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Saturday, July 24, 2010

असहनीय है गृहिणियों का ऐसा अपमान!

तो अब यही देखना-सुनना शेष रह गया है! आग लगा दें इस तथाकथित सभ्य समाज को जो नारी को सर्वोच्च सम्मान, पूजनीय का दर्जा देने का स्वांग रचता है! धिक्कार है इस देश पर जो अपनी कथित गौरवशाली संस्कृति-सभ्यता का ढिंढोरा पिटता हुआ अपने लिए वैश्विक आयाम की चाहत रखता है! कहां हैं वे जो नारी सशक्तिकरण, विधायिका में एक तिहाई आरक्षणऔर हर मोर्चे पर नारी को पुरुषों के समकक्ष देखना चाहते हैं? सामने लाएं उन्हें! और सामने लाएं उन गैरजिम्मेदार, असंवेदनशील नालायकों को जिन्होंने भारतीय गृहिणियों को वेश्या की पंक्ति में खड़ा कर दिया। गृहिणियों को अनुत्पादक घोषित कर दिया। यह असहनीय है। जनगणना के दौरान भारत सरकार ने यह करिश्मा कर दिखाया है। सर्वाधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि सन् 2001 की जनगणना के समय से ही गृहिणियों को वेश्या और भिखारी की श्रेणी में रखा जाता रहा है, किन्तु किसी का भी ध्यान इस घोर आपत्तिजनक तथ्य की ओर नहीं गया। न तो किसी राजनीतिक दल का, न नारी सशक्तिकरण आंदोलन के प्रति समर्पित किसी महिला संगठन का, न महिला आयोग का और न ही किसी तसलीमा नसरीन, मेधा पाटकर, शबाना आजमी, वृंदा कारत, तिस्ता सीतलवाड या शोभा डे का। नारी उत्पीडऩ के खिलाफ सड़कों पर मोर्चा निकालने वाली नेत्रियों का भी नहीं। यहां तो मामला उत्पीडऩ से भी कहीं गंभीर है। घर-परिवार को सजाने-संवारने और एकजुटता के प्रति समर्पित सभी गृहिणियों को वेश्या और भिखारी के समकक्ष रख उन्हें अनुत्पादक निरूपित करने वालों की पहचान जरूरी है। इस मामले को किसी लिपिक की भूल बता खारिज नहीं किया जा सकता। मैं यहां सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के साथ हूं कि 'यह रवैया महिलाओं के खिलाफ लैंगिक पूर्वाग्रह का प्रतीक है।' क्या यही पुरुष-प्रधान समाज का वास्तविक सच है? धिक्कार है कि खाना पकाने, बर्तन साफ करने, बच्चों की देखभाल करने, पानी लाने, जलावन एकत्र करने जैसे घरेलू काम करने वाली महिलाओं को अश्रमिक वर्ग में शामिल कर भिखारियों, वेश्याओं और कैदियों की श्रेणी में रख दिया गया। जनगणना के अनुसार उन्हें आर्थिक रूप से उत्पादक कार्य के योग्य नहीं माना गया। नतीजतन सन्ï 2001 की जनगणना में भारत की करीब 36 करोड़ महिलाओं को अश्रमिक वर्ग में शामिल कर दिया गया। यह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने गृहिणियों की इस अपमानजनक अवस्था को रेखांकित कर आपत्ति दर्ज की है। अन्यथा नारी के पक्ष में भाषण, लेखन और आंदोलन कर महिमामंडित होने वाले संगठन तो इस तथ्य से अंजान ही थे। या फिर यह कह लें कि उन्हें इस 'अपमान' से कोई फर्क नहीं पड़ा था। अब भी विलंब नहीं हुआ है। ऐसी अपमानजनक स्थिति के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित तो किया ही जाए, जनगणना के लिए किए गए इस वर्गीकरण को तत्काल निरस्त कर दिया जाए।

Monday, July 19, 2010

निकाल बाहर करें ममता बनर्जी को!

निश्चय ही रेल सेवा और दुर्घटनाओं को अब ममता बनर्जी की क्षमता और इच्छा से जोड़कर देखा जाना चाहिए। राजनीतिक बयानबाजी के पृथक पूरा देश एकमत है कि रेल मंत्रालय को बगैर और विलंब के ममता बनर्जी से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। स्वयं तो वे इस्तीफा देंगी नहीं, प्रधानमंत्री पहल कर या तो उनसे इस्तीफा ले लें, या बर्खास्त कर दें। रेल यात्रियों को आये दिन 'मौत' देने का अधिकार किसी को नहीं है। राजनीतिक मजबूरी या वर्तमान राजनीतिक समीकरण के समक्ष अगर प्रधानमंत्री या संप्रग नेतृत्व घुटने टेक ममता को कायम रखता है, तब निश्चय ही ये सभी निर्दोष रेल यात्रियों की मौत के जिम्मेदार माने जाएंगे। रेल दुर्घटना का ताजा बीरभूम का मामला साफ-साफ लापरवाही का है। दुर्घटना के पीछे न तो तोडफ़ोड़ की कोई कार्रवाई है और ना ही नक्सली अथवा माओवादी हमले की। केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के इन शब्दों से कोई भी इत्तेफाक रखने को तैयार नहीं कि यह एक हादसा है और इसे हादसे के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
प्रणब मुखर्जी का यह बयान शत प्रतिशत राजनीतिक है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए, दलीय नफा-नुकसान पर जोड़-घटाव के बाद दिया गया बयान है यह। पश्चिम बंगाल में पिछले दिनों संपन्न नगर निगमों और स्थानीय निकायों के चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की अप्रत्याशित सफलता से प्रभावित प्रणब मुखर्जी के बयान ने वस्तुत: पीडि़तों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है। हमारे लोकतंत्र का यह एक अत्यंत ही विकृत व असंवेदनशील स्वरूप है। पश्चिम बंगाल के चुनाव में ममता की तृणमूल कांग्रेस के सहयोग-समर्थन की अपेक्षा से कांग्रेसजन अच्छी तरह परिचित हैं। वे ममता को नाराज नहीं कर सकते। चुनाव संपन्न होने तक तो कतई नहीं। ऐसे में ममता के बचाव में कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी का सामने आना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। जहां तक जनपीड़ा और दुख की बात है, इसकी परवाह इन्होंने की ही कब है? पूर्व रेलमंत्रीद्वय रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव के आरोप बिल्कुल सही हैं कि ममता बनर्जी रेल मंत्रालय को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। या तो ममता मंत्रालय को संभालें या फिर पश्चिम बंगाल की राजनीति करें। ममता के रेलमंत्री बनने के बाद से अब तक पांच बड़े रेल हादसे हो चुके हैं। सैंकड़ों लोगों की जानें गई हैं, करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ है। निश्चय ही इसकी नैतिक जिम्मेदारी ममता बनर्जी पर आती है। रेल्वे जैसे बड़े महकमे की जिम्मेदारी ममता बनर्जी ने जिद के साथ संभाली थी। संप्रग सरकार को समर्थन की ममता की मुख्य शर्त ही रेल मंत्रालय की कमान थी। फिर वे रेलवे के सुचारु परिचालन और दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी से कैसे बच सकती हैं? जानकार पुष्टि करेंगे कि मंत्रालय के कामकाम के प्रति ममता की अगंभीरता बल्कि अनिच्छा के कारण न केवल मंत्रालय के दैनंदिन कार्य बल्कि पूरी की पूरी रेल सेवाएं अस्त-व्यस्त हो गई हैं। यात्रियों को वांछित सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। ट्रेनें समय पर नहीं चल पा रहीं, ट्रेनों में साफ-सफाई, यात्रियों को भोजन व अन्य सुविधाएं लगभग गुम हो गई हैं। किसी भी ट्रेन में सफर कीजिए, गंदगी से आपको दो-चार होना पड़ेगा। भोजन का स्तर निम्न से निम्नतम हो गया है। सुझाव पुस्तिका की परंपरा भी लगता है खत्म हो गई। किसी यात्री द्वारा मांगे जाने पर कंडक्टर बहाने बनाकर चल देता है। अचानक ऐसी अराजकता अगर आई है तो निश्चय ही मुखिया की बेरूखी तथा अकर्मण्यता के कारण ही। चूंकि इसका खामियाजा रेल यात्रियों को अपने प्राणों से चुकाना पड़ रहा है, सरकार को विशेषकर रेलमंत्री को जवाबदेही लेनी ही पड़ेगी। अगर ममता बनर्जी मंत्रालय के कामकाम के लिए समय देने में असमर्थ हैं तो उन्हें रेलमंत्री बने रहने का कोई हक नहीं है। अगर बीरभूम की घटना हादसा भी है तो इसकी जिम्मेदारी कप्तान के ही सिर होगी। मैं यहां सिर्फ नैतिकता की बात नहीं कर रहा, व्यवहार और परंपरा की भी बातें कर रहा हूं। दुर्घटना की जिम्मेदारी रेलमंत्री को लेनी ही होगी। पूर्व की तरह बेशर्म हो अगर वे जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं तब फैसला प्रधानमंत्री करें कि ममता बनर्जी समान अयोग्य व्यक्ति को रेल जैसे महत्वपूर्ण बड़े मंत्रालय की जिम्मेदारी क्यों जारी रखी जाए?

Sunday, July 18, 2010

महाराष्ट्र को चाहिए बेलगांव!

