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Tuesday, December 30, 2008

अब हर नागरिक सिर्फ 'भारतीय' है!

सन् 2008 का आज अंतिम दिन है. वह 2008, जिसने विभिन्न क्षेत्रों में विकास एवं उपलब्धियों के आकाश चूमे. वह 2008, जिसने युवा-प्रतिभाओं को मुखर किया. वह 2008, जिसने शहादत की मिसालें कायम की. वह 2008, जिसने भविष्य में भारत के विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त करने के लक्ष्य को मजबूती दी, गति प्रदान की. भविष्य के लिए संयोजित सपनों के सच होने के प्रति विश्वास दिला कर विदा हो रहा है सन् 2008. लेकिन इन सब मनमुदित करने वाली सकारात्मक बातों के बीच यह सचाई भी रेखांकित हुई कि यह 2008 आतंकवाद की घनघोर कालिमा से आच्छादित भी रहा. ऐसे में यह संभव नहीं कि सन् 2008 की अच्छी-बुरी घटनाओं को कुछ शब्दों में बांध मंथन कर लिया जाए.
सन् 2008 में घटित घटनाओं और सन् 2009 की संभावनाओं पर मैं कोई उपदेश देना नहीं चाहूंगा. कभी किसी ने कहा था कि उपदेश एक ऐसा माल है, जिसके खरीदार से अधिक विक्रेता होते हैं. मैं विक्रेता नहीं बनना चाहता. तथापि मैं इस अपेक्षा को अवश्य चिह्नित करना चाहूंगा कि राजनीति, धार्मिक आस्था और शासन में दु:खद विभाजन की भयावहता को पहचान हम 'भारतीय' और सिर्फ भारतीय बनें. धर्म के नाम पर 'राजनीति' के लिए राजनीतिक दल तो विभाजित होते ही रहे हैं, पिछले दिनों यह देखकर आघात पहुंचा कि शासन भी ऐसी तुच्छता का शिकार हो गया. आतंकवादी घटनाओं की छानबीन के दौरान कतिपय हिन्दू संतों-साध्वी और हिन्दू संगठनों से जुड़े कुछ लोगों की गिरफ्तारियों पर ऐसा विभाजन खतरनाक हद तक दृष्टिगोचर हुआ. किन्तु अशांत जम्मू-कश्मीर में जम्हूरियत की ऐतिहासिक जीत ने न केवल आतंकवाद के पड़ोसी पाकिस्तान, बल्कि घाटी में सक्रिय अलगाववादी तत्वों और उनके समर्थकों को साफ शब्दों में जता दिया कि कश्मीर भारत का और सिर्फ भारत का अविभाज्य अंग है. अब हम यह आशा कर सकते हैं कि वहां की नई लोकतांत्रिक सरकार क्षेत्र में अशांति-दहशत पैदा करने वाले तत्वों को उनकी औकात बता देगी.
पिछले दिनों मुंबई सहित देश के अनेक भागों में आतंक का खूनी खेल खेलने वाले अब चेत जाएं. भारत जाग चुका है. यहां का प्रत्येक नागरिक अब सिर्फ भारतीय है- पंजाबी, मराठी, बंगाली, गुजराती, उडिय़ा, उत्तर-पूर्वी या उत्तर-दक्षिणी नहीं! पहले संसद और अब मुंबई पर हमला कर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों ने हमारी राष्ट्रीय चेतना को सही अर्थांे में जागृत कर दिया है. निश्चय ही आगामी कल आने वाले सन् 2009 में ज्ञानेश्वरी के वचन 'हे विश्वची माझे घर' को आत्मसात करते हुए भारत वैश्विक ग्राम के मुखिया पद पर अपना दावा ठोक देगा. प्रांतीयता, भाषा, धर्म और जाति की संकीर्णता का त्याग कर समाज में खड़ी कृत्रिम दीवारों को हम धराशायी कर देंगे. अब देश इन कृत्रिम दीवारों की चुनौतियों से इतर सिद्धांतों और विचारों की चुनौती का सामना करने को तैयार है. अब हम विश्व को यह बता देंगे कि भारत अपने ही सिद्धांतों व नीतियों पर चलेगा - आयातित या थोपे गए सिद्धांतों पर नहीं!
इस बार नव-वर्ष का हमारा संकल्प मात्र औपचारिकता नहीं, बल्कि व्यवहार की कसौटी पर उत्तीर्ण दृढ़ संकल्प होगा. और वह संकल्प होगा - शांति और अतुलनीय प्रगति का. साहस और सम्मान की शक्ति के साथ भारत संकल्प को मूर्तरूप देगा, इस विश्वास के प्रति मैं देशवासियों को आश्वस्त कर देना चाहूंगा.

Friday, December 26, 2008

नासूर बन चुके 'घाव' से मुक्ति क्यों नहीं?


इन दिनों बुद्धिजीवियों के बीच एक रोचक बहस छिड़ी हुई है- भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध को लेकर. मैं जानबूझकर यहाँ 'युद्ध' के पहले संभावित शब्द से परहेज कर रहा हूँ. क्योंकि बहस ही इस पर केंद्रित है कि युद्ध होगा या नहीं! समझदार-विवेकी तर्कयुक्त भविष्यवाणी कर रहे हैं कि युद्ध नहीं होगा. अतिउत्साही, जोशीले युद्ध होने के पक्ष में हैं. किसी युद्ध के नफा-नुकसान को समझ पाने में असमर्थ वर्ग तटस्थ है. मीडिया भी इस मुद्दे पर विभाजित है. विवेक के आधार पर संभावना तलाशने की प्रक्रिया में मैं पहुँच जाता हूँ सच के उस सागर में, जहां 'युद्धोन्माद' हिलोरें मारता दिखता है. और तब अवतरित होता है समान-बिंदु पर आरोप-प्रत्यारोप का सैलाब. सोचने को मजबूर हो उठता हूं कि आखिर ऐसे झूठ पर सच का मुलम्मा हम क्यों चढ़ाएँ! यह पीड़ा अकारण नहीं है.
पाकिस्तान के हुक्मरानों का आरोप है कि भारत युद्ध का उन्माद पैदा कर रहा है. पाकिस्तानी संसद प्रस्ताव पारित करती है कि भारत, अपने आतंकवादी अड्डों को खत्म करें. इसके पूर्व भारतीय शासक बार-बार चेतावनी देते रहे हैं कि पाकिस्तान न केवल अपने यहां मौजूद आतंकवादी अड्डों को खत्म करे, बल्कि भारत में हुए आतंकवादी हमलों के दोषियों को हमारे हवाले करे. पूरा संसार इस सचाई से परिचित है कि पाकिस्तान विश्व-आतंकवाद का पोषक है, आतंकवादियों की शरणस्थली है. साफ है कि विश्व-समुदाय के दबाव से पाकिस्तान अब झूठ का सहारा ले भारत को ही दोषी ठहराने की बेशर्म कोशिश करने लगा है. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का ताजा बयान प्रमाण है.
अभी कुछ दिन पहले ही शरीफ ने इस बात की पुष्टि की थी कि मुंबई हमले में गिरफ्तार आतंकी अजमल आमिर कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट का रहने वाला है. अब इससे पलटते हुए वे भारत से सबूत मांग रहे हैं. खैर, पाकिस्तान से ईमानदारी और सकारात्मक सोच की अपेक्षा हम नहीं कर रहे. मैं यहाँ सचाई की कसौटी पर भारतीय शासकों को कसना चाहूँगा. और अनुरोध करूँगा मीडिया से कि वह युद्धोन्माद के सच को चिह्नित करे. मुंबई पर आतंकी हमले के बाद क्या भारत सरकार के मंत्रियों ने पाकिस्तान को चेतावनी देते हुए उसे 'अल्टीमेटम' नहीं दिया था? क्या हर 'विकल्प' खुला रहने की बात नहीं की थी? अर्थात् अगर बात युद्धोन्माद की, की जाए तो इसकी शुरुआत पर अब बहस क्यों? क्या यह राजनीतिक विवशता की माँग है?
यह तो जगजाहिर है कि भारत सरकार के कड़े, किंतु बिल्कुल उचित रुख के बाद पूरे भारत देश में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों को नेस्तनाबूद करने की आवाजें उठने लगी थीं. फिर जब झूठे-बेईमान पाकिस्तानी शासकों ने भारत पर ही तोहमत लगाना शुरू किया, तब सरकार यह कह कर कि 'पाक युद्धोन्माद पैदा न करे' बचाव की मुद्रा में क्यों आ गई? शासक क्षमा करेंगे, यह कायरपन है. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की शांति-अपील से हम सहमत हैं. लेकिन पूर्व की भाँति शासकगण कृपया चौराहे पर खड़े होकर दिशाभूल के अपराधी न बनें. लक्ष्य-दिशा पहले तय कर लें.
पाकिस्तान के दोगलेपन से पूरा संसार परिचित है. 1947 में विभाजन के बाद से लेकर अब तक भारत उसके झूठ-फरेब का शिकार होता रहा है. पाकिस्तान प्रशिक्षित या यूँ कहें कि पाकिस्तानी आतंकवादियों के कारण अब तक हजारों भारतवासी अपनी जान गंवा चुके हैं. भारत की अर्थव्यवस्था इनके कारण ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती रही है. पाकिस्तान की करतूतों का खामियाजा भारत के प्रत्येक नागरिक को भुगतना पड़ा है. 1965 व 1971 के युद्ध के बाद पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था की वापसी के लिए प्राय: हर उपयोगी वस्तु पर लगाये गये सरचार्ज की पीड़ा वर्षों तक देश के लोग सहते रहे. इस पाश्र्व में युद्ध से परहेज करने का सुझाव तर्कसंगत तो है, किंतु जब 'घाव' छह दशक पुराना हो जाए तब उसके स्थायी इलाज के लिए शल्यक्रिया तो करनी ही होगी.
हम बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की इस सोच पर सहमत हैं कि युद्ध किसी भी पक्ष के लिए हितकारी साबित नहीं होगा, किंतु क्या कोई अन्य विकल्प उपलब्ध है? अमेरिका-चीन के हस्तक्षेप के बाद भी अगर पाकिस्तान, भारत की माँगों के अनुरूप आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्रों को खत्म नहीं करता, आतंकी हमलों के दोषियों को नहीं सौंपता, भविष्य में ऐसी हरकतों से बाज आने की गारंटी नहीं देता, तब भारतीय शासक दृढ़-इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए 'निर्णायक कदम' उठाने से नहीं हिचकें. यह समय की माँग है, यह भारतवासियों की माँग है. यह कदम शांति और अहिंसा का प्रचारक भारत इसलिए उठाएगा, ताकि न केवल भारत बल्कि विश्व में आतंकवाद समूल नष्ट हो, शांति स्थापित हो. 'घाव' से मुक्ति के लिए शल्य चिकित्सक औजार उठाता है, तो मरीज के हक में ही. यहाँ तो घाव, 'नासूर' की शक्ल अख्तियार कर चुका है. उससे मुक्ति के लिए हिचकिचाहट क्यों?

