यह ठीक है कि आज सच बोलने और सच लिखने वाले उंगलियों पर गिने जाने योग्य की संख्या में उपलब्ध हैं। सच पढ़-सुन, मनन करने वालों की संख्या भी उत्साहवर्धक नहीं रह गई है। समय के साथ समझौते का यह एक स्याह काल है। किन्तु यह मीडिया में मौजूद साहसी ही थे जिन्होंने सत्यम् घोटाले का पर्दाफाश कर उसके संचालक बी. रामलिंगा राजू को जेल भिजवाया। आईपीएल घोटाले का पर्दाफाश भी मीडिया के इसी साहसी वर्ग ने किया। आईपीएल को कार्पोरेट जगत से जोड़ कर ही देखा जा रहा है। इसमें राजनेताओं के साथ-साथ ललित मोदी और उद्योगपति शामिल हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को खतरनाक रूप से नुकसान पहुंचाने वाले कालेधन के इस्तेमाल के आरोप आईपीएल की टीमों में निवेश करने वालों पर लग रहे हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मीडिया ने कार्पोरेट जगत के गोरखधंधों का पर्दाफाश किया है, इसलिए राजदीप सरदेसाई की बातों से पूरा सहमत नहीं हुआ जा सकता। कार्पोरेट को एक्सपोज नहीं करने के पीछे की ताकतों के सामने समर्पण करने या रेंगने वाले पत्रकार निज अथवा किसी अन्य के स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। पत्रकारीय मूल्यों का सौदा करने से ये बाज नहीं आते।
विडम्बना यह है कि ऐसे पत्रकार रसूखदार हैं, व्यापक सम्पर्क वाले हैं। बड़ी संख्या है इनकी। अपनी संख्या और प्रभाव के बल पर ईमानदार, साहसी पत्रकारों की आवाज को ये दबा देते हैं। चूंकि इनकी मौजूदगी प्राय: सभी बड़े मीडिया संस्थानों में उच्च पदों पर है, ये अपनी मनमानी करने में सफल हो जाते हैं। राजदीप की यह बात बिल्कुल सही है कि आज के युवाओं में काफी संभावना है लेकिन जब वह देखता है कि उसके 'रोल माडल्स' गलत हैं तो वह कुछ समझ नहीं पाता। नि:संदेह आज के युवा पत्रकारों में वह चिंगारी मौजूद है जिसे अगर सही दिशा में सही हवा मिल गई तो वह आग का रूप धारण कर इन कथित 'रोल माडल्स' को जला कर भस्म कर देगी। अब यक्ष प्रश्न यह कि इस वर्ग को ऐसी 'हवा' उपलब्ध करवाने के लिए कोई तैयार है? पिछले दिनों राजनेताओं और कार्पोरेट जगत के बीच सक्रिय देश की सबसे बड़ी 'दलाल' नीरा राडिया के काले कारनामों को मीडिया के एक वर्ग ने उजागर किया था। इस दौरान मीडिया के 2 बड़े हस्ताक्षर बरखा दत्त और वीर सांघवी के नाम भी राडिया के साथ जोड़े गए। दस्तावेजी सबूतों से पुष्टि हुई कि बरखा और वीर ने अपने संपर्कों के प्रभाव का इस्तेमाल कर दलाल राडिया के हित को साधा। एवज में इन दोनों को राडिया ने 'खुश' किया। बरखा और वीर दोनों युवा पत्रकारों के 'रोल माडल' हैं। भारत सरकार के पद्म अवार्ड से सम्मानित इन पत्रकारों के बेनकाब होने के बाद भी बड़े अखबारों और बड़े न्यूज चैनलों की चुप्पी से पत्रकारों का युवा वर्ग स्वयं से सवाल करता देखा गया। वे पूछ रहे थे कि मीडिया ने बरखा व वीर के कारनामों को वैसा स्थान क्यों नहीं मिला जैसा ऐसे समान अपराध के दोषी अन्य दलालों को मिलता आया है। मीडिया के इस दोहरे चरित्र से युवा वर्ग संशय में है। मीडिया यहीं चूक गया। अवसर था जब युवा वर्ग में मौजूद चिंगारी को हवा दे उस आग को पैदा किया जाता जो बिरादरी में मौजूद काले भेडिय़ों को तो झुलसा देती किन्तु व्यापकता में मीडिया तप कर कुन्दन बन निखर उठता। यह तो एक उदाहरण है, ऐसे अवसर पहले भी आए हैं और आगे भी आएंगे जब मीडिया की परीक्षा होगी। राहुल देव कार्पोरेट सेक्टर की ताकत के सामने असहाय दिखे। मीडिया को कार्पोरेट सेक्टर का प्राकृतिक हिस्सा निरूपित करते हुए राहुल देव यह मान बैठे हैं कि मीडिया चाह कर भी इससे बाहर नहीं निकल सकता।
राहुल देव का यह निज अनुभव आधारित मन्तव्य हो सकता है किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। हिन्दी के सर्वाधिक प्रसारित 2 बड़े अखबार 'दैनिक जागरण' व 'दैनिक भास्कर' तथा 2 बड़े न्यूज चैनल 'आज तक' और 'इंडिया टीवी' उदाहरण स्वरूप मौजूद हैं। इनका पाश्र्व वह 'कार्पोरेट' नहीं रहा है जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं। इन संस्थानों ने अपनी व्यवसाय कुशलता और कंटेंट के कारण विशाल पाठक व दर्शक वर्ग तैयार किए। इनकी विशिष्ट पहचान बनी। आर्थिक रूप से मजबूत भी हुए ये। अब भले ही इन्हें ही कार्पोरेट जगत में शामिल कर लिया जाए किन्तु इनकी उपलब्धियां कार्पोरेट पाश्र्व के कारण कतई नहीं हैं। इन चार समूहों को आक्सीजन मिला तो पाठकों व दर्शकों द्वारा।
( जारी)
1 comment:
सच बोलना मना है... आज के दौर में..
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