कम से कम राज ठाकरे के इस सवाल पर कि महाराष्ट्र के 48 सांसद दिल्ली में क्या करते रहते हैं? मुझ सहित प्रदेश के सभी लोग उनके साथ हैं। सचमुच जिस प्रकार केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर महाराष्ट्र हित के खिलाफ जो हलफनामा दायर किया है उससे प्रदेश के इन सांसदों की राज्य हित के प्रति बेरुखी भी सामने आ गई है। अब भले ही ये मराठी हित की बातें करें, यह तो प्रमाणित हो गया कि सांसद दिल्ली में बैठ अपने प्रदेश से जुड़े मुद्दों से अंजान रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तब सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र द्वारा हलफनामा दायर करने के पहले ही आपत्ति दर्ज हो जाती। सांसदों के खिलाफ ऐसे आरोप तो अब आम हो चुके हैं कि ये दिल्ली में बैठ अपने राज्यहित से अधिक स्वहित साधने में व्यस्त रहते हैं। ऐसा कर निश्चय ही ये सांसद जनप्रतिनिधि की मूल अवधारणा का उपहास उड़ाते हैं। महाराष्ट्र-कर्नाटक का ताजा विवाद का एक कारण इसके प्रति सांसदों की उपेक्षा भी है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को भी अपना पक्ष रखने के लिए समय दिया है, लेकिन इस बीच मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण एक राजनीतिक चूक कर बैठे हैं। कर्नाटक के मराठी बहुल 865 गांवों पर महाराष्ट्र का दावा पुराना है। महाराष्ट्र की मांग है कि इन गांवों को उसे सौंप दिया जाए! हर दृष्टि से उचित इस मांग की पूर्ति के पक्ष में संघर्ष-आंदोलन होते रहे हैं। यह एक ऐसी मांग है जिसे देर-सबेर स्वीकार करना ही होगा। राज्य सरकार को इसके लिए केंद्र और अदालत दोनों जगह पर प्रयत्नशील रहना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में महाराष्ट्र हित के विरुद्ध केंद्र सरकार के हलफनामों के बाद जब पूरे महाराष्ट्र में आक्रोश की लहर दौड़ गई, मुख्यमंत्री चव्हाण ने कर्नाटक के उन क्षेत्रों को केंद्रशासित घोषित कर दिये जाने की मांग कर डाली। चव्हाण ने अंजाने में मूल मांग की गंभीरता को कम कर डाला। राजनीति और प्रशासन का एक अदना विद्यार्थी भी पूरे विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता है कि इस मांग को केंद्र सरकार कभी भी स्वीकार नहीं करेगी। प्रशासकीय और कानूनी दोनों ही तराजू पर यह मांग अव्यावहारिक है। कर्नाटक इसे हमारे पक्ष की कमजोरी मान भरपूर लाभ उठाएगा। वैसे अन्य विपक्षी दलों के साथ-साथ स्वयं प्रदेश कांग्रेस के मुखिया माणिकराव ठाकरे ने भी मुख्यमंत्री की मांग के विपरीत मूल मांग पर जोर दिया है। गलती तो उसी समय हुई थी जब पचास के दशक में राज्य पुनर्गठन आयोग की अनुशंसा पर अमल करते हुए मराठी बहुल बेलगांव को महाराष्ट्र में शामिल नहीं किया गया। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की भावना के विपरीत तब मराठियों के साथ अन्याय हुआ था। यह दु:खद है कि यह विवाद इतने लंबे समय तक खींच लिया गया है। बहरहाल मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है तब प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह केंद्र सरकार पर दबाव बना मराठी हित में संशोधित हलफनामा सर्वोच्च न्यायालय में पेश कराए। मराठी भाषिकों की भावना को देखते हुए अंतत: स्वयं कर्नाटक सरकार को भी झुकना ही पड़ेगा। पिछले दिनों मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई। विवादित क्षेत्र में मराठी भाषिक लोगों पर हो रहे अत्याचार के आरोप गंभीर हैं। उन्हें प्रताडि़त किये जाने की जगह बेहतर हो, पहल करते हुए स्वयं कर्नाटक सरकार मराठी भाषिक बहुल गांवों को महाराष्ट्र को लौटा दे। अपने देश के ही एक राज्य के सच को प्रमाणित करने के लिए मानवाधिकार आयोग के दल की जरूरत ही क्यों पड़े? यह देश हमारा है, राज्य हमारा है! कानून हमारा है और मानवाधिकार की पूंजी भी हमारी है। ऐसे में राज्यों के बीच सीमा विवाद का अंत तो होना चाहिए।

Saturday, July 17, 2010

क्यों टूटे कलाम की 'चिंतन कुटी'?

देश के अखबारों में एक खबर छपी- ''कलाम की चिंतन कुटी तोड़ दी जाएगी''। इस छोटी सी खबर ने हृदय को बेध डाला। देश के विज्ञानी, चिंतक, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में एक झोपड़ी बनवाई थी। कलाम प्यार से उसे 'चिंतन कुटी' (थिंकिंग हट) भी कहा करते थे। आगन्तुकों को भाव विह्वïल होकर बताया करते थे कि उन्होंने अपनी 2 पुस्तकें इसी 'चिंतन कुटी' में बैठकर लिखी थी। कहते हैं इसी 'चिंतन कुटी' ने कलाम की रचनात्मकता को धार दिया था, नया आयाम दिया था। अब इस झोपड़ी को हटा दिया गया है। क्योंकि इससे राष्ट्रपति भवन की सुंदरता पर पैबंद लग रहा था। शर्म! शर्म!! राष्ट्रपति भवन को उसके मूल स्वरूप में लाने के लिए बनी विशेषज्ञों की कमेटी ने कलाम के 'गरीब प्यार' को सुंदरता के लिहाज से उपयुक्त नहीं माना। कमेटी ने लूटियंस द्वारा डिजाइन की गई ब्रिटिश और मुगलशैली के समन्वय से निर्मित राष्ट्रपति भवन के स्थापत्य की शोभा के पक्ष में कुटी को हटाने की सिफारिश की।
अब एक स्वाभाविक सवाल यह कि क्या किसी राष्ट्रीय धरोहर में राष्ट्रीय स्वाभिमान को स्थान नहीं मिलना चाहिए? आजादी के पश्चात रायसीना हिल पर निर्मित अंग्रेजी के 'पैलेस ऑफ द वाइसराय ऑफ इंडिया' को राष्ट्रपति भवन के रूप में बदल डाला गया। भारत के संवैधानिक सर्वोच्च राष्ट्रपति का आवास बन गया यह। छह दशक से अधिक हो गए जब अंग्रेज राष्ट्रपति भवन खाली कर चले गए। फिर आज हम एक अंग्रेज आर्किटेक्ट की कल्पना की मौलिकता के प्रति इतने संवेदनशील कैसे बन बैठे कि अपने एक राष्ट्रपति कलाम के 'चिंतन' को धराशायी करने को तैयार हो गए? मैं यहां किसी की नीयत पर शक नहीं कर रहा लेकिन अंजाने में ही सही राष्ट्रीय स्वाभिमान, संवेदना के विपरीत आचरण पर विरोध दर्ज कर रहा हूं। अव्वल तो मैं यह मानने को तैयार नहीं कि कलाम की चिंतन कुटी से राष्ट्रपति भवन बदरंग हो रहा था। और अगर हो भी रहा था तब भी एक अंग्रेज आर्किटेक्ट लूटियंस की कल्पना पर अपने देश के एक राष्ट्रपति की पसंद की बलि नहीं चढ़ाई जानी चाहिए थी। इन विशेषज्ञों की योग्यता तो तब मुखर दिखती, सिद्ध होती जब 'चिंतन कुटी' को साबूत रखते हुए राष्ट्रपति भवन की सुंदरता पर आंच नहीं आने देते। राष्ट्रपति भवन को उसके मूल स्वरूप में लाने की कल्पना ही विस्मयकारी है। क्या हम इसे पुन: वायसराय पैलेस बनाना चाहते हैं? हमारे देश के राष्ट्रपति निवास स्थल निश्चय ही राष्ट्रपति की रुचि-संस्कृति का गवाह होना चाहिए। राष्ट्रपति पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह समझ से परे है कि आज राष्ट्रपति को राष्ट्रपति भवन की जगह पुन: वायसराय पैलेस में रखने की कोशिश क्यों की जा रही है? राष्ट्रपति भवन को उसका कथित मूल स्वरूप देकर क्या हम अंग्रेजों की स्मृति को संरक्षित करना चाहते हैं? राष्ट्रपति भवन में रहेंगे तो राष्ट्रपति ही। इसे खाली करवाकर सिर्फ एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में म्युजियम तो नहीं बनाना है। मुझे याद है देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पूरे राष्ट्रपति भवन में 'हारिए न हिम्मत बिसारिये न हरिनाम, जाही विधि रखे राम ताही विधि रहिए' की पंक्तियों को सुशोभित कर रखा था।
डॉ. प्रसाद के बाद जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने राजेंद्र बाबू की इन पंक्तियों को राष्ट्रपति भवन में बरकरार रखा। इसके बाद जब डॉ. जाकिर हुसैन राष्ट्रपति बने तब इन पंक्तियों को राष्ट्रपति भवन से हटा दिया गया। उसके बाद जितने भी राष्ट्रपति आए, सभी ने अपनी पसंद के आधार पर आंतरिक सजावट में परिवर्तन किया। डॉ. राजेंद्रप्रसाद की तरह सीधे-सरल डॉ. कलाम ने कोई तामझाम नहीं किया। अपने पढऩे-लिखने के लिए सिर्फ एक कुटिया का निर्माण करवाया। बेहतर तो होता कि डॉ. कलाम की 'चिंतन कुटी' को भी भविष्य की राष्ट्रीय धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाता। पता नहीं क्यों आज भी हमारे नीति निर्धारक गुलाम मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। नीतिकार चाहे जितने भी तर्क दें, डॉ. कलाम की 'चिंतन कुटी' के हटाने के पक्ष में कोई हाथ नहीं उठेगा। विदेश अनुसरण और चिंतन के कायल हमारे नीति निर्धारकों को मैं यूरोप के एक महान विचारक का स्मरण दिलाना चाहूंगा। सनं 1748 में जेसी हर्डर नामक विख्यात विचारक ने 'आइडियाज ऑन फिलासफी ऑफ हिस्ट्री आफ मैनकाइंड' पुस्तक लिखी थी। हर्डर ने लिखा था, ''किसी विदेशी तौरतरीकों का अनुकरण लोगों को छिछला और कृत्रिम बनाता है। सच्ची सभ्यता स्थानीय मूल से ही विकसित होती है।'' अगर महत्व विदेशी विचारक को देना है तब हर्डर के इन शब्दों पर विचार क्यों नहीं? राष्ट्रपति भवन को भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखते हुए भारतीय संस्कृति, सभ्यता के रूप में ही विकसित किया जाए। इसे अंग्रेजों ने बनाया यह इतिहास है, अब यह भारत के राष्ट्रपति का निवास है और यह आजाद भारत का सच है। किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी विशेष प्राकृतिक भूखंड पर किसी विशेष संस्कृति और विशेष जीवन रचना के प्रति आग्रही भाव रखने और अपनी परंपरा के प्रति स्वाभिमानी वैशिष्ट्ïय से युक्त जन राष्ट्र होता है।