एस.एन. विनोद
26-12-2008

Tuesday, December 23, 2008

गलत है 'मुस्लिम वोट-बैंक' का संबोधन


शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के इस कथन को क्या कोई चुनौती दे सकता है कि मुस्लिम 'वोट-बैंक' को फिर से बटोरने के प्रयास में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय मंत्री ए. आर. अंतुले को बर्खास्त करने से कतरा रही है? सभी राष्ट्रभक्त चाहेंगे कि उद्धव की यह आशंका निर्मूल साबित हो. किन्तु यह कड़वा सच मुखर है कि देश का बहुमत उद्धव की सोच के साथ है. बात सिर्फ कांग्रेस तक ही सीमित नहीं है. वोट के लिए समाज व देश-हित को हाशिये पर रखते रहने वाले नेताओं के चेहरे बेनकाब होने लगे हैं. लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायमसिंह यादव द्वारा अंतुले का समर्थन किसी सिद्धांत पर आधारित कतई नहीं है. दर्शन की बात तो छोड़ ही दें!
अंतुले तो कम-अज-कम 'अल्लाह' से डरने की बात स्वीकारते हैं, किन्तु हमारे ये तीनों 'कथित समाजवादी' इस बिन्दु पर अंतुले की तरह ईमानदार नहीं हैं. अंतुले के खिलाफ कार्रवाई के मामले में कांग्रेस नेतृत्व की हिचकिचाहट ने उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है. ''चुनाव नहीं, देशहित सर्वोपरि'' की घोषणा करने वाले कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी अब क्या कहेंगे? कहीं 'कथित मुस्लिम वोट-बैंक' की खातिर राहुल भी मौन-धारण तो नहीं कर लेंगे! सर्वेक्षण करालें, देश का मुस्लिम समाज स्वयं को 'बैंक' कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है. वोट की गंदी राजनीति ने इसके पहले भी राजनीति के आवश्यक सिद्धांत-मूल्य, आदर्श और चरित्र की हत्या की है. अनेक प्रतिभाएं इस कालिमा की शिकार हो असमय काल-कवलित हो चुकी हैं. मुझे ही नहीं, देश के एक बहुत बड़े वर्ग को राहुल से देशहित में ईमानदार व नि:स्वार्थ नेतृत्व की आशा है. क्या वे निराश करेंगे? कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी को भाँप कर ही अंतुले ने ताजातरीन बयान में राष्टï्रीय जाँच एजेंसी (एन.आई.ए.) के गठन के औचित्य पर सवाल खड़े कर दिये हैं.
अंतुले के अनुसार इस एजेंसी का गठन कर सरकार ने यह साबित कर दिया कि वह गलत दिशा में जा रही है. क्या अभी भी किसी को शक है कि अंतुले पागल नहीं हो गये है? कोई भी सरकारी फैसला मंत्रिमंडल का सामूहिक निर्णय माना जाता है. क्या अंतुले ने मंत्रिमंडल में इस एजेंसी के गठन पर आपत्ति उठाई थी? अगर, आपत्ति के बावजूद सरकार ने एजेंसी गठन को हरी झंडी दी, तब नैतिकता का तकाजा था कि अंतुले अपने पद से इस्तीफा दे देते! लेकिन बैरिस्टर अंतुले ने ऐसा नहीं किया. क्यों? यह स्वयं में एक शोध का विषय है.
देश चिन्तित हैं 'मुस्लिम वोट-बैंक' के लिए विभिन्न राजदलों में जारी छीना-झपटी को लेकर. मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि देश का प्रबुद्ध मुस्लिम मतदाता 'बैंक' बन कर ऐसे राजदलों को अपने यहां खाता खोलने के लिए आमंत्रित करेगा. द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर विभाजन की पीड़ा के धारक समान रूप से हिन्दू-मुसलमान दोनों हैं. लगभग 10 लाख लोगों की मौत का इतिहास अभी पुराना नहीं पड़ा है. अंग्रजों की साजि़श के उस खेल की याद से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कोई उस भूल को दोहराने की सोचे भी नहीं! क्या यह बताने की जरूरत है कि स्वयं कायदे-आज़म जिन्ना, विभाजन पर अपने जिन्दगी के अंतिम दिनों में सौ-सौ आंसू बहाते रहे! जिन्ना के चिकित्सक डॉ. कर्नल इलाहीबख्श ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में लिखा था कि जिन्ना ने मृत्युपूर्व उनसे कहा था, ''डॉक्टर, पाकिस्तान इज दि ग्रेटेस्ट ब्लंडर ऑफ माई लाइफ!'' अर्थात् ''पाकिस्तान मेरी जिन्दगी की सबसे बड़ी भूल है!'' निश्चय ही ये शब्द जिन्ना के अपराध-बोध को चिन्हित करते हैं!
आज़ादी के छह दशक बाद वोटों के लिए हिन्दू-मुसलमान के बीच विभाजन रेखा खींचने की कोशिश करने वाला देशहित चिंतक तो कदापि हो नहीं सकता! मुझे खुशी है कि अल्पसंख्यक संगठन मुस्लिम फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी ने आगे बढ़ते हुए अंतुले के बयान की न केवल निन्दा की है, बल्कि उनसे इस्तीफे की मांग भी की है. लालू-मुलायम-पासवान चेत जाएं इस संगठन से सबक लें. अगर सचमुच इनके दिलों में मुस्लिम-प्रेम है, तब वे राष्टï्रीय मुख्यधारा से मुसलमानों को अलग करने की कोशिश न करें. हिन्दू व अन्य भारतीयों की तरह मुसलमानों का भी भारत देश पर समान अधिकार है. आतंकवाद को लेकर जारी वैश्विक तनाव के बीच साम्प्रदायिकता को हवा देना आत्मघाती होगा. कोई भारतीय इसे सहन नहीं करेगा.
एस. एन. विनोद
22 दिसंबर 2008

Sunday, December 21, 2008

अंतुले जी, कृपया जिन्ना की राह न चलें!


