centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Monday, May 30, 2016

... तो 'पाषाण पुरुष' बन जाएं नितिन गडकरी!



कोई ठकुरसुहाती नहीं, अर्थात व्यक्तिवंदना नहीं।
एक सच, यथार्थ का रेखांकन मात्र।
वह भी इसलिए कि आधुनिक तकनीकी से तेज रफ्तार दौड़ती जिंदगी और सत्ता सिंहासन के मोह से कोसों दूर देश और समाज के प्रति जनहित में पूर्णत: समर्पित व्यक्तित्व को सामान्य लोगों के बीच उसकी संपूर्णता में पहुंचाने का अहम दायित्व भी हमारी बिरादरी को निभाना है। विघ्नसंतोषी इसे संभवत: स्वार्थ अथवा अवसरवादिता के चश्मे से देख सकते हैं, किंतु जानकार पुष्टि करेंगे कि जब बात बेबाकपन और विकास की हो तब -तब मैंने कलम उठाई है और नि:संकोच सच को चिन्हित किया है। शपथपूर्वक कह दूं कि यहां शब्दांकित सभी तथ्य जनहित में एक ऐसे  व्यावहारिक विकास पुरुष को समर्पित हैं जिससे देश और समाज को काफी अपेक्षाएं हैं।  दोहरा यह भी दूं कि आलोच्य व्यक्तित्व को ऐसे किसी 'मंच' की जरूरत नहीं किंतु कर्तव्य निष्पादन के स्मरणार्थ और कुछ-कुछ प्रोत्साहनार्थ भी यह प्रयास अंतत: जनहित में सहयोगी साबित होगा।
हां, मैं चर्चा कर रहा हूं केंद्रीय राजमार्ग, परिवहन एवं जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी की जिन्होंने विगत 27 मई को जीवन के 59वें वर्ष में प्रवेश किया। एक ओर जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी 'विकास पर्व' के रूप में सत्ता के दो वर्ष का जश्न मना रही है तब देश के इस 'विकास पुरुष' की चर्चा न्यायोचित है। क्योंकि यह तथ्य देश के सामने मौजूद है कि मोदी सरकार  अब तक की अपनी उपलब्धियों पर अगर गर्व कर रही है तो इसका अधिकांश श्रेय नितिन गडकरी द्वारा अपने मंत्रालयों के माध्यम से  निष्पादित विकास कार्य ही हैं। पूरे देश का दौरा कर लें, हर जगह नितिन गडकरी के कार्यों की छाप आपको मिलेगी। चाहे राजमार्गों के विस्तार का काम हो, नई सड़कों के निर्माण का काम हो, पुलों के निर्माण का कार्य हो अथवा बंदरगाह और नौवहन के मोर्चे पर भारत की विशाल क्षमता के दोहन का दायित्व हो, इस विकास पुरुष गडकरी की सूझ-बूझ, कर्मठता और संपूर्ण समर्पण की चमक हर जगह प्रस्फुटित है। भारत देश पहली बार एक ऐसी 'नीली क्रांति' के लिए तत्पर हुआ जिससे कम से कम दो करोड़ नये रोजगार के अवसर बेरोजगारों को मिलेंगे। यह दूरदृष्टा गडकरी के सोच की परिणति है कि सागरमाला के जरिए एक करोड़ रोजगार के अवसरों के सृजन के अलावा जहाजरानी, राजमार्ग और अन्य क्षेत्रों में सफलतापूर्वक एक करोड़ से अधिक और रोजगार के अवसरों का सृजन संभव हो पाएगा। बंदरगाह, सड़क और जहाजरानी जैसे क्षेत्रों में रोजगार सृजन की व्यापक संभावनाओं की पड़ताल कर उन्हें साकार करने के प्रति दृढ़ संकल्प गडकरी देश के बेरोजगार युवाओं के लिए एक प्रकाश पुंज के रूप में अवतरित हुए हैं।
क्या इस बात से कोई इनकार करेगा कि यह नितिन गडकरी हैं जिन्होंने विश्व की सभी महान सभ्यताओं के नदियों और समुद्रों के आस-पास समृद्ध होने के तथ्य को रेखांकित करते हुए देश के विकासमार्ग पर कदमताल किया है? देश में 8 नये बंदरगाहों की स्थापना का उनका निर्णय भी रोजगार की संभावनाओं से परिपूर्ण है। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि यह रोजगार ही है जिसकी उपलब्धता देश की समृद्धि को चिन्हित करती है? व्यावहारिक नितिन गडकरी ने आरम्भ से ही इस आवश्यकता को पहचान योजनाएं बनाईं और दृढ़तापूर्वक इनके क्रियान्वयन के लिए सक्रिय हुए। इनकी कार्यशैली के कायल अधिकारी वर्ग का भरपूर सहयोग गडकरी को इसीलिए मिलता है क्योंकि इनके प्रयास स्वार्थ से दूर जनहित आधारित होते हैं। इस बिंदु पर मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साधुवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने नितिन गडकरी में निहित क्षमता को पहचान उनके अनुकूल मंत्रालय सौंपे।
