कम से कम राज ठाकरे के इस सवाल पर कि महाराष्ट्र के 48 सांसद दिल्ली में क्या करते रहते हैं? मुझ सहित प्रदेश के सभी लोग उनके साथ हैं। सचमुच जिस प्रकार केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर महाराष्ट्र हित के खिलाफ जो हलफनामा दायर किया है उससे प्रदेश के इन सांसदों की राज्य हित के प्रति बेरुखी भी सामने आ गई है। अब भले ही ये मराठी हित की बातें करें, यह तो प्रमाणित हो गया कि सांसद दिल्ली में बैठ अपने प्रदेश से जुड़े मुद्दों से अंजान रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तब सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र द्वारा हलफनामा दायर करने के पहले ही आपत्ति दर्ज हो जाती। सांसदों के खिलाफ ऐसे आरोप तो अब आम हो चुके हैं कि ये दिल्ली में बैठ अपने राज्यहित से अधिक स्वहित साधने में व्यस्त रहते हैं। ऐसा कर निश्चय ही ये सांसद जनप्रतिनिधि की मूल अवधारणा का उपहास उड़ाते हैं। महाराष्ट्र-कर्नाटक का ताजा विवाद का एक कारण इसके प्रति सांसदों की उपेक्षा भी है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को भी अपना पक्ष रखने के लिए समय दिया है, लेकिन इस बीच मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण एक राजनीतिक चूक कर बैठे हैं। कर्नाटक के मराठी बहुल 865 गांवों पर महाराष्ट्र का दावा पुराना है। महाराष्ट्र की मांग है कि इन गांवों को उसे सौंप दिया जाए! हर दृष्टि से उचित इस मांग की पूर्ति के पक्ष में संघर्ष-आंदोलन होते रहे हैं। यह एक ऐसी मांग है जिसे देर-सबेर स्वीकार करना ही होगा। राज्य सरकार को इसके लिए केंद्र और अदालत दोनों जगह पर प्रयत्नशील रहना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में महाराष्ट्र हित के विरुद्ध केंद्र सरकार के हलफनामों के बाद जब पूरे महाराष्ट्र में आक्रोश की लहर दौड़ गई, मुख्यमंत्री चव्हाण ने कर्नाटक के उन क्षेत्रों को केंद्रशासित घोषित कर दिये जाने की मांग कर डाली। चव्हाण ने अंजाने में मूल मांग की गंभीरता को कम कर डाला। राजनीति और प्रशासन का एक अदना विद्यार्थी भी पूरे विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता है कि इस मांग को केंद्र सरकार कभी भी स्वीकार नहीं करेगी। प्रशासकीय और कानूनी दोनों ही तराजू पर यह मांग अव्यावहारिक है। कर्नाटक इसे हमारे पक्ष की कमजोरी मान भरपूर लाभ उठाएगा। वैसे अन्य विपक्षी दलों के साथ-साथ स्वयं प्रदेश कांग्रेस के मुखिया माणिकराव ठाकरे ने भी मुख्यमंत्री की मांग के विपरीत मूल मांग पर जोर दिया है। गलती तो उसी समय हुई थी जब पचास के दशक में राज्य पुनर्गठन आयोग की अनुशंसा पर अमल करते हुए मराठी बहुल बेलगांव को महाराष्ट्र में शामिल नहीं किया गया। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की भावना के विपरीत तब मराठियों के साथ अन्याय हुआ था। यह दु:खद है कि यह विवाद इतने लंबे समय तक खींच लिया गया है। बहरहाल मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया है तब प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह केंद्र सरकार पर दबाव बना मराठी हित में संशोधित हलफनामा सर्वोच्च न्यायालय में पेश कराए। मराठी भाषिकों की भावना को देखते हुए अंतत: स्वयं कर्नाटक सरकार को भी झुकना ही पड़ेगा। पिछले दिनों मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई। विवादित क्षेत्र में मराठी भाषिक लोगों पर हो रहे अत्याचार के आरोप गंभीर हैं। उन्हें प्रताडि़त किये जाने की जगह बेहतर हो, पहल करते हुए स्वयं कर्नाटक सरकार मराठी भाषिक बहुल गांवों को महाराष्ट्र को लौटा दे। अपने देश के ही एक राज्य के सच को प्रमाणित करने के लिए मानवाधिकार आयोग के दल की जरूरत ही क्यों पड़े? यह देश हमारा है, राज्य हमारा है! कानून हमारा है और मानवाधिकार की पूंजी भी हमारी है। ऐसे में राज्यों के बीच सीमा विवाद का अंत तो होना चाहिए।
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