जिस बात का डर था, लगता है, वही मंचित होने जा रहा है. फिर भी मैं आशावान हूं कि भारत अपना विवेक नहीं खो सकता. लेकिन आशा की इस डोर पर कतिपय भ्रमित राजनीतिकों के प्रहार की उपेक्षा भी नहीं कर सकता. दु:ख इस बात का है कि ये भ्रमित लोग किन्हीं 'अन्य कारणों' से लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष भारत की नींव पर चोट पहुंचा रहे हैं. बगैर इस तथ्य को समझे कि उनका यह कृत्य सर्वधर्म समभाव के सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर देगा. धर्मनिरपेक्षता की सफेद चादर साम्प्रदायिकता के खून से लाल हो जाएगी. साम्प्रदायिक घृणा व द्वेष का ज़हर देश को खंडित कर देगा. मेरी आशंका बेबुनियाद नहीं है.
मुंबई पर आतंकी हमले के दौरान शहीद वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की मौत पर सवालिया निशान लगाने वाले केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले की हठधर्मिता संदेहों के घेरे में है. क्या अकारण? .....नहीं! आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने किसी 'बाहरी शक्ति' के इशारे पर देश की जनता को विभाजित करने के उद्देश्य से बयान दिया था. इस संगीन आरोप का जवाब तो अंतुले को देना ही होगा. पूरा देश स्तंभित है अंतुले को साम्प्रदायिक आधार पर मिल रहे ताजा समर्थन को देख. यह एक अत्यंत ही खतरनाक घटना विकासक्रम है. इसके पूर्व अंतुले के बयान पर इसी स्तंभ में की गई मेरी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कुछ मित्रों ने लिखा है कि ''....टिप्पणी 'इमोशन' आधारित है.'' मैं चाहूंगा कि वे मित्र इस ताजा स्थिति पर गौर करें. अंतुले के बयान के समर्थन में पक्ष-विपक्ष के कुछ मुस्लिम नेताओं का एक होना और उर्दू-मीडिया द्वारा उन्हें महिमा मंडित करना क्या अनर्थ-सूचक नहीं! अंतुले नमाज पढऩे जाते हैं, तब उन्हें घेर कर पीठ थपथपाई जा रही है. क्या इसे साम्प्रदायिक-विभाजन का पूर्व संकेत नहीं माना जाएगा? पाकिस्तानी मीडिया भी अंतुले को हीरो बना रहा है. हेमंत करकरे की शहादत पर वहां के अखबार विशेष सम्पादकीय लिख भारत सरकार से मांग करने लगे हैं कि मुंबई हमले के मामले में आये इस नये मोड़ (अंतुले-बयान) पर ध्यान दिया जाना चाहिए. भारत के उर्दू-अखबार तो खुलकर अंतुले के बयान की तारीफ कर रहे हैं. क्या अंतुले देश में साम्प्रदायिक आधार पर ऐसा ही विभाजन चाहते हैं? मैं अभी भी अंतुले को संदेह का लाभ देने को तैयार हूं. सिर्फ इसलिए कि वे एक भारतीय हैं.
कांग्रेस के दबाव के बावजूद अंतुले बयान वापस लेने को तैयार नहीं दिखते. वे तो उलटे कांग्रेस को नसीहत दे रहे हैं कि उनके बयान पर पार्टी को गर्व होना चाहिए. खेद है कि अंतुले अविभाजित भारत के इतिहास को नज़रअंदाज कर रहे हैं. मुस्लिम, मुस्लिम देशों व उर्दू मीडिया के अस्थायी समर्थन पर वे प्रफुल्लित न हों. वे यह कैसे भूल जाते हैं कि अपने शासनकाल के दौरान अंग्रेजों ने 'फूट डालो और शासन करो' की नीति पर चलते हुए हिन्दू-मुसलमान के बीच विभाजन की एक रेखा खींच दी थी, ताकि उनका राज चलता रहे. अंतत: जब ब्रिटिश शासकों ने अपने शासन का अंत भांप लिया, तब उन्होंने षडय़ंत्र रच कर भारत का विभाजन कर डाला. भारत की जमीन पर पाकिस्तान के रूप में एक ऐसे राष्ट्र का उदय हुआ, जो अब तक हमारे लिए 'सिरदर्द' बना हुआ है. ज्यादा विस्तार में जाने की जरूरत नहीं. आज़ादी के तत्काल बाद 1947 से लेकर अब तक की घटनाएं इस बात के प्रमाण हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल की सोच के विपरीत पाकिस्तान को लेकर भारत का दर्द कभी कम नहीं हुआ. बात जब इतिहास की है, तब मैं एक कड़वे सच से अब्दुल रहमान अंतुले को अवगत कराना चाहूंगा. यह ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद है कि नेहरू और पटेल ने भारत-विभाजन को यह सोचकर स्वीकार कर लिया था कि पाकिस्तान मान लेने पर मोहम्मद अली जिन्ना से उनका पिंड छूट जाएगा, फिर उनका नाम सुनने को न मिलेगा. नेहरू ने तब निजी रूप से इस संबंध में कहा था कि ''सिर काट कर हम सिरदर्द से छुटकारा पा लेंगे!'' आज अंतुले की पार्टी कांग्रेस असहज है, अस्वस्थ है, बेचैन है कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी और देश को अंतुले रूपी 'दर्द' से छुटकारा कैसे दिलायी जाए! अंतुले सावधान हो जाएं. इस बिन्दु पर शासक कांग्रेस से भी एक अपेक्षा है. वह इस 'दर्द' से छुटकारा पाने के लिए 'शल्य उपचार' तो करे, किन्तु राजनीतिक अनिवार्यतावश नहीं! उपचार हो देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप-चरित्र को बरकरार रखने हेतु. शल्यक्रिया हो हिन्दू-मुस्लिम एकता, भाईचारा को स्थायित्व देने हेतु. इसके लिए किसी 'राजनीतिक कुर्बानी' की जरूरत पड़े, तो कांग्रेस नेतृत्व हिचके नहीं!्र
एस. एन. विनोद
21 दिसंबर 2008

Thursday, December 18, 2008

पागल हो गए हैं अंतुले ?


सियासत के ऐसे विद्रुप चेहरे को देखकर अगर 'लोकतंत्र' आज विलाप कर रहा है तो बिल्कुल ठीक ही है. क्या हो गया है इस देश के कर्णधारों को? सैकड़ों वर्र्षों की गुलामी से भारत को निजात दिलाने वाले महात्मा गांधी सहित अन्य सभी दिवंगत स्वतंत्रता सेनानियों की आत्माएं भी विलाप कर रही होंगी. देश को गुलामी से मुक्त करा, लोकतंत्र का जामा पहनाकर उन्होंने राजनीतिकों के हाथों शासन इसलिए तो कतई नहीं सौंपा था कि वे हर अच्छी-बुरी घटनाओं में राजनीति और सिर्फ राजनीति सूंघें. क्या आश्चर्य कि आज लोगबाग राजनीतिकों को समाज का एक अत्यंत ही घिनौना पात्र समझने लगे हैं! लोकतंत्र की ऐसी असहज-लज्जास्पद स्थिति के लिए स्वयं राजनीतिक ही जिम्मेदार हैं. कुछ अपवाद छोड़ दें तों राजनीति को पेशा मान इसमें प्रविष्टï लोग 'पेशा' ही कर रहे हैं. इस वर्ग को न तो देश की चिंता है, न समाज की चिंता है, न लोकतंत्र की चिंता है और न ही उस कसम की, जो संविधान की रक्षार्थ इन्होंने खाई है.
ताजातरीन अंतुले प्रकरण से मैं हतप्रभ हूं. सत्तापक्ष का एक वरिष्ठ सदस्य, भारत सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले, लगता है, अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं. विगत माह देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर हुए आतंकी हमलों से जुड़ा उनका बयान मेरी इस आशंका की पुष्टिï करता है. एक सिरफिरा ही तो महाराष्टï्र एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) के प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल खड़े कर सकता है. अंतुले की नजर में करकरे आतंक के शिकार नहीं, बल्कि किसी साजिश के शिकार हुए. बगैर शब्दों को चबाए अंतुले यह कहने से नहीं चूके कि करकरे मालेगांव विस्फोट से जुड़े उन मामलों की जांच कर रहे थे, जिनमें कतिपय हिन्दूवादी संगठनों पर संदेह प्रकट किए गए थे. क्या अंतुले यह कहना चाहते हैं कि करकरे हिन्दूवादी संगठनों की साजिश के शिकार हुए? यह हरकत सिर्फ पागलपन नहीं, स्वयं में एक गहरी साजिश है. दो संप्रदायों के बीच घृणा, द्वेष, वैमनस्य पैदा कर उन्हें लड़ा देने की साजिश है. मैं ऐसे आचरण को आतंकवादी आचरण निरूपित करने के लिए बाध्य हूं. अंतुले दंडित किए जाएं. उन्हें मंत्रिमंडल से निकाला जाए. कांग्रेस उनकी सदस्यता रद्द करे और कानून उन्हें अपनी गिरफ्त में ले. ऐसे व्यक्ति को किसी भी जिम्मेदार पद पर बने रहने का हक नहीं है.
आलोच्य मामले की उत्पत्ति से राष्ट्रहित चिंतक समुदाय विचलित हो उठा है. वे सियासत के खिलाड़ी थे जिन्होंने दिल्ली स्थित बटाला हाउस में छुपे आतंकियों के हाथों शहीद हुए मोहनचंद शर्मा पर भी सवालिया निशान खड़े किए थे. समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने 'एनकाउंटर' पर सवाल उठाते हुए मामले की जांच की मांग की थी. बिल्कुल गैरजिम्मेदार व्यक्ति सरीखी हरकत के अपराधी अमर सिंह भी तब सियासत का खेल ही खेल रहे थे. क्या ऐसे लोगों के हाथों में देश कभी सुरक्षित रह सकता है? लोकतंत्र के नाम पर अपना घर-पेट भरने वाले राजनीतिज्ञ भला देश-समाज की चिंता कर ही कैसे सकते हैं? सत्ता वासना में डूबे इन मदांधों को अपनी इच्छापूर्ति के लिए सांप्रदायिक दंगा करवा देने से भी परहेज नहीं. मुंबई पर हमलों में शामिल आतंकियों को संदेह का लाभ देकर अंतुले ने यही प्रमाणित किया है. क्या इसी को सियासत कहते हैं? इसके पहले केन्द्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और केन्द्र सरकार के समर्थक समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायमसिंह यादव भी ऐसी हरकतें कर चुके हैं. सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए ही इन्होंने उस सिमी संगठन का पक्ष लिया था जो देश में आतंकवादी हमलों में हमेशा लिप्त पाया गया है. क्या ये सभी कानून से ऊपर हैं? कौन देगा इस सवाल का जवाब? राजनीति के हमाम में नंगों की फौज भला जवाब दे भी कैसे सकती है!
एस.एन.विनोद
18 दिसंबर 2008

Monday, December 15, 2008

नारायण राणे से पुलिसिया पूछताछ क्यों नहीं?