एक पुरानी कहावत है कि 'आलोचना व ईष्र्या के शिकार वही होते हैं जो काम करते हैं।' निकम्मों पर भला कौन ध्यान देता है? पहले से उपेक्षित यह वर्ग सर्वदा उपेक्षित की अवस्था में रहता है।  हां, काम करनेवालों को समाज का एक खास वर्ग जिसमें न केवल बाहरी ईष्र्यालु बल्कि कुछ अपने भी शामिल होते हैं, हमेशा निशाने पर लेते हैं। गडकरी भी ऐसी 'नियति' के शिकार हो चुके हैं। 53 वर्ष की अवस्था में जब गडकरी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे तब दिल्ली  दरबार की एक चौकड़ी इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। कुछ वार सामने से किए गए, कुछ पीठ पीछे। लेकिन अविचल गडकरी ने पार्टी हित में जब परिणाम देने शुरू किए तब आलोचक शिथिल पड़ गए। पार्टी अध्यक्ष के रूप में इनकी पहली परीक्षा बिहार विधानसभा चुनाव थी। नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की सरकार में शामिल भाजपा के लिए नकारात्मक भविष्यवाणियां राजनीतिक पंडित कर रहे थे। लेकिन गडकरी की रणनीति से जब 102 सीटों पर चुनाव लडऩेवाली भाारतीय जनता पार्टी के 93 उम्मीदवार विजयी हुए तब सभी चौंक गए। चूंकि सफलता का प्रतिशत नीतीश कुमार की जदयू से अधिक था, आलोचकों के मुंह पर ताला जड़ गया। इसके बाद 2013 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी गडकरी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। गडकरी ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ और कार्यशैली से पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं का दिल जीत लिया था। लेकिन महाराष्ट्र के नागपुर जैसे छोटे शहर से राजनीति के राष्ट्रीय क्षितिज पर नितिन गडकरी के चमकदार अवतरण को कतिपय स्वघोषित राजनेता पचा नहीं पा रहे थे। जबकि पार्टी का बहुमत नितिन गडकरी का प्रशंसक बन चुका था। यही कारण था कि इन्हें दोबारा अध्यक्ष बनाने पर सहमति बनी थी, लेकिन गडकरी की मौजूदगी के कारण भविष्य की राजनीति में अपनी संभावनाओं को लेकर चिंतित विघ्नसंतोषी सक्रिय हुए, साजिशें रची गईं और ऐसी स्थिति पैदा की गई कि स्वयं नितिन गडकरी ने अंतिम क्षण में भारतीय जनता पार्टी का दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से इंकार कर दिया। हालांकि गडकरी के निर्णय को मैं एक राजनीतिक भूल मानता हूं, क्योंकि गडकरी का फैसला आवेश आधारित था। हाल ही में गडकरी सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके हैं कि तब उनके खिलाफ साजिश रची गई थी। गडकरी ने दो टूक शब्दों में कहा था कि जिस दिन 'मुझे साजिशकर्ताओं की जानकारी मिल जाएगी, मैं उन्हें छोड़ूंगा नहीं।'  चूंकि भाजपा की वर्तमान केंद्र सरकार से देश की आम जनता को भारी आशाएं हैं, मैं चाहूंगा कि अब  नितन गडकरी  आवेश और भावना से इतर वृहत् दल, देश व जनहित में जररूरत पड़े तो व्यावहारिक विकास पुरुष के साथ-साथ 'पाषाण पुरुष की भूमिका में भी आ जाएं। देश उन्हें सिर आंखों पर बिठा लेगा।

Friday, May 20, 2016

चुनाव परिणाम के मायने


यहां चर्चा असम की, चूंकि उत्तर-पूर्व के इसी राज्य ने भारतीय जना पार्टी को ताजा संजीवनी प्रदान की है। पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव में एक असम ही है जहां भाजपा को अप्रत्याशित बहुमत मिला है। चुनाव पूर्व राजनीति विश्लेषक और चुनावी विशेषज्ञ एकमत थे कि असम में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर है। गठबंधन के कारण भाजपा को बढ़त मिल रही है। किसी को भी ऐसे परिणाम की आशा नहीं थी। कैसे संभव हुआ यह?