Friday, July 16, 2010

निंदनीय है पत्रकारिता पर हमला, किन्तु...!

खबरिया चैनल 'आज तक' कार्यालय पर संघ कार्यकर्ताओं के हमले को जब पत्रकारिता पर हमला निरूपित किया जा रहा है तो बिल्कुल ठीक। पत्रकारों की आवाज को दबाने, गला घोंटने की हर कार्रवाई की सिर्फ भत्र्सना भर न हो, षडय़ंत्रकारियों के खिलाफ दंडात्मक कदम भी उठाए जाएं। दंड कठोरतम हो। इस मुद्दे पर पूरी की पूरी पत्रकार बिरादरी एकजुट है। लोकतंत्र में सुनिश्चित वाणी की स्वतंत्रता को चुनौती देने वाले निश्चय ही लोकतंत्र विरोधी हैं। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। किसी खबर पर आपत्ति प्रकट की जा सकती है, विश्वसनीयता अथवा सचाई को चुनौती भी दी जा सकती है। इसके लिए मीडिया ने अपने द्वार खोल रखे हैं। अगर कभी किसी कारणवश गलत खबर प्रकाशित अथवा प्रसारित हो जाती है तो संबंधित संस्थान उसे स्वीकार कर आवश्यक संशोधन के लिए तत्पर रहता है। प्रभावित पक्ष से अपेक्षा रहती है कि वह लोकतांत्रिक तरीका अपनाते हुए संयम के साथ अपना पक्ष रखे। किन्तु जब वह पक्ष संयम तोड़, अलोकतांत्रिक तरीके को अपना हिंसक हो उठे तब मामला अराजकता का बन जाता है। कानून ऐसे आचरण को अपराध की श्रेणी का मानता है। शुक्रवार की शाम विभिन्न टीवी चैनलों पर जो अराजक दृश्य देखा गया उससे पूरा देश हतप्रभ है। किसी खबर के विरोध का यह ढंग निश्चय ही गुंडागर्दी की श्रेणी का है।
'आज तक' की ओर से बताया गया कि उनके सहयोगी अंग्रेजी चैनल 'हेडलाइन्स टुडे' ने एक 'स्टिंग आपरेशन' के द्वारा दिखाया था कि भगवा ब्रिगेड के कतिपय लोग उग्र हिन्दूवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे क्रोधित होकर संघ के कार्यकर्ता हिंसक प्रदर्शन पर उतर आए और उन्होंने 'आज तक' के कार्यालय में घुसकर तोडफ़ोड़ की कार्रवाई की। इस चैनल की खबर के अनुसार पूरी घटना के दौरान दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही। कुछ दर्जन लोग तोडफ़ोड़ करते रहे। चूंकि मामला 'आज तक' जैसे बड़े व लोकप्रिय चैनल का था, आनन-फानन में कांग्रेस, राजद, लोजपा, वामपंथी आदि दलों के नेताओं के साथ-साथ मीडिया के महारथियों के बयान आ गए। सभी ने पत्रकारिता पर हुए इस हमले की निंदा करते हुए संघ की कथित गुंडागर्दी के खिलाफ कठोर कार्रवाई की मांग की। हम भी ऐसे हमले के खिलाफ कार्रवाई की मांग के साथ हैं।
लेकिन कुछ सवाल, संशय भी कह सकते हैं, अनायास खड़े हो रहे हैं। एक बड़े मीडिया समूह का मामला होने से खुलकर तो कोई नहीं बोल रहा लेकिन दिल्ली के गलियारों में अनेक सवाल दागे जा रहे हैं, संशय प्रकट किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यप्रणाली से परिचित स्वयं मीडियाकर्मी इस बात को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं कि संघियों ने चैनल के कार्यालय में घुसकर तोडफ़ोड़ की। हां, हर संगठन की तरह संघ में भी अगर कुछ 'काले भेडिय़ों' का प्रवेश हो चुका हो तो इनके उपयोग से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन अधिकृत रूप से संघ की ओर से ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया जाना संदिग्ध है। आश्चर्यजनक है। मौके पर मौजूद दिल्ली पुलिस की तटस्थता भी विस्मयकारी है। दिल्ली में कांग्रेस का शासन है। कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। उनके अधीन की दिल्ली पुलिस तोडफ़ोड़ कर रहे कथित संघियों के खिलाफ नर्म क्यों बनी रही? अमूमन ऐसे मौकों पर अपनी 'वीरता' दिखाने के लिए दिल्ली पुलिस कुख्यात रही है। लोगों ने 'आज तक' के प्रसारण में ही देखा कि कैसे हुड़दंगी बेखौफ हो तोडफ़ोड़ की कार्रवाई को अंजाम दे रहे थे, पुलिस मूकदर्शक की तरह खड़ी थी। क्या यह असहज सवाल खड़े नहीं करता?
अब पूछा यह भी जा रहा है कि पिछले दिनों म्यूनिख में 'आज तक', 'हेडलाइन्स टुडे' सहित समूह की अन्य सहयोगी इकाइयों की बैठक में क्या योजना बनी थी? उक्त बैठक में संस्थान के संचालक अरुण पुरी सहित वरिष्ठ संपादकीय व प्रबंधकीय अधिकारी उपस्थित थे। संस्थान के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो म्यूनिख की बैठक में 'हेडलाइन्स टुडे' के प्रधान राहुल कंवल को आड़े हाथों लिया गया था। अन्य अंग्रेजी न्यूज चैनलों के मुकाबले 'हेडलाइन्स टुडे' को सबसे नीचे की पायदान पर पहुंच जाने के लिए कंवल को दोषी ठहराया गया था। लेकिन संस्थान के प्रमुख की इच्छा के आगे नतमस्तक हो अन्य अधिकारियों ने राहुल कंवल को आक्सीजन मुहैया कराए जाने की बात मान ली। तय हुआ कि किसी तरह भी 'हेडलाइन्स टुडे' को 'एनडीटीवी' और 'टाइम्स नाउ' के समकक्ष लाया जाए। सभी जानते हैं कि किसी चैनल को चर्चित करने के लिए प्रबंधन समय-समय पर हथकंडे अपनाता रहा है। दिल्ली का खबरिया गलियारा फुसफुसाहट में ही सही यह पूछ रहा है कि कहीं शुक्रवार की घटना किसी साजिश का अंग तो नहीं? कहा तो यह भी जा रहा है कि 'टुडे ग्रुप' में मौजूद संघी किन्हीं कारणों से संघ व भाजपा के नए नेतृत्व से नाराज चल रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि लगभग हर मोर्चे पर विफल सत्ता पक्ष ने लोगों का ध्यान केंद्र सरकार की विफलताओं से हटाने के लिए इन तत्वों का सहारा लेना शुरू कर दिया है? संसद के मानसून सत्र के दौरान सत्ता पक्ष पर विपक्ष के धारदार प्रहार की चर्चा जोरों पर है। बेचैन सत्ता पक्ष अपने बचाव के लिए हाथपांव मार रहा है। मैं यह नहीं कह रहा कि 'आज तक' में तोडफ़ोड़ की घटना के पीछे ये कारण हैं। लेकिन जब संदेह प्रकट किए जाने शुरू हो गए हैं, तब समाधान को सामने आना ही चाहिए।

Thursday, July 15, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे! [4-अंतिम]