मेरा यह सीधा सवाल राज्य के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, गृहमंत्री जयंत पाटिल, पुलिस महासंचालक अनामी रॉय और आतंकवाद निरोधक दस्ता (एटीएस) प्रमुख के.पी. रघुवंशी से है. बता दूं कि यह सवाल जनभावना से प्रेरित है. सवाल यह कि जब सार्वजनिक रूप से राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे घोषणा कर रहे हैं कि कतिपय कांग्रेसी नेताओं के अंडरवल्र्ड सरगना दाऊद इब्राहिम के सहयोगियों से घनिष्ठ संबंध हैं तब अभी तक राणे से इस संबंध में पूछताछ क्यों नहीं हुई? एटीएस ने उनसे अब तक नाम जानने की कोशिश क्यों नहीं की? आखिर पुलिस किस अवसर की प्रतीक्षा कर रही है? मुंबई पर हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद राणे द्वारा लगाए गए आरोप अत्यंत ही गंभीर हैं. अब तक के जांच परिणाम से यह प्रमाणित हो चुका है कि मुंबई पर आतंकी हमलों के पीछे न केवल पाकिस्तान में संरक्षित आतंकवादी संगठनों का हाथ है, बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का सहयोग व समर्थन प्राप्त दाऊद इब्राहिम का भी हाथ है. ध्यान रहे, मुंबई पर आतंकी हमले की जांच के लिए अमेरिका व इजराइल की खुफिया एजेंसियां भारत का दौरा कर चुकी हैं. ऐसे में क्या आतंकवादियों के साथ नेताओं की घनिष्ठता का आरोप लगाने वाले नारायण राणे से पूछताछ नहीं की जानी चाहिए थी? यह तो पुलिस का कर्तव्य है कि वह सुराग देने वाले या सबूत होने की बात करने वाले हर व्यक्ति से पूछताछ करे. राणे तो एक अत्यंत ही जिम्मेदार व्यक्ति हैं. उन्होंने जब ऐसा आरोप लगाया तब वे विलासराव देशमुख मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य थे. चूंकि विलासराव के शासनकाल में मुंबई पर आतंकी हमला हुआ, उस सरकार के कैबिनेट मंत्री राणे के आरोप को गंभीरता से लिया जाना चाहिए था. खेद है, ऐसा नहीं हुआ. सरकार चुप रही. लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ, जिसे 'वॉच डॉग' के रूप में जाना जाता है, वह मीडिया भी प्रतीक्षारत है कि राणे अपनी ओर से कथित आरोपियों का नाम बतायें. निश्चय ही यह दायित्व के प्रति घोर लापरवाही का मामला है. ऐसा नहीं होना चाहिए. समय अभी भी शेष है. सरकार व पुलिस पहल करे और नारायण राणे से उनके द्वारा लगाये गये आरोपों की सत्यता की जांच करे. क्या एटीएस प्रमुख को यह याद दिलाने की जरूरत है कि आतंकवाद और अंडरवल्र्ड से संबंधित किसी भी सुराग की जानकारी प्राप्त होने पर त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए? जब किसी गुमनाम टेलीफोन कॉल पर पुलिस आनन-फानन में कॉल करने वाले का पता लगा उससे पूछताछ करती है तब ऐलानिया आरोप लगाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार व्यक्ति से पूछताछ क्यों नहीं? क्या पुलिस राणे के आरोप को सच मानने से इन्कार करेगी? तब नारायण राणे गलतबयानी कर सनसनी फैलाने के दोषी हैं. क्या यह आचरण भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं को आकर्षित नहीं करता? अनेक उदाहरण हैं जब ऐसे झूठ बोलने वालों को पुलिस ने गिरफ्त में ले दंडित किया है. लेकिन नारायण राणे के झूठ-सच का फैसला वस्तुत: पुलिस और जांच एजेंसियों को करना है. आतंकवादियों और अंडरवल्र्ड के साथ राजनेताओं की घनिष्ठता के आरोप सामान्य नहीं हैं. यही नहीं, पूरे महाराष्ट्र प्रदेश की प्रतिष्ठा का मामला है यह. राणे के आरोपों को ठंडे बस्ते में डाल देने से अनेक संदेह उत्पन्न होंगे. शासन ही नहीं, महाराष्ट्र प्रदेश की निष्कलंक छवि पर आंच आयेगी. प्रदेश की जनता इसके लिए तैयार नहीं है. बेहतर हो, शासन अविलंब कार्रवाई करते हुए झूठ- सच को जनता के सामने ला दे. अगर राणे के आरोप सही साबित होते हैं, तब आरोपियों को गिरफ्त में ले दंडित किया जाये. अगर आरोप गलत साबित होते हैं, तब नारायण राणे दंडित किये जायें.
एस. एन. विनोद
14 दिसंबर 2008

Saturday, December 13, 2008

अब देर क्यों,सबक सिखा ही दें

अब देर क्यों,सबक सिखा ही दें
पाकिस्तान को!
अब कोई राहुल गांधी को 'राहुल बाबा' न कहे. विगत गुरुवार को आतंकवाद के मुद्दे पर लोकसभा में उनका उद्बोधन परिपक्वता की ओर कदमताल का आगाज है. वैसे उनका उद्बोधन एक राजनीतिज्ञ, कर्तव्य एवं दायित्व के प्रति सतर्क-समझदार नागरिक और समर्पित देशभक्त को रेखांकित करता है. निश्चय ही यह उनके राजनीतिक प्रशिक्षक-सलाहकारों की बड़ी सफलता है. किन्तु मैं उन्हें सफलता का पूर्णांक तभी दूंगा जब वे अपने शब्दों को अमली जामा पहनाकर भारत को आतंकवाद मुक्त देश बनाने की दिशा में निर्णायक कदम उठाने के लिए सरकार को तैयार करें. अगर वे ऐसा नहीं कर पाए तब उनके लिए यह टिप्पणी सुरक्षित रख रहा हूं कि 'राहुल विशिष्टï नहीं, एक सामान्य राजनीतिज्ञ ही बन पाए.' क्या राहुल ऐसा चाहेंगे? ताजातरीन मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद से पूरा देश क्रोधित है. युवाओं में बेचैनी भरा आक्रोश है. पक्ष-विपक्ष सभी ऐसे आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को स्थायी सबक सिखाना चाहते हैं. सभी को अब अंजाम चाहिए. ऐसे आक्रोश के बीच जब राहुल यह कहते हैं कि 'हर भारतीय जान की कीमत आतंकियों को चुकानी होगी' तब 'अंजाम' के पक्ष में आशा बंधती है. ऐसी आशा तब विश्वास में तब्दील होगी जब भारतीय संसद ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया कि 'जब तक आतंकी हमले की योजना बनाने और उसमें मदद करने वाले सभी तत्वों को सजा नहीं मिल जाती तब तक भारत सरकार खामोश नहीं बैठेगी.'
अब गेंद भारत सरकार के पाले में है. चुनौती है उसे कि वह संसद के संकल्प को पूरा कर दिखाए. लेकिन सावधानीपूर्वक. वैश्विक आतंकवाद से जुड़े पुराने अनुभवों को ध्यान में रखकर ही भारत को कदम उठाना चाहिए. आज मुझे इस संदर्भ में सुविख्यात लेखक-पत्रकार-चिंतक (स्व.) कमलेश्वर की याद आ रही है. अमेरिका के विश्व-विख्यात वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद भारत में बढ़ते आतंकवाद पर उन्होंने एक लेख लिखा था. उक्त आलेख में उन्होंने वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की भूमिका की विस्तृत चर्चा की थी. कमलेश्वरजी ने अमेरिका से भारत को सावधान रहने की चेतावनी देते हुए यह चिह्नित किया था कि वस्तुत: 'भारत को भारत का समर्थन चाहिए'. संदेश बिल्कुल साफ था. आज जब संसद में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत पूरा देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत सरकार के साथ होने का ऐलान कर रहा है, तब निश्चय ही कमलेश्वरजी की आत्मा संतुष्टï होगी कि भारत को भारत का समर्थन प्राप्त है.
अब कुछ दो टूक अमेरिका के सच पर. अन्य तटस्थ चिंतकों की भांति मैं भी इस निष्कर्ष पर अभी भी कायम हूं कि अमेरिका कभी भी भारत का भरोसेमंद दोस्त नहीं हो सकता. 7 वर्ष पूर्व हुए आतंकी हमले के बाद से अब तक अमेरिका पर अन्य कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ है. उस समय अफ्रीका के 2 देशों में अमेरिकी दूतावासों पर इस्लामिक आतंकवादियों ने हमले किए थे. तब अमेरिका ने निर्णय लिया और अफगानिस्तान और सूडान में कतिपय आतंकवादी ठिकानों पर हमले बोल दिए. ध्यान रहे, तब अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद से न तो विचार-विमर्श किया, न उसे सूचित किया. इसके उलट भारत ने सुरक्षा परिषद पर दस्तक दी. तब एकतरफा अमेरिकी सैनिक कार्रवाई को आतंकवाद के खिलाफ कदम नहीं, बल्कि अमेरिकी राज्य पोषित गुंडागर्दी और सरकार समर्थित आतंकवाद का एक बेशर्म नमूना निरूपित किया गया था. फिर यह तथ्य भी तो मौजूद है कि यह वही अमेरिका है जिसने ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की सहायता से तब खड़ा किया था जब अफगानिस्तान में सोवियत फौजों ने अनधिकृत कार्रवाई की थी और वहां के नजीबुल्लाह ने कम्युनिस्ट सरकार बनाई थी. और उसी ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान में अमेरिकी इच्छा को पूरा करते हुए अन्य विरोधी शक्तियों के साथ मिलकर सोवियत रूस को पराजित किया था. और दूसरा सच! 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने कसम खाई थी कि पाताल से भी ओसामा को ढूंढकर मौत दी जाएगी. क्या हुआ उस कसम का? कहां है लादेन की लाश? महाशक्ति अमेरिका एक ओसामा बिन लादेन के सामने इतना असहाय कैसे! ओसामा बिन लादेन उसी सऊदी अरब का नागरिक था जिस पर अमेरिका का अखंड वर्चस्व है. वह आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र अमेरिका व पाकिस्तान की मदद से ही चलाता रहा है. ऐसे अमेरिका पर भारत भरोसा नहीं करे. सुरक्षा परिषद के दरवाजे पर दस्तक देने की औपचारिकता पूरी हो चुकी है. अब प्रतीक्षा का क्या औचित्य? बेहतर हो, राष्ट्र की भावना का सम्मान करते हुए, अपने शब्दों पर कायम रहते हुए संसद द्वारा लिए गए संकल्प को पूरा किया जाए. अर्थात् आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान को स्थायी सबक सिखा ही दिया जाए.

Wednesday, December 10, 2008

'झूठ' की राजनीति और 'औरत' का सच!

