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Monday, December 1, 2008

न करें द्विराष्ट्र सिद्धांत का पुनर्मंचन !

समाज संहार के खेल की यह कैसी दुंदुभि ! यह तो द्विराष्ट्र सिद्धांत के पुनर्मंचन का आगाज प्रतीत होता है। रोक दें इसे। तुरंत रोक दें ! जरूरत पड़े तो इसे विस्तार देने वाले हाथों को काट दें- बगैर किसी जातीय अथवा धार्मिक भेदभाव के। अहिंसा के पुजारी भी ऐसी कार्रवाई का विरोध नहीं करेंगे। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के पक्ष में ऐसे कदम रोगनिवारक दवा के रूप में उठाये जाते हैं।
मैं हतप्रभ हूं, चिंतित हूं, यह देख-सुन कर कि 'आतंकवाद' को सामूहि मनोरंजन का विषय बनाने की कोशिश की जा रही है। निश्चय ही ये विश्व-विध्वंस के पूर्व संकेत हैं। मैं फिर यहां यह चिन्हित कर देना चाहूंगा कि इस स्तंभ के एक-एक शब्द सामाजिक चिंता की उत्पति हैं- बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी पक्षपात के। कथित इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त संसार में अचानक हिन्दू आतंकवाद की बयार कैसे बहने लगी? 'आतंक' को धार्मिक जामा पहनाने वाले देशहित-चिंतक कदापि नहीं हो सकते! तुच्छ व अल्पकालिक लाभ के लिए इन्हें महिमामंडित करने वाले समाज व राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न भूलें।
भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के पक्ष में कथित रूप से जारी ताजा षडय़ंत्र (साध्वी प्रज्ञा प्रकरण) के खिलाफ 'महासंग्राम' का ऐलान करती है । दूसरी ओर सत्ताधारी कांग्रेस के प्रवक्ता चीख-चीख कर उसे 'हिन्दू आतंकवाद' से जोड़ रहे हैं । इस बीच एक तीसरा मोर्चा खोल दिया जाता है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के परिवार से हिन्दुओं को एकजुट होकर मालेगांव विस्फोट की आरोपी साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर की सहायता की अपील की जाती है । इसी खतरे को सूंघ कर मैंने पहले आतंकवाद को 'सामूहिक मनोरंजन' बनाये जाने की बात कही थी। यह एक अत्यंत ही खतरनाक खेल की शुरुआत है । धुले (महाराष्ट्र) के दंगों की जांच करने वाली पुलिस अदालत में हलफनामा दायर कर यह कहती है कि यह स्थापित सचाई है कि भारत की सभी आतंकवादी गतिविधियों के 'मास्टरमाइंड' मुसलमान ही हैं। पुलिस का एक कनिष्ठ अधिकारी ऐसे खतरनाक व आपत्तिजनक निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गया? जाहिर है, यह उस बीमार मानसिकता का परिचायक है, जिसके बीजारोपण का षडय़ंत्र राष्ट्रद्रोहियों ने रच लिया है! आपत्तिजनक यह भी है कि संत- साध्वियों को आतंक से जोड़ा जा रहा है। पूरे प्रकरण में गोडसे परिवार के प्रवेश में निहित संकेत के दूरगामी प्रभाव होंगे। आजादी-पूर्व हिन्दू-मुस्लिम दंगों में हिन्दुओं की मौत के लिए महात्मा गांधी को जिम्मेदार मान गोडसे ने उनकी हत्या डाली थी। मुसलमानों के प्रति उदार महात्मा गांधी, गोडसे को असहनीय थे। गोडसे को अपने खूनी कृत्य पर कोई पछतावा नहीं था। आज साध्वी के पक्ष में 'सहायता' का गोडसे-आहवान कहीं किसी और 'खून' का पूर्वाभास तो नहीं? धर्म व पंथ निरपेक्ष आज़ाद भारत में क्या ऐसी किसी सोच को स्थान दिया जा सकता है?
ऐसी 'सोच' को बगैर किसी विलंब के जड़ से समाप्त कर देना चाहिए । मुझे दु:ख है इस बात का कि वोट की गंदी राजनीति के हमाम में सभी पक्ष कपड़े उतार नग्न दिखने को तत्पर हैं। राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए षडय़ंत्र हर काल में रचे जाते रहे हैं, हिंसा का प्रयोग भी होता रहा है। किन्तु, ताजा बयार तो सर्वधर्म समभाव की नींव पर खड़ी संपूर्ण लोकतांत्रिक संरचना के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है। यह वस्तुत: आतंकवाद का वही विषबेल है, जो हिन्दू-मुसलमान को एक मंच पर गले मिलते नहीं देख सकता। मैं यहां शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की बातों से पूरी तरह सहमत हूं कि देश में आज जारी घटनाक्रम को 'हिन्दू आतंकवाद' के नाम से संबोधित न किया जाए। अगर कुछ लोग निजी रूप से ऐसी किसी आपत्तिजनक गतिविधियों में शामिल पाए जाते हैं, तो कानून को अपना काम करने दिया जाना चाहिए। आतंकवादी प्रवृत्ति नैतिकता की सीमाएं लांघ 'राजनीति' को अपना ग्रास बनाने को तत्पर है। कोई इसे धर्म के साथ न जोड़े। अगर सचमुच धर्म देश का आधार है, तब सबसे पहले संविधान संशोधन कर समाज को धार्मिक आधार पर पूजा-यज्ञ के साथ-साथ राजनीति करने का अधिकार दे दिया जाए। और इस विषय पर अंतिम फैसला जनता करे-कोई राजदल या संगठन नहीं! लोकतंत्र में जनता को भगवान की उपमा देते रहने वाले राजदल क्या इसके लिए तैयार हैं?
एस. एन. विनोद
17 नवंबर 2008

1 comment:

Prashant said...

Bharat desh vibhinna dharm bhasha, sanskruti aur sabhyat ka bag hai. Yaha vibhinna rangon ke phoolon se jis prakar bagiche ki shobha badhati hai. Usi prakar Bbarat desh vibhinna dharm sanskriti ki bagiya hai. Bebak mein Shri S. N. Vinod ji ne jo baat kahin hai uske liye we sadhuwad ke hakkdar hai. Dekhna yeh hai ki "Dwirashtra Siddhant Ka Punarmanchan" karne wale neta kitana sabak lete hai.