बावजूद इन व्याधियों के, पेशे को कलंकित करनेवाले कथित 'पेशेवर' की मौजूदगी के, पूंजी और बाजार के आगे नतमस्तक हो रेंगने की कवायद के, चर्चा में रामबहादुर राय जैसे कलमची भी मौजूद थे जिन्होंने सच को स्वीकार करते हुए निराकरण का मार्ग भी दिखाया। 'पेड न्यूज' को पत्रकारिता की साख पर संकट निरूपित करते हुए उन्होंने बिल्कुल सही मंतव्य दिया कि पत्रकारिता बचेगी तभी लोकतंत्र बचेगा। 'पेड न्यूज' के उद्गम स्थल को चिन्हित करते उन्होंने बिल्कुल ठीक सुझाव दिया कि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन हो और चुनाव आयोग को शिकायतों पर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। इस सचाई से तो कोई इंकार नहीं करेगा कि चुनावों में उम्मीदवारों के लिए निर्धारित खर्च की सीमा व्यावहारिक नहीं है। मीडिया में विज्ञापन की दर, प्रचार सामग्री पर होनेवाले व्यय, परिवहन खर्च आदि को जोड़ा जाए तो खर्च की सीमा अव्यावहारिक लगेगी। प्रचार की मजबूरी ने उम्मीदवारों, राजदलों और मीडिया संचालकों को 'पेड न्यूज' का रास्ता दिखाया। कुछ पत्रकारों ने मालिकों द्वारा प्रवाहित 'गंगा' में हाथ धोने के लिए खबरों को भी बिकाऊ बना डाला। स्वयं को बेच डाला। नतीजतन चुनावों के दौरान कुछ अपवाद छोड़ पत्रकारों को राजदलों और उम्मीदवारों के आगे-पीछे घूमते कोई भी देख सकता है। सहज धन के आकर्षण में ये पत्रकारीय दायित्व व मर्यादा को भूल जाते हैं। चूंकि यह रोग महामारी का रूप लेता जा रहा है, इसके उद्गम स्थल पर ही बाड़ लगानी होगी। रामबहादुर राय का सुझाव बिल्कुल सही है। जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर चुनावी खर्च की सीमा व्यावहारिक रूप में निर्धारित की जाए। साथ ही 'पेड न्यूज' के जरिये कालेधन के प्रसार में मददगार उम्मीदवारों व मीडिया घरानों को दंडित किए जाने के लिए आवश्यक कानून बने। वर्तमान कानून बेअसर हैं। ऐसा कानून बने जिसमें दोषियों पर कठोर दंड का प्रावधान हो। चुनाव आयोग को ही अधिकार दिया जाए ताकि वह दोषी पाए जाने पर उम्मीदवार का निर्वाचन अवैध घोषित कर सके। 'पेड न्यूज' को संरक्षण देने वाले मीडिया संचालक व पत्रकारों को भी इस कानून के दायरे में लाया जाए। उन्हें भी कठोर दंड दिए जाने का प्रावधान हो। आयकर विभाग तो अपना काम करे ही, समानान्तर अर्थव्यवस्था के मददगार समाचार पत्रों व न्यूज चैनलों के निबंधन व लाइसेंस रद्द किए जाएं। संभवत: ऐसे कदमों से 'पेड न्यूज' के प्रचलन पर रोक लगाई जा सकती है। बेहतर हो स्वयं मीडिया संस्थान इस हेतु पहल करें। जब 'एक नंबर' का द्वार उपलब्ध होगा तो 'दो नंबर' के द्वार में प्रवेश से मीडिया बचना चाहेगा। संभवत: सतीश के.सिंह ने जिस 'सिस्टम' को तैयार करने का सुझाव दिया वह यही है।
अब बात आयोजन के मुख्य अतिथि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह की। मीडिया के चरित्र को लेकर दिग्विजय आरंभ से ही बेबाक रहे हैं। 'पेड न्यूज' के प्रचलन को अस्वीकार करते हुए दिग्विजय ने पूछा कि 'लॉबिंग' और विज्ञापन के बगैर अखबार व न्यूज चैनल चल सकते हैं क्या? यह ठीक है कि विज्ञापन के बगैर मीडिया जीवित नहीं रह सकता लेकिन विज्ञापन के नए बेईमान स्वरूप 'पेड न्यूज' के बगैर वह जीवित रह सकता है। अखबार और न्यूज चैनल विज्ञापन छापते-दिखाते हैं। देयक बनते हैं, संबंधित पक्ष 'एक नंबर' में भुगतान करता है। एक सामान्य सरल प्रक्रिया है। आज मीडिया घराने विज्ञापन प्रबंधन पर भारी राशि व्यय करते हैं। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, 'लॉबिंग'? यह भ्रामक शब्द है। यह तो पता नहीं दिग्विजय का आशय क्या था, लेकिन इस शब्द को चूंकि दलाली से जोड़कर देखा जाता है, आपत्तिजनक है। आधुनिक विषकन्या नीरा राडिया ने ए. राजा के लिए 'लॉबिंग' की थी। उसी क्रम में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त दो पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी ने नीरा राडिया का हित साधने के लिए उच्च राजनेताओं के बीच 'लॉबिंग' की थी। जाहिर है कि इन सब के पीछे धन का आकर्षण अथवा धनलोलुपता थी। ऐसी 'लॉबिंग' से ही पत्रकार बिरादरी के माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। बिरादरी को समाज में शर्मसार होना पड़ता है।
यह तो एक उदाहरण है। सच तो यह है कि आज ऐसी 'लॉबिंग' के लिए पत्रकारों की मांग ने जोर पकड़ लिया है। राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं से लेकर अधिकारी व व्यापारी भी रसूखदार व्यापक संपर्क वाले पत्रकारों की सेवाएं ले रहे हैं। धन अथवा अन्य प्रकार के लाभ के एवज में की जाने वाली 'लॉबिंग' अनैतिक है। भ्रष्टाचार का एक अंग है। अगर दिग्विजय का आशय ऐसी 'लॉबिंग' से था तो इसे एक सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए। हां, बगैर किसी स्वार्थ के कोई पत्रकार अपने रसूख से, अपने संपर्क से न्याय के पक्ष में किसी के लिए 'लॉबिंग' करता है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। इसे मदद की श्रेणी में रखा जाएगा, दलाली की श्रेणी में नहीं। मैं अपनी बात दिग्विजय के शब्दों से ही समाप्त करना चाहूंगा। बात '90 के आरंभिक दशक की है जब दिग्विजय सिंह म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। एक पत्रकार को दिये गए साक्षात्कार में उन्होंने दो टूक शब्दों में शासकीय प्रलोभन की बात को स्वीकार करते हुए पत्रकारों को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था कि 'हम सत्ता में हैं। अपनी और अपनी सरकार का महिमामंडन चाहूंगा, प्रचार-प्रसार चाहूंगा। इसके लिए हमारे पास पत्र-पत्रकारों को प्रभावित-आकर्षित करने के लिए अनेक संसाधन व मार्ग हैं। हम तो अखबारों-पत्रकारों को अपने पक्ष में करना चाहेंगे ही। अब यह अखबारों-पत्रकारों पर निर्भर करता है कि वे हमारे प्रलोभन के जाल में फंसते हैं या नहीं।' दिग्विजय द्वारा तब दी गई चुनौती आज भी प्रासंगिक है। सत्ता, व्यावसायिक घरानों और प्रशासन ने अगर भ्रष्टाचार का मार्ग उपलब्ध करा रखा है तो फैसला पत्रकारों के हाथों है कि वह उस मार्ग पर कदम रखें या फिर उस मार्ग को उखाड़ फेंकने का व्रत लें। पत्रकार फैसला कर लें।

Wednesday, July 14, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे! [3 ]