कथित सेमीफाइनल के नतीजे अपने साथ धारदार, चुटीली सुर्खियां भी लेकर आए. बुद्धू बक्से (इडियट बॉक्स) पर खूबसूरत बालाएं चीख रही थीं कि 'महारानी का ताज छिना' और 'चल गया शीला का जादू'. विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर परिणाम आने के पूर्व रुझान के साथ-साथ बहसें जारी थीं. चैनलों के कथित विशेषज्ञ, विभिन्न राजदलों के प्रतिनिधि और सेफोलॉजिस्ट मौजूद थे. बिल्कुल सिनेमाई अंदाज में रुझान और परिणाम की परिस्थितियों और भविष्य की राजनीति पर, विशेषकर आगामी लोकसभा चुनाव पर पडऩे वाले संभावित असर को बयां कर रहे थे. इस तथ्य को भूलकर कि मतदान पूर्व सर्वेक्षण में इन्होंने ही बिल्कुल अलग बातें कही थीं. क्यों? साफ है कि मीडिया और इससे जुड़े अन्य विशेषज्ञ यह मानकर चलते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है. लेकिन यह सच नहीं है. सच तो यह है कि आज का मतदाता इन कथित विशेषज्ञों से कहीं अधिक समझदार और परिपक्व है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम इसके सबूत हैं. लच्छेदार-आलंकारिक शब्दों के ताने-बाने से विकास कार्यों के कारण शीला दीक्षित के सिर जीत का सेहरा बांधने वालों से कुछ सवाल! सन् 2006 में सीलिंग की कार्रवाई से आम जनता में उत्पन्न नाराजगी को रेखांकित करते हुए क्या आपने स्वयं यह शंका नहीं जताई थी कि विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित की सरकार व कांग्रेस पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा? ब्ल्यू लाइन बसों के कहर, उत्तर भारतीयों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी, बिजली और सड़क की खस्ता हालत, अस्पतालों की दुर्दशा, अतिक्रमण और नगर निगम से लेकर दिल्ली सरकार में व्याप्त भ्रष्टïाचार के मद्देनजर क्या आप लोगों ने ऐसी घोषणा नहीं कर रखी थी कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस बुरी तरह पराजित होगी? क्या आपने ऐसी भविष्यवाणी नहीं कर रखी थी कि इस बार 'फ्लेयर्स बिल्डिंग' पर भाजपा का कब्जा होगा? 'शीला के जादू' की चर्चा कभी भी किसी ने नहीं की थी. इसी प्रकार राजस्थान में महारानी का ताज छिन जाने के पक्ष में जो तर्क अब दिए जा रहे हैं, वे वस्तुत: बाद में सोचे गए तर्क हैं. दिल्ली के उलट राजस्थान में वसुंधरा के नेतृत्व में विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हुए. स्वयं भाजपा के आलोचक भी इस सच को स्वीकार करेंगे. बावजूद इसके मतदाता ने उन्हें अस्वीकार किया तो उनकी 'आक्रामकता' के कारण. ठीक उसी प्रकार जिस तरह उमा भारती को उनकी आक्रामकता के कारण मतदाताओं ने नकार दिया था. यह वही कड़वा सच है जिसे वैचारिक स्तर पर कदापि स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन विडंबना यह कि व्यवहार के स्तर पर मतदाता महिला नेतृत्व के मुद्दे पर बार-बार यही करता आया है. इस बिंदु पर पहुंच विचारक असहज हो उठते हैं. क्या हम अभी भी उसी काल में विचर रहे हैं जिसमें कभी उन परिस्थितियों की खोज होती थी जिसमें 'औरत' कहने मात्र से देह और राजनीति के सिवाय कुछ नहीं उभरता था? तब विपक्ष की राजनीति अवसरवाद के दलदल में फंसी थी. आज पक्ष-विपक्ष दोनों अवसरवाद के घृणित तमगे से विभूषित हैं. 'औरत' के मामले में दोष सिर्फ इनका ही नहीं. बल्कि पुरुष प्रधान समाज का मतदाता अधिक दोषी है. वह 'औरत' को अपने द्वारा खिंची गई लक्ष्मण रेखा के भीतर ही देखना चाहता है. नारी आक्रामकता उसे पसंद नहीं. यही पुरुष सोच का कटु आंतरिक सच है. उसे शीला दीक्षित के चेहरे में, हावभाव में, बोलचाल में मातृत्व की सहज स्वीकार्य झलक दिख जाती है. जबकि वसुंधरा राजे की आक्रामकता, पश्चिमी रहन-सहन और बोलचाल उसे असहज कर जाती है. उमा भारती का संन्यासन स्वरूप तो उसे भाता है, किंतु आचरण और वाणी की आक्रामकता उसे सहन नहीं. पुरुष समाज इन दोनों के आचरण को लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन मानता है. इस असहज अवस्था से क्या कोई समाज को मुक्ति दिलाने की पहल करेगा? अगर कोई सामने आता है तो वह सावधान होकर आए. आडंबर का लबादा त्याग कर आए. इस तथ्य को चिह्नित कर आगे आए कि आवाज के मखमल से अब सत्ता हासिल नहीं की जा सकती. परिपक्त मतदाता शब्दजाल के भंवर में फंसने वाला नहीं. पुरुष की समानांतर औरत को समाज व राजनीति में भागीदारी देने के समर्थक भी इन सचाइयों को हृदयस्थ कर लें. चुनाव में जीत का सेहरा और हार का ठीकरा निर्धारित करने वाले कथित विशेषज्ञ भी सावधान हो जाएं. क्या कोई इससे इन्कार करेगा कि आज की राजनीतिक व्यवस्था राजनीति से जनता को निष्क्रिय बनाने में लगी हुई है? ऐसे में क्यों न समाज व मतदाता का आह्वान करने के पूर्व इस 'राजनीतिक व्यवस्था' से मुक्त होने के उपाय किए जाएं? तभी जनता की सक्रियता सार्थक राजनीतिक परिणाम दे पाएगी. फिर विलंब क्यों?
एस.एन. विनोद
9 दिसंबर

Saturday, December 6, 2008

एकपात्री नाटक का राणे मंचन

वाह नारायण राणे! 'अंगूर खट्टे हैं' के मुहावरे को आपने बिल्कुल सटीक रूप में पेश कर दिया. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में फिसड्डी होने के बाद आपके इस कथन पर कि ''अब हमें कोई पद नहीं चाहिए'', यही तो कहा जा सकता है. वैसे क्या आप बताएंगे कि आपको 'कोई पद' कोई दे रहा है क्या? आपका यह कहना भी मजाक सरीखा है कि ''कांग्रेस नाटक कर रही है.'' राणे साहब, 'नाटक' तो आज की पूरी की पूरी राजनीति ही है. लेकिन क्या आप स्वयं राजनीति के थिएटर के मंच पर 'एकपात्री' नाटक मंचित नहीं कर रहे हैं? चूंकि ऐसे 'एकपात्री नाटक' में न कोई नायिका होती है न खलनायक, सिर्फ एक हीरो होता है. आपकी इस नई नाटकीय भूमिका पर हमें एतराज नहीं. एतराज है तो केवल इस बात पर कि 'नायक' नारायण राणे ने अपने डायलॉग में सोनिया गांधी को नायिका और विलासराव देशमुख को खलनायक बना डाला. ऐसा नहीं होना चाहिए था. अभी कुछ घंटों पहले तक स्वयं को पार्टी का 'अनुशासित सिपाही' बताने वाले नारायण राणे अब यह ऐलान कर रहे हैं कि उन्हें सोनिया पर बिल्कुल भरोसा नहीं है, सोनिया ने वादा किया, लेकिन निभाया नहीं. यह 'बगावती तेवर' क्या किसी अनुशासित सिपाही का हो सकता है? सोनिया गांधी को झूठा बताने के साथ-साथ राणे ने विलासराव देशमुख को महाराष्ट्र का सबसे कलंकित मुख्यमंत्री निरूपित किया है. 'विलासराव के कारण ही मुंबई पर आतंकवादी हमला हुआ.' ऐसे आरोप लगाने वाले राणे क्या यह बताएंगे कि उनका 'ज्ञान चक्षु' अभी ही क्यों खुला? अगर विलासराव अयोग्य मुख्यमंत्री थे तो फिर अब तक उनके मंत्रिमंडल में मंत्री क्यों बने रहे? नए मनोनीत मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी आपकी नजर में सर्वथा अयोग्य सीएम होंगे. फिर आप मंत्री क्यों बने हुए हैं? बाय-बाय कीजिए - बाहर जाइए. मंत्री पद पर आसीन और कांग्रेस पार्टी का 'अनुशासित सिपाही' रहते हुए निवर्तमान और पद ग्रहण करने वाले मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां ही दरअसल 'नाटक के संवाद' है. यह तो साफ है कि अब आप कांग्रेस में बने नहीं रहेंगे. राणेजी, इस तथ्य की जानकारी सभी को है कि कांग्रेस छोड़ अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाने की तैयारी आप पहले ही कर चुके हैं. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनने के लिए अब तक आपने जितने दांव-पेंच खेले, उनसे पूरा प्रदेश परिचित है. विफलता की स्थिति में आपकी ताजा प्रतिक्रिया एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री की गरिमा के खिलाफ है. आपके पास जनाधार है, संसाधन हैं और इच्छाशक्ति है तो फिर ऐसा नाटक क्यों? ताल ठोकिए, मैदान में उतरिए. दिल्ली की दलदली राजनीति के स्पर्श से दूर रहिए. सोनिया गांधी पर वादा तोडऩे का आरोप लगाने से आपको कोई राजनीतिक लाभ प्राप्त नहीं होगा. इतने दिनों में निश्चय ही आप 'कांग्रेस' संस्कृति से परिचित हो चुके होंगे. पिछले 48 घंटों में 'वादा' और 'वादाखिलाफी' के रंग-बदरंग को भी आप देख चुके. भारत की गंदी राजनीति का यही वह चरित्र है जिससे आहत आज भारत का 'युवा मन' राजनीतिज्ञों को आतंकवादी के रूप में देख रहा है. अगर सचमुच आपमें प्रदेश हित में ईमानदार राजनीति करने की इच्छा शेष है तब किसी अन्य की आलोचना न कर सकारात्मक राजनीति के मार्ग पर चलने की शपथ लें. संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में न तो राजनीति को हाशिए पर रखा जा सकता है और न ही राजनीतिज्ञों की उपेक्षा की जा सकती है. हां, उन्हें शुद्ध-पवित्र अवश्य किया जा सकता है. 100 करोड़ से अधिक की आबादी वाला भारत देश आज वैश्विक ग्राम का मुखिया बनने की दौड़ में शामिल है. इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उसे सही मार्गदर्शक, सही नेतृत्व चाहिए. एक ऐसा 'पग' चाहिए जिसका अनुसरण 100 करोड़ 'डग' कर सकें. नेतृत्व का तमगा लेकर कोई पैदा नहीं होता. सामाजिक जरूरत और परिस्थितियां नेतृत्व को जन्म देती हैं. राणेजी, अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री बन रहे हैं तो उन्हें अवसर दें. पारी शुरू करने के पहले ही उन्हें 'अयोग्य' घोषित कर आपने स्वयं को कठघरे में खड़ा कर लिया है. अभी भी वक्त है, संशोधन कर लें. और हां, अवसर पर कभी पूर्णविराम नहीं लगता.
एस. एन. विनोद
5 दिसंबर 2008

इस्लामी आतंकवाद! जनसंघी आतंकवाद!! अश्लील आतंकवाद!!!

