समाजवादी पार्टी और लालू का राष्ट्रीय जनता दल भी नंगे खड़े दिख रहे हैं। ये सभी अवसरवाद और भयादोहन के शिकार बन गए हैं। ये इनका भ्रष्टाचार ही है, जिसका भय दिखा सत्तापक्ष इन्हें अपने काबू में कर लेता है। बिल्कुल एक 'ब्लैकमेलर' की तरह। क्या यह बताने की जरूरत है कि 'ब्लैकमेल' किसका किया जा सकता है और कौन कर सकता है। जनता के साथ ऐसा छल करने वाले चाहे तकनीकी तौर पर जितने पाक-साफ दिखें, भ्रष्ट हैं, बेईमान हैं, गद्दार हैं। नियति चाहे जितना समय ले ले, एक दिन ऐसा आएगा जब गलियों में, सड़क-चौराहों पर इन्हें नंगा कर जनता हिसाब मांगेगी। बात राजनीतिक भयादोहन की हो रही है तब एक उदाहरण देना चाहूंगा। 1969 में जब कांगे्रस दो-फाड़ हुई तब बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री, दबंग राजनेता कृष्णवल्लभ सहाय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ चले गए थे। सहाय के दाहिने हाथ रामलखन सिंह यादव बिहार में मंत्री थे। रौबदार यादव की तब बिहार में तूती बोलती थी। एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें दिल्ली बुलाया। बातचीत के दौरान इंदिराजी ने यादव की ओर एक फाइल बढ़ाते हुए कहा कि 'आईबी की एक रिपोर्ट आपके संबंध में आई है...... , इसे देखें।' कहते हैं उस फाइल को देखने के बाद दिल्ली की ठंडक में भी रामलखन यादव के पसीने छूट गए। इंदिराजी का चरणस्पर्श कर यादव पटना वापस लौटे और कृष्णवल्लभ सहाय के साथ अपने संबंध विच्छेद की घोषणा कर दी। उस सहाय के खिलाफ गए यादव, जिन्होंने रामलखन यादव को न केवल राजनीति में लाया था बल्कि अपना विश्वस्त भी बनाया था। साफ है कि राजनीतिक 'ब्लैकमेलिंग' का इतिहास पुराना है।

एक अकेले ललित मोदी 'विलेन' कैसे

बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर एक भले मानुस हैं। नामी वकील हैं। परिवार का सांस्कृतिक पाश्र्व सुखद एवं अनुकरणीय है। स्वभाव से शांत, शालीन और सभी के लिए स्वीकार्य हैं। सार-संक्षेप यह कि शशांक मनोहर किसी को नुकसान नहीं पहुंचाने वाले एक सज्जन व्यक्ति हैं। यही कारण है कि उन्हें नजदीक से जानने वाला हर व्यक्ति आश्चर्यचकित है कि उन्होंने आईपीएल के अध्यक्ष ललित मोदी पर आक्रामक ढंग से एक नहीं, 22 गंभीर आरोप कैसे लगा दिए? अगर बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपने दायित्व का निर्वाह किया है तब यह स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि पिछले दो वर्षों से बीसीसीआई और उससे जुड़े अन्य पदाधिकारी मोदी के मामले में मौन क्यों रहे? अगर वित्तीय अनियमितता, टीमों की नीलामी, रिश्तेदारों को लाभ पहुंचाने तथा सट्टïेबाजी के लिए मोदी को दोषी ठहराया जा रहा है तब यह तो तय है कि ये गड़बडिय़ां एक दिन की उपज नहीं हैं! और फिर एक अकेले ललित मोदी को इन सारी अनियमितताओं के लिए दोषी कैसे निरूपित किया जा सकता है? अगर वित्तीय अनियमितता हुई है तब इन मामलों की देखरेख करने वाले वित्तीय अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई? फ्रेंचाइजी, प्रसारण अधिकार संबंधी निर्णय के लिए आईपीएल की संचालन परिषद को जिम्मेदार क्यों न माना जाए? इन मामलों पर संचालन परिषद ने स्वीकृति की मुहर लगाई थी। फिर अकेले मोदी कैसे दोषी हुए? नीलामी के संबंध में यह बात सामने आ चुकी है कि बीसीसीआई के कार्यालय से बोली लगाने वाली टीम को अवश्य पूर्व जानकारियां प्रेषित की गई थीं। बल्कि यह सच तो सामने है कि शशि थरूर के मामले को स्वयं ललित मोदी ने ही उजागर किया था। लोग यह नहीं भूले हैं कि पिछले दो आईपीएल आयोजनों की सफलता के पश्चात इसी बीसीसीआई के इन्हीं पदाधिकारियों ने सारा श्रेय इसी ललित मोदी को दिया था। मोदी की प्रशंसा में कशीदे काढ़े जाते रहे थे। अब अचानक रातोरात ये अकेले विलेन कैसे बन गए? जिस प्रकार अर्धरात्रि में कार्रवाई करते हुए बीसीसीआई ने मोदी को निलंबित किया है उससे बीसीसीआई संदिग्ध बन गई है। कार्रवाई नैसर्गिक न्याय की भावना के खिलाफ है। दो केंद्रीय मंत्रियों के रिश्तेदारों की भूमिकाएं संदिग्ध रूप में सामने आ चुकी हैं। बीसीसीआई ने इनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? अपने मंत्री शशि थरूर का इस्तीफा लेने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अन्य दो केंद्रीय मंत्रियों की इस मामले में लिप्तता के बावजूद मौन क्यों हैं? बात यहीं खत्म नहीं होती। महान खिलाड़ी सुनील गावस्कर, नवाब पटौदी और रवि शास्त्री आईपीएल की संचालन परिषद के सदस्य हैं। इतने दिनों तक ये चुप क्यों रहे? बीसीसीआई ने तो इन्हें नई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे दी है! बीसीसीआई व आईपीएल से गायब महत्वपूर्ण दस्तावेजों की जांच की जिम्मेदारी जिस व्यक्ति को दी गई है, क्या वे स्वयं संदिग्ध नहीं हैं? शशांक मनोहर एक नामी-गिरामी वकील के नाते इन पेचीदगियों से अनजान नहीं हो सकते। क्या मनोहर किसी कारणवश दबाव में हैं? मजबूर हैं? शायद सच यही है। व्यक्तिगत पारिवारिक संबंध इनके न्याय के मार्ग में अवरोध पैदा कर रहे हैं। आज पूरा देश एकमत है कि आईपीएल का महाघोटाला बीसीसीआई की नाक के नीचे हुआ है और इसके लिए अकेले ललित मोदी नहीं, अध्यक्ष सहित बीसीसीआई के सारे पदाधिकारी जिम्मेदार हैं। आखिर कब तक हमारे देश में हर मामले में बलि का बकरा ढूंढे जाने का खेल चलता रहेगा? लोग अभी भूले नहीं हैं जब महान खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जड़ेजा को एक मामले में बलि का बकरा बना उनके क्रिकेट कैरियर को खत्म कर दिया गया था। क्या कभी बंद नहीं होगा यह सिलसिला?

Sunday, April 25, 2010

अवसरवाद, समझौता, समर्पण के ये 'पापी'!

क्या सत्ता में बने रहने का एकमात्र मार्ग अवसरवादी अनैतिक समझौता है? यह सवाल आज हृदय को वेध रहा है। देश के एक सामान्य नागरिक के रूप में मेरे सरीखे अनेक लोग इस सवाल का ईमानदार जवाब चाहेंगे। हां, ईमानदार जवाब चाहिए। क्या कोई जवाब के लिए आगे आएगा? 'हमाम में तो सभी नंगे' एक मुहावरा है। लेकिन ऐसा क्यों कि आज राजनीति का अखाड़ा हो, खेल का मैदान हो, व्यवसाय का दालान हो, शिक्षा का प्रांगण हो, उद्योग का विशाल परिसर हो या फिर मनोरंजन का महत्व, सभी जगह घोर निजी स्वार्थ से उपजा 'पाप' पूरी आभा के साथ विराजमान है। 'पाप' के साथ आभा जोडऩे के लिए क्षमा करेंगे। लेकिन ऐसे पापों के जनक और पोषकों को जब समाज में महिमा मंडित होते देखता हूं तब ऐसी मजबूरी पैदा हो जाती है। सर्वाधिक पीड़ादायक तथ्य यह कि ऐसे सभी पापों के सूत्र राजनीति से जुड़े होते हैं। राजनीति अर्थात्ï सत्ता की राजनीति-सत्ता वासना की पूर्ति के लिए 'पाप' की राजनीति। राजनीतिक समझौते व समर्पण निश्चय ही प्रतिदिन पाप को जन्म दे रहे हैं। सुशिक्षित-सभ्य समाज की अवधारणा को मुंह चिढ़ाने वाले आज के राजनीतिक तो समाज व देशसेवा की परिभाषा ही बदलने में जुट गए हैं। पिछले कुछ दिनों से चर्चित क्रिकेट महाघोटाले में जब सत्ता में मौजूद बड़े नाम बेनकाब होने लगे तब उनके बचाव के लिए समझौते का नया खेल शुरू हुआ। साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाई जा रही है। सिर्फ इसलिए कि कहीं सत्ता सिंहासन खिसक न जाए। दिखाने के लिए एक कनिष्ठ राज्यमंत्री शशि थरूर की बलि ले ली गई। लेकिन उनसे कहीं अधिक दोषी कद्दावर मंत्रियों पर हाथ डालने की हिम्मत प्रधानमंत्री नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या सिर्फ इस भय से नहीं कि ऐसा करने पर सरकार का पतन हो सकता है? बिल्कुल इसीलिए। सत्ता देवी को अंकशायनी बनाए रखने के लिए वही समझौता। क्रिकेट प्रबंधन के बड़े खिलाड़ी ललित मोदी अपनी जुबान खोल देने की धमकियां देकर भयादोहन को रेखांकित कर रहे हैं। भारत का पूरा का पूरा क्रिकेट प्रबंधन नंगा होने के भय से मोदी को मौन रखने के हर हथकंडे अपना रहा है। आयकर प्रर्वतन निदेशालय, पुलिस आदि सरकारी यंत्रणाओं का इस्तेमाल कर डराने-धमकाने की कोशिश और क्रिकेट की लुभावनी दुनिया में कायम रखने का प्रलोभन। फिर वही अवसरवादी उपक्रम! बता दूं कि इस पूरे के पूरे नाटक में नायक-नायिका, खलनायिका, विदूषक सभी के सूत्र सत्ता की राजनीति से जुड़े हैं। जी हां! अगर निष्पक्ष-ईमानदार जांच हो तो यह सच अनावृत हो जाएगा।
एक और अवसरवादी राजनीतिक पाप की दास्तान, वह भी सत्ता में बने रहने के लिए। कांग्रेस के नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ एक 'प्रेम करार' किया है। अंग्रजी में इसे 'लव डील' कहते हैं। पूरी तरह अवसरवादी भाजपा व वामपंथी दलों के प्रस्तावित वित्त विधेयक पर संसद में कटौती प्रस्ताव पर मतदान की स्थिति में मायावती की बहुजन समाज पार्टी के 21 विधायक अनुपस्थित रहेंगे। सरकार बच जाएगी, एवज में मायावती के ऊपर चल रहे भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में केंद्र सरकार उन्हें राहत देगी। अर्थात्ï भ्रष्ट मायावती भी बच जाएंगी। सत्ता में बने रहने के लिए लेन देन के ऐसे पाप के उदाहरणों से भारतीय राजनीति का इतिहास पटा हुआ है। मनमोहन सिंह की पिछली सरकार जब अमेरिका के साथ परमाणु करार ऊर्जा के मुद्दे पर पतन के मुहाने पर पहुंच चुकी थी तब सत्ता पक्ष के प्रबंधकों ने समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह को ऐसे ही अपने पक्ष में कर लिया था। फिर वही सवाल जेहन में कौंध जाता है कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में क्या पक्ष और विपक्ष, दोनों मिलकर मतदाता अर्थात्ï देश के साथ विश्वासघात नहीं कर रहे हैं? हां यह देश और देश के लोकतंत्र के साथ विश्वासघात ही है। अगर यह 'पाप' वर्तमान का शाश्वत सत्य बन चुका है तब क्यों न शब्दकोष से सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, विश्वास, मूल्य, नैतिकता आदि को निकाल फेंकें? क्या जरूरत है इनकी? जब देश को लूट रहे भ्रष्ट अवसरवादी ही देश की सत्ता पर काबिज होते रहेंगे, तब इन शब्दों की मौजूदगी के क्या औचित्य! लोकतंत्र के नाम पर 'लोक' के साथ विश्वासघात का 'पाप' अस्थायी वेदना देता रहेगा।

Saturday, April 24, 2010

संस्कृति के साथ ये कैसा बलात्कार!