नई दुनिया के आलोक मेहता की आशावादिता और दैनिक भास्कर के श्रवण गर्ग का सवाल चिन्हित किया जाना आवश्यक है। आलोक मेहता का यह कथन कि 'पेड न्यूज' कोई नई बात नहीं है, लेकिन इससे दुनिया नष्ट नहीं हो जाएगी, युवा पत्रकारों के लिए शोध का विषय है। निराशाजनक है। उन्हें तो यह बताया गया है और वे देख भी रहे हैं कि 'पेड न्यूज' की शुरुआत नई है। हाल के वर्षों में, विशेषत: चुनावों के दौरान, इसकी मौजूदगी देखी गई है। पहले ऐसा नहीं होता था। आश्चर्य है कि एक ओर जब मीडिया घरानों के इस पतन पर अंकुश के उपाय ढूंढऩे के गंभीर प्रयास हो रहे हैं, पत्रकारीय मूल्यों और विश्वसनीयता के रक्षार्थ संघर्षरत पत्रकार और इससे जुड़े लोग आंदोलन की तैयारी में हैं, आलोक मेहता कह रहे हैं कि इससे दुनिया नहीं नष्ट हो जाएगी। विस्मयकारी है उनका यह कथन। दुनिया नष्ट होगी या नहीं इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती किन्तु अगर 'पेड न्यूज' का सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मीडिया की पवित्र दुनिया अवश्य नष्ट हो जाएगी। पत्रकारीय ईमानदारी, मूल्य, सिद्धांत व सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण की आभा से युक्त चेहरे गुम हो जाएंगे, नजर आएंगे तो सीने पर कलंक का तमगा लगाए दागदार स्याह चेहरे। इनकी गिनती मीडिया की दुनिया के नुमाइंदों के रूप में नहीं होगी। ये पहचाने जाएंगे रिश्वतखोर के रूप में, दलाल के रूप में और समाज-देशद्रोही के रूप में। निश्चय ही तब पत्रकारीय दुनिया नष्ट हो जाएगी। वैसे आलोक मेहता समाज पर भरोसा रखने की बात अवश्य कहते हैं लेकिन जब सामाजिक सरोकारों से दूर पत्रकार धन के बदले खबर बनाने लगें, अखबार 'मास्ट हेड' से लेकर 'प्रिन्ट लाइन' तक के स्थान बेचने लगें, बल्कि नीलाम करने लगें, संपादक पत्रकारीय दायित्व से इतर निज स्वार्थ पूर्ति करने लगें, मालिक 'देश पहले' की भावना को रौंद कर सिर्फ स्वहित की चिंता करने लगें तब समाज हम पर भरोसा क्यों और कैसे करेगा? सभी के साथ गुड़ी-गुड़ी और खबरों में बने रहने के लिए सार्वजनिक मंचों से अच्छे-अच्छे शब्दों का इस्तेमाल समाज के साथ छल है। पेशे के साथ छल है। कर्तव्य और अपेक्षित कर्म के विपरीत ऐसा आचरण पवित्र पत्रकारिता के साथ बलात्कार है। कम से कम पत्रकार, वरिष्ठ पत्रकार, कर्म और वचन में समान तो दिखें।
'दैनिक भास्कर' के श्रवण गर्ग ने आशंका व्यक्त की है कि 'पेड न्यूज' का मामला उठाकर कुछ दबाने की कोशिश की जा रही है। पूरे मीडिया जगत पर यह एक अत्यंत ही गंभीर आरोप है। इसका खुलासा जरूरी है। बेहतर हो गर्ग स्वयं खुलकर बताएं कि 'पेड न्यूज' की आड़ में मीडिया क्या दबा रहा है। श्रवण गर्ग ने एक विस्मयकारी सवाल यह उठाया है कि अगर आज देश में आपातकाल लग जाए तो हमारी भूमिका क्या रहेगी। विचित्र सवाल है यह। निश्चय ही गर्ग का आशय इंदिरा गांधी के आंतरिक आपातकाल से है। आश्चर्य है कि उन्हें यह कैसे नहीं मालूम कि संविधान में संशोधन के बाद 1975 सरीखा कुख्यात आपातकाल लगाया जाना अब लगभग असंभव है। थोड़ी देर के लिए गर्ग के इस काल्पनिक सवाल को स्वीकार भी कर लिया जाए तो मैं जानना चाहूंगा कि वे पत्रकारों की भूमिका को लेकर शंका जाहिर कर रहे हैं तो क्यों? अगर गर्ग का इशारा उस कड़वे सच की ओर है जिसने तब के आपातकाल के दौरान अधिकांश पत्रकारों को रेंगते हुए देखा है, तब मैं चाहूंगा कि गर्ग उन पत्रकारों की याद कर लें जिन्होंने खुलकर आपातकाल का विरोध किया था, रेंगना तो दूर तब की शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता को सड़कों-चौराहों तक पर चुनौती दी थी और 19 महीने तक जेलों में बंद रहे। संख्या में कम होने के बावजूद उन पत्रकारों ने पत्रकारीय दायित्व और मूल्यों को मोटी रेखा से चिन्हित कर दिया था। उनमें से अनेक आज भी सक्रिय हैं। गर्ग उनसे मिल लें, उनके सवाल का जवाब मिल जाएगा। उनकी एक अन्य जिज्ञासा तो और भी विस्मयकारी है। समझ में नहीं आता कि श्रवण ने यह कैसे पूछ लिया कि हम आज आपातकाल में नहीं जी रहे हैं क्या? पत्रकारिता के विद्यार्थी निश्चय ही अचंभित होंगे। किस आपातकाल की ओर इशारा कर रहे हैं गर्ग? सीधा-सपाट उत्तर तो यही होगा कि आपातकाल की स्थिति में न तो वाणी, न ही कलम गर्ग की तरह बोलने व लिखने के लिए आजाद होती। एक अवसर पर श्रवण गर्ग, अप्रत्यक्ष ही सही, 'पेड न्यूज' का समर्थन कर चुके हैं। कुछ दिनों पूर्व दिल्ली में युवा पत्रकारों के एक समूह को संबोधन के दौरान उन्होंने 'पेड न्यूज' के पक्ष में सफाई देते हुए कहा था कि आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया घरानों ने इसका सहारा लिया था। अपने तर्क के पक्ष में उन्होंने शाकाहारी उस व्यक्ति का उदाहरण दिया था जो राह भटक जाने के बाद भूख की हालत में उपलब्ध मांस खाने को तैयार हो जाता है। इससे बड़ा कुतर्क और क्या हो सकता है। सभी जानते हैं कि 'पेड न्यूज' की शुरुआत तब हुई थी जब देश में आर्थिक मंदी जैसा कुछ भी नहीं था। अखबारों ने निर्वाचन आयोग द्वारा उम्मीदवारों के लिए निर्धारित चुनावी खर्च की सीमा को चकमा देने के लिए उम्मीदवारों के साथ मिलकर 'पेड न्यूज' का रास्ता निकाला था। जाहिर है कि इसका सारा लेन-देन 'नंबर दो' अर्थात् कालेधन से हुआ। दो नंबर की कमाई से अपना घर भरने वाले राजनीतिकों की चर्चा व्यर्थ होगी, ऐसे काले धन के लेन-देन को प्रोत्साहित करने वाले पत्र और पत्रकारों को इस पवित्र पेशे में रहने का कोई हक नहीं। स्वयं नैतिकता बेच दूसरों को नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती। यह तो ऐलानिया बेईमानों को संरक्षण-प्रश्रय देना हुआ। निश्चय ही यह पत्रकारिता नहीं है। ईमानदार, पवित्र पत्रकारिता तो कतई नहीं!
(कल जारी)

Tuesday, July 13, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे! -2

यह ठीक है कि आज सच बोलने और सच लिखने वाले उंगलियों पर गिने जाने योग्य की संख्या में उपलब्ध हैं। सच पढ़-सुन, मनन करने वालों की संख्या भी उत्साहवर्धक नहीं रह गई है। समय के साथ समझौते का यह एक स्याह काल है। किन्तु यह मीडिया में मौजूद साहसी ही थे जिन्होंने सत्यम् घोटाले का पर्दाफाश कर उसके संचालक बी. रामलिंगा राजू को जेल भिजवाया। आईपीएल घोटाले का पर्दाफाश भी मीडिया के इसी साहसी वर्ग ने किया। आईपीएल को कार्पोरेट जगत से जोड़ कर ही देखा जा रहा है। इसमें राजनेताओं के साथ-साथ ललित मोदी और उद्योगपति शामिल हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को खतरनाक रूप से नुकसान पहुंचाने वाले कालेधन के इस्तेमाल के आरोप आईपीएल की टीमों में निवेश करने वालों पर लग रहे हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मीडिया ने कार्पोरेट जगत के गोरखधंधों का पर्दाफाश किया है, इसलिए राजदीप सरदेसाई की बातों से पूरा सहमत नहीं हुआ जा सकता। कार्पोरेट को एक्सपोज नहीं करने के पीछे की ताकतों के सामने समर्पण करने या रेंगने वाले पत्रकार निज अथवा किसी अन्य के स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। पत्रकारीय मूल्यों का सौदा करने से ये बाज नहीं आते।
विडम्बना यह है कि ऐसे पत्रकार रसूखदार हैं, व्यापक सम्पर्क वाले हैं। बड़ी संख्या है इनकी। अपनी संख्या और प्रभाव के बल पर ईमानदार, साहसी पत्रकारों की आवाज को ये दबा देते हैं। चूंकि इनकी मौजूदगी प्राय: सभी बड़े मीडिया संस्थानों में उच्च पदों पर है, ये अपनी मनमानी करने में सफल हो जाते हैं। राजदीप की यह बात बिल्कुल सही है कि आज के युवाओं में काफी संभावना है लेकिन जब वह देखता है कि उसके 'रोल माडल्स' गलत हैं तो वह कुछ समझ नहीं पाता। नि:संदेह आज के युवा पत्रकारों में वह चिंगारी मौजूद है जिसे अगर सही दिशा में सही हवा मिल गई तो वह आग का रूप धारण कर इन कथित 'रोल माडल्स' को जला कर भस्म कर देगी। अब यक्ष प्रश्न यह कि इस वर्ग को ऐसी 'हवा' उपलब्ध करवाने के लिए कोई तैयार है? पिछले दिनों राजनेताओं और कार्पोरेट जगत के बीच सक्रिय देश की सबसे बड़ी 'दलाल' नीरा राडिया के काले कारनामों को मीडिया के एक वर्ग ने उजागर किया था। इस दौरान मीडिया के 2 बड़े हस्ताक्षर बरखा दत्त और वीर सांघवी के नाम भी राडिया के साथ जोड़े गए। दस्तावेजी सबूतों से पुष्टि हुई कि बरखा और वीर ने अपने संपर्कों के प्रभाव का इस्तेमाल कर दलाल राडिया के हित को साधा। एवज में इन दोनों को राडिया ने 'खुश' किया। बरखा और वीर दोनों युवा पत्रकारों के 'रोल माडल' हैं। भारत सरकार के पद्म अवार्ड से सम्मानित इन पत्रकारों के बेनकाब होने के बाद भी बड़े अखबारों और बड़े न्यूज चैनलों की चुप्पी से पत्रकारों का युवा वर्ग स्वयं से सवाल करता देखा गया। वे पूछ रहे थे कि मीडिया ने बरखा व वीर के कारनामों को वैसा स्थान क्यों नहीं मिला जैसा ऐसे समान अपराध के दोषी अन्य दलालों को मिलता आया है। मीडिया के इस दोहरे चरित्र से युवा वर्ग संशय में है। मीडिया यहीं चूक गया। अवसर था जब युवा वर्ग में मौजूद चिंगारी को हवा दे उस आग को पैदा किया जाता जो बिरादरी में मौजूद काले भेडिय़ों को तो झुलसा देती किन्तु व्यापकता में मीडिया तप कर कुन्दन बन निखर उठता। यह तो एक उदाहरण है, ऐसे अवसर पहले भी आए हैं और आगे भी आएंगे जब मीडिया की परीक्षा होगी। राहुल देव कार्पोरेट सेक्टर की ताकत के सामने असहाय दिखे। मीडिया को कार्पोरेट सेक्टर का प्राकृतिक हिस्सा निरूपित करते हुए राहुल देव यह मान बैठे हैं कि मीडिया चाह कर भी इससे बाहर नहीं निकल सकता।
राहुल देव का यह निज अनुभव आधारित मन्तव्य हो सकता है किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। हिन्दी के सर्वाधिक प्रसारित 2 बड़े अखबार 'दैनिक जागरण' व 'दैनिक भास्कर' तथा 2 बड़े न्यूज चैनल 'आज तक' और 'इंडिया टीवी' उदाहरण स्वरूप मौजूद हैं। इनका पाश्र्व वह 'कार्पोरेट' नहीं रहा है जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं। इन संस्थानों ने अपनी व्यवसाय कुशलता और कंटेंट के कारण विशाल पाठक व दर्शक वर्ग तैयार किए। इनकी विशिष्ट पहचान बनी। आर्थिक रूप से मजबूत भी हुए ये। अब भले ही इन्हें ही कार्पोरेट जगत में शामिल कर लिया जाए किन्तु इनकी उपलब्धियां कार्पोरेट पाश्र्व के कारण कतई नहीं हैं। इन चार समूहों को आक्सीजन मिला तो पाठकों व दर्शकों द्वारा।
( जारी)

Monday, July 12, 2010

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे!