ये अश्लील है. घोर अश्लील है. सब कुछ अश्लील है. अगर साध्वी प्रज्ञा ने जो आरोप एटीएस के जांच अधिकारियों के खिलाफ लगाए हैं, सच हैं तब फिर श्लीलता दफना दी जाए हमेशा-हमेशा के लिए. अगर साध्वी सच हैं तब निश्चित मानिए, देश में अश्लीलता की हर क्षेत्र में मौजूदगी प्रमाणित हो गई है. यह सिद्ध हो गया कि बंद चारदीवारी से बाहर निकलकर अश्लीलता ने राजनीति को, शासन को, न्याय को और पूरे समाज-देश को निगल लिया है. फिर कैसा लोक-तंत्र, फिर कैसा लोक-शासन. सब कुछ प्रायोजित अश्लीलता के शिकंजे में है. कौन अपराधी है इस सर्र्वांग अश्लीलता के लिए?
युवा साध्वी प्रज्ञासिंह न्याय दरबार में गुहार लगा रही हैं कि महाराष्ट्र पुलिस के एटीएस के अधिकारी पूछताछ के दौरान उनसे गाली-गलौच करते हैं, अश्लील शब्दों का प्रयोग करते हैं, मारपीट करते हैं और मानसिक प्रताडऩा देने के लिए उन्हें अश्लील सीडी दिखाई गई. धमकियां दी जाती हैं कि उन्हें नंगा कर उल्टा लटका दिया जाएगा. जान से मारने की धमकी तो दी ही गई.
साध्वी प्रज्ञा की तरह 'आतंकवादी' के रूप में गिरफ्तार सेना के एक अवकाशप्राप्त मेजर रमेश उपाध्यक्ष ने महाराष्ट्र के पुलिस महानिरीक्षक पर सीधा आरोप लगाया है कि उन्होंने जुर्म कबूलने के लिए दबाव डाला. एक अन्य आरोपी शिवनारायण सिंह ने भी एटीएस के खिलाफ प्रताडऩा के आरोप लगाए हैं. मैं फिर दोहरा दूं कि अगर ये आरोप सही हैं तब वर्तमान शासकों को देश पर शासन करने का हक नहीं है. किसी कानून के राज में ऐसी अश्लीलता, ऐसी बर्बरता को स्थान नहीं दिया जा सकता. यह तो 'जंगल राज' है. ये गुलाम भारत के उस कालखंड की याद दिला रहे हैं जब आजादी के दीवानों को अंगे्रजी शासक कालकोठरियों में कैद कर, नंगा कर बर्बर उत्पीडऩ की सारी सीमाओं को तोड़ डालते थे. क्या हम किसी नए चोले को धारण कर भूतकाल के उस कालखंड में वापस हो रहे हैं? सचाई की हालत में इसे 'अश्लील राजनीति' के रूप में निरूपित करने मैं विवश हूं. ऐन चुनाव के समय घटित यह वारदातें इस बात की चुगली कर रही हैं. राजनीति के ऐसे घृणित खेल के खिलाड़ी पूर्णत: विवेकशून्य हो चुके हैं. 'समझौता एक्सप्रेस' में विस्फोट के लिए सेना के वरिष्ठ अधिकारी श्रीकांत पुरोहित को आरोपी बनाने वाली पुलिस यह भी भूल गई कि विस्फोट के बाद भारत सरकार ने इसकी जिम्मेदारी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के सिर मढ़ी थी. आज क्या हुआ? अपनी ही भारतीय सेना के एक अधिकारी को दोषी करार दे पुलिस ने पाकिस्तान सरकार को वार करने का मौका दे दिया. क्या यह विडंबना नहीं कि आज भारतीय सूत्रों-गवाहों का हवाला देते हुए पाकिस्तान समझौता एक्सपे्रस विस्फोट में मारे गए 68 पाकिस्तानी नागरिकों को मुद्दा बनाकर भारत के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के दरवाजे पर दस्तक देने जा रहा है? अब जबकि हमारी सरकार ही कह रही है कि सेना के आरडीएफ से सेना के अधिकारी ने साधु-साध्वी से मिलकर विस्फोट कराए थे, तब पाकिस्तान की अपील पर संयुक्त राष्ट्र में भारत क्या जवाब देगा? हिन्दी फिल्मों की भांति कथित हिन्दू आतंकवाद की ऐसी अश्लील पटकथा के लेखक को फिर हम राष्ट्रद्रोही क्यों न निरूपित करें?
केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री शकील अहमद ने सरकार को तटस्थ-निष्पक्ष बताते हुए कह डाला कि ''चाहे 'जेहादी आतंकवाद' हो या 'जनसंघी आतंकवाद', इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता.' गृहराज्यमंत्री के ये शब्द क्या 'चोर की दाढ़ी में तिनका' की कहावत को प्रमाणित नहीं कर रहे? मंत्रीजी, कहीं यह कोई नया 'अश्लील आतंकवाद' तो नहीं!
एस. एन. विनोद
25 नवंबर 2008

नहीं चाहिए 'आबा' जैसा गृहमंत्री!


'आबा की राजनीतिक चमड़ी पर नैतिकता के चाबुक का कोई असर नहीं होता'
मुंबई पर आतंकवादी हमले की 'नैतिक' जिम्मेदारी लेते हुए शिवराज पाटिल गृह मंत्रालय के कूचे से बाहर निकल आये. कांग्रेस की ओर से जारी इस बयान का खरीदार शायद ही कोई सामने आये. राजनीति का ककहरा जानने वाला भी समझ गया है कि शिवराज पाटिल ने इस्तीफा दिया नहीं. उनसे इस्तीफा लिया गया है. कारण एक नहीं, अनेक हैं. इस पर सविस्तार चर्चा कभी बाद में, फिलहाल हम महाराष्ट्र प्रदेश के हर नागरिक के दिल में उठ रही जिज्ञासा की बातें करेंगे. जिज्ञासा यह कि जब मुंबई पर आतंकवादी हमलों की नैतिक जिम्मेदारी केन्द्रीय गृहमंत्री अपने सिर ले सकते हैं, तब प्रदेश के गृहमंत्री ऐसा नैतिक 'पवित्र तमगा' धारण करने से हिचक क्यों रहे हैं? महाराष्ट्र प्रदेश का हर व्यक्ति आज गृहमंत्री आर.आर. पाटिल के इस्तीफे की मांग कर रहा है. क्या आबा के नाम से मशहूर आर.आर. पाटिल अपने प्रदेश की जन-इच्छा को सम्मान देंगे? शायद नहीं. जानकार बताते हैं कि आबा की राजनीतिक चमड़ी पर नैतिकता के चाबुक का कोई असर नहीं होता. ये वही आबा हैं, जो कथित रूप से पुलिस एन्काउंटर में एक पर-प्रान्तीय युवा के मारे जाने पर दु:ख जताने की जगह खुश हुए थे. कहा था- 'बुलेट का जवाब बुलेट से ही दिया जाएगा.' पूरे देश में आबा के उक्त वक्तव्य की आलोचना हुई थी. लेकिन आबा पर कोई असर नहीं हुआ. सफाई दे दी कि उन्होंने ऐसा कहा ही नहीं था. वही आबा आज मुंबई की घटना पर यह कह रहे हैं कि 'ऐसी छोटी घटनाएं बड़े शहरों में हुआ ही करती हैं.' तब आश्चर्य क्या? आश्चर्य है तो इस बात का कि उन्हें गृहमंत्री के रूप में बर्दाश्त कैसे किया जा रहा है? घोर गैर-जिम्मेदार ऐसे व्यक्ति के हाथों में प्रदेश की कानून-व्यवस्था सुनिश्चित रह ही नहीं सकती. चाहे राज ठाकरे की मनसे का 'कथित आंदोलन' हो या फिर मुंबई सहित राज्य के अनेक भागों में पिछले दिनों हुई विस्फोट की घटनाएं क्यों न हों, आबा निश्च्छल बने रहे. एक छोटे-से दल का नेता मुंबई पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता है कि वे वर्दी उतारकर सड़क पर आएं, उन्हें सबक सिखा दिया जाएगा. तब भी गृहमंत्री बेचैन नहीं होते. उल्टे उस पुलिस अधिकारी को ही फटकार लगा देते हैं. ऐसे में कानून-व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदार एजेंसियां कर्तव्यपालन कर ही कैसे सकती हैं? पुलिस बल का मनोबल ऐसे आबा सरीखे नेता ही गिरा देते हैं. मुंबई पर आतंकवादी हमले में मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों की विफलता का एक बड़ा कारण यह भी है.
राजनीतिक लाभ के लिए दलीय राजनीति तो ठीक है, किन्तु सत्ता की राजनीति के लिए आम जनता के खून को बहने नहीं दिया जा सकता. मुंबई में शहीद आला पुलिस अधिकारियों और निर्दोष नागरिकों के खून की जिम्मेदारी आज नहीं तो कल प्रदेश की जनता तय करेगी ही. बेहतर हो 'नैतिकता' का सहारा ले गृहमंत्री आर.आर. पाटिल स्वयं इस्तीफा दे दें. विलंब की स्थिति उनके और उनकी पार्टी के लिए असहज परिस्थितियां लेकर आएंगी और तब आबा और पार्टीके नेता शायद उनका सामना नहीं कर पाएंगे. फैसला आबा खुद करें.
एस. एन. विनोद
1 दिसंबर 2008

यह 'युद्ध' है तो माकूल जवाब क्यों नहीं?