माफी चाहता हूं। आईपीएल के गंदले पानी को आज फिर खंगालना पड़ रहा है। यह जरूरी है। इसलिए कि हम जिस महान संस्कृति की धरोहर की गाथा गाकर विश्व समुदाय में भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं उस संस्कृति की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। यह भारत की प्राचीन महान सभ्यता और संस्कृति ही है जो विगत हजारों वर्षों में अनेक विदेशी आक्रमणों के बावजूद कायम रही। इससे रौंदने के सभी प्रयास विफल रहे। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारी इस महान संस्कृति से आकर्षित अनेक देशों के नागरिकों ने भारत का रुख किया। नजदीक से देखा, परखा, शोध-मंथन किया और हमारी संस्कृति-सभ्यता का अनुकरण किया। लेकिन यह सत्य भी मौजूद है कि पश्चिम के देश हमारी इस महान सभ्यता-संस्कृति के प्रति इष्र्यालु हैं। वे उसका मर्दन चाहते हैं। समय-समय पर आपत्तिजनक हथकंडे अपनाने से भी बाज नहीं आते।
आपातकाल के दिनों से शक्तिशाली संजय गांधी ने देश के महानगरों में 'कैसीनो' (जुआघर) खोलने का इरादा जताया था। तब स्वयं कांग्रेस पक्ष के अनेक नेताओं के विरोध का संज्ञान लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। लेकिन आज? क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष, विरासत में प्राप्त अपनी महान सभ्यता-संस्कृति की नीलामी के पक्ष में तत्पर दिख रहे हैं, बोलियां लगवा रहे हैं! नैतिकता का यह कैसा पतन! एक सीमा तक धन का स्वागत तो जायज है। किंतु मर्यादा के पार नहीं। आईपीएल का नंगा नाच प्रमाण है कि हमारे देश के राजनेता, उद्योगपति, अभिनेता, खिलाड़ी व कथित समाज सेवी धन अर्जित करने के लिए चौराहों पर निर्वस्त्र बोलियां लगवाने को तत्पर हैं। यह वर्ग इस कठोर सत्य को भूल गया है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। और हमने अपने लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया है जो सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने के प्रति समर्पित है। वे यह भी भूल गये हैं कि उनका ऐश्वर्य, शान-शौकत, अमीरी की चमक, आम जनता की गाढ़ी कमाई की देन है। आम जनता तो ईमानदारी से टैक्स अदा कर देती है, किंतु यह वर्ग धूर्त बेईमानों की तरह तिकड़म कर टैक्स की चोरी करता है और उन पैसों से ही हमारी संस्कृति के साथ बलात्कार करता है। निश्चय ही यह वर्ग देश का गद्दार है। आईपीएल के महाघोटाले अथवा नंगे नाच की जो तस्वीरें छन-छन कर सामने आ रही हैं, वे हृदय विदारक हैं। पूरे देश को शर्मिंदगी के गर्त में धकेलने वाली हैं। क्रिकेट एक खेल, जिसके आयोजनों को सरकार सुरक्षा प्रदान करती है, टैक्स में राहत देती है, उस खेल को बाजारू बना देने वालों को दंड तो मिलना ही चाहिए। एक खबरिया चैनल ने आज शुक्रवार को आईपीएल के मैच के बाद कोलकाता में हुई 'विलंब रात्रि पार्टी' के कुछ दृश्य प्रसारित किये हैं। आपत्तिजनक अश्लील ये दृश्य प्रमाणित करते हैं कि क्रिकेट को सचमुच एक 'धंधा' बना डाला गया है। एक ऐसा धंधा जिसमें अनैतिकता है, अश्लीलता है, बईमानी है, छलकपट है। रिश्तों को तार-तार करती नंगई है। क्या इसे हम स्वीकार कर लें? जनता की निर्वाचित सरकार यह तय करे। खबर है कि पिछले दो माह में आईपीएल की 55 पार्टियों पर 24 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इसी अवधि में इन पार्टियों में 27 हजार लोगों ने शिरकत की और 27 हजार शराब की बोतलें खोली गईं। ये पार्टियां केवल आयोजकों या खिलाडिय़ों के लिए ही नहीं बल्कि वैसे लोगों के लिए भी खुली हैं जो मैच और पार्टी के लिए 34 हजार रुपये की एक टिकट खरीदने की ताकत रखते हैं। खबरिया चैनल ने ऐसी पार्टियों की हकीकत को बेपर्दा किया है। चैनल ने दिखाया एक मशहूर अभिनेत्री को एक विदेशी खिलाड़ी के साथ अश्लील नृत्य करते हुए। बिकाऊ ऐसी पार्टियों में बिकाऊ लोगों की शिरकत में, मंचन तो अश्लीलता का ही होगा।
पीड़ा तो इस बात की है कि इंग्लैंड और ऑस्टे्रलिया की ऐसी गंदगी के भारत में आयात के दोषी क्रिकेट के वे संयोजक हैं जो भारत सरकार में भी महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं। अब और विलंब न हो। जांच परिणाम जब आएंगे तब आएंगे, क्रिकेट को राजनीतिकों और उद्योगपतियों के चंगुल से तत्काल मुक्त कराया जाए। भारतीय संस्कृति को रौंदने वालों को क्षमा तो कदापि ना मिले। वे देश के अपराधी हैं।

Friday, April 23, 2010

क्रिकेट हमाम के ये नंगे!

क्रिकेट की इस कालिमा ने सच पूछिए तो पूरी की पूरी केंद्र्र सरकार को नंगा कर डाला है । अब इसे कोई कथित गठबंधन युग का दुष्परिणाम कह ले या वर्तमान राजनीति में प्रविष्ट भ्रष्टाचार की अति। यह सच चिन्हित हुआ कि चरित्र, नैतिकता, मूल्य, सिद्धान्त, आदर्श, ईमानदारी सभी को हमारे राजनैतिकों ने निगल डाला है। सामने कुछ शेष है तो सत्ता लोलुप्ता, धन-लिप्सा, व्यसन और ऐश्वर्य। इसके लिए आज का हमारा कथित 'पॉलिटीशियन्स' बेशर्मों की तरह नंगा नाचने को तैयार है। आईपीएल और बीसीसीआई विवाद से निकलकर जो तथ्य बाहर आ रहे हैं वे न केवल क्रिकेट बल्कि भारतीय राजनीति के विदु्रप हो चुके चेहरे की पुष्टि कर रहे हैं। अकादमिक क्षेत्र में गौरवशाली उपलब्धियां प्राप्त शशि थरूर अगर इस विवाद की बलि चढ़े हैं, तो इन्ही कारणों से।
सत्ता लिप्सा, धन लिप्सा और कामिनी आकर्षण के वशीभूत थरूर अपने भारत देश के अपेक्षा को भूल गए थे। लेकिन थरूर इस खेल के अकेले खिलाड़ी नहीं थे। जिस प्रकार कुछ अन्य प्रभावशाली नेताओं के पांव इस दलदल में फंसे दिखने लगे हैं, उससे तो यही साबित होता है कि इन लोगों ने राजनीति और सत्ता के माध्यम से पूरे देश को 'दुष्कर्म प्रभावित' स्वरूप दे देने का ठेका ले लिया है। क्रिकेट से जुड़े गैर-खिलाड़ी शासकों ने तो ऐसा लगता है, जैसे देश के लोगों को स्थायी मूर्ख समझ लिया है। निजी संस्था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष शशांक मनोहर, आईपीएल के चेयरमैन ललित मोदी पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने फ्रेंचाईजी के मालिकों का नाम सार्वजनिक कर अनुबंध से जुड़ी गोपनीयता का उल्लंघन किया है। भला इस थोथी दलील को कोई स्वीकार करेगा? किसकी गोपनीयता को सुरक्षित रखना चाहते हैं मनोहर, उन काले धन के निवेशकों को ही न, जिन्होंने योजना बनाकर क्रिकेट को माध्यम बना डाला काले धन को सफेद करने के लिए। क्रिकेट में सुरा-सुंदरी को प्रवेश दिला इन्होंने ही तो अय्याशी का नया मंच बनाया। ऐसे लोगों के नाम तो सार्वजनिक होने ही चाहिए। भारत सरकार ने नागरिकों को ऐतिहासिक 'सूचना का अधिकार' प्रदत कर पूरे समाज में पारदर्शिता लाने की पहल की है। ऐसे में एक निजी संस्था काले धन के संरक्षकों के हित में गोपनीयता की बात करे! यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। आईपीएल उपज है बीसीसीआई की ही। अगर ललित मोदी 'आईपीएल पाप' के दोषी हैं तब बीसीसीआई अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है? अब तो यह प्रमाणित हो चुका है कि ललित मोदी अर्थात आईपीएल का हर निर्णय, हर कदम के 'पार्टनर' बीसीसीआई रही है। टीमों की नीलामी के पूर्व आईपीएल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के निर्देश पर एक मंत्री की बेटी नीलामी से संबंधित जानकारियां मंत्री के निजी सचिव को मेल करती है। निजी सचिव उन जानकारियों को आगे शशि थरूर को भेज देती हैं। शशि थरूर कुछ दिलचस्पी वाले टीम को उनके मित्र के हिस्सेदारी वाली कंपनी नीलामी में खरीद लेती है। अगर गोपनीयता संबंधी शशांक मनोहर के तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तब क्या वे बताएंगे कि मंत्री की बेटी ने गोपनीयता भंग की या नहीं। साफ है कि क्रिकेट के इस गंदे तालाब में सभी के सभी नंगे उतर अठखेलियां कर रहे हैं। इन्हें बेनकाब करने भारत सरकार ने पहल की है। चुनौती है उन्हें कि वे निष्पक्षता बरतें। दलगत राजनीति का त्याग कर, सत्तास्वार्थ से इतर भारत की छवि की चिंता करें। खेल प्रेमी हैं तो क्रिकेट की चिंता करें। इसकी मूल अवधारणा 'जेन्टलमेन्स गेम' को पुनस्र्थापित करें।