2014 के लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद महाराष्ट्र, हरियाणा,  झारखंड के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मोदी लहर का भरपूर लाभ मिला था। इन तीनों राज्यों की चुनाव कमान स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभाल रखी थी। मोदी के चेहरे को आगे कर ही चुनाव लड़े गए और विजयश्री मिली। यह आम धारणा बन गई थी कि 'मोदी लहर' व्याप्त है और भाजपा इस लहर के सहारे अजेय अवस्था में पहुंच चुकी है।
भाजपा की रणनीति भी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी के 'पर्याय' के रूप में स्थापित कर दिया जाए। पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इसे स्वीकार कर चुके थे। पूरे देश में हर-हर मोदी , घर-घर मोदी का नारा बुलंद किया जा रहा था।  भाजपा को चुनाव जितानेवाला 'हीरो' मिल चुका था। वह आश्वस्त हो चुकी थी कि अब भारत को कांग्रेस मुक्त कर भाजपा और एक अकेले भाजपा के अधीन कर दिया जाएगा। लेकिन पिछले वर्ष दिल्ली और बिहार ने भारतीय जनता पार्टी के विजयी मोदी रथ को रोक दिया।
मोदी लहर पर सवार भाजपा दिल्ली और बिहार में जनता के मूड को समझने में भी विफल रही। दिल्ली और बिहार में भी भाजपा ने मोदी को आगे कर चुनाव लड़ा। मोदी को पार्टी का 'चेहरा' बना इन दोनों राज्यों में पार्टी ने मोदी के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित कीं। प्रधानमंत्री मोदी भी अपने खास अंदाज में जनता के बीच पहुंचते रहे और भाजपा विजय की भविष्यवाणी करते रहे। लोकसभा चुनाव की तरह इन राज्यों में भी चुनावी वादों के पहाड़ मोदी ने खड़े कर दिए। मोदी ने आश्वासन दिया कि भाजपा की विजय के बाद 'स्वर्ण युग' आ जाएगा। लेकिन मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद इन दोनों राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश-लालू और कांग्रेस ने मिलकर मोदी को धूल चटा दी। साफ है कि एकमात्र मोदी लहर पर सवारी और स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
असम में दिल्ली -बिहार से सीख लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी रणनीति पहले ही बदल ली थी। प्रधानमंत्री मोदी को न तो अपना 'स्टार प्रचारक' बनाया और न ही पार्टी के 'चेहरे' के रूप में सामने किया। वहां पहले से लोकप्रिय सर्वानंद सोनोवाल को सामने कर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा कर डाली। मुख्यमंत्री के रूप में उनका चेहरा सामने कर भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन भी कर डाला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नाममात्र की रैलियों का आयोजन हुआ। चुनावी वादों का पिटारा खोलने से भी भाजपा वहां बची। बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को उसने कांग्रेस से छीन लिया। जिसका लाभ पार्टी को मिला।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने निभाई। उत्तर -पूर्वी राज्यों में अपनी मजबूत पैठ के लिए बेचैन संघ लगभग एक वर्ष पूर्व से ही असम में सक्रीय हो उठा था। उसके कार्यकर्ता पूरे असम में फैल कर कांग्रेस विरोधी अभियान में जुट गए थे। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बना संघ के कार्यकर्ता इसके दूरगामी परिणाम को भुनाने में जुटे हुए थे। संघ की विशेष कार्यशैली ने वहां आम जनता को अपने अर्थात भाजपा के पक्ष में कर लिया। 15 वर्षों के कांग्रेस शासन से उत्पन्न असंतोष को संघ ने भाजपा के पक्ष में बखूबी भुनाया। लोगों ने भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया।
लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद एक कड़ा संदेश पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच में चला गया कि अब चुनाव में भाजपा को विजय तभी मिल सकती है जब 'चेहरे' के रूप में या 'स्टार प्रचारक' के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जगह स्थानीय नेताओं को वरीयता दी जाए। इस संदेश में अनेक संदेश निहित हैं। एक तो भविष्य में अब पार्टी सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भर रहने का खतरा मोल नहीं ले सकती। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात और कर्नाटक की विधानसभाओं के चुनाव में असम चुनाव परिणाम की छाप देखने को मिलेगी। मजबूरन ही सही भाजपा इन राज्यों में भी चुनाव पूर्व स्थानीय चेहरों को छांट कर सामने प्रस्तुत करेगी।  प्रधानमंत्री पर निर्भरता के दौर को पूर्ण विराम लग जाएगा।