नहीं! ऐसा बिल्कुल नहीं! पत्रकारिता नहीं बिक रही, बिक रहे हैं पत्रकार। ठीक उसी तरह जैसे कतिपय भ्रष्ट शासक-प्रशासक, जयचंद-मीर जाफर देश को बेचने की कोशिश करते रहे हैं, गद्दारी करते रहे हैं। किन्तु देश अपनी जगह कायम रहा। नींव पर पड़ी चोटों से लहूलुहान तो यह होता रहा है किन्तु अस्तित्व कायम। पत्रकारिता में प्रविष्ट काले भेडिय़ों ने इसकी नींव पर कुठाराघात किया, चौराहे पर अपनी बोलियां लगवाते रहे, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सौदेबाजी करते रहे, कलमें बेचीं, अखबार के पन्ने बेचे, टेलीविजन पर झूठ को सच-सच को झूठ दिखाने की कोशिश की, किसी को महिमामंडित किया तो किसी के चेहरे पर कालिख पोती, इसे पेशा बनाया, धंधा बनाया, चाटुकारिता की नई परंपरा शुरू की। बावजूद इसके, पत्रकारिता अपनी जगह कायम है, पत्रकार अवश्य बिकते रहे। प्रसून (पुण्य प्रसून वाजपेयी) निश्चय ही अपने शब्दों में संशोधन कर लेंगे।
खुशी हुई कि 'लॉबिंग, पैसे के बदले खबर और समकालीन पत्रकारिता' पर अखबारों और न्यूज चैनलों के कतिपय वरिष्ठ पत्रकारों ने (आत्म) चिंतन की पहल की। पत्रकारों के पतन पर चिंता जताई। अवसर था उदयन शर्मा फाउंडेशन द्वारा आयोजित संवाद का। इस पहल का स्वागत तो है किन्तु कतिपय शर्तों के साथ। एक चुनौती भी। पत्रकार, विशेषकर इस चर्चा में शामिल होने वाले पत्रकार पहले 'हमाम में सभी नंगे' की कहावत को झुठलाकर दिखाएं। इस बिंदु पर मैं पत्रकारीय मूल्य के पक्ष में कुछ कठोर होना चाहूंगा। बगैर किसी पूर्वाग्रह के, बगैर किसी दुराग्रह के और बगैर किसी निज स्वार्थ के मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या संवाद में शामिल हो बेबाक विचार रखने वाले वरिष्ठ पत्रकारों ने मीडिया में प्रविष्ट 'रोग' के इलाज की कोशिशें की हैं? अवसर मिलने के बावजूद क्या ये तटस्थ नहीं बने रहे? बाजारवाद, कार्पोरेट जगत की मजबूरी आदि बहानों की ढाल के पीछे स्वयं कुछ पाने की कोशिश नहीं करते रहे? राजदीप सरदेसाई 'पेड न्यूज' के लिए बाजारीकरण को जिम्मेदार अगर ठहराते हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि मीडिया पर बाजार के प्रभाव को रोका जा सकता है या नहीं? हां, राजदीप की इस साफगोई के लिए अभिनंदन कि उन्होंने स्वीकार किया कि आज मीडिया राजनेताओं को तो एक्सपोज कर सकता है लेकिन कार्पोरेट को नहीं। क्यों? बहस का यह एक स्वतंत्र विषय है। कार्पोरेट को एक्सपोज क्यों नहीं किया जा सकता? वैसे पत्र और पत्रकार मौजूद हैं जो निडरतापूर्वक कार्पोरेट जगत को एक्सपोज कर रहे हैं। अगर राजदीप का आशय पूंजी और विज्ञापन से है तो मैं चाहंूगा कि वे इस तथ्य को न भूलें कि पूंजी का स्रोत आम जनता ही है। हालांकि वर्तमान काल में पूंजी, जो अब कार्पोरेट जगत की तिजोरियों की बंदी बन चुकी है, हर क्षेत्र को 'डिक्टेट' कर रही है। स्रोत से जनता को जोड़कर देखने की चर्चा नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। किन्तु मीडिया जगत, मीडिया कर्मी जब स्वयं को औरों से पृथक, ज्ञानी, समाज-देश के मार्गदर्शक के रूप में पेश करते हैं तब उन्हें परिवर्तन और पहल के पक्ष में क्रांति का आगाज करना ही होगा। कार्पोरेट के सामने नतमस्तक होने की बजाय शीश उठाकर चलने की नैतिकता अर्जित करनी होगी। यह मीडिया ही कर सकता है। संभव है यह। सिर्फ सच बोलने और सच लिखने का साहस चाहिए।
(जारी...)

Saturday, July 10, 2010

खामोश! सच बोलना मना है!!

अशिष्ट, अश्लील, असंस्कृत जैसे आपत्तिजनक शब्दों की मर्यादा चिन्हित कर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी से माफी मांगने की बात करनेवाले कांग्रेसी नेता पहले अपने गिरेबान में झांककर देखें! यहां मैं न तो किसी का पक्ष ले रहा हूं और न ही आलोचना के लिए आलोचना कर रहा हूं! एक निहायत मौजूं विषय पर बहस की शुरुआत चाहता हूं! संसदीय लोकतांत्रिक ढांचे, राजनीतिक चरित्र, सामाजिक संरचना और वृद्ध नैतिकता के लिए ऐसी बहस जरूरी है। सवाल यह कि उपर्युक्त शब्दों के शाब्दिक अर्थ का दामन थामा जाए या फिर प्रयोग के दौरान इनमें निहित भावना का ध्यान रखा जाए। प्रत्येक काल में समाज का समझदार वर्ग 'भावना' को ही अहमियत देता आया है! इस भावना से ही व्यक्ति की नीयत की जानकारी मिलती है। अब क्या यह दोहराने की जरूरत है कि हमेशा 'नीयत' ही सही आकलन का आधार बनती है। गडकरी के आलोच्य मामले का चिरफाड़ भी इसी आधार पर किया जाना चाहिए!
नितिन गडकरी ने वस्तुत: अफजल गुरु के पुराने लंबित फांसी के मामले पर कांग्रेस से पूछ डाला कि क्या अफजल कांग्रेस का 'दामाद' है? गडकरी वोट बैंक की सांप्रदायिक राजनीति को चिन्हित करते हुए कांग्रेस की आलोचना कर रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने अफजल गुरु का मामला उठाया और कांग्रेस से यह असहज सवाल पूछ डाला। हमारे देश-समाज में 'दामाद' शब्द का सामान्य अर्थ के अलावा मुहावरे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। अतिविशिष्ट व्यक्ति की तरह किसी की विशेष अथवा अत्यधिक खातिरदारी के लिए 'दामाद की तरह खातिरदारी' का प्रयोग आम है। इस मामले में गडकरी के कहने का आशय यही था। शब्दों को चबाये बगैर दो टूक कहने के आदी गडकरी ने वस्तुत: देश की भावना को प्रकट किया है। क्या इस मुद्दे पर गडकरी की आलोचना करनेवाले, उनसे माफी की मांग करनेवाले, उन्हें मनोरोगी घोषित करनेवाले इस सचाई को चुनौती दे सकते हैं? 'वोट बैंक' की राजनीति की उपज अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति ने क्या राजनीतिक महामारी का स्वरूप ग्रहण नहीं कर लिया है? वर्ग-संप्रदाय और दलीय प्रतिबद्धता से भी इतर प्राय: सभी निजी बातचीत में इस महामारी की मौजूदगी और खतरनाक परिणाम को स्वीकार करते हैं। ध्यान रहे, इसे स्वीकार करनेवाले वर्ग में बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक दोनों शामिल हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश खुलकर अपने विचार इसलिए प्रकट नहीं कर पाते कि उन्हें 'सांप्रदायिक' घोषित कर दिये जाने का भय सताता है। आजादी के पूर्व और आजादी के पश्चात अल्पसंख्यक वर्ग को 'वोट बैंक' के रूप में परिवर्तित कर दिये जाने का जो राष्ट्रविरोधी षडय़ंत्र रचा गया, दु:खद रूप से वह आज भी जारी है। संसदीय प्रणाली में वयस्क मताधिकार की मूल अवधारणा के साथ बलात्कार करनेवाली ऐसी सोच के प्रवर्तकों की पहचान कठिन नहीं। विडंबना यह कि छद्मधर्मनिरपेक्षता का मुखौटा धारण करनेवाले ऐसे तत्वों को हमारे देश का कथित महान बुद्धिजीवी वर्ग प्रगतिशील निरूपित करता रहा है। जबकि यह वर्ग ही अच्छी तरह जानता है कि अगर आज देश-समाज का सांप्रदायिक सौहाद्र्र छिन्न-भिन्न हो रहा है, बल्कि हो चुका है, तो इन्हीं तत्वों और ऐसी सोच के कारण ही! कथित धर्मनिरपेक्ष व बुद्धिजीवी आडंबर के साथ जीवनयापन करनेवाले ये तत्व वस्तुत: विवेकहीन ही नहीं नपुंसक भी हैं। वर्तमान राजनीतिक गिरावट का यह एक कड़वा सच है। मैं जानता हूं कि आज के स्वार्थी समाज में सच कहना तो दूर सच सुनने से भी लोग कतरा जाते हैं। निज स्वार्थ का बोझ होता ही ऐसा है! लेकिन गतिमान कालचक्र कभी थकता नहीं। हर काल में कुछ ऐसे व्यक्तित्व अवतरित होते आए हैं जो समय के प्रवाह के विपरीत देश-समाज हित में और सच के पक्ष में कदमताल करने को तत्पर रहे हैं! अगर ऐसा नहीं हो तो 'राष्ट्र' नाम का अवशेष इतिहास के शोधकर्ता ढूंढते रह जाएंगे। नितिन गडकरी ने वस्तुत: ऐसी ही हिम्मत दिखाई है। अफजल गुरु की फांसी के मामले में सत्तापक्ष से उनका सवाल निजी नहीं बल्कि पूरे देश का सवाल है। देश को इसका जवाब चाहिए ही! धर्म संप्रदाय के आधार पर समाज-देश को विभाजित करनेवालों को गडकरी की आलोचना का नैतिक अधिकार नहीं! ये तो वे लोग हैं जिनकी निगाहें सिर्फ 'वोट' पर लगी रहती हैं, चाहे इसके लिए सांप्रदायिकता का जहर पूरे देश को निगल ही क्यों न ले! लेकिन ये भूल जाते हैं कि यह एक ऐसी दुधारी तलवार है जो कभी भी स्वयं इनके सिर कलम कर देगी। बेहतर होगा यह लोग गडकरी की भावनाओं को समझें! अर्थात्ï देश की भावनाओं को समझें! तुष्टीकरण की दामाद सरीखी नीति को दफना दें।