Thursday, April 22, 2010

बड़ी मछलियों को बचाने छोटी मछलियों की बलि

जी हां, क्रिकेट की आड़ में ग्लैमर और काले धन की चाशनी का स्वाद लेने वाली बड़ी मछलियों को बेनकाब होने से बचाने का खेल शुरू हो गया है। छोटी मछलियां जिबह होने के लिये तैयार रहें। उनकी बलि निश्चित है। तुलसीदास यूं ही नहीं कह गये थे कि, ''समरथ को दोष नहीं गुसाई।'' इसका ताना बाना तो उसी दिन शुरू हो गया था जब मंत्रि-परिषद से इस्तीफा देने से पूर्व शशि थरूर केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से मिले थे। वस्तुत: थरूर को भी बलि का बकरा बनाया गया था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों के दुलारे थरूर की बलि कांग्रेस सरकार की मजबूरी बन गई थी। इन दिनों कांग्रेस के एक प्रभावशाली प्रबंधक सांसद पत्रकार राजीव शुक्ल ने थरूर को बचाने के लिये एड़ीचोटी का पसीना एक कर दिया था।
आईपीएल महाघोटाला की व्यापकता के कारण थरूर को समझा-बुझाकर इस्तीफा ले लिया गया। लेकिन थरूर को यह आश्वासन जरूर मिल गया था कि उन पर खंजर गिरानेवाले ललित मोदी को बख्शा नहीं जाएगा। मोदी को निशाने पर लिया जाने लगा। खबरें आईं कि आईपीएल के चेअरमन पद का त्याग उन्हें तो करना ही पड़ेगा, गिरफ्तार भी किये जाएंगे। लेकिन, मोदी ने ऐलान-ए-जंग कर दिया है। एक ओर जब आईपीएल की टीमों और उनसे जुड़ी संस्थाओं पर देश के विभिन्न भागों में आयकर विभाग ने छापे मारने की कार्रवाई शुरू कर दी है, मोदी ने एक विस्फोट की तरह यह खुलासा कर दिया कि उन्होंने बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर, पूर्व अध्यक्ष व केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार, शाहरुख खान, प्रीति झिंटा, विजय माल्या, राजीव शुक्ला, शिल्पा शेट्टी सहित आईपीएल से जुड़े 71 लोगों को ईमेल कर आईपीएल फ्रेंचाइजी व उनके शेअर धारकों के नाम सार्वजनिक करने की बात कही थी। लेकिन शशांक मनोहर ने जवाब भेजकर ऐसा करने से मना कर दिया। क्यों? आखिर फ्रेंचाईजी के मालिकाना हक अर्थात्ï शेअर धारकों के नाम गुप्त क्यों रखे गये? ऐसा तो है नहीं कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई मामला जुड़ा हो। साफ है कि शेअरधारकों में कुछ ऐसे नाम हैं जिनके सार्वजनिक होने से देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा। इस मुद्दे के सतह पर आने के साथ ही अनेक बड़े राजनेता और उद्योगपतियों के बेनामी शेअर की चर्चा होने लगी है। ललित मोदी ने न्याय और निष्पक्षता के नाम पर शेअर धारकों के नाम सार्वजनिक करने का सुझाव दिया था। शशांक मनोहर को जवाबी ईमेल भेजकर मोदी ने ध्यान दिलाया था कि इसके पहले ऐसा किया जा चुका है। ललित मोदी की नियुक्ति स्वयं बीसीसीआई ने की थी। क्रिकेट जगत से जुड़े लोग इस सचाई से परिचित हैं कि ललित मोदी स्वयं शरद पवार की पसंद थे। विवाद शुरू होने के बाद पवार ने मोदी का बचाव भी किया था। अब चूंकि मामले ने अप्रत्याशित तूल पकड़ लिया है, मोदी के समर्थक उनसे कन्नी काटने लगे हैं। वैसे भी मोदी का काला अतीत मित्रों को उनसे दूर करने लगा है। तथापि इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि मोदी के स्याहसफेद कारनामों के कारण उन्हें तो दंड मिले किंतु उनके कारनामों में शामिल बड़ी मछलियां बख्श दी जाएं। लेकिन मूल्यविहीन, अवसरवादी सत्ता की राजनीति के वर्तमान दौर में छला हमेशा देश ही जाता है। साम-दाम-दंड-भेद अपनाकर सत्ता की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती रही है। इसके लिए हमेशा छोटी मछलियों को तड़प-तड़प कर मरने दिया जाता है। आईपीएल-बीसीसीआई के ताजा मामले पर नजर रखनेवाले सभी जानते हैं कि अगर असली अपराधी अर्थात्ï बड़ी मछलियों पर हाथ डाला गया तब संभवत: केंद्र सरकार ही डगमगा जाये- महाराष्ट्र सरकार तो अवश्य ही।

Wednesday, April 21, 2010

गैरखिलाडिय़ों से मुक्त हो क्रिकेट!

यह भी खूब रही! केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला की दार्शनिक सोच को समझें। आईपीएल विवाद पर केंद्रीय मंत्रिपरिषद के अपने सहयोगी शशि थरूर का उन्होंने विरोध किया था, उनसे इस्तीफा मांगा था। आलोचना और दबाव के बीच प्रधानमंत्री ने थरूर से इस्तीफा ले लिया। अब डॉ. फारुख आईपीएल महाघोटाला के 'किंग पिन' ललित मोदी के बचाव में कूद पड़े हैं। कह रहे हैं कि बगैर ठोस प्रमाण के मोदी पर आरोप लगाना गलत है। और एक दार्शनिक की तरह देश को बताया कि 'शीर्ष पर पहुंचे व्यक्ति का विरोध होता ही है।' महाघोटाला के जनक मोदी, बकौल आयकर विभाग क्रिकेट में सट्टेबाजी, धोखाधड़ी, मैच फिक्सिंग, टीमों में बेनामी हिस्सेदारी, महिलाओं से अवैध संबंध आदि के आरोपी हैं। चार वर्ष पूर्व सन् 2006 में शून्य आमदनी के कारण कोई आयकर नहीं भरने वाले मोदी 2010 में 19 करोड़ रुपए आयकर भरते हैं। काले धन की उगाही और 'मनी लॉन्ड्रिग का आरोप इन पर है। आश्चर्य है कि इन गंभीर आरोपों की मौजूदगी के बावजूद डा. फारुख अब्दुल्ला मोदी के बचाव में सामने कैसे आ गए? देर-सबेर उन्हें इसका जवाब देना ही होगा। शशि थरूर ने लोकसभा में बयान देकर यह जताने की कोशिश की है कि उन्होंने कोई अनैतिक और अवैध काम नहीं किया है। उन्होंने इस्तीफा लोकतांत्रिक मूल्यों की खातिर दिया है। उनकी सफाई को कोई भी समझदार व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। अपने प्रभाव का उपयोग कर महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के नाम पर करोड़ों रुपए के शेयर का आवंटन कराने वाले थरूर को नैतिकता की बात करने का अधिकार नहीं है। उनका अपराध प्रमाणित हो चुका है। उनके इस्तीफे की पेशकश पर भावुक होने वाले प्रधानमंत्री राजधर्म का निर्वाह करें। निजी पसंद की चादर से थरूर के अपराध को ढकने की कोशिश न करें। मंत्रिपरिषद से हटा दिए जाने से उनका अपराध खत्म नहीं हो जाता। थरूर अब जिस लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई दे रहे हैं, उसे दागदार ऐसी हस्तियों ने ही तो बना डाला है। ललित मोदी का अपराध तो अक्षम्य है। डा. फारुख अब्दुल्ला के करीबी मित्र केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ललित मोदी का बचाव कर चुके हैं। ठीक अब्दुल्ला की तर्ज पर मोदी को उन्होंने पहले पाक-साफ बताया था। ध्यान रहे बीसीसीआई इस पूरे प्रकरण में स्वयं कठघरे में खड़ा है। शरद पवार इसके अध्यक्ष रह चुके हैं और अब उनके द्वारा नामित शशांक मनोहर अध्यक्ष हैं। जगमोहन डालमिया को बीसीसीआई से निकाल बाहर करने के बाद पवार ने बोर्ड का मुख्यालय कोलकाता से मुंबई स्थानांतरित करा दिया था। तब चले आरोप-प्रत्यारोप के दौर में बीसीसीआई की अनेक अनियमितताएं उजागर हुई थीं। मामला पुलिस और अदालत तक भी पहुुंच गया था। लेकिन धीरे-धीरे पवार का वर्चस्व कायम हो गया। अपना कार्यकाल समाप्त होने पर पवार ने अपने विश्वासपात्र शशांक मनोहर को अध्यक्ष पद पर आसीन करवा डाला। शशांक वकील हैं, कानून को अच्छी तरह समझते हैं। ललित मोदी और बीसीसीआई की उलझन को वे अच्छी तरह समझ रहे हैं। उन्होंने मोदी समर्थक पवार को यह समझा दिया है कि अब मोदी का बचाव स्वयं बीसीसीआई के लिए महंगा पड़ सकता है। इसके पहले कि कानून मोदी को गिरफ्त में ले, उनसे मुक्ति पा लेनी चाहिए। सो यह तय है कि आईपीएल के चेयरमैन पद से मोदी से इस्तीफा ले लिया जाए। लेकिन नहीं, यह नाकाफी होगा। थरूर और मोदी दोनों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। साथ ही चूंकि यह साबित हो चुका है कि क्रिकेट का शरीफ खेल भ्रष्टाचार और अवैध धंधे का खेल बन गया है, इसकी सफाई जरूरी है। और यह तभी संभव है जब इस पर नियंत्रण योग्य खिलाडिय़ों का हो। राजनीतिकों को इससे दूर रखा जाए। बीसीसीआई सहित अनेक प्रदेश क्रिकेट संस्थाओं पर राजनीतिकों का कब्जा क्या संदेह पैदा नहीं करता? अवश्य ही किसी खास उद्देश्य से उन लोगों ने क्रिकेट पर कब्जा कर रखा है। बगैर किसी लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि इन नेताओं की दिलचस्पी का कारण क्रिकेट-प्रेम तो नहीं ही है। ग्लैमर के साथ-साथ काले धन और सट्टेबाजी का कोण जुड़ जाने के कारण 'उद्देश्य' चिह्नित होने लगा है।

Tuesday, April 20, 2010

'धंधा' बन गया 'जेंटलमेन्स गेम' क्रिकेट !