भाजपा की रणनीति भी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी के 'पर्याय' के रूप में स्थापित कर दिया जाए। पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इसे स्वीकार कर चुके थे। पूरे देश में हर-हर मोदी , घर-घर मोदी का नारा बुलंद किया जा रहा था।  भाजपा को चुनाव जितानेवाला 'हीरो' मिल चुका था। वह आश्वस्त हो चुकी थी कि अब भारत को कांग्रेस मुक्त कर भाजपा और एक अकेले भाजपा के अधीन कर दिया जाएगा। लेकिन पिछले वर्ष दिल्ली और बिहार ने भारतीय जनता पार्टी के विजयी मोदी रथ को रोक दिया।
मोदी लहर पर सवार भाजपा दिल्ली और बिहार में जनता के मूड को समझने में भी विफल रही। दिल्ली और बिहार में भी भाजपा ने मोदी को आगे कर चुनाव लड़ा। मोदी को पार्टी का 'चेहरा' बना इन दोनों राज्यों में पार्टी ने मोदी के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित कीं। प्रधानमंत्री मोदी भी अपने खास अंदाज में जनता के बीच पहुंचते रहे और भाजपा विजय की भविष्यवाणी करते रहे। लोकसभा चुनाव की तरह इन राज्यों में भी चुनावी वादों के पहाड़ मोदी ने खड़े कर दिए। मोदी ने आश्वासन दिया कि भाजपा की विजय के बाद 'स्वर्ण युग' आ जाएगा। लेकिन मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद इन दोनों राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश-लालू और कांग्रेस ने मिलकर मोदी को धूल चटा दी। साफ है कि एकमात्र मोदी लहर पर सवारी और स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
असम में दिल्ली -बिहार से सीख लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी रणनीति पहले ही बदल ली थी। प्रधानमंत्री मोदी को न तो अपना 'स्टार प्रचारक' बनाया और न ही पार्टी के 'चेहरे' के रूप में सामने किया। वहां पहले से लोकप्रिय सर्वानंद सोनोवाल को सामने कर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा कर डाली। मुख्यमंत्री के रूप में उनका चेहरा सामने कर भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन भी कर डाला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नाममात्र की रैलियों का आयोजन हुआ। चुनावी वादों का पिटारा खोलने से भी भाजपा वहां बची। बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को उसने कांग्रेस से छीन लिया। जिसका लाभ पार्टी को मिला।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने निभाई। उत्तर -पूर्वी राज्यों में अपनी मजबूत पैठ के लिए बेचैन संघ लगभग एक वर्ष पूर्व से ही असम में सक्रीय हो उठा था। उसके कार्यकर्ता पूरे असम में फैल कर कांग्रेस विरोधी अभियान में जुट गए थे। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बना संघ के कार्यकर्ता इसके दूरगामी परिणाम को भुनाने में जुटे हुए थे। संघ की विशेष कार्यशैली ने वहां आम जनता को अपने अर्थात भाजपा के पक्ष में कर लिया। 15 वर्षों के कांग्रेस शासन से उत्पन्न असंतोष को संघ ने भाजपा के पक्ष में बखूबी भुनाया। लोगों ने भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया।
लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद एक कड़ा संदेश पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच में चला गया कि अब चुनाव में भाजपा को विजय तभी मिल सकती है जब 'चेहरे' के रूप में या 'स्टार प्रचारक' के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जगह स्थानीय नेताओं को वरीयता दी जाए। इस संदेश में अनेक संदेश निहित हैं। एक तो भविष्य में अब पार्टी सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भर रहने का खतरा मोल नहीं ले सकती। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात और कर्नाटक की विधानसभाओं के चुनाव में असम चुनाव परिणाम की छाप देखने को मिलेगी। मजबूरन ही सही भाजपा इन राज्यों में भी चुनाव पूर्व स्थानीय चेहरों को छांट कर सामने प्रस्तुत करेगी।  प्रधानमंत्री पर निर्भरता के दौर को पूर्ण विराम लग जाएगा। 

सच, सच ही रहेगा झूठ, झूठ ही रहेगा


और,
सच यह कि भारत और भारत के लोकतंत्र की हत्या कोई नहीं कर सकता। बहुत मजबूत है यह।
और,
झूठ यह कि न्याय पालिका के कारण देश का विकास बाधित हो रहा है। झूठ बोल रहे हैं अरुण जेटली।
और,
सपाट सच यह भी कि अगर भारत की न्यायपालिका मजबूत नहीं होती तो लोकतंत्र भी मजबूत नहीं होता। और तब न तो जनादेश का आदर-सम्मान होता और न ही देश में सरल-शांत सत्ता हस्तांतरण होता। न मोरारजी देसाई कभी प्रधानमंत्री बनते और न ही नरेंद्र दामोदरदास मोदी। यह तो हमारे अत्याधिक सुदृढ़ लोकतंत्र की सफलता है कि विविधता से परिपूर्ण भारत में लोकवाणी अर्थात जनादेश को सम्मान मिलता है, जनता इच्छानुसार अपने शासक का चुनाव करती है, कार्यों के आधार पर मूल्यांकन कर शासकों को पुरस्कृत करती है या फिर दंडित करती है। और यह जटिल कार्य सफल-संपन्न होता है तो स्वतंत्र-मजबूत न्यायपालिका की मौजूदगी के कारण।