Wednesday, July 7, 2010

सच के पक्ष में आएं पुलिस आयुक्त!

प्रेस, पुलिस, पब्लिक के बीच परस्पर सामंजस्य को कानून-व्यवस्था के लिए आवश्यक मानने वाले आज निराश हैं। दुखी हैं कि इस अवधारणा की बखिया उधेड़ी गई कानून-व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदार पुलिस के द्वारा! ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं मजबूर हूं अपने इस मंतव्य के लिए कि विगत सोमवार 5 जुलाई को भारत बंद के दौरान नागपुर पुलिस ने अमर्यादा का जो नंगा नाच दिखाया उससे पूरा का पूरा पुलिस महकमा विवेकहीन, अनुशासनहीन दिखने लगा है। लगभग दो दशक बाद नागपुर पुलिस का डंडा कर्तव्यनिर्वाह कर रहे पत्रकारों पर पड़ा। भारत बंद के दौरान समाचार संकलन करने वाले पत्रकारों तथा छायाकारों को अपने डंडे का निशाना बना पुलिस ने आखिर क्या साबित करने की कोशिश की? कहीं वे खाकी वर्दी के खौफ को पुनस्र्थापित कर चिन्हित तो नहीं करना चाहते थे?
अगर ऐसा है तब मैं चाहूंगा कि पुलिस महकमे को संचालित करनेवाले उच्च अधिकारी इतिहास के पन्नों को पलट लें। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश आनंद नारायण मुल्ला की उस टिप्पणी की याद वे कर लें जिसमें उन्होंने कहा था कि, ''खाकी वर्दी में गुंडों का यह संगठित गिरोह है।'' हालांकि बात काफी पुरानी हो गई किंतु यह कड़वा सच आज भी मौजूद है कि समय-समय पर कतिपय पुलिस कर्मियों का आचरण पूरे पुलिस विभाग को शर्मसार कर देता है। अमूमन ऐसी वारदातों को अंजाम कनिष्ठ पुलिस अधिकारी-कर्मचारी ही दिया करते हैं। दोष उनके प्रशिक्षण का है। 'पुलिस' शब्द में निहित पवित्र भावना के प्रति उनकी अज्ञानता का है। वर्दी की पवित्रता और दायित्व से उनकी अनभिज्ञता का है। इस मुकाम पर प्रतियोगी परीक्षाओं से गुजरकर, समुचित प्रशिक्षण प्राप्त उच्च अधिकारियों से अपेक्षा रहती है कि वे पुलिस बल के इस वर्ग को अनुशासित रखेंगे, कर्तव्यपरायण बनाएंगे। लेकिन यह तभी संभव है जब यह अधिकारी वर्ग जनता की सुरक्षा के अपने दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से करे।
लोकतंत्र की राष्ट्रीय संरचना में पुलिस विभाग को कानून-व्यवस्था और जनसुरक्षा की अहम जिम्मेदारी दी है। उनसे समाज न सिर्फ शांतिव्यवस्था बल्कि अपनी सुरक्षा की अपेक्षा रखता है। पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण के दौरान इस जिम्मेदारी से अवगत भी कराया जाता है। बावजूद इसके जब समाज उन्हें विपरीत आचरण में लिप्त देखता है तब वह लोकतंत्र के इस छलावे पर रूदन कर बैठता है। सवाल खड़े होने पर हमेशा दुहाई भ्रष्ट व्यवस्था की दी जाती है। लोग इसे कलियुग निर्धारित नियति मान स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन यह गलत है। नियति निर्धारण कोई युग नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म करते हैं। कोई भी युग दायित्व से भटकने की अनुमति नहीं देता। भ्रष्टाचार में लिप्त वर्ग ही बहाने के रूप में इसका इस्तमाल करता है। नागपुर पुलिस के उच्च अधिकारी इस सचाई को स्वीकार कर लें। कर्तव्य निष्पादन के दौरान पत्रकारों, छायाकारों को निशाने पर लेनेवाले पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों की पहचान कर उन्हें दंडित किया जाए! अगर ऐसा नहीं हुआ तब पुलिस से प्रेस और पब्लिक विमुख हो जाएगी! स्वयं नागपुर के पुलिस आयुक्त इन तीनों के बीच सामंजस्य की आवश्यकता पर जोर देते रहे हैं। फिर उनकी ओर से तटस्थता क्यों? आम जनता के प्रति संवेदनशीलता के पक्षधर पुलिस आयुक्त से अपेक्षा है कि वे पत्रकारों की जायज मांग को स्वीकार कर दोषियों को कटघरे में खड़ा करेंगे। वैसे विश्वास तो नहीं फिर भी अगर कोई विभागीय 'अहं' उन पर हावी है तब अपने कर्तव्य के पक्ष में उसका त्याग कर दें। ध्यान रहे, पुलिस विभाग की स्वच्छ छवि जीवंत लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण शर्त होती है। इसके पूर्व नागपुर के पत्रकार सन् 1990 में ठीक ऐसी ही पुलिस प्रताडऩा के शिकार बन चुके हैं। सदर क्षेत्र में तत्कालीन पुलिस आयुक्त के आदेश से 'वन वे ट्राफिक' की कुछ ऐसी व्यवस्था की गई थी जिससे यातायात की व्यवस्था तो चरमरा ही गई थी, आम नागरिक भी परेशान हो उठे थे। तब विरोधस्वरूप आहूत बंद के दौरान पुलिस की लाठियों ने अन्य लोगों के अलावा पत्रकारों को भी निशाना बना लिया था। ठीक पांच जुलाई की घटना की तरह तब भी पुलिस आयुक्त ने अपनी पहली घोषणा में पुलिस लाठीचार्ज से साफ इंकार कर दिया था! लेकिन नागपुर शहर के सुप्रसिद्ध छायाकार नानू नेवरे के एक चित्र ने पुलिस के झूठ को बेनकाब कर दिया था। तब पुलिस आयुक्त ने भी सच को स्वीकार कर दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की थी। मुझे पूरा विश्वास है कि ताजा मामले में भी वर्तमान पुलिस आयुक्त सच को स्वीकार कर दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।

Tuesday, July 6, 2010

केरल की शर्मनाक घटना !