अगर यही 'जेन्टलमेन्स गेम' अर्थात्ï भद्र लोगों का खेल है, तब शब्दकोश में मौजूद 'जेन्टलमैन' के अर्थ बदल दिए जाएं। या फिर क्रिकेट खेल के साथ जुड़े इस विशेषण को रद्द कर दिया जाए। चाहे कोई कितना भी बचाव कर ले, सफाई दे दे, यह प्रमाणित हो चुका है कि क्रिकेट अब विशुद्ध रूप से एक व्यवसाय बन चुका है। खेल की जगह इसने सर्कस का रूप ले लिया है। इसमें अब मनोरंजन है, अर्धनंगी सुंदरिया हैं, शराब है और है अय्याश लोगों का जमघट। जिस दिन आईपीएल (इंडियन प्रीमियर लीग) का जन्म हुआ, क्रिकेट का 'भद्रलोक' बेपर्दा होने लगा। सज-धज कर खिलाड़ी बिकने के लिए मंच पर आने लगे, उनकी बोलियां लगने लगीं। सैकड़ों-हजारों करोड़ की बोलियों ने सिद्ध कर दिया कि क्रिकेट अब बिकाऊ 'माल' बन चुका है। ऐसा व्यवसाय जिसमें धंधे' के सारे 'पाप' विद्यमान हैं। इस मुकाम पर सिर शर्म से झुक जाता है। सवाल खड़ा हो जाता है कि जब खिलाडिय़ों ने सज-धज कर अपनी बोलियां लगवानी शुरू कर दी हैं, सज-धज कर नीलामी के लिए तत्पर हो चुके हैं। ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने के लिए क्रिकेट की तकनीकि व संवेदनशीलता को ताक पर रखकर 'बाजार' की भाषा बोलने लगे हैं, तब ये सर्वोच्च भारतीय पद्म-सम्मान के हकदार कैसे हो सकते हैं। किसी 'बाजारू' को पद्म-सम्मान से अलंकृत करना निश्चय ही इस सम्मान की अवमानना है। सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले आदि जो खिलाड़ी पद्म-सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं वे तत्काल सम्मान को वापस कर दें या फिर क्रिकेट के 'बाजार' से स्वयं को अलग कर लें। बोलियां लगाने वालों की सूचियां देख लें। नव धनाढ्य ऐसे लोगों के चेहरे सामने आ जाएंगे, जिनके लिए पैसा ही भगवान है, मां-बाप है। देश, नैतिकता और ईमानदारी से इनका कोई लेना-देना नहीं। राष्ट्र और ईमानदारी के पक्ष में इनके मुख से यदा-कदा निकलने वाले शब्द सिर्फ दिखावा है- नाटक है। अभी-अभी हटाए गए केंद्रीय राज्यमंत्री शशि थरूर और आईपीएल के चेयरमैन ललित मोदी के कुकृत्यों ने साबित कर दिया कि षडय़ंत्र रचकर देश को लूटने और लोकतांत्रिक भारत की गरिमा पर कालिख पोतने का सिलसिला जारी है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के आंखों की नूर के रूप में परिचित शशि थरूर का असली चेहरा अब सामने है। कभी भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद के दावेदार शशि थरूर के ताजा कारनामे ने जहां सत्ता पक्ष में अनैतिकता की मौजूदगी को चिह्निïत किया है, वहीं महान अनुकरणीय भारतीय संस्कृति को समाप्त करने की साजिश को भी बेपर्दा किया है। थरूर एक विद्वान लेखक माने जाते हैं। लेकिन, एक विद्वान से तो अपेक्षा रहती है कि वह अपने शब्द व कर्म से आदर्श प्रस्तुत करे- ऐसा आदर्श जो नई पीढ़ी के लिए पवित्र व अनुकरणीय हो। दो पत्नियों से तलाक के बाद सुनंदा पुष्कर से विवाह की तैयारी और मंत्री पद के प्रभाव का दुरुपयोग कर सुनंदा के खाते में बेनामी शेयर का मामला क्या आदर्श की जगह अनैतिकता-बेईमानी नहीं है? पूर्व में विद्वत्ता से महिमामंडित थरूर ने देश को निराश किया है। समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता फैलाने के दोषी बन गए हैं शशि थरूर। प्रधानमंत्री ने उनसे इस्तीफा लिया तो राष्ट्रीय दबाव के कारण, मजबूरी के कारण। अन्यथा इस सचाई से सभी परिचित हैं कि कांग्रेस के अनेक प्रबंधक थरूर को बचाने के अंत-अंत तक प्रयास करते रहे। लेकिन यह सवाल अभी भी मौजूद है कि क्या मंत्रीपद से इस्तीफा ले लिए जाने या देने से शशि थरूर का अपराध खत्म हो गया? उन्होंने अपराध किया है, उन्हें संबंधित कानूनों के तहत दंडित किया जाना चाहिए। अब बात ललित मोदी की। आईपीएल के इस चेयरमैन को तत्काल अर्थात्ï जांच-परिणाम आने के पूर्व ही गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाए। क्रिकेट को सट्टेबाजी, जुए के खेल में परिवर्तित करने वाला यह मोदी अनैतिकता और भ्रष्टाचार का भी अपराधी है। मोदी स्याह आपराधिक पाश्र्व वाले व्यक्ति हैं। अपने छात्र जीवन में अमेरिका में मोदी कोकीन के लेनदेन के षडय़ंत्र और खतरनाक हथियार से प्राणघातक हमला करने के आरोप में गिरफ्तार भी हो चुके थे। अवैध कोकीन के धंधे का आरोप अत्यंत ही गंभीर है। डकैती और अपहरण के आरोपी भी बन चुके हैं ललित मोदी। ऐसे व्यक्ति से सभ्यता, नैतिकता, ईमानदारी और राष्ट्रीयता की अपेक्षा ही बेमानी होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी ने क्रिकेट खेल में सुरा और सुंदरी को घुसा धन कमाने की योजना को अंजाम दिया। क्रिकेट को ग्लैमर का रूप दे दिया और इस ग्लैमर में फंसते गए खिलाड़ी, अभिनेता, उद्योगपति, व्यवसायी और राजनेता। अगर ईमानदारी से जांच हो तो एक अत्यंत ही राष्ट्र विरोधी बड़ी साजिश का पर्दाफाश होगा। विदेशी बैंकों में राजनेताओं एवं व्यवसायियों के हजारों-लाखों करोड़ रुपए के काले धन के जमा होने की बात सामने आती रही है। सरकार की ओर से अनेक घोषणाओं के बावजूद इस काले धन की वापसी की दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। आईपीएल को लेकर ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि टीमों और खिलाडिय़ों को खरीदे जाने में विभिन्न माध्यमों से काले धन का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह अत्यंत ही गंभीर और खतरनाक है। विदेशी बैंकों में जमा काले धन को सफेद करने का माध्यम अगर आईपीएल बना है, तब चुनौती है सरकार को कि वह हरकत में आए। क्रिकेट खेल पर खिलाडिय़ों की जगह राजनीतिकों और उद्योगपतियों का कब्जा यूं ही नहीं हुआ है। बेहतर हो सरकार तत्काल कार्रवाई करते हुए क्रिकेट को अपने नियंत्रण में ले ले- आईपीएल को भी, बीसीसीआई को भी। इसलिए भी कि भारत के नाम पर ये निजी संस्थाएं खुलकर धन और सिर्फ धन बटोर रही हैं। भारत सरकार के पास खेल-मंत्रालय किसलिए है? भारत देश के नाम पर होने वाले खेलों और टीमों पर नियंत्रण खेल मंत्रालय का ही होना चाहिए न कि निजी संस्थाओं का।

Sunday, April 18, 2010

शीतयुद्ध के साये में कांग्रेस

कहीं कोई बड़ी गड़बड़ी है अवश्य! पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष और एस. के. पाटिल के कुख्यात 'सिंडीकेट' के बाद यह पहला अवसर है जब कांग्रेस संस्कृति के प्रतिकूल पार्टी के कुछ नेता सत्ता और संगठन को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। फिलहाल इसे बगावत तो निरूपित नहीं किया जा सकता, हां चुनौती की शुरुआत अवश्य कह सकते हैं। जरा गौर करें, प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश जारी होता है कि नक्सल मुद्दे पर सिर्फ गृह मंत्रालय ही टिप्पणी कर सकता है। सत्ता पक्ष की ओर से कोई अन्य नहीं। निर्देश जारी होने से चौबीस घंटे के अंदर ही कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा मेें नक्सली कहर पर सीधे-सीधे केंद्रीय गृहमंत्री पर हमला बोल दिया। नक्सली समस्या के संदर्भ में भारत सरकार की नीति पर भी उन्होंने सवालिया निशान चसपा दिए। क्या दिग्विजय सिंह को प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश की जानकारी नहीं थी? इसे नहीं माना जा सकता। चूंकि इसके पूर्व अनेक मंत्री अपने सहयोग मंत्रियों की सार्वजनिक आलोचना करते रहे हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय का निर्देश और दिग्विजय का उल्लंघन निश्चय ही केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी में व्याप्त अराजकता के सूचक हैं।
इस घटना विकासक्रम को किसी दल विशेष का आंतरिक मामला कह खारिज नहीं किया जा सकता। मामला देश के हित-अहित से जुड़ा है। अभी पिछले दिनों अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सपे्रस' ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच पत्राचार के कतिपय अंश प्रकाशित किए थे। उनसे यह जानकारी मिली कि अनेक राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी के सुझावों को अमल में नहीं लाया। अमान्य सुझावों के तह में जाएं तब पता चलेगा कि उन विषयों का सीधा संबंध अमेरिकी हित-अहित से जुड़ा था। जबकि राहुल गांधी के उन सुझावों को प्रधानमंत्री ने धन्यवाद सहित तत्काल स्वीकार कर लिया जो राज्यविशेष के विकास से संबंधित थे या ऐसे राष्ट्रीय महत्व के जिनका अंतरराष्ट्रीय जगत से कोई लेना-देना नहीं था। बात यहीं खत्म नहीं होती, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल, कमलनाथ, जयराम रमेश, शशि थरूर, शरद पवार, सी.पी. जोशी, मणिशंकर अय्यर जैसे दिग्गज सरकार की नीतियों को लेकर परस्पर आरोप-प्रत्यारोप वाले बयान देते रहे हैं। मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की भावना से बिल्कुल इतर! अगर ये उद्धरण केंद्र में व्याप्त अराजकता की पुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं है। तब निश्चय ही दिग्विजय सिंह का ताजा मामला इसे मजबूती प्रदान करनेवाला है। दिग्विजय सिंह ने अपनी ही पार्टी के केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को न केवल घमंडी और अडिय़ल करार दिया है, बल्कि उन्हें 'बौद्धिक अहंकारी' बताकर यह दर्शाने की कोशिश की है कि चिदंबरम गृहमंत्री पद के योग्य कदापि नहीं हैं। भारतीय राजनीति में दिविजय का स्थान एक सूझबूझ वाले परिपक्व नेता के रूप में है। जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब लोगों ने उनमें देश का भविष्य देखा था। वैसे यह विडंबना ही है कि इस 'भविष्य' पर आज राहुल गांधी को काबिज होने में दिग्विजय भी मदद कर रहे हैं। ऐसे आत्मसमर्पण के पाश्र्व में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वस्त चिदंबरम पर दिग्विजय का शाब्दिक हमला अकारण नहीं हो सकता। दंतेवाड़ा नरसंहार के लिए दिग्विजय ने गृहमंत्री चिदंबरम को जिम्मेदार ठहराकर स्वयं प्रधानमंत्री को भी निशाने पर लिया है। क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस संगठन के अंदर एक नया शीतयुद्ध छिड़ चुका है। यह एक संभावना है। दूसरी संभावना यह कि किसी षडय़ंत्र के तहत सत्ता में विद्रोह को हवा दी जा रही है।
दूसरे शब्दों में सत्तापलट के लिए जमीन की तैयारी शुरू हो गई है। कांग्रेस का एक महत्वपूर्ण धड़ा अब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के योग्य नहीं मानता। तेजी से बदलते नए वैश्विक परिदृश्य में यह धड़ा परिवर्तन चाहता है। अगर इस धड़े को सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त है। तब आनेवाले दिनों में देश एक नए नेतृत्व की प्रतीक्षा करे। दिल्ली स्थित सत्ता के गलियारे में ऐसी सुगबुगाहट व्याप्त है कि सन् 2004 में जिस एजेंडे को पूरा करने के लिए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था, वह अब पूरा हो चुका है। अर्थात्ï मनमोहन सिंह की उपयोगिता अब खत्म हो चुकी है। नई जरूरतों की पूर्ति के लिए अब कांग्रेस को नया नेतृत्व चाहिए। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर ही ऐसे लक्ष प्राप्त किए जाते हैं।

Wednesday, April 14, 2010

गडकरी की हैसियत को टुटपूंजिया चुनौती!