आतंकी हमले में शहीद हेमंत करकरे, विजय सालस्कर, अशोक कामटे व अन्य पुलिस अधिकारियों को सर्वप्रथम मेरा नमन. लेकिन इसके साथ ही जहां इन शहीद पुलिस अधिकारियों को पूरा देश सम्मान में सैल्यूट कर रहा है- करना भी चाहिए- मैं मजबूर हूं इस टिप्पणी के लिए कि इन शहीदों को असमय अपनी कुर्बानी देनी पड़ी. जी हां! ऐसा ही हुआ और ऐसा हुआ मुंबई पुलिस, जिसकी तुलना विश्व के श्रेष्ठ पुलिस फोर्स स्काटलैंड यार्ड से की जाती है, की घोर लापरवाही, कर्तव्य के प्रति उदासीनता, अकर्मण्यता और समर्पण भावना के अभाव के कारण. महाराष्ट्र के पुलिस महासंचालक अनामी रॉय को यह बोलते देख अच्छा तो लगा कि वे आतंकवादियों से बातें नहीं करेंगे, या तो उन्हें पकडेंग़े या मार डालेंगे. लेकिन किस कीमत पर? ऐसे आतंकवादी हमलों के बाद अमूमन देश की खुफिया एजेंसियों पर विफलता का तमगा जड़ दिया जाता है, लेकिन ताजा मामलों में ऐसा नहीं किया जा सकता. दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि 9 मार्च 2007 को देश के रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने लोकसभा में खुफिया रिपोर्र्टों का हवाला देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि आतंकवादी समुद्री मार्ग का इस्तेमाल कर सकते हैं. रक्षामंत्री की इस सूचना को रद्दी की टोकरी में किसने और कैसे डाला? क्या यह घोर गैरजिम्मेदार आचरण का शर्मनाक उदाहरण नहीं है? हमारा शर्म तब कई गुना बढ़ गया जब यह जानकारी मिली कि बुधवार, 26 नवंबर को मुंबई के मच्छीवाड़ी इलाके के मछुआरों ने मुंबई पुलिस को सूचना दी थी कि उन्होंने संदिग्ध आतंकियों को मोटर बोट से उतरते देखा था. उस सूचना पर सतर्क हो कार्रवाई करने की जगह पुलिस ने जानकारी देने वाले मछुआरों को ही दुत्कार कर भगा दिया. स्काटलैंड यार्ड सरीखी मुंबई पुलिस के ऐसे आचरण को क्या कोई स्वीकृति प्रदान करेगा? कदापि नहीं. अगर पुलिस ने सूचना के आधार पर त्वरित कार्रवाई की होती तो संभवत: आतंकवादी धर दबोचे जाते और मुंबई दहलने से बच जाती- करकरे, सालस्कर, कामटे आदि को अपनी बलि नहीं देनी पड़ती. इन सभी शहीदों को सिर्फ आदरांजलि दें या मुआवजा दें, मुंबई पुलिस या महाराष्ट्र सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती. क्या ऐसी आपराधिक चूक के दोषी कभी दंडित किए जाएंगे? इसके उत्तर की प्रतीक्षा की जाएगी.
मैं बिल्कुल सहमत हूं इस बात पर कि आतंकियों का यह हमला सिर्फ मुंबई पर नहीं, बल्कि देश पर है. यह ऐसा हमला है जिसे एकमत से 'युद्ध' की संज्ञा दी जा रही है. मैं भी ऐसा ही मानता हूं, लेकिन यह तथ्य चिह्नित है कि भारत पर असली आतंकी हमला तब हुआ था जब पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों ने सन् 2001 में भारतीय संसद भवन पर हमला किया था. हां, ये सब भारत के खिलाफ पाकिस्तानी कार्रवाइयां ही हैं. खुफिया सूत्रों के साथ-साथ स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे स्वीकार करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से बात की है. लेकिन पुन: क्षमा करें. क्या ऐसी 'बातों' के कभी कोई सकारात्मक परिणाम निकले हैं? हर आतंकी हमले के बाद पाकिस्तानी आतंकवादियों के चेहरे सामने तो लाए जाते हैं. पर वे सब मीडिया की सुर्खियां बन अनंत में लुप्त हो जाते हैं. समझ में नहीं आता कि जब हमलावर देश की पहचान की जाती रही है तब समाधानकारक 'आखिरी फैसला' क्यों नहीं किया जाता? क्या हमारा देश भारत कमजोर या अक्षम है? क्या हमारे शासकों की इच्छाशक्ति सिर्फ निजस्वार्थ की पूर्ति के लिए ही सक्रिय होती है? आज मुझे पूर्व प्रधानमंत्री (स्व.) चंद्रशेखर की याद आ रही है. कांग्रेस के समर्थन से नवंबर 1990 में प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने वाले चंद्रशेखर अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के लिए सुख्यात थे. मुट्ठीभर सांसदों के गुट के नेता चंद्रशेखर तब प्रधानमंत्री के रूप में अपनी उपयोगिता को इतिहास बनाना चाहते थे. उन्होंने कश्मीर समस्या को जड़ से मिटाने की तैयारी कर ली थी. संबंधित अधिकारियों को विश्वास में लेकर तब एक योजना बनी थी कि पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर और सीमा पार पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों का सफाया कर दिया जाए. लक्ष्य पाक के कब्जेवाले कश्मीर क्षेत्र को मुक्त कराना ही था. इस योजना की भनक चंद्रशेखर को समर्थन देने वाली कांग्रेस के नेताओं को लगी और वे बेचैन हो उठे. भला वे कश्मीर समस्या के 'अस्थायी समाधान' का श्रेय चंद्रशेखर के सिर कैसे जाने देते? आनन-फानन में षडय़ंत्र रचा गया और 10, जनपथ की कथित जासूसी को मुद्दा बना चंद्रशेखर की सरकार को गिरा दिया गया. कश्मीर और आतंकवाद की समस्या अपनी जगह कायम रही. स्वार्थियों की घृणित राजनीति की विजय हुई. क्या हम अब भी ऐसा ही चाहेंगे? नहीं. यह देख-सुन अच्छा लगा कि मुंबई की घटना पर अभी राजनीतिक दलों-संगठनों ने एकजुटता दिखाई है. सभी ने सरकार की कार्रवाई को पूरा समर्थन दिया है. लोकतांत्रिक भारत के लिए यह एक अत्यंत ही सुखद संकेत है. आग्रह है सभी राजनीतिक दलों-संगठनों से कि वे इस 'पहल' को स्थायित्व का जामा पहना दें- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, दलीय प्रतिबद्धता से बिल्कुल पृथक.
एस. एन. विनोद
29 नवंबर 2008

Thursday, December 4, 2008

क्या वाजपेयी की 'दुर्गा' बनेंगी सोनिया?