कोई पूर्वाग्रह नहीं। कोई दुराग्रह नहीं। कोई आक्षेप नहीं। एक स्वाभाविक जिज्ञासा। बावजूद इसके इस यक्ष प्रश्र का जवाब तो देना ही होगा कि आज पूरा संसार इस्लामी राजनीतिक आक्रामकता से आहत है तो क्यों? सवाल यह भी कि ऐसा क्यों है कि इस्लामी विचारधारा राष्ट्रीय एकता के प्रत्येक पग पर बड़ी बाधा के रूप में खड़ी हो जाती है? इन प्रश्रों के उत्तर ढूंढऩा आज प्रत्येक तटस्थ चिंतकों-विचारकों की बाध्यता है। इसकी उपेक्षा कहीं समाज के लिए आत्मघाती न बन जाए इसलिए भी जवाब चाहिए। ताजा अवसर केरल की घटना ने दिया है।
केरल के एक प्रोफेसर टी.जे. जोसेफ का हाथ काटकर अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों ने बहस का यह अवसर दिया है। देश के कानून को मुंह चिढ़ाते हुए अर्थात्ï चुनौती देते हुए धार्मिक कट्टरवाद को चिन्हित करते हुए इस घटना को अंजाम देकर अल्पसंख्यक आक्रामकता की जीवंतता सिद्ध करने की इस कोशिश को क्या कहा जाए? प्रोफेसर जोसेफ ने मलयाली भाषा के कालेज स्तर के प्रश्रपत्र में एक ऐसा प्रश्र पूछ लिया था जिसे अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों ने मोहम्मद साहब के अपमान के रूप में लिया। इन लोगों ने मामले को सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की। राजनीतिक भी। जमाते इस्लामी सहित अनेक मुस्लिम संगठनों ने प्रतिकार किया। केरल के थोरूपूजा क्षेत्र में हिंसक घटनाएं भी हुईं। प्रोफेसर जोसेफ ने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। उनकी गिरफ्तारी हुई थी। विश्वविद्यालय ने भी उनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए उन्हें एक वर्ष के लिए निलंबित कर दिया था। घटना मार्च महीने की थी। फिर अब प्रोफेसर का हाथ क्यों काट लिया गया? पूरे घटनाक्रम में कानून ने अपना काम किया था। गिरफ्तार प्रोफेसर जमानत पर छूटे थे। संबंधित विश्वविद्यालय ने भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए प्रोफेसर के खिलाफ कदम उठाया था। इसके बाद जब कट्टरपंथियों ने कानून को ताक पर रख प्रोफेसर का हाथ काट लिया तब निश्चय ही इन्होंने देश की सांप्रदायिक सौहार्द्रता को चुनौती दी है। इनका मकसद पवित्र कदापि नहीं हो सकता। इनकी कार्रवाई समाज में सांप्रदायिक उन्माद फैलाना ही है। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि इन कट्टरपंथियों की कार्रवाई को अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन प्राप्त होगा। प्रोफेसर का हाथ काटने वाले निश्चय ही असामाजिक तत्व होंगे। या फिर धर्म के नाम पर समाज में वैमनस्य फैलाने वालों ने इनका सहारा लिया होगा। ये तत्व भूल जाते हैं कि उनकी ऐसी कार्रवाई से उनका धर्म, उनका संप्रदाय कलुषित होता है। लोकतंत्र और संविधान अपमानित होता है। पीड़ा तो इस बात की होती है कि ये तत्व धर्म, संप्रदाय व देश विरोधी हरकतें धर्म के ही नाम पर करते हैं। निश्चय ही धार्मिक आधार पर इन लोगों को भ्रमित किया जाता है। इनके दिल और दिमाग में धर्म और संप्रदाय के नाम पर घृणा के बीज बो दिए गए हैं। भारत जैसा विशाल बहुधर्मी देश इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। दुख तो इस बात का है कि हमारे देश के कथित बुद्धिजीवी ऐसे वक्त सामने आ न तो प्रतिरोध करते हैं और न ही उनका मार्गदर्शन। निश्चय ही यह अवस्था अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की उपज है। अत्यंत ही खतरनाक है यह अवस्था। पूरे समाज के लिए अर्थात्ï दोनों संप्रदाय के लिए। केरल की उपर्युक्त हृदय विदारक घटना का वैसा विरोध नहीं हुआ जिसकी अपेक्षा थी। विरोध से मेरा आशय सांप्रदायिक सोच की भत्र्सना से है। समाज में आम लोग ऐसे वक्त पूछ बैठते हैं कि जब ऐसी कार्रवाई किसी बहुसंख्यक वर्ग से होती है तब तो बवाल खड़ा हो जाता है? बहुसंख्यक वर्ग के ही कथित मनीषी, चिंतक, विचारक, बुद्धिजीवी शोर मचाने लगते हैं। बुद्धिजीवियों की ऐसी एकमार्गी सोच तुष्टीकरण की राजनीतिक नीति को बल प्रदान करती है। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि कतिपय राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति को भी इस सोच से मदद मिलती है? ऐसा नहीं होना चाहिए। केरल की घटना की सिर्फ निंदा ही न हो, अल्पसंख्यक समुदाय को यह समझाने की भी जरूरत है कि धर्म का तमगा लगा उनके बीच रह रहे कट्टरवादी उनके शुभचिंतक नहीं बल्कि दुश्मन हैं।

Thursday, July 1, 2010

अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का राजनीतिक खेल!

सामान्य बुद्धि धारक देश के लोगों का एक दिलचस्प किंतु गंभीर सवाल! उनकी जिज्ञासा है कि क्या देश-विदेश के अल्पसंख्यक मुस्लिम नेता-प्रतिनिधि एक मंच पर एकत्रित हो कथित रूप से दलित मुसलमानों के लिए अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग करें तब क्या ऐसे जमावड़े और मांग को क्यों न सांप्रदायिक निरूपित कर दिया जाए? सवाल के साथ इस तथ्य को जोड़ दिया जाए कि जमावड़ा और मांग ऐन चुनाव के वक्त हो रहे हैं। और तीखा सवाल यह भी कि अगर इसी तरह का कोई जमावड़ा बहुसंख्यक हिंदू वर्ग की तरफ से हो तब क्या प्रतिक्रिया होगी? अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की नीति और बहुसंख्यकों की उदारता, सहनशीलता, व्यापक दृष्टिकोण और परस्पर सामाजिक सौहाद्र्र के कारण समय-समय पर उत्पन्न सांप्रदायिक तनाव के परिप्रेक्ष्य में इन पर मनन जरूरी है! बिहार में विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। वहां पर जनता दल (यू) और भारतीय जनता पार्टी की मिली-जुली सरकार है। कह सकते हैं कि लगभग पिछले पांच वर्षों से सफलतापूर्वक गठबंधन सरकार चल रही थी। इस बीच सोलह प्रतिशत मुस्लिम वोट पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अचानक 'धर्मनिरपेक्ष' बन गए! दलितों-महादलितों के मसीहा बन बैठे। बीमार बिहार को गंभीर व्याधियों से मुक्त करा विकास की रेल पर गतिमान करने का दावा करनेवाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर आज '1 जुलाई' को पटना में 'ऑल इंडिया पसमंदा मुस्लिम मेहस (AIPMM)' का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित है। सम्मेलन में नीतीश तो रहेंगे ही, वल्र्ड इस्लामिक फोरम (यू.के.) के अध्यक्ष मोहम्मद ऐस्सा मौनसूरी, ऑल इंडिया मोमिन कांफ्रेंस के उपाध्यक्ष मौलाना जुनैद अहमद अंसारी के साथ-साथ पूरे देश से मुस्लिम धर्मप्रचारक और बुद्धिजीवी भी शिरकत कर रहे हैं। सम्मेलन का उद्देश्य दलित मुस्लिम और दलित क्रिश्चियन को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाना है। लेकिन सम्मेलन का समय व अवसर चीख-चीख कर इसके राजनीतिक होने की गवाही दे रहा है। दोहराने की जरूरत नहीं कि यहां राजनीति का अर्थ 'वोट' की राजनीति है। जरा ध्यान दें, 1994 के बाद से अब तक राज्य में मुस्लिम मदरसों को मान्यता नहीं दी जा रही थी। 1994 में मुसलमानों के लिए मौलाना कहे जानेवाले लालूप्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। फिर पत्नी राबड़ीदेवी उनकी उत्तराधिकारी बनीं। दोनों ने मिलकर लगभग पंद्रह वर्षों तक बिहार पर राज किया। इन पंद्रह वर्षों के दौरान इन्होंने एक भी मदरसे को शासकीय मान्यता नहीं दी है। फिर भाजपा के सहयोग से जद (यू) के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। लगभग साढ़े चार वर्ष के शासन के बाद अब उन्होंने 1127 मदरसों को मान्यता प्रदान की! क्या लालू यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार अनेक वर्षों तक मदरसे के मुद्दे पर अपनी उदासीनता का कारण बताएंगे? अचानक उठ रहे मुस्लिम प्रेम का कारण भी इन्हें बताना होगा। अलंकारिक शब्दों का जाल प्रस्तुत कर ये नेता राजनीतिक सफाई देने में माहिर हैं। सो, जवाब तो दे देंगे किंतु देश की समझ को चुनौती देना आसान नहीं होगा! हालांकि देशवासियों का संयम, उदारता और राजनीतिक कारणों से धर्मसंप्रदाय जैसे संवेदनशील मुद्दों पर तटस्थता हमेशा छद्म धर्मनिरपेक्षता को हवा देती रही है। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। बिहार विधानसभा के चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'स्टार प्रचारक' के रूप में उतारने की भाजपाई मंशा ने नीतीश, लालू, रामविलास के साथ-साथ कांग्रेस को भी सकते में डाल दिया है। सच कहूं तो ये सभी अब खुलकर हिंदू-मुस्लिम का खेल खेलने लगे हैं। इसी बिंदु पर देशवासी जानना चाहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का नगाड़ा पीटनेवाले इन लोगों को सांप्रदायिक क्यों नहीं करार दिया जाता? जब भाजपा नरेंद्र मोदी को सामने कर कथित हिंदूवादी मतदाता को अपने पक्ष में एकजुट करना चाहती है तब तो उसे बगैर किसी हिचकिचाहट के हिंदू बुद्धिजीवी सांप्रदायिक घोषित कर देते हैं। और जब खुलेआम मुस्लिम मतदाता को एकजुट करने की कार्रवाई होती है तब यह कवायद 'धर्मनिरपेक्ष' कैसे हो गई? क्या सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का यह राजनीतिक खेल कभी खत्म नहीं होगा? यहां हम एक और अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक की चर्चा कर लें। कथित धर्मनिरपेक्षता का हौवा खड़ा करनेवाला वर्ग अल्पसंख्या में है, किंतु आक्रामक है। सर्वधर्म समभाव की भावना के साथ समाज में सांप्रदायिक सौहाद्र्र देखनेवाला वर्ग बहुसंख्यक है, किंतु संयमी व उदार! क्या यह विडंबना नहीं कि ऐसे बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ हमेशा शोर मचा अल्पसंख्या वाला उपर्युक्त वर्ग मौन कर देता है? चिंतकों व दर्शनशास्त्रियों से युक्त विशाल भारत आखिर कब तक इस विडंबना को ढोता रहेगा?