क्षमा करेंगे, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के समक्ष कांग्रेस ने स्वयं को हल्का साबित कर लिया, बौना साबित कर लिया। गडकरी को उनकी हैसियत बताने की कोशिश करने वाले कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का यह कथन कि गडकरी का राजनीतिक वजन अभी इतना नहीं हुआ है कि कांग्रेस मंच से उनके आरोपों का जवाब दिया जाए, तिवारी के दिमागी दिवालियेपन का सूचक है। देश के मुख्य विपक्षी दल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के समक्ष वस्तुत: खड़े होने की हैसियत भी मनीष तिवारी की नहीं है। हालांकि मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि तिवारी ने कांग्रेस नेतृत्व से ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणी की अनुमति ली होगी। निश्चय ही उन्होंने कांग्रेस की चाटुकारिता संस्कृति के तहत अति उत्साह में कांग्रेस नेतृत्व को खुश करने की कोशिश की होगी। जैसा कि उन्होंने अमिताभ बच्चन और नरेंद्र मोदी के खिलाफ टिप्पणी कर की थी। राजनीति में मूल्य का ऐसा पतन! वह भी केंद्र में सत्ताधारी दल की ओर से! ऐसा नहीं होना चाहिए था। संसदीय लोकतंत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा, स्वस्थ आलोचना को स्थान प्राप्त है। धरोहर के रूप में प्राप्त प्राचीन भारतीय संस्कृति गवाह है कि युद्ध की स्थिति में भी योद्धा एक-दूसरे का सम्मान करते रहे हैं। युद्ध को शक्ति व कौशल से जीतने की परंपरा रही है, छल-कपट से नहीं। विजयी पक्ष पराजित नेतृत्व को भी उसकी हैसियत के अनुसार सम्मान देता रहा है। कांग्रेसी प्रवक्ता मनीष तिवारी इस यथार्थ को भूल वर्तमान राजनीति में मूल्यों के हृास के प्रतीक बन गए। उन्होंने संपूर्ण कांग्रेस पार्टी एवं उसके नेतृत्व को दीन-हीन साबित कर दिया। गडकरी के राजनीतिक वजन पर सवालिया निशान लगाने की हैसियत न तो मनीष तिवारी की है और न ही उनकी पार्टी के उन नेताओं की, जिन्हें खुश करने के लिए उन्होंने ऐसी टिप्पणी की। गडकरी ने तब कुछ गलत नहीं कहा था जब उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर के मसले में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को अल्पज्ञानी बताया था। ठीक ही तो कहा था उन्होंने! कांग्रेस नेतृत्व को संभवत: इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी गडकरी के ज्ञान व विषय पर उनकी पकड़ की जानकारी नहीं है। वंशवाद की सीढ़ी पर चढ़ रहे राहुल गांधी का चरण-रज उदरस्थ करने वाले मनीष तिवारी सरीखे चाटुकार अपनी हैसियत पहचानें, अपनी औकात में रहें। जब स्वयं कांग्रेस नेतृत्व अभी गडकरी के मुद्दे पर मौन है, बारीकी से उनकी गतिविधियों का अध्ययन कर रहा है तब प्रवक्ता क्यों फट पड़े? वे तो इस तथ्य को भी भूल गए कि गडकरी ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के उस अभियान की प्रशंसा की थी जिसके तहत राहुल सुदूर गांवों में पहुंच रहे हैं, दलितों की सुध ले रहे हैं। तब गडकरी ने निश्चय ही विरोध के लिए विरोध की राजनीति न कर एक उभरते युवा नेतृत्व को प्रोत्साहित किया था। स्वस्थ-स्वच्छ लोकतंत्र ऐसे ही प्रयासों का आग्रही है। मनीष तिवारी ने गडकरी को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का 'एक्सटेंशन बोर्ड' निरूपित कर घटिया मानसिकता का परिचय दिया है। उनकी यह टिप्पणी कि उस 'एक्सटेंशन बोर्ड' में भाजपा का प्लग लगा है और पार्टी यहीं से ऊर्जा प्राप्त करती है, निम्नस्तरीय है-सड़कछाप है। दूसरों की लकीर छोटी करने की जगह अपनी लकीर बड़ी करने के हिमायती गडकरी तो नहीं पूछेंगे किन्तु अन्य लोग यह अवश्य जानना चाहेंगे कि कांग्रेस मुख्यालय में किस देश का 'एक्सटेंशन बोर्ड' लगा है और उसमें विद्युत प्रवाह किस देश से होता है। बेहतर हो कांग्रेस विपक्ष का आदर करे, आलोचना करे लेकिन स्वस्थ। और घटिया राजनीति का त्याग करे। और हां, अगर गडकरी के वजन और हैसियत को कभी मापने की जरूरत पड़े तब वह किसी हैसियतदार-वजनदार को उनके सामने खड़ा करे, मनीष तिवारी जैसे टुटपंूजियों को नहीं। कांग्रेस यह न भूले कि आकाश पर थूकने वालों को अपना थूक स्वयं चाटना पड़ता है।

Monday, April 12, 2010

सदैव आरक्षित कांग्रेस अध्यक्ष पद!

यह फर्क तो है! गली-कूचों की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने वाला कांग्रेस पार्टी में कभी राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बन सकता। कांग्रेस में यह पद आरक्षित है। आरक्षित है गांधी-नेहरू परिवार के लिए। सुविधानुसार, बल्कि मजबूरी है। यदा-कदा किसी 'यस मैन' को इस कुर्सी पर अवश्य बैठाया जाता है। किंतु उनका कार्यकाल 'परिवार' की इच्छा पर निर्भर रहता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी इस परंपरा की उपज हैं। राहुल गांधी प्रतीक्षा में हैं। गांधी-नेहरू परिवार से इतर यू.एन.ढेबर, के.कामराज, एस. निजलिंगप्पा और सीताराम केसरी अध्यक्ष बनते रहे, किंतु इनके अधिकार और इतिश्री की अपनी गाथा है। केसरी को तो कांग्रेस मुख्यालय के बाथरूम में बंद कर, धकिया कर निकाला गया था, जबकि वे कोई मनोनीत नहीं, निर्वाचित अध्यक्ष थे। शरद पवार जैसे कद्दावर नेता को पराजित कर केसरी अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। पार्टी इतिहास में दर्ज है कि गांधी-नेहरू परिवार के प्रति केसरी हमेशा समर्पित रहे। किंतु थोड़ी असहजता क्या हुई कि उन्हें धक्के मारकर निकाल-बाहर किया गया। कांग्रेस में अध्यक्ष पद के मामले को पिछले दिन भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उछाला। पत्रकार और टेलीविजन 'आइकन' रजत शर्मा के कार्यक्रम 'आप की अदालत' में एक सवाल का जवाब देते हुए गडकरी ने कांग्रेस की इस परंपरा का उल्लेख करते हुए अध्यक्ष पद पर अपनी नियुक्ति का उदाहरण दिया। गडकरी विद्यार्थी परिषद के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में चुनाव के दौरान दीवारों पर पोस्टर चिपकाया करते थे। लालकृष्ण आडवाणी भी कभी अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सहायक थे। बहरहाल, 52 वर्षीय गडकरी ने जब कांग्रेस की ऐसी अवस्था की चर्चा की तब वे निश्चय ही कांग्रेस पार्टी में लुप्त लोकतंत्र पर देश का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। सचमुच यसह एक विडंबना ही है कि देश की इस सबसे बड़ी पार्टी को गांधी-नेहरू परिवार के बाहर अध्यक्ष पद के लिए कोई योग्य पात्र नहीं मिलता। विडंबना तो यह भी कि जब-जब पार्टी का कोई व्यक्ति राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी व पार्टी के बाहर स्वीकृति की अवस्था प्राप्त करता है, उनकी असमय दुनिया से ही विदाई हो जाती है। राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया के नाम यहां उदाहरण स्वरूप दिए जा सकते हैं। कुछ अन्य अबूझ कारणों से गांधी-नेहरू परिवार के समक्ष आत्मसमर्पण कर डालते हैं। तेजी से राष्ट्रीय क्षितिज पर कभी उभरने वाले तेज-तर्रार युवा दिग्विजय नारायण सिंह ज्वलंत उदाहरण के रूप में सामने हैं। पता नहीं, यह कैसा विधि-विधान है, जो गांधी-नेहरू परिवार के लिए रास्ता सुलभ करता रहता है। गडकरी ने तो आजादी पश्चात कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद की चर्चा की। किंतु इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलेगा कि आजादी पूर्व अर्थात गुलाम भारत में भी कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर नेहरू की पसंद का व्यक्ति ही बैठ सकता था। जब कभी नेहरू की पसंद के विपरीत कोई व्यक्ति अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होता था, तब नेहरू की जिद के कारण वह इस्तीफा देने को मजबूर हो जाता था। महात्मा गांधी नेहरू की पसंद को समर्थन दे देते थे। पुरूषोत्तम दास टंडन और सुभाषचंद्र बोस जैसे निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष इस्तीफा देने को मजबूर कर दिए गए थे। लोकतंत्र की पैरोकार कांग्रेस का नेतृत्व सहजतापूर्वक कभी भी यह नहीं बता पाएगा कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की हत्याएं क्यों होती रही हैं। चूंकि कांग्रेस पार्टी दशकों तक देश पर राज करती रही है, आज भी केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही है, लोकतंत्र विरोधी किसी भी कदम पर देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। जब किसी दल का नेतृत्व ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को हाशिए पर रखता रहे, तब उससे लोकतंत्र की रक्षा की अपेक्षा कोई कैसे करे! फिर क्या आश्चर्य कि आज कांग्रेस पार्टी में चाटुकारों की लंबी पंक्ति खड़ी दिखती है। क्या इसे दोहराने की जरूरत है कि ऐसी अवस्था में ही लोकतंत्र पराजित होकर 'पर-तंत्र' को आमंत्रित करता हैं। भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए यह एक अशुभ संकेत हैं।

76 जवान की जगह, 76 राजनेता होते तो.......?

एक असहज, ह्रदय को वेध देने वाला सवाल। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवान की जगह अगर देश के 76 राजनेताओं को नक्सली मौत की घाट उतार देते, तब क्या होता? जाहिर है तब पूरे देश में राष्ट्र ध्वज झुका दिए जाते, राष्ट्रीय शोक घोषित कर दिया जाता और संभवत: सरकार ही गिर जाती। भारतीय लोकतंत्र का यह वह दु:खद पहलू है, जिसमें सत्ता-सुख भोगने वालों को राष्ट्रीय सम्मान दिया जाता है, जबकि देश के लिए मर मिटने वालों को उपेक्षा। पिछले दिनों मैंने इसी स्तम्भ में जब शहीद जवानों के पक्ष में मानवाधिकार का मुद्दा उठाया था, तब एक पाठक ने विरोध जताया था। नौकरीपेशा जवानों को वे मानवाधिकार दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। उनका तर्क था कि इन शहीद जवानों को तो अनेक प्रकार की सरकारी-गैर सरकारी सुविधाएं मिल जाया करतीं हैं। तब मन दु:खी हो उठा था शहीद जवानों के प्रति ऐसी सोच पर। आज जब शहीद जवानों की जगह राजनेताओं को रखकर सवाल खड़े हुए हैं, तब कठघरे में निश्चय ही सत्तापक्ष को ही खड़ा किया जाएगा। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने राष्ट्रहित का हवाला देते हुए आतंकवादियों और नक्सलियों से संघर्ष का आह्वान किया है। नक्सलियों तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई में सरकार को समर्थन की बात कही है। सरकार के पास अब अवसर है कि वह बगैर किसी राजनीतिक भय के नक्सलियों के खिलाफ युद्ध का ऐलान करे। क्या केंद्र सरकार पहल करेगी? इस मुद्दे पर विभाजित सत्तारूढ़ दल शायद ऐसा न कर पाएं। इस मुद्दे पर स्वयं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बीच मतभेद उजागर होते रहे हैं। आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व सन 2004 में हमारे इसी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि नक्सली देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं। क्या प्रधानमंत्री यह बताएंगे कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे नक्सलियों की जानकारी उन्हें थी, तब आज तक सरकार ने कोई निर्णायक कदम क्यों नहीं उठाया? क्यों हजारों पुलिस व अर्धसैनिक बल के जवानों को मौत के मुँह में ढकेला जाता रहा? देश यह जानना चाहेगा कि जब प्रधानमंत्री को आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे बड़े दुश्मन की पहचान थी, तब सफाए की जगह उन्हें फलने-फूलने क्यों दिया गया? सरकार निकृष्ट क्यों बनी रही? तुष्टिकरण की यह कैसी नीति, जिसके तहत निर्दोष जवानों की बलि दी जाती रही। वह कौन सी मजबूरी थी कि देश के अंदर मौजूद ऐसे दुश्मनों से निपटने के जिम्मेदार गृहमंत्रालय की बागडोर एक निहायत निकृष्ट मंत्री के हवाले कर दी गई थी। मुंबई में 26/11 की घटना नहीं होती, तब शायद वे मंत्री भी अपने पद पर कायम रहते। दंतेवाड़ा की घटना के बाद भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा, जिससे यह पता चले कि सरकार ईमानदारी से नक्सली आतंक को समाप्त करना चाहती है। हां, राजनीतिक बयानबाजियां अवश्य हो रही हैं, किंतु प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह जान लें कि देश को अब उनके बयानों पर विश्वास नहीं होता। पिछले 5 दशकों से जारी नक्सली आतंक प्रमाण है, सरकार की निष्क्रियता का। और प्रमाण है सरकार की उन लचर नीतियों का, जो तुष्टिकरण प्रभावित हैं। सरकार कम से कम इस मुद्दे पर सख्त रूख अपनाए, राजनीति न करे। देश की सुरक्षा के सबसे बड़े दुश्मन नक्सलियों का या तो ह्रदय परिवर्तन कर आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया जाए या फिर राजधर्म का निर्वाह करते हुए सरकार कठोर बन इनके खिलाफ निर्णायक युद्ध की घोषणा करे।