सभी को अच्छा लगा सोनिया गांधी को यह बोलते देख-सुन कि ''पड़ोसी के साथ हम भाईचारा तो चाहते हैं, किन्तु इसे कोई हमारी कमजोरी न समझे।'' ठीक यही शब्द इनकी सास इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में तब कहे थे जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में घोर अराजकता के बीच पाकिस्तानी शासक अपनी कमजोरी छुपाने के लिए भारत की चिकोटी काटते रहते थे. तब भारत सैन्य दृष्टिï से बहुत शक्तिशाली नहीं माना जाता था. शक्तिशाली अमेरिका भारत का विरोधी तथा पाकिस्तान का मित्र था. इसके बावजूद दृढ़ इच्छाशक्तिधारक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब देते हुए इतिहास रच डाला था. न केवल पाकिस्तान पराजित हुआ, बल्कि उसका अंगभंग हुआ- बांग्लादेश का उदय हुआ. आज सोनिया गांधी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले के संदर्भ में 'मुंहतोड़ जवाब' की बातें कर रही हैं तब पूरा देश खुश हुआ है. और आज तो 1971 के ठीक उलट, अमेरिका भी भारत के साथ है. फिर विलंब किस बात का? अब कसौटी पर केन्द्र सरकार की 'इच्छाशक्ति' है. पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने भारत में आतंकी हमले के लिए जिम्मेदार दाऊद इब्राहिम व अन्य 19 आतंकवादियों को सौंपने से इन्कार कर इस बात की पुष्टिï कर दी है कि हमला पाकिस्तान की सहमति से हुआ. फिर विलंब किस बात का? भारत तो वर्र्षों से सदाशयता दिखाता आ रहा है. 1992-93 में मुंबई को दहलाकर पाकिस्तान में पनाह लेने वाले दाऊद इब्राहिम को पाकिस्तानी शासकों का संरक्षण प्राप्त रहा. पाकिस्तान के इन्कार के जवाब में भारत ने हमेशा पुख्ता सबूत पेश किए. पाकिस्तानी शासकों का नंगापन व बदनीयती तो तभी प्रमाणित हो गई थी जब तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने दाऊद के पाकिस्तान में होने से ही इन्कार कर दिया था. भारत ने तब भी प्रमाण दिए थे, लेकिन बेशर्म पाकिस्तान अविचलित रहा. गनीमत है कि इस बार पाकिस्तानी शासक दाऊद की मौजूदगी से इन्कार नहीं कर रहे हैं, बल्कि बेशर्र्मों की तरह उसके व अन्य आतंकियों के खिलाफ फिर सबूत मांग रहे हैं. साथ ही यह भी कह रहे हैं कि सबूत मिलने पर कानून के अनुसार पाकिस्तान में ही उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. पाकिस्तान की इस दलील और पेशकश को हम स्वीकार नहीं कर सकते. दाऊद व अन्य सूचीबद्ध आतंकी भारत के अपराधी हैं, बल्कि दाऊद तो भारतीय ही है.बेहतर हो, पाकिस्तानी शासक भारत के इन अपराधियों को तत्काल हमें सौंप दें, अन्यथा पाकिस्तान को सबक सिखाने की हर भारतीय की इच्छा का अनादर भारतीय शासक नहीं कर पाएंगे. दीवार पर लिखी लिखावट को न पढऩे की भूल पाकिस्तानी शासक न करें. क्या वे चाहेंगे कि इतिहास का पहिया पूर्व से चलकर पश्चिम पहुंच जाए?
एक सुझाव सोनिया गांधी के लिए भी. आप केन्द्र में शासक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष हैं. अर्थात् शासक संप्रग की मार्गदर्शक हैं. आपके नए तेवर से आशा बंधी है कि भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मामले में निर्णायक कदम उठाएगा. स्वयं आपके विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी कह रहे हैं कि 'अब हमें नतीजा चाहिए.' सोनियाजी अपने दल कांग्रेस, सहयोगी दलों के साथ-साथ विपक्ष और पूरे देश को विश्वास में लें. जिस प्रकार 1971 'युद्ध' के पूर्व इंदिरा गांधी ने किया था. तब इंदिराजी ने न केवल अपने घोर आलोचक भारतीय जनसंघ को विश्वास में लिया था, बल्कि जयप्रकाश नारायण जैसे अविवादित गैरकांग्रेसी को भारत का पक्ष रखने के लिए विदेशों में भेजा था. तब भारत-पाक युद्ध में लगभग पूरा संसार भारत के साथ था. अब जरूरत है कि आप अपनी सास के मार्ग पर चलते हुए 'कमजोरी' का कथित लबादा उतारकर लौह-कवच धारण कर लें. आप इस बात पर नहीं चौंकें कि यह संबोधन प्रधानमंत्री को न होकर आपको है. संप्रग प्रमुख के रूप में पूरे देश की आशाभरी निगाहें आप पर टिकी हुई हैं. संभावित आलोचनाओं की चिंता न करें. देशहित में नेहरू परिवार में निर्णायक पहल की परंपरा रही है. 1965 की एक घटना की जानकारी आपको दे दूं. तब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और इंदिरा गांधी मात्र एक कनिष्ठ मंत्री. मद्रास में भाषा आंदोलन उफान पर था. इंदिरा गांधी बगैर प्रधानमंत्री शास्त्री को बताए मद्रास चली गर्ईं. शास्त्री ने तब अपने मित्रों से कहा था कि 'इंदिरा अपनी हद से बाहर जा रही हैं और दरअसल वे प्रधानमंत्री के सिर पर चढ़कर काम करना चाहती हैं.' इंदिरा गांधी से जब इस पर प्रतिक्रिया पूछी गई तब वे आगबबूला हो गईं और उन्होंने यह कहा बताते हैं कि ''हां, मैं प्रधानमंत्री के सिर पर चढ़कर काम कर रही हूं और जब कभी जरूरत पड़ी, फिर करूंगी.'' जनभावना और देश की जरूरत से अच्छी तरह परिचित इंदिरा गांधी ने तब सिर्फ राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी थी. फिर देर किस बात की? नेहरू परिवार द्वारा स्थापित आदर्श और परंपरा का तकाजा है कि पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की जाए. सबक सिखाया जाए उसे. ध्वस्त कर दें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थापित आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को और मौत दें पाकिस्तान पोषित उन दरिंदों को जो भारत सहित विश्व शांति के लिए खतरा बने हुए हैं. सोनियाजी, उठिए, जागिए, हिम्मत दिखाइए. 1971 में विजयी इंदिरा गांधी को तब जनसंघ के अटलबिहारी वाजपेयी ने 'दुर्गा' बताया था. कोई आश्चर्य नहीं कि तब हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत दर्ज किया था. अर्थात् पूरे देश का समर्थन इंदिरा को मिला था. ताजा संदर्भ में इस मौके में चूक राष्ट्रीय समर्थन से वंचित कर देगी. सोनियाजी, क्या आप ऐसा चाहेंगी?
एस. एन. विनोद
4 दिसंबर 2008

Monday, December 1, 2008

न करें द्विराष्ट्र सिद्धांत का पुनर्मंचन !

समाज संहार के खेल की यह कैसी दुंदुभि ! यह तो द्विराष्ट्र सिद्धांत के पुनर्मंचन का आगाज प्रतीत होता है। रोक दें इसे। तुरंत रोक दें ! जरूरत पड़े तो इसे विस्तार देने वाले हाथों को काट दें- बगैर किसी जातीय अथवा धार्मिक भेदभाव के। अहिंसा के पुजारी भी ऐसी कार्रवाई का विरोध नहीं करेंगे। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के पक्ष में ऐसे कदम रोगनिवारक दवा के रूप में उठाये जाते हैं।
मैं हतप्रभ हूं, चिंतित हूं, यह देख-सुन कर कि 'आतंकवाद' को सामूहि मनोरंजन का विषय बनाने की कोशिश की जा रही है। निश्चय ही ये विश्व-विध्वंस के पूर्व संकेत हैं। मैं फिर यहां यह चिन्हित कर देना चाहूंगा कि इस स्तंभ के एक-एक शब्द सामाजिक चिंता की उत्पति हैं- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी पक्षपात के। कथित इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त संसार में अचानक हिन्दू आतंकवाद की बयार कैसे बहने लगी? 'आतंक' को धार्मिक जामा पहनाने वाले देशहित-चिंतक कदापि नहीं हो सकते! तुच्छ व अल्पकालिक लाभ के लिए इन्हें महिमामंडित करने वाले समाज व राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न भूलें।
भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के पक्ष में कथित रूप से जारी ताजा षडय़ंत्र (साध्वी प्रज्ञा प्रकरण) के खिलाफ 'महासंग्राम' का ऐलान करती है । दूसरी ओर सत्ताधारी कांग्रेस के प्रवक्ता चीख-चीख कर उसे 'हिन्दू आतंकवाद' से जोड़ रहे हैं । इस बीच एक तीसरा मोर्चा खोल दिया जाता है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के परिवार से हिन्दुओं को एकजुट होकर मालेगांव विस्फोट की आरोपी साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर की सहायता की अपील की जाती है । इसी खतरे को सूंघ कर मैंने पहले आतंकवाद को 'सामूहिक मनोरंजन' बनाये जाने की बात कही थी। यह एक अत्यंत ही खतरनाक खेल की शुरुआत है । धुले (महाराष्ट्र) के दंगों की जांच करने वाली पुलिस अदालत में हलफनामा दायर कर यह कहती है कि यह स्थापित सचाई है कि भारत की सभी आतंकवादी गतिविधियों के 'मास्टरमाइंड' मुसलमान ही हैं। पुलिस का एक कनिष्ठ अधिकारी ऐसे खतरनाक व आपत्तिजनक निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गया? जाहिर है, यह उस बीमार मानसिकता का परिचायक है, जिसके बीजारोपण का षडय़ंत्र राष्ट्रद्रोहियों ने रच लिया है! आपत्तिजनक यह भी है कि संत- साध्वियों को आतंक से जोड़ा जा रहा है। पूरे प्रकरण में गोडसे परिवार के प्रवेश में निहित संकेत के दूरगामी प्रभाव होंगे। आजादी-पूर्व हिन्दू-मुस्लिम दंगों में हिन्दुओं की मौत के लिए महात्मा गांधी को जिम्मेदार मान गोडसे ने उनकी हत्या डाली थी। मुसलमानों के प्रति उदार महात्मा गांधी, गोडसे को असहनीय थे। गोडसे को अपने खूनी कृत्य पर कोई पछतावा नहीं था। आज साध्वी के पक्ष में 'सहायता' का गोडसे-आहवान कहीं किसी और 'खून' का पूर्वाभास तो नहीं? धर्म व पंथ निरपेक्ष आज़ाद भारत में क्या ऐसी किसी सोच को स्थान दिया जा सकता है?
ऐसी 'सोच' को बगैर किसी विलंब के जड़ से समाप्त कर देना चाहिए । मुझे दु:ख है इस बात का कि वोट की गंदी राजनीति के हमाम में सभी पक्ष कपड़े उतार नग्न दिखने को तत्पर हैं। राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए षडय़ंत्र हर काल में रचे जाते रहे हैं, हिंसा का प्रयोग भी होता रहा है। किन्तु, ताजा बयार तो सर्वधर्म समभाव की नींव पर खड़ी संपूर्ण लोकतांत्रिक संरचना के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है। यह वस्तुत: आतंकवाद का वही विषबेल है, जो हिन्दू-मुसलमान को एक मंच पर गले मिलते नहीं देख सकता। मैं यहां शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की बातों से पूरी तरह सहमत हूं कि देश में आज जारी घटनाक्रम को 'हिन्दू आतंकवाद' के नाम से संबोधित न किया जाए। अगर कुछ लोग निजी रूप से ऐसी किसी आपत्तिजनक गतिविधियों में शामिल पाए जाते हैं, तो कानून को अपना काम करने दिया जाना चाहिए। आतंकवादी प्रवृत्ति नैतिकता की सीमाएं लांघ 'राजनीति' को अपना ग्रास बनाने को तत्पर है। कोई इसे धर्म के साथ न जोड़े। अगर सचमुच धर्म देश का आधार है, तब सबसे पहले संविधान संशोधन कर समाज को धार्मिक आधार पर पूजा-यज्ञ के साथ-साथ राजनीति करने का अधिकार दे दिया जाए। और इस विषय पर अंतिम फैसला जनता करे-कोई राजदल या संगठन नहीं! लोकतंत्र में जनता को भगवान की उपमा देते रहने वाले राजदल क्या इसके लिए तैयार हैं?
एस. एन. विनोद
17 नवंबर 2008