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Tuesday, March 8, 2011

आखिर क्यों चाहिए, एक अदद 'विभीषण'

सचमुच यह समझ से परे है कि जनता की नजरों में पूरी तरह गिर चुकी , ढीली हो चुकी गठबंधन की गांठों के बावजूद केंद्र में संप्रग सरकार के पतन के लिए लालकृष्ण आडवाणी को आखिर किसी एक 'विभीषण' की प्रतीक्षा क्यों है? इस जरूरत को चूंकि आडवाणी ने सार्वजनिक किया है, सफाई भी उन्हें ही देनी होगी। जब आडवाणी यह कहते हैं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भाग्यशाली हैं कि कांग्रेस के अंदर आज कोई वी.पी सिंह मौजूद नहीं है, तब क्या वे अपरोक्ष में हताशा को चिह्नित नहीं कर रहे? उनकी पार्टी भाजपा के अंदर और बाहर इसे आडवाणी की व्यक्तिगत हताशा निरूपित करेंगे-पार्टी की हर्गिज नहीं। सचमुच, यह एक पहेली ही है कि केंद्र में सत्ता परिर्वतन के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर आडवाणी विद्रोह की प्रतीक्षा करें। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं, कि देश का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य और भाजपा तथा राजग के उस के सहयोगी दलों में हिलोरे मारते उत्साह के बीच, कहीं किसी कोने में भी हताशा मौजूद है। भ्रष्टाचार के आरोपों से तार-तार और गठबंधन के घटक दलों में व्याप्त घोर असंतोष के बावजूद अगर आडवाणी सरीखा कोई वरिष्ठ नेता सत्तापक्ष के अंदर विद्रोह की प्रतीक्षा करता है, तब लोगों की भौंहें तो तनेंगी ही। निश्चय ही, आडवाणी इस मुकाम पर अकेले हताश लग रहे हैं। एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मंतव्य जानने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि पार्टी के अंदर उत्साह है, हताशा नहीं। भाजपा अपने और राजग के बलबूते सत्ता-परिवर्तन की ताकत रखती है। 70 के दशक के मध्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ 'सम्पूर्ण क्रांति' का झंडा किसी वी.पी सिंह ने नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति से दूर सर्वमान्य जयप्रकाश नारायण ने उठाया था। शासकीय अत्याचारों, निर्ममता और क्रूरता के बावजूद तब विद्रोह कर प्राय: सभी लोकतांत्रिक दलों के नेता जयप्रकाश-आंदोलन की सफलता के माध्यम बने थे। 80 के दशक में बोफोर्स और फेयरफैक्स घोटालों के आरोपों से घिरे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साथ उनके सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अवश्य छोड़ा था, किंतु वे 'लोकनायक' नहीं बन पाये थे। जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान कर कांग्रेस सरकार को तब अपदस्थ कर दिया था। आडवाणी यह कैसे भूल गए कि तब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बन पाए थे, भाजपा के सर्मथन पर और उनकी सरकार का पतन हुआ तो भाजपा की समर्थन वापसी के कारण। आज केंद्र की गठबंधन सरकार 70 और 80 के दशकों से कहीं अधिक विषम परिस्थितियों से गुजर रही है। वर्तमान मनमोहन सिंह सरकार के घोटालों के आगे इंदिरा और राजीव की सरकारों के घोटाले बौने दिखने लगे हैं। जनता के बीच असंतोष आज चरम पर है। हजारों, लाखों ,करोड़ों के घोटाले आज आम हो गए हैं। यह ऐसा पहली बार हुआ है, जब केंद्र सरकार का एक मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल के अंदर पड़ा है, एक पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल कर चुकी है, भारत के एक पूर्र्व मुख्य न्यायधीश व उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, हाईकोर्ट के एक जज के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल करती है, बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों पर राजकोष लूटने के आरोप लग रहे हैं, खेल-मनोरंजन से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों पर छापेमारी हो रही है, सत्तापक्ष का एक सांसद न्यायपालिका के खिलाफ सार्वजनिक आरोप लगा रहा है कि धन लेकर मा$कूल फैसले लिखवाये गये हैं और अनेक केंद्रीय मंत्री एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। देश की लूट का ऐसा आलम पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे में जब हर कोण से सत्ता- परिर्वतन के संकेत परिलक्षित है तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा सत्ता घराने के किसी 'विभीषण' के आगमन की प्रतीक्षा क्यों करेगी? पार्टी में नेतृत्व-स्तर पर अब शीर्ष नेतृत्व अर्थात पार्टी अध्यक्ष को कड़े फैसले लेने होंगे। नेतृत्व की कमान स्वयं संभालनी होगी। सभी को साथ लेकर चलने की नीति सराहनीय तो है, किंतु जब अन्य नेताओं का लक्ष्य कुछ और हो, व्यक्तिगत अभिलाषाएं पार्टीहित को चोट पहुंचा रही हों तब अनुशासित करने की जरूरत तो पड़ेगी ही। आडवाणी के ताजा कथन से उत्पन्न भ्रम का निराकरण होना ही चाहिए, जनता की अपेक्षा के अनुरूप परिणाम तभी संभव है, जब पार्टी का आत्मविश्वास मजबूत बना रहे। ध्यान रहे, मैं यहां किसी पार्टी विशेष का विरोध या समर्थन नहीं कर रहा, मै तों केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के विरुद्ध व्याप्त, व्यापक असंतोष और परिवर्तन के पक्ष में बह रही बयार को रेखांकित कर रहा हूं। चूंकि विकल्प के रूप में भाजपा नेतृत्व के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से ही लोग आशा लगाए बैठे हैं, इसे एहसास तो दिलाना ही होगा। इतिहास गवाह है कि जब ऐसे अवसर आएं हैं विजय जनाकांक्षा की ही होती रही है।
बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी से देश की अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं, गड़करी के लिए यह एक चुनौती है। अब प्रतीक्षा रहेगी इस बात की, कि गड़करी जनाकांक्षा को समझ सार्थक, सकारात्मक नेतृत्व दे पाते हैं या नहीं।