Sunday, April 11, 2010

शर्मसार वर्धा, अपमानित वर्धावासी

कलम और वाणी की आजादी के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी की कर्मभूमि वर्धा में गुरुओं के गुरु ने यह क्या कह डाला! 'वर्धा के स्थानीय लोग चोर हैं!' '..... पत्रकार चोर हैं!' सत्य अहिंसा और त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में एकल विश्व स्वीकृति प्राप्त करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. विभूति नारायण राय के इस मंतव्य को हम एक सिरे से खारिज करते हैं। डा. राय की घोर आपत्तिजनक हरकत से आज पवित्र वर्धा शर्मसार है। कलंकित कर डाला इन्होंने वर्धा को। अपवित्र कर डाला विश्वविद्यालय परिसर को। और शर्मिंदा कर डाला संपूर्ण शिक्षक अर्थात्ï गुरु समाज को। साथ ही दागदार बना डाला भारतीय पुलिस सेवा को भी। एक कुलपति, एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति जब सड़कछाप असामाजिक तत्व की तरह आचरण का दोषी पाया जाए तब निश्चय ही शिक्षा, शिक्षक, शिष्य सभी रूदन के लिए बाध्य होंगे। आज वर्धा ऐसी ही दु:स्थिति से रूबरू है। वर्धावासी क्रोधित हैं कि उन्हें इस कुलपति ने चोर घोषित कर डाला। पिछले दिनों एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल सीएनईबी पर 'चोरगुरु' के नाम से कई किश्तों में एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया था। कार्यक्रम इसी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर केंद्रित था। हमारे संवाददाताओं ने भी इससे सूत्र प्राप्त कर जांच-पड़ताल की और विश्वविद्यालय में व्याप्त गंदगी को उजागर कर सफाई अभियान छेड़ा। छात्र संघर्ष समिति और गैरसरकारी संस्था द मार्जिनलाइज्ड ने सहयोग दिया और विश्वविद्यालय की अनियमितताओं को प्रकाश में लाया। इस अखबार ने पत्रकारीय दायित्व और मूल्य का निर्वाह करते हुए कतिपय खबरों पर प्राप्त खंडन भी प्रमुखता से प्रकाशित किए। इसलिए कि हम न तो पूर्वाग्रह ग्रसित हैं और न ही किसी व्यक्ति विशेष के विरोधी। मैं डा. विभूति नारायण राय को नहीं जानता। न कभी मिला, न कभी देखा। कुलपति पद पर उनकी नियुक्ति के समय जानकारी मिली थी कि ये भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी रहे हैं। तब ऐसी आशा जगी थी कि अपने स्थापना काल से ही विवादों में घिरे इस विश्वविद्यालय का भला होगा। एक अच्छे प्रशासक के रूप में डा. राय विश्वविद्यालय परिसर में अनुशासन स्थापित कर स्वच्छ, पवित्र शैक्षणिक वातावरण कायम करेंगे। महात्मा गांधी की कर्मस्थली इस विश्वविद्यालय के माध्यम से और भी गौरवान्वित होगी। वर्धा की अंतरराष्ट्रीय प्रसिध्दी में इजाफा होगा। लेकिन आज इन सारी आशाओं पर डा. राय ने तुषारापात कर डाला। अंतरराष्ट्रीय पर्यटन नक्शे पर मौजूद वर्धा को चोर बताकर डा. राय ने एक ऐसा पाप किया है जिसका प्रायश्चित संभव नहीं दिखता। पत्रकारों को चोर बताकर उन पर डंडा लहराने वाले डा. राय शिक्षा मंदिर के महंत नहीं हो सकते। मंदिर में मदिरा-मांस को वर्धा वासी ही क्या यह देश बर्दाश्त नहीं कर सकता। डा. राय पर ऐसे आरोप लगे हैं। आरोप पर डा. राय का मौन निश्चय ही स्वीकृति का सूचक है। शिक्षक तो अपने आचरण से छात्रों व समाज के लिए अनुकरणीय आदर्श पेश करता है। शिक्षकों के मुखिया डा. राय को तो अपने व्यवहार-आचरण से छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के लिए भी अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए था। खेद है, वे विफल रहे। शायद आदत की मजबूरी से। अत्यंत ही पीड़ा के साथ, दुखी मन से मैं इस टिप्पणी के लिए विवश हूं कि डा. राय का आचरण कुलपति पद की गरिमा, अपेक्षा के अनुरूप कतई नहीं है। वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें। वर्धावासियों से क्षमा मांगें। और महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष नमन कर प्रायश्चित करें।

Saturday, April 10, 2010

चिदंबरम के इस्तीफे का नाटक और मीडिया!

अब चाहे इसे देर आयद दुरुस्त आयद की श्रेणी में रखा जाए या फिर विशुद्ध राजनीतिक नाटक निरूपित करें, इसका फैसला समय कर देगा। लेकिन इस पूरे खेल में एक बार फिर हमारी अपनी बिरादरी पक्षपात की अपराधी बन गई, अज्ञान फैलाने की भी। मैं बात कर रहा हूं केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के कथित इस्तीफे की पेशकश, प्रधानमंत्री द्वारा इन्कार और एक खबरिया चैनल पर इसके कवरेज की। जब चिदंबरम ने नक्सलवादियों को 'कायरÓ कह ललकारा था तब भी और जब नक्सलियों ने जवाब में 76 निर्दोष सीआरपीएफ के जवानों को मौत दे दी थी तब मैंने नैतिकता के आधार पर चिदंबरम से इस्तीफे की अपेक्षा प्रकट की थी। चिदंबरम के इन्कार की स्थिति में प्रधानमंत्री की ओर से कार्रवाई की मांग की थी। तब कुछ नहीं हुआ। आज घटना के चार दिनों बाद अचानक चिदंबरम की ओर से नैतिकता के आधार पर इस्तीफे की पेशकश और प्रधानमंत्री द्वारा तत्काल इन्कार कर दिए जाने से तो देश में यही संदेश गया कि सब कुछ पूर्वनियोजित था, नाटक था। अगर चिदंबरम में सचमुच नैतिकता होती, मानवीय संवेदना की समझ होती तब वे दंतेवाड़ा नरसंहार के दिन ही इस्तीफा दे देते और प्रधानमंत्री के इन्कार की स्थिति में भी वे इस्तीफा वापस नहीं लेते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। शुक्रवार को उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की और अपेक्षानुरूप प्रधानमंत्री ने अस्वीकार कर दिया। साफ है कि चिदंबरम ने ऐसा कदम देश में हो रही अपनी आलोचना के बाद उठाया। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने प्रधानमंत्री को भी विश्वास में ले लिया हो। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पूर्व जानकारी दे दी हो। वर्तमान राजनीति के गंदले पानी में हाथ धोने के ऐसे अनेक वाकये पहले भी हो चुके हैं। चिदंबरम दबाव में थे। स्वयं कांग्रेस के अनेक मंत्री व नेता दंतेवाड़ा की घटना के लिए चिदंबरम को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। चिदंबरम के बड़बोलेपन पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य आपत्ति दर्ज कर चुके हैंं। अनेक कांग्रेसी नेता अप्रसन्नता प्रकट कर रहे थे कि चिदंबरम का अपनी जुबान पर काबू नहीं है। उनकी भाषा आपत्तिजनक है। इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि चिदंबरम की भाषा की सराहना कभी हुई भी है क्या? एक घटना की याद दिलाना चाहूंगा। तब चिदंबरम एक गैरकांग्रेसी राज्यसभा सदस्य थे। उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा राज्यसभा के सभापति के रूप में सदन की कार्यवाही संचालित कर रहे थे। डॉ. शर्मा द्वारा बार-बार मना करने के बावजूद चिदंबरम एक गैरजिम्मेदार सदस्य के रूप में सदन की कार्यवाही में व्यवधान पैदा कर रहे थे। सभापति डॉ. शर्मा के अनुरोध-आदेश को बलाए ताक रख चिदंबरम आपत्तिजनक शब्दों के साथ अपनी बात बोलते गए। सभापति डॉ. शर्मा तब चिदंबरम के आचरण से इतने आहत हुए कि उन्हें अस्पताल में चिकित्सा के लिए जाना पड़ा। ऐसे चिदंबरम से 'अच्छी भाषाÓ की अपेक्षा करना ही मूर्खता होगी। नक्सलियों को 'कायरÓ कह भड़काने वाले चिदंबरम भाषा के नाम पर अपना बचाव नहीं कर सकते। हालांकि यह लोकतांत्रिक भारत के लिए शर्म की बात है कि देश का गृहमंत्री ऐलानिया यह स्वीकार कर चुका है कि उन्हें राजभाषा अर्थात्ï सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी का ज्ञान नहीं है। मैं यह दोहरा दूं कि राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय के अधीन आता है और यह गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी है कि वह राजभाषा हिन्दी को व्यवहार के स्तर पर पूरे देश में स्थापित करना सुनिश्चित करे। लेकिन अफसोस कि मंत्रालय का मुखिया स्वयं हिन्दी नहीं जानता। यह अलग बहस का विषय है कि ऐसे व्यक्ति को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी आखिर दी ही क्यों गई? निश्चय ही यह संविधान की मूल भावना का अपमान है। खैर! मैं बात कर रहा था गृहमंत्री पद से चिदंबरम के कथित इस्तीफे की पेशकश की और इससे संबंधित मीडिया कवरेज की भी। प्रसिद्ध पत्रकार रजत शर्मा के खबरिया चैनल 'इंडिया टीवीÓ पर चिदंबरम के कथित इस्तीफे के कवरेज को देख निराशा हुई। रजत शर्मा एक पत्रकार के रूप में अपने ज्ञान और अपनी समझ के लिए सुख्यात हैं। उनकी राजनीतिक जानकारी और दोटूक विश्लेषणों की सराहना होती रही है। लेकिन आलोच्य मामले में उनके चैनल ने निराश किया। चैनल के प्रबंध संपादक विनोद कापडिया चिदंबरम की खबर पर बीच-बीच में टिप्पणी करते देखे गए। खबरिया चैनल में खबरों की जरूरत के अनुसार ऐसी विशेषज्ञ टिप्पणियां प्रसारित की जाती हैं। लेकिन दुख और आश्चर्य तो तब हुआ जब विनोद कापडिया चिदंबरम के वकील की तरह न केवल गृहमंत्री के रूप में उनका महिमामंडन करते रहे बल्कि लोगों अर्थात्ï दर्शकों को गलत जानकारी दे भ्रमित भी करते रहे। कापडिया ने अपनी टिप्पणी में बताया कि नैतिकता के आधार पर लालबहादुर शास्त्री के बाद पिछले 50 वर्षों में किसी मंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया। यह चिदंबरम हैं जिन्होंने ऐसी पेशकश कर मिसाल पेश की है। बता दूं कि ऐसी टिप्पणी कापडिया प्रधानमंत्री द्वारा चिदंबरम के इस्तीफे को अस्वीकार किए जाने की खबर आने के पहले कर रहे थे। कापडिया ने अपने दर्शकों को यह भी बताया कि आजतक देश में चिदंबरम जैसा योग्य व्यक्ति गृहमंत्री नहीं बना है। और ऐसा कोई व्यक्ति दिख भी नहीं रहा जो गृहमंत्री की जिम्मेदारी संभाल सके। एक जिम्मेदार न्यूज चैनल के प्रबंध संपादक के मुख से ऐसी बातें! कोई आश्चर्य नहीं कि मीडिया पर पक्षपात के आरोप इन दिनों खुलेआम लग रहे हैं। विनोद कापडिया तो बिल्कुल एक पक्ष की बातें कर रहे थे। पत्रकारिता की अपेक्षित निष्पक्षता की उन्होंने ऐसी की तैसी कर दी। बिल्कुल चिदंबरम के वकील की तरह उन्होंने स्वयं को पेश किया। और वकील भी ऐसा जो गलत तथ्य देकर अपनी अज्ञानता प्रकट कर रहा था। पूरा देश जानता है कि तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार और माधवराव सिंधिया नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे चुके थे। तब इन दोनों की तुलना लालबहादुर शास्त्री से की गई थी। रही बात गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम के बेमिसाल होने की तब कापडिया बेहतर है कि इतिहास के पन्नों को पलट लें। लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को छोड़ भी दें तो गृहमंत्री के रूप में गोविंदवल्लभ पंत और लालकृष्ण आडवाणी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध रखने वाले पंत अपनी दूरदृष्टि और देश में आंतरिक सुरक्षा तथा कानून-व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए विख्यात थे। केंद्र और राज्यों के बीच मजबूत तालमेल पंत की देन थी। लालकृष्ण आडवाणी को भी सरदार पटेल के बाद गृहमंत्री के रूप में 'लौह पुरुषÓ का दर्जा प्राप्त था। कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के साथ-साथ आतंक विरोधी कानूनों को अंजाम आडवाणी ने ही दिए। पता नहीं कापडिया किन कारणों से सच पर परदा डाल गए। एक वकील तो अपने मुवक्कील से अच्छे 'फीसÓ की आशा में झूठ को सच बनाने की कोशिश करता है। तो क्या विनोद कापडिया ने भी किसी फीस की आशा में ऐसा किया? मैं चाहूंगा कि मेरी आशंका गलत साबित हो ताकि बिरादरी पर भी कलंक नहीं लगे लेकिन ऐसा साबित तो कापडिया को ही करना होगा! आज जब मीडिया विश्वसनीयता के संकट की असहज दौड़ से गुजर रहा है, 'इंडिया टीवीÓ का ताजा मामला खेदजनक है। रजत शर्मा जैसे संपादक के नेतृत्व में तो यह कतई स्वीकार्य नहीं।

