सभी को अच्छा लगा सोनिया गांधी को यह बोलते देख-सुन कि ''पड़ोसी के साथ हम भाईचारा तो चाहते हैं, किन्तु इसे कोई हमारी कमजोरी न समझे।'' ठीक यही शब्द इनकी सास इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में तब कहे थे जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में घोर अराजकता के बीच पाकिस्तानी शासक अपनी कमजोरी छुपाने के लिए भारत की चिकोटी काटते रहते थे. तब भारत सैन्य दृष्टिï से बहुत शक्तिशाली नहीं माना जाता था. शक्तिशाली अमेरिका भारत का विरोधी तथा पाकिस्तान का मित्र था. इसके बावजूद दृढ़ इच्छाशक्तिधारक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब देते हुए इतिहास रच डाला था. न केवल पाकिस्तान पराजित हुआ, बल्कि उसका अंगभंग हुआ- बांग्लादेश का उदय हुआ. आज सोनिया गांधी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमले के संदर्भ में 'मुंहतोड़ जवाब' की बातें कर रही हैं तब पूरा देश खुश हुआ है. और आज तो 1971 के ठीक उलट, अमेरिका भी भारत के साथ है. फिर विलंब किस बात का? अब कसौटी पर केन्द्र सरकार की 'इच्छाशक्ति' है. पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने भारत में आतंकी हमले के लिए जिम्मेदार दाऊद इब्राहिम व अन्य 19 आतंकवादियों को सौंपने से इन्कार कर इस बात की पुष्टिï कर दी है कि हमला पाकिस्तान की सहमति से हुआ. फिर विलंब किस बात का? भारत तो वर्र्षों से सदाशयता दिखाता आ रहा है. 1992-93 में मुंबई को दहलाकर पाकिस्तान में पनाह लेने वाले दाऊद इब्राहिम को पाकिस्तानी शासकों का संरक्षण प्राप्त रहा. पाकिस्तान के इन्कार के जवाब में भारत ने हमेशा पुख्ता सबूत पेश किए. पाकिस्तानी शासकों का नंगापन व बदनीयती तो तभी प्रमाणित हो गई थी जब तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने दाऊद के पाकिस्तान में होने से ही इन्कार कर दिया था. भारत ने तब भी प्रमाण दिए थे, लेकिन बेशर्म पाकिस्तान अविचलित रहा. गनीमत है कि इस बार पाकिस्तानी शासक दाऊद की मौजूदगी से इन्कार नहीं कर रहे हैं, बल्कि बेशर्र्मों की तरह उसके व अन्य आतंकियों के खिलाफ फिर सबूत मांग रहे हैं. साथ ही यह भी कह रहे हैं कि सबूत मिलने पर कानून के अनुसार पाकिस्तान में ही उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. पाकिस्तान की इस दलील और पेशकश को हम स्वीकार नहीं कर सकते. दाऊद व अन्य सूचीबद्ध आतंकी भारत के अपराधी हैं, बल्कि दाऊद तो भारतीय ही है.बेहतर हो, पाकिस्तानी शासक भारत के इन अपराधियों को तत्काल हमें सौंप दें, अन्यथा पाकिस्तान को सबक सिखाने की हर भारतीय की इच्छा का अनादर भारतीय शासक नहीं कर पाएंगे. दीवार पर लिखी लिखावट को न पढऩे की भूल पाकिस्तानी शासक न करें. क्या वे चाहेंगे कि इतिहास का पहिया पूर्व से चलकर पश्चिम पहुंच जाए?
एक सुझाव सोनिया गांधी के लिए भी. आप केन्द्र में शासक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष हैं. अर्थात् शासक संप्रग की मार्गदर्शक हैं. आपके नए तेवर से आशा बंधी है कि भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मामले में निर्णायक कदम उठाएगा. स्वयं आपके विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी कह रहे हैं कि 'अब हमें नतीजा चाहिए.' सोनियाजी अपने दल कांग्रेस, सहयोगी दलों के साथ-साथ विपक्ष और पूरे देश को विश्वास में लें. जिस प्रकार 1971 'युद्ध' के पूर्व इंदिरा गांधी ने किया था. तब इंदिराजी ने न केवल अपने घोर आलोचक भारतीय जनसंघ को विश्वास में लिया था, बल्कि जयप्रकाश नारायण जैसे अविवादित गैरकांग्रेसी को भारत का पक्ष रखने के लिए विदेशों में भेजा था. तब भारत-पाक युद्ध में लगभग पूरा संसार भारत के साथ था. अब जरूरत है कि आप अपनी सास के मार्ग पर चलते हुए 'कमजोरी' का कथित लबादा उतारकर लौह-कवच धारण कर लें. आप इस बात पर नहीं चौंकें कि यह संबोधन प्रधानमंत्री को न होकर आपको है. संप्रग प्रमुख के रूप में पूरे देश की आशाभरी निगाहें आप पर टिकी हुई हैं. संभावित आलोचनाओं की चिंता न करें. देशहित में नेहरू परिवार में निर्णायक पहल की परंपरा रही है. 1965 की एक घटना की जानकारी आपको दे दूं. तब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और इंदिरा गांधी मात्र एक कनिष्ठ मंत्री. मद्रास में भाषा आंदोलन उफान पर था. इंदिरा गांधी बगैर प्रधानमंत्री शास्त्री को बताए मद्रास चली गर्ईं. शास्त्री ने तब अपने मित्रों से कहा था कि 'इंदिरा अपनी हद से बाहर जा रही हैं और दरअसल वे प्रधानमंत्री के सिर पर चढ़कर काम करना चाहती हैं.' इंदिरा गांधी से जब इस पर प्रतिक्रिया पूछी गई तब वे आगबबूला हो गईं और उन्होंने यह कहा बताते हैं कि ''हां, मैं प्रधानमंत्री के सिर पर चढ़कर काम कर रही हूं और जब कभी जरूरत पड़ी, फिर करूंगी.'' जनभावना और देश की जरूरत से अच्छी तरह परिचित इंदिरा गांधी ने तब सिर्फ राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी थी. फिर देर किस बात की? नेहरू परिवार द्वारा स्थापित आदर्श और परंपरा का तकाजा है कि पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की जाए. सबक सिखाया जाए उसे. ध्वस्त कर दें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थापित आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को और मौत दें पाकिस्तान पोषित उन दरिंदों को जो भारत सहित विश्व शांति के लिए खतरा बने हुए हैं. सोनियाजी, उठिए, जागिए, हिम्मत दिखाइए. 1971 में विजयी इंदिरा गांधी को तब जनसंघ के अटलबिहारी वाजपेयी ने 'दुर्गा' बताया था. कोई आश्चर्य नहीं कि तब हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत दर्ज किया था. अर्थात् पूरे देश का समर्थन इंदिरा को मिला था. ताजा संदर्भ में इस मौके में चूक राष्ट्रीय समर्थन से वंचित कर देगी. सोनियाजी, क्या आप ऐसा चाहेंगी?
एस. एन. विनोद
4 दिसंबर 2008
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