कोई आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक रूप से अत्याधिक महत्वाकांक्षी राजदल अथवा राजनेता समय-समय पर हथकंडे अपना अर्थात गलत व असंवैधानिक मार्ग का चयन कर न्यायपालिका पर कब्जे का कुत्सित प्रयास करते रहे हैं।  इस प्रक्रिया में टकराव तो दिखे किंतु कतिपय अस्थायी जख्मों के बावजूद न्यायपालिका की नींव को कोई क्षति नहीं पहुंचा पाया है। दबाव और प्रलोभन की शिकार कभी-कभी कुछ मामलों में न्यायपालिका हुई अवश्य है, किंतु जब-जब जनता के मौलिक अधिकारों पर प्रहार हुये असंवैधानिक कदमों द्वारा लोकतंत्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने की कोशिशें की गईं, जनहित में न्यायपालिका ने लोकतंत्र और समाज के पक्ष में फैसलों द्वारा अपनी निष्पक्षता दिखाई। यही कारण है कि कुछ राजनेताओं या यूं कह लें कि शासक वर्ग की ओर से प्रहार के बावजूद भारतीय न्यायपालिका के समक्ष सत्ताधारियों के मंसूबे धराशायी होते रहे हैं। निरंकुशता की लालसा पर लगाम लगाने का काम न्यायपालिका सफलतापूर्वक करती आई है। क्या आश्चर्य कि आज पूरे विश्व में भारतीय लोकतंत्र को शीर्ष स्थान प्राप्त है।
फिर ऐसा क्यों कि देश के वित्तमंत्री, स्वयं एक सुख्यात वकील, अरुण जेटली न्यायपालिका की न्यायिक सक्रियता पर चिंता प्रकट करते हुए उसे 'लक्ष्मण रेखा' के अंदर रहने की सलाह देते हैं। जेटली यह आरोप क्यों लगाते हैं कि न्यायपालिका के हस्तक्षेप के कारण देश के विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन बाधित हो रहा है? जेटली का यह कथन भी राष्ट्रीय बहस का आग्रही है कि अदालतें कार्यपालिका का स्थान नहीं ले सकती यह नहीं कह सकती कि वह कार्यकारी शक्ति का उपयोग करेगी।
जेटली के पूर्व अनेक राजनेता न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसी भावना प्रकट कर चुके है। न्यायिक सक्रियता उन्हें नहीं भाती। किंतु क्या यह सच नहीं कि विधायिका और कार्यपालिका की शर्मनाक विफलताओं के कारण ही पीडि़त अथवा प्रभावित अदालतों के दरवाजों पर दस्तक देते हैं और तब जनहित में संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत अदालतें हस्तक्षेप को बाध्य हो जाती हैं? यह सच है और शत-प्रतिशत सच है। न्यायपालिका को 'लक्ष्मण रेखा' का अतिक्रमण नहीं करने की सलाह देने वाले अरुण जेटली कहते हैं कि अगर कोई सरकारी निर्णय कार्यपालिका लेती है तब विभिन्न स्तरों पर उसकी जवाबदेही तय की जा सकती है। इससे चुनौती भी आ सकती है, इसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और अगर जनता इसे जनहित विरोधी पाती है तो वोट के माध्यम से सरकार के खिलाफ जनादेश दे सकती है। कहीं हास्य तो नहीं कर रहे जेटली? जनता जनहित विरोधी निर्णयों के खिलाफ फैसला देने के लिए पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करे और इस बीच जनता लुटती रहे, शोषित होती रहे और शासक लूटते रहें! जेटली जैसे विधितज्ञ से ऐसी उम्मीद नहीं थी। जनता को पांच वर्षों तक शासकों द्वारा लूटते रहने पर धैर्य धारण करने की सलाह कोई लुटेरा ही दे सकता है।
जनादेश के महत्व को रेखांकित करने वाले अरुण जेटली क्या बताएंगे कि जनादेश के आधार पर गठित कतिपय राज्य सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर बर्खास्त क्यों किया गया? दरवाजा खटखटाए जाने पर जब न्यायालय ने संवैधानिक प्रावधानों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित पूर्व के आदेशों के अनुरुप सरकार के ऐसे कदम को असंवैधानिक घोषित किया तो क्या इसे न्यायिक सक्रियता के नाम पर जनता गलत करार दे? कदापि नहीं। न्यायपालिका पर हाल में आरोप लगाए गए कि वह हर क्षेत्र में कार्यकारी शक्तियों का उपयोग कर शासन को निरीह कर रही है। यह आरोप भी गलत है। यह दुखद अवश्य है कि आज मामला चाहे पेयजल आपूर्ति का हो, स्कूल-कालेज में दाखिले का हो, सड़क निर्माण का हो, सरकारी व सार्वजनिक संस्थानों में नियुक्ति का हो, लोगों के लिए चिकित्सा सुविधा का हो, खाद्य पदार्थों में मिलावट का हो, उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य निर्धारण अथवा उपलब्धता का हो, आपराधिक जांच प्रक्रिया में घालमेल का हो या उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का, हर मामले में अदालतों को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। यहां तक कि सत्ता पक्ष द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के साथ छेड़छाड़ कर सत्ता के दुरुपयोग पर भी अदालतों के दरवाजों पर दस्तक पड़ रही है। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को जब उच्च न्यायालय ने लोकतंत्र की हत्या और शासकों का 'पाप' निरूपित किया तब देश की जनता आश्वस्त हुई कि सशक्त न्यायपालिका की मौजूदगी में लोकतंत्र के हत्यारे अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकते। जेटली यह क्यों भूल जाते हैं कि विधायिका को जहां कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, वहीं इनकी समीक्षा का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त है। अगर जनता को उससे मौलिक अधिकारों से वंचित किये जाने संबंधी सरकार कोई कदम उठाती है तब न्यायपालिका उस पर अंकुश लगाने के लिए संवैधानिक रूप से अधिकृत है। जनहित विरोधी किसी भी कानून की समीक्षा कर निरस्त करने का अधिकार न्यायापालिका को प्राप्त है। ऐसे में न्यायपालिका की आलोचना अथवा उसे 'लक्ष्मण रेखा' नहीं लांघने की सलाह देने की जगह बेहतर हो सरकार सुनिश्चित करे कि विधायिका और कार्यपालिका संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत जनहित में ही कानून बनाए और उनका क्रियान्वयन करे।
लोकतंत्र में बहुदलीय प्रणाली के अंतर्गत वैचारिक मतभेद या विचारधाराओं के बीच द्वंद्व स्वभाविक है। प्रत्येक राजदल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरुप जनता व समाज को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु, इस प्रक्रिया में सत्ता का दुरुपयोग एक अपराध है। विचारधाराओं को सामाजिक स्वीकृति के लिए जनता को शांतिपूर्ण ढंग से योग्यता के आधार पर शिक्षित किया जाना चाहिए। किसी व्यक्ति समूह या समाज पर विचारधारा थोपना गलत है। विवेक व ग्राहता के आधार पर जनता प्रस्तुत विचारधारा का विवेचन कर उसे स्वीकार या अस्वीकार करेगी। सत्ता के मद में शासक अगर जबरिया विचारधारा थोपेंगे तो याचिका प्रस्तुत होने पर न्यायपालिका अपना निर्णय सुनाएगी। हो सकता है,न्यायपालिका के निर्णय सत्तापक्ष के लिए असहज हों। तथापि, उन्हें न्यायपालिका का सम्मान करते हुए आदेश को शिरोधार्य करना चाहिए। न्यायपालिका के साथ टकराव की किसी भी संभावना को तत्काल जमींदोज कर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रहने दिया जाये। लोकतंत्र और स्वयं लोकप्रतिनिधि तभी सुरक्षित रहेंगे।
एक असहज संभावना भी। 'न्यायियक सक्रियता', का 'न्यायिक दुस्साहस' का रुप लेने की संभावना भी यदा-कदा दृष्टिगोचर हुई है। अतीत के कुछ असहज न्यायिक फैसले इस आरोप की चुगली करते हैं। बोफोर्स, सेंट किट्स कांड, सांसद रिश्वत कांड, उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालयों में कतिपय न्यायाधीशों की नियुक्तियों के अलावा पूर्व में राजधानी दिल्ली में बढ़ते अपराधों पर काबू पाने और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सेना के इस्तेमाल के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय का दिल्ली पुलिस को दिया गया निर्देश एक खतरनाक मिसाल है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद ने इस 'न्यायिक दुस्साहस' के फंदे के खिलाफ चेतावनी दी थी। न्यायमूर्ति आनंद ने कहा था कि जो क्षेत्र कार्यपालिका के दायरे में आते हैं, उनमें उच्च न्यायलयों द्वारा दिये जाने वाले निर्देशों के तहत बड़े पैमाने पर की जाने वाली दखल से विधायिका में भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है और उसके दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। इस बिंदू पर सत्ता पक्ष की चिंता जायज हो सकती है, किंतु तब जब कथित चिंता पूर्वाग्रह के कब्जे से मुक्त रहे। आज जबकि भ्रष्टाचार, अपराधीकरण व निरंकुशता हमारे जीवन के मूल्य बनते जा रहे हैं यह सुनिश्चित करना अतिआवश्यक है कि न्याय प्रणाली व्यवस्था का ईमानदार हिस्सा बने, समस्या का हिस्सा नहीं। चूंकि, अरुण जेटली  की शंका और मांग में निरंकुशता और सत्ता की नाजायज चाहत की बू आ रही है, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही 'न्यायिक सक्रियता' कालांतर में 'न्यायिक दुस्साहस' न बने इसे सुनिश्चित करने का अहम दायित्व विधायिका का ही है। यह संभव है। शर्त यह कि सत्तापक्ष जनहित की सोचे, दलहित की नहीं। 

शहीद करकरे पर वार? नहीं है स्वीकार !


सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक आधार पर बदले की कार्रवाईयों में नेताओं को कटघरे में खड़ा करने के दृष्टांत मौजूद हैं। कितुं, मरणोपरांत एक निडर, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को ऐसी भावना के अंतर्गत सूली पर चढ़ाने की घटना संभवत: पहली बार सामने आई है। निडरता, कर्तव्यनिष्ठता और ईमानदारी को ऐसे 'पुरस्कार' की हम निंदा करते हैं।
हां, शहीद हेमंत करकरेएक ऐसे निडर, कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने जान की परवाह किए बगैर हमलावर विदेशी आतंकियों का सामना किया। शहीद हो गए। वैसे शहीद करकरे की कर्तव्यनिष्ठता पर सवालिया निशान? उनकी निष्पक्षता पर वार? पूरा देश अस्वीकार करता है ऐसे लांछन को। धिक्कार है उस भ्रष्ट, चापलूस व्यवस्था को जो पूर्वाग्रही शासकों की कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति के लिए करकरे जैसे शहीद का अपमान करने तत्पर हो जाएं। धिक्कार है उस राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का जो जांच की दिशा को सत्ता की इच्छानुसार परिवर्तित कर डाले।
मालेगांव विस्फोट जांच की परिणति तभी संदिग्ध हो गई थी, जब विशेष सरकारी अभियोजक रोहिणी सालियान ने पिछले वर्ष सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद एनआईए के अधिकारी उन पर हिंदुत्व के पक्षधर आरोपियों पर नरमी बरतने का दबाव बना रहे हैं। बाद में रोहिणी ने दबाव बनानेवाले अधिकारी का नाम भी सार्वजनिक किया था। तभी यह प्रतीत होने लगा था कि आरोपी छूट जाएंगे। लेकिन ऐसी आशा किसी ने नहीं की थी कि उन्हें छोडऩे की प्रक्रिया में हेमंत करकरे जैसे आतंक विरोधी दस्ता (एटीएस)  के मुखिया की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठता को लांछित किया जाएगा। मुंबई पुलिस के आयुक्त तथा गुजरात और पंजाब पुलिस के महानिदेशक रह चूके सुविख्यात पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो ने करकरे को सत्य की प्रतिमूर्ति निरूपित करते हुए दुखी मन से टिप्पणी की है कि 'ये शासक भी वस्त्रहीन निकले। ' करकरे की याद करते हुए रिबेरो कहते हैं कि सच्चे न्याय की चाहत रखने वाले लोग करकरे की ओर आशा की दृष्टि रखते थे। उनकी धमनियों में, उनकी हड्डियों में सच और सिर्फ सच था। करकरे जैसे अधिकारी पर सबूतों के साथ छेड़छाड़ या सबूत गढ़े जाने का आरोप लगाना सचाई को कटघरे में खड़ा करना है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की उस टिप्पणी को देश अभी भी नहीं भूला है जिसमें देश की सबसे बड़ी खुफिया जांच एजेंसी सीबीआई को अदालत ने 'पिंजरे में कैद तोता' निरूपित किया था। क्या एनआईए स्वयं को ऐसी अवस्था में खड़ा करना चाहती है? ऐसे दृष्टांत मौजूद हैं जब सीबीआई एक दूसरी एजेंसी आईबी के अधिकारियों पर षड्यंत्र रचने के आरोप लगा चुकी है। इशरत जहां का मामला एक उदाहरण है। लेकिन यह पहला अवसर है जब एनआईए ने एक राज्य की एटीएस पर मालेगांव सरीखे संवेदनशील मामले में पूरी की पूरी जांच प्रक्रिया को न केवल कटघरे में खड़ा किया, बल्कि एटीएस पर षड्यंत्र रच आरोपियों के खिलाफ सबूत गढऩे के आरोप भी लगाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। देश के पूरे पुलिसबल का मनोबल इस घटना के बाद प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है।  आपराधिक मामलों में अगर सत्ता पक्ष सत्ता का दुरुपयोग करते हुए जांच एजेंसियों को यूं ही प्रभावित करता रहा तो इनकी विश्वसनीयिता को लोग कूड़ेदान में फेंक देंगे। क्या हम आशा करें कि  'देर आयद दुरुस्त आयद' को चरितार्थ करते हुए अभी भी शासन अपने व्यवहार में संशोधन कर लेगा? 

Monday, May 16, 2016

पत्रकार हत्या, सुरक्षा और उठते सवाल

मृत्यु !
प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया!