Friday, April 9, 2010

मानवाधिकार का चैम्पियन 'गिरोह'!

सवाल मौजूं है, चुनौती भी बिल्कुल जायज है। अब देश यह जानना चाह रहा है कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में लगभग 6 दर्जन से अधिक निर्दोष सीआरपीएफ के जवानों को मौत के घाट उतारने वाले नक्सलियों के खिलाफ स्वयंभू मानवाधिकार संरक्षक, महिमामंडित सामाजिक कार्यकर्ता, संसदीय लोकतंत्र के कथित पुरोधा मौन क्यों हैं? चुनौती है उन्हें यह, कि वे सामने आएं, मुंह न छुपाएं। क्या शहीद हुए 6 दर्जन से अधिक जवान मानवाधिकार संरक्षण की श्रेणी में नहीं आते? जो शहीद हुए उनकी विधवाओं, उनके बच्चों, उनके भाई-बहनों, माता-पिताओं के आंसू इन्हें द्रवित क्यों नहीं कर पा रहे? क्या शहीदों का खून पानी और उनके परिजनों के आंसू मात्र खारा पानी हैं? पुलिस, अर्धसैनिक बलों द्वारा नक्सल विरोधी कार्रवाई के दौरान 2-4-10 नक्सलियों की मौत पर मानवाधिकार के नाम पर चीख-चीख कर आसमान को सिर पर उठा लेने वाले इन कथित समाजसेवियों-बुद्धिजीवियों ने दंतेवाड़ा की घटना पर मौन साध स्वयं को नंगा खड़ा कर लिया है। आखिर इनके कथित मानवाधिकार के न्याय के तराजू के पलड़ों के वजन में फर्क क्यों? अपने घर-परिवार से दूर अनुशासन की वर्दी पहन देश-समाज में कानून-व्यवस्था के पक्ष में समर्पित इन जवानों की कुर्बानियां तो स्वर्णाक्षरों में लिखी जानी चाहिए। लेकिन मानवाधिकार के कथित संरक्षक ऐसा नहीं करेंगे। इन्होंने तो एक 'गिरोह' बनाकर, षडय़ंत्र रचकर संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का ऐलानिया विरोध करने वाले नक्सलियों-माओवादियों को महिमामंडित करने की ठान ली है। लोकतंत्र विरोधी इन तत्वों के लिए मानवीय जीवन और मूल्य कोई मायने नहीं रखते। फिर इनका समर्थन क्यों? इनका महिमामंडन क्यों? और इन पर काबू पाने की प्रक्रिया में शहीद हुए जवानों पर इनका मौन क्यों? सच मानिए, अत्यंत ही पीड़ा के साथ मैं इन्हें एक 'गिरोह' के रूप में प्रस्तुत कर रहा हंू। अपने पत्रकारीय दायित्व के निर्वाह के दौरान प्राय: प्रतिदिन इनसे दो-चार होना पड़ता है। अनेक बार नजदीक से इन्हें नंगा भी देख चुका हूं। अपने ही सिर के बाल नोच लेने की इच्छा होती है इन मुखौटाधारियों की हरकतों को देख-सुनकर। कोफ्त होती है जब इन्हें घोर साम्प्रदायिक, विकृत मकबूल फिदा हुसैन के समर्थन में सड़कों पर निकलते देखता हूं। पीड़ा होती है बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन के अश्लील शब्दों पर इन्हें परदा डालते देख। समाज के यथार्थ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लील-आपत्तिजनक फिल्म बनानेवाली दीपा शाह के बचाव में यही वर्ग सामने आया था। 'सोशल एक्टिविस्ट' अर्थात्ï सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में महिमा मंडित अरुंधति राय और मेधा पाटकर का मैं सम्मान करता हूं। किन्तु दंतेवाड़ा नरसंहार पर इनका मौन क्या विस्मयकारी नहीं! ये चुप हैं तो क्यों? कहां गईं इनकी सामाजिक मानवीय संवेदनाएं? जवानों की विधवाओं एवं परिजनों के आंसुओं पर इनकी आंखों के कोर नम क्यों नहीं हुए? पाषाण दिल तो ये हैं नहीं, तब क्यों नहीं यह मान लिया जाए कि ये 'सोशल' हैं तो सिर्फ अपने स्वार्थवश, और स्वार्थ ऐसा जो शहीदों का सौदा करने में भी नहीं हिचके। एक हैं तीस्ता सीतलवाड़। मानवाधिकार के नाम पर ये भी विभिन्न अदालतों में, आयोगों में याचिकाएं दायर करती रहती हैं। लेकिन इनकी सारी मशक्कत एक सम्प्रदाय विशेष के इर्दगिर्द ही घूमती रहती है। वैसे, गवाहों और कथित पीडि़त पक्षों को प्रलोभन देने, प्रभावित करने के आरोप इन पर लग चुके हैं। लेकिन, 'गिरोह' इनके महिमामंडन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। फिर क्या आश्चर्य कि तीस्ता सीतलवाड़ भी दंतेवाड़ा नरसंहार पर चुप हैं! यह 'गिरोह' का आतंक ही है जो ऐसे कठोर सच को सतह पर आने से रोकता रहता है। लेकिन अब और नहीं। दंतेवाड़ा की घटना पर इस 'गिरोह' के मौन ने इन्हें बेपर्दा कर दिया है। दंतेवाड़ा नरसंहार के शहीद भी मानवाधिकार के आकांक्षी हैं। इनके परिजनों को भी न्याय चाहिए। अन्यथा निश्चय मानिए, एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब देश में सुरक्षा प्रहरियों का अकाल पड़ जाए! और तब इन स्वयंभू मानवाधिकार संरक्षकों की रक्षा कौन करेगा?

Wednesday, April 7, 2010

गैरजिम्मेदार साबित हुए गृहमंत्री पी. चिदंबरम

केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम इस कड़वे सच को स्वीकार कर लें कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 6 अप्रैल 2010 की सुबह 76 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के जवानों की नक्सलियों के हाथों मौत के लिये वे सीधे जिम्मेदार हैं। दंतेवाड़ा के इस नरसंहार को 'बर्बर' बताने वाले चिदंबरम निश्चय ही 'कायर' शब्द के अर्थ को जानते होंगे। अगर नहीं, तो उन्हें गृहमंत्री पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। वैसे भी इस बर्बर कांड के बाद उन्हें स्वयं ही इस्तीफा दे देना चाहिए। नक्सलियों के इस दुस्साहस को सरकार किस रूप में लेती है, इस पर कौन सी कार्रवाई करती है, इसकी प्रतीक्षा रहेगी। बहरहाल जो सच रेखांकित हुआ है वह यह कि नक्सलियों की यह कार्रवाई केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम के उस बयान की परिणति है जिसमें उन्होंने नक्सलियों को कायर (डरपोक) निरूपित किया था। अब पूरा देश चिदंबरम के बयान पर क्रोधित है। केंद्रीय गृहमंत्री को ऐसा भड़कानेवाला बयान नहीं देना चाहिए था। देश में बढ़ते नक्सली प्रभाव पर काबू पाने का यह 'चिदंबरम तरीका' स्वीकार्य नहीं है।
एक ओर जब नक्सली खुलेआम घोषणा कर रहे हैं कि सन् 2050 तक वे देश की केंद्रीय सत्ता पर कब्जा कर लेंगे, केंद्रीय गृहमंत्री के भड़काऊ बयान को एक 'अपरिपक्व मस्तिष्क की उपज' की श्रेणी में डाला जाएगा। गंभीर नक्सली चुनौती का गंभीर-कारगर उपायों से सामना किया जाना चाहिए, ना कि बचकाने राजनीतिक बयानों से। देश के अनेक राज्य आज नक्सली आतंक के साये में हैं। केंद्र सरकार के साथ-साथ प्रभावित राज्य सरकारें भी विशेष योजना बनाकर इन्हें समाप्त करने में जुटी हैं। बंदूकों के साथ-साथ आपसी बातचीत के जरिये भी समस्या समाधान के उपाय ढूंढे जा रहे हैं। यह तो निर्विवाद है कि नक्सल समस्या एक सामाजिक समस्या है, इसका निदान समस्या के कारणों को चिन्हित कर निराकरण से ही संभव है। बंदूक स्थायी हल नहीं हो सकते। नक्सल इतिहास के जानकार पुष्टि करेंगे कि हथियारों के जरिये सामाजिक शोषण व अन्याय से मुक्ति का रास्ता नक्सलियों ने कथित तौर से अंतिम उपाय के रूप में अपनाया है। इसकी सचाई पर बहस हो सकती है किंतु संपूर्णता में इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। चिदंबरम नक्सलियों को डरपोक बताते समय यह भूल गये कि उनके शब्द प्रति उत्पादक सिद्ध होंगे और नक्सली अपनी कथित 'कायरता' को गलत साबित करने के लिये 'बर्बर' बन जाएंगे।
गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम बिल्कुल अयोग्य साबित हो रहे हैं। एक व्यक्ति के रूप में उनकी सज्जनता और एक शासक के रूप में वांछित योग्यता असंदिग्ध है। फिर उन्होंने ऐसी बचकानी हरकत कैसे कर डाली? या तो उनके मस्तिष्क में अहंकार प्रवेश कर चुका है या फिर वे भी उस बड़बोलेपन के शिकार हो चुके हैं, जिसके लक्षण केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनेक मंत्रियों में इन दिनों पाए गए हैं।
शरद पवार, ममता बनर्जी, शशि थरूर, एन. कृष्णा, मणिशंकर अय्यर, रमेश जयराम आदि मंत्रीगण अपने घोर गैरजिम्मेदार बयानों के लिये कुख्यात हो चुके हैं। हर कोई 'अपनी डफली, अपना राग' की तर्ज पर बयानबाजी कर रहा है। मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा को चुनौती देते हुए ये कभी सरकार की नीतियों का मखौल उड़ाते हैं तो कभी अपने सहयोगियों की कार्यप्रणाली का। स्वयं को दूसरे से अधिक ज्ञानी साबित करने की होड़ में यह प्राय: भूल जाते हैं कि वे भारत सरकार के एक मंत्री हैं, उनकी सामूहिक जिम्मेदारी है, सरकार की नीतियों को क्रियान्वित करने के लिये वे शपथबद्ध हैं। इसके बावजूद जब वे प्रतिकूल आचरण करते दिख रहे हैं, तब निश्चय ही वे अहंकार ग्रसित हो चुके हैं। यही वह अहंकार था, जिसके वशिभूत केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने नक्सलियों को कायर करार दे आफत मोल ली। राजधर्म का निर्वहन आसान नहीं होता। इस कसौटी पर अयोग्य पात्र को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिलना चाहिए।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह क्या कभी इस पात्रता के मर्म को समझ पाएंगे? राजधर्म की चुनौती उनके सामने भी है, बल्कि उन पर ज्यादा है। दंतेवाड़ा नरसंहार के बाद अगर गृहमंत्री पी. चिदंबरम नैतिकता के आधार पर इस्तीफा नहीं देते, तब स्वयं प्रधानमंत्री कार्रवाई करें। तत्काल पी. चिदंबरम से इस्तीफा ले लें, अन्यथा चुनौती स्वयं उनकी पात्रता को ही मिलेगी।