Friday, March 4, 2011

न्यायपालिका की परवाह नहीं प्रधानमंत्री को!

सुप्रीम कोर्ट के ज़न्नाटेदार तमाचे के बाद भी निर्विकार भारत सरकार के गाल ही नहीं, ललाट के साथ-साथ पूरा का पूरा चेहरा पूर्ववत है। कोई लाज नहीं। कोई शर्म नहीं। कोइ खेद-पछतावा नहीं। सपाट सरकारी प्रतिक्रियाएं और वही कुतर्क। तमाचे की गूंज से देशवासी तो स्तब्ध हैं, किंतु सोनिया-मनमोहन-चिदंबरम की तिकड़ी पूर्णत: सामान्य। चिकने घड़े पर शर्म का पानी ठहरता भी कहां है। देश चीख रहा है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस्तीफा दें, गृहमंत्री चिदंबरम इस्तीफा दें। अभी तक तो खबर नहीं, आगे भी उम्मीद नहीं की देश की मांग का आदर करते हुए नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस्तीफा देंगे। नैतिकता को हर दिन पोंछा लगा कूड़ेदान में फेंकने का आदी आज का शासन वर्ग भला इसकी परवाह करे तो क्यों?
भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीबीसी) पद पर जोसफ थॉमस की नियुक्ति के लिए सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जिम्मेदार थे। नियुक्ति करनेवाली समिति में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष के नेता रहते हैं। नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की आपत्ति को रद्दी की टोकरी में डाल थॉमस की नियुक्ति पर मोहर लगानेवाले मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम नैतिक ही नहीं, कानूनी रूप से भी जिम्मेदार हैं। थॉमस की नियुक्ति को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट जब साफ शब्दों में कहता है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें (थॉमस की नियुक्ति के संबंध में) असंवैधानिक थीं, तब शक की गुंजाइश कहां रह जाती है? कथित रूप से ईमानदार छवि के धारक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर इस्तीफा नहीं देते तो देश में एक अत्यंत ही गलत संदेश जाएगा। संदेश जाएगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के प्रधानमंत्री को अपनी ही न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है। न्यायपालिका की उन्हें परवाह नहीं। संदेश यह भी जाएगा की भारत के प्रधानमंत्री को लोकतांत्रिक भावना की परवाह नहीं है। ऐसे में उनके मंत्रिमंडल के अन्य सदस्य क्या ईमानदार और अनुशासित रह पायेंगे? कुतर्क का सहारा ले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रधानमंत्री का बचाव करनेवाले केंद्रीय कानून मंत्री विरप्पा मोईली जब यह कहते हैं की सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की है तब हमें यह मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए की देश का कानून मंत्रालय एक घोर अयोग्य व्यक्ति के हाथों में है। क्या सुप्रिम कोर्ट ने साफ-साफ यह नहीं कहा कि थॉमस की नियुक्ति संबंधी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें असंवैधानिक थी? लगता है मोइली का कानून मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट से चाहता था कि वह सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम लेकर भत्र्सना करता। सुप्रीम कोर्ट से कानून की भाषा से अलग सड़क छाप भाषा का इस्तेमाल करनेवाले मोइली ने निश्चय ही अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। थॉमस की सीबीसी पद पर नियुक्ति और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसे रद्द किया जाना वस्तुत: पूरी की पूरी केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली और उसकी बदनीयती को चिह्नित करता है। भ्रष्टाचार संबंधी अति गंभीर मामलों से घिरी भारत सरकार जब एक दागी और भ्रष्टाचार के जांच की जिम्मेदार सतर्कता आयोग के मुखिया के पद पर नियुक्त करती है तब सरकार की नीयत पर संदेह स्वाभाविक है। थॉमस के मामले में तो यह प्रमाणित हो चुका है कि थॉमस के संदिग्ध पाश्र्व की पूरी जानकारी होने के बावजूद, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनकी नियुक्ति पर स्वीकृति की मोहर लगाई। समिति की एक अन्य सदस्य विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों को नजरअंदाज कर प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र और पारदर्शिता की भावना को ठोकर मारी है। प्रधानमंत्री आज भले ही इस्तीफा न दें, देश उन्हें बख्शेगा नहीं। उन्हें और उनकी पार्टी कॉंग्रेस को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी। थॉमस के इस्तीफा दे देने मात्र से प्रधानमंत्री व उनकी सरकार बरी नहीं हो जाती। सुप्रीम कोर्ट के तमाचे की आवाज के बाद जनता की अदालत की चाबुक की गूंज तो अभी बाकी है।