Sunday, April 4, 2010

'बाजार' नहीं बनने दूंगा!

क्या समझौता, आत्मसमर्पण और चाटुकारिता की आत्मघाती तिकड़ी के समक्ष मूल्य, सिद्धांत और प्रतिबद्धता का पवित्र मीनार नतमस्तक हो जाए? ऐसा पुनर्मंथन इसलिए कि मेरे अनेक पुराने मित्र, शुभचिंतक इस बहस के लिए मजबूर कर देते हैं। पिछले दिन रांची-दिल्ली में था। पहले रांची में मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने और अगले दिन दिल्ली में पुराने मित्र-शुभचिंतक केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने पूछ डाला कि - 'विनोदजी, आपकी यह यात्रा कब खत्म होगी?' सहाय ने तीन वर्ष पूर्व भी यह सवाल तब पूछा था जब मैंने न्यूज चैनल 'इंडिया न्यूज' में संपादक का पदभार संभाला था। कुछ ऐसी ही जिज्ञासा 'लोकमत समाचार' पत्र-समूह के अध्यक्ष सांसद विजय दर्डा ने सन् 2006 के मध्य में तब प्रकट की थी जब मैं नागपुर से दिल्ली गया था। उन्होंने पत्र लिखकर पूछा था कि ''.... जीवन में सबकुछ अपने मन मुताबिक नहीं होता विनोदजी। 'मन' अपना होता है और 'जग', जिस पर हम दूर से अपना अधिकार बताते हैं, वह किसका हुआ है जो आपका होगा? फिर क्यों 'मृगजल' की ओर आप भाग रहे हैं?'' सुबोधजी द्वारा पुन: इस सवाल के खड़ा किए जाने से मेरा मन पूर्व की ओर फिर व्यथित हो उठा। बार-बार जवाब को दोहराने की मजबूरी के बीच सुकून ढूंढ लेता हूं। अब यह किस-किस को कितनी बार बताता चलूं कि मैं पत्रकारिता की उन ऊंचाइयों को ढूंढता रहा हूं जिन्हें मैं बचपन में ही देख चुका हूं.... फिर यात्रा समाप्त हो तो कैसे? पत्रकारिता की वर्तमान दशा-दिशा से व्यथित होकर मैं समझौते को तैयार नहीं हूं। मूल्य-सिद्धांत और 'मिशन' की प्रतिबद्धता मेरे लिए सवोच्च है। सुबोधजी की ताजा जिज्ञासा इस 'दैनिक 1857' के प्रकाशन को लेकर थी। उनकी बेचैनी मैं समझ सकता हूं। एक सच्चे शुभचिंतक के नाते वे बेचैन थे। लेकिन जब लक्ष्य तय कर दिया तो फिर उस मुकाम पर पहुंचने की जिद से पीछे कैसे? सुबोधजी ने मेरे 'जीवट' को रेखांकित किया। हां, यह मेरी पूंजी है। और पूंजी है मेरा आत्मबल, मेरा आत्मविश्वास। लक्ष्य और लालसा है एक तटस्थ पाठकीय मंच की। एक ऐसा मंच जहां से सच और साहस प्रस्फुटित हो। लुप्त होती पत्रकारीय विश्वसनीयता जाज्वल्यमान हो। कलम पर कलंक न लगे। सच सुरक्षित रहे, साहस कायम रहे। संदेह की परछाई पाठकों के पास न फटके। राह कठिन तो है किन्तु इसे सुगम बनाने के प्रति कृतसंकल्प हूं। पत्रकारिता में अनेक विषाणुओं के प्रवेश के बावजूद नैतिकता एवं मूल्य पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं। दबाव एवं प्रलोभन के बावजूद युवा पत्रकारों की एक बड़ी फौज पाठकीय व सामाजिक हित के प्रति समर्पित है। यह वर्ग बिकने को तैयार नहीं। ऐसे में भला कोई निराश कैसे होगा? हां, यह ठीक है कि बाजार के दबाव व पूंजी के महत्व के बीच पत्रकारीय अपेक्षा की पूर्ति दिन-ब-दिन कठिन होती जा रही है। किन्तु मैं अपनी इस मान्यता पर कायम हूं कि बाजार और पूंजी के दबाव के बावजूद ऐसी विषम स्थिति का मुकाबला किया जा सकता है। उदाहरण मौजूद हैं कि पूंजीपतियों के अखबार भी बंद हो चुके हैं। अंबानी घराने का दैनिक 'बिजनेस एंड पालिटिकल आब्जर्वर', साप्ताहिक 'संडे आब्जर्वर' तथा रेमंड्स ग्रुप (सिंघानिया) का दैनिक 'इंडियन पोस्ट' बंद हो चुके हैं। प्रसंगवश दैनिक 'द इंडिपेंडेंट' का उदाहरण भी मौजूद है। इस अखबार का मुंबई से प्रकाशन टाइम्स आफ इंडिया के समीर जैन ने ही शुरू किया था। अपनी जिद में एक नई पृथक कल्पना के साथ अपने ही 'टाइम्स आफ इंडिया' के मुकाबले इस अंग्रेजी दैनिक को खड़ा किया था। अंतत: 'द इंडिपेंडेंट' अकाल मृत्यु का शिकार हुआ। निश्चय ही ये उदाहरण प्रमाण हैं कि अखबार सिर्फ बड़ी पूंजी से ही नहीं चलते। आपका यह अखबार भी इसी तथ्य के पाश्र्व में निकला है। इसका पूंजीधारक विशाल पाठकवर्ग है। संरक्षण का कवच उसने ही प्रदान कर रखा है। उनकी अपेक्षा और विश्वास के साथ ही मेरी यात्रा जारी है। जिस दिन लक्ष्य पर पहुंच जाऊंगा, यात्रा स्वत: समाप्त हो जाएगी। तब तक पत्रकारिता को 'बाजार' बनने से रोकने के लिए अपनी ऊर्जा व्यय करता रहंूगा।

Friday, April 2, 2010

वैवाहिक मामलों में यह कैसी सियासत!

धर्म, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र का यह कैसा जहरबुझा तीर जो बार-बार भारतीय समाज के सीने बेधता रहता है! संवैधानिक रूप में स्थापित धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देता रहता है! क्या हो गया है हमारी सोच को? विकास, महंगाई, गरीबी, सामाजिक विषमता सहित अनेक ज्वलंत मुद्दों पर ध्यान देने की जगह हम गैरजरूरी, नितांत व्यक्तिगत मामलों को साम्प्रदायिक रंग देकर समाज को तोडऩे या समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने के जिम्मेदार बनते जा रहे हैं! निश्चय ही ये बातें राष्ट्रीय सोच की अवमानना हैं। विश्व समुदाय में धर्मनिरपेक्ष भारत की विशिष्टता को समाप्त करने का यह षडय़ंत्र अक्षम्य है। विख्यात टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा के विवाह को लेकर उत्पन्न विवाद भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक से विवाह करने का सानिया का निर्णय एक नितांत निजी मामला है। फिर इस पर हायतौबा क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि सानिया एक मुस्लिम है और वह एक मुस्लिम पाकिस्तानी के साथ शादी करने जा रही है? क्या गलत है इसमें? भारत से टूटकर अलग बने पाकिस्तान और भारत में दोनों देशों के अनेक रिश्तेदार बसते हैं। सियासी खिलाडिय़ों को अलग कर दें तो भारत और पाकिस्तान के बाशिंदे आज भी परस्पर भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। सम्प्रदाय के नाम पर विरोध के ऐसे स्वर निकालने वाले सियासत के वैसे खिलाड़ी हैं जिनका धंधा ही नफरत फैलाना है, धर्म की राजनीति ही इनका पेशा है। शोएब के साथ सानिया मिर्जा के विवाह को लेकर आवाज उठाने वाले चाहते ही नहीं कि देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र कायम रहे। मैं चाहूंगा कि ऐसे तत्व सानिया मिर्जा के पूर्व मंगेतर सोहराब मिर्जा से कुछ सीख लें। सगाई टूटने से सोहराब आहत तो हैं किन्तु वे सानिया के लिए दुआ कर रहे हैं और उसकी उपलब्धियों पर गौरवान्वित हैं। कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ सानिया का नाम जोड़कर चरित्र हनन करने वालों से सोहराब ने अनुरोध किया है कि वे सानिया पर कोई कलंक न लगाएं। सोहराब का यह बड़प्पन अनुकरणीय है। शिवसेना ने तो खैर अपने चरित्र के अनुरूप सानिया मिर्जा की आलोचना की है। भौंडे ढंग से उसने टिप्पणी की है कि कई करोड़ भारतीय मुसलमानों को छोड़कर सानिया ने एक पाकिस्तानी मुसलमान को पसंद किया। ऐसी घटिया टिप्पणी की भत्र्सना की जानी चाहिए। हर व्यक्ति को अपना जीवनसाथी चुनने की आजादी है। स्वदेशी या विदेशी इस मार्ग में बाधा नहीं बनते। सानिया ने वस्तुत: अपनी पसंद के जरिए दोनों देशों के बीच मौजूद खाई को कम करने की कोशिश की है। सानिया और शोएब दोनों खेल जगत के चमकते सितारे हैं। दोनों के बीच निकटता को सकारात्मक रूप में लेते हुए अनुकरणीय बनाया जाए। और सियासत के खिलाड़ी बेहतर हो विवाह जैसे निजी मामलों से दूर ही रहें।