धर्मावलंबी इसे ईश्वर इच्छा निरुपित करते है।
जबरिया मृत्यु हत्या होती है, प्रकृति की प्रक्रिया को चुनौती देने वाली। धर्मावलंबी इसे भी ईश्वर ईच्छा की श्रेणी में डाल देते हैं।
किंतु ऐसी जबरिया मृत्यु अर्थात हत्या को हम समाज के लोग स्वीकार या बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। प्रकृति व ईश्वर ईच्छा से आगे यह एक ऐसा कुकृत्य है जो सीधे-सीधे हमारी सत्ता, हमारी व्यवस्था व हमारी सोच पर वार करता है। और जब षडय़ंत्र के तहत ऐसी घटना को अंजाम दिया जाए तब देश समाज की कानून व्यवस्था की चूलें हिल जाती हैं। अक्षम्य अपराध की ऐसी घटना पर बहस छिडऩा भी स्वाभाविक है।
बिहार व पड़ोसी झारखंड में 24 घंटों के अंदर दो पत्रकारों की निर्मम हत्या ने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं। राजनीतिक विरोधियों ने पहले से विभूषित 'जंगल राज” बिहार को इस घटना के बाद 'महाजंगलराज’ से महाविभूषित कर डाला।  बिहार से सटे झारखंड में पत्रकार की हत्या पर भी शोर तो मच रहा है किंतु वेग में बिहार आगे है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से इतर हमारी चिंता ईमानदारी से कर्तव्य निष्पादन करने वाले पत्रकारों की निर्मम हत्या और मीडिया बिरादरी की प्रतिक्रियाओं को लेकर है। पत्रकारों पर हमले और हत्याओं की घटनाओं में हाल के दिनों में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है। पत्रकार प्रताडऩा के मामले भी सामने आए हैं। प्रताडऩा ऐसी कि पिछले दिनों दिल्ली में कार्यरत युवा पत्रकार पूजा तिवारी को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा। मरते-मरते वह संदेश दे गई थी कि ''कोई पत्रकार ना बने!” क्या सचमुच पत्रकार और पत्रकारिता ऐसी 'खतरनाक’ अवस्था में पहुंच चुकी है?
बिहार के सिवान में दैनिक 'हिन्दुस्तान’ से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या कर दी गई। 42 वर्षीय राजदेव की पहचान एक निर्भीक पत्रकार की थी। निडरतापूर्वक अपने क्षेत्र से वे राजनीति से लेकर सामाजिक विषयों पर बेबाक लिखा करते थे। खबर मिली है कि राजदेव की हत्या के पिछे उन बाहुबलियों का हाथ है जिनकी पहुंच सत्ता में उपर तक है। जिस प्रकार बाइक सवार बदमाशों ने उन्हें गोली मारी उससे साफ है कि हत्या एक पूर्वनियोजित साजिश के तहत की गई है।
दूसरी घटना झारखंड के चतरा जिलांतर्गत देवरिया में एक न्यूज चैनल के 35 वर्षीय पत्रकार अखिलेश प्रताप सिंह उर्फइंद्रदेव यादव की हत्या की है। हांलाकि इनकी हत्या के कारण की जानकारी अभी नहीं मिल पायी है, संभावना पत्रकारिता से इतर की है। बिहार के राजदेव की हत्या की तरह इनकी हत्या में किसी राजनीति की संभावना फिलहाल व्यक्त नहीं की जा रही हैं। मूलत: बिहार के गया जिलांतर्गत बाराचट्टी के धनगाय गांव के रहनेवाले इंद्रदेव 10 वर्षपूर्व चतरा पहुंचे थे। कहते हैं कि पहले ये एक शिक्षक के रुप में अपने गांव में कार्यरत थे और इनका संबंध उग्रवादी संगठन एमसीसी से रहा था। पिछले पांच वर्ष से ये कलकत्ता के एक न्यूज चैनल के प्रतिनिधि के रुप में चतरा में कार्यरत थे। बहरहाल मामल हत्या का है तो जांच परिणाम के बाद ही कारण की जानकारी मिल पाएगी। फिलहाल क्षेत्र के पत्रकार भी एकमत हे कि इंद्रदेव की हत्या का कारण निजी हो सकता है।
पत्रकारों की हत्या इस क्षेत्र के लिए नई बात नहीं है। 70 के दशक के आरंभ में एक साप्ताहिक 'नया रास्ता’ पत्र के माध्यम से जमशेदपुर में 'यूरेनियम’  की तस्करी व इसमें लिप्त माफिया गिरोह पर निडरतापूर्वक लिखनेवाले एक पत्रकार शंकरलाल खीरवाल की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी गई थी। इसी प्रकार 80 के दशक में जमशेदपुर में 'अमृत बाजार पत्रिका’ के संवाददाता इलियास की हत्या राजनीतिक कारणों से कर दी गई थी। 80 के दशक में 'नयी राह’ के पत्रकार पवन शर्मा और 1995 में  पीटीआई के संवाददाता डी. पी. शर्मा की हत्या चाईबासा में कर दी गई थी।
कारण जो भी हो, बिहार और झारखंड के पत्रकारों की हत्याओं ने एक बार फिर सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े कर दिए है। जो पत्रकार अपने कर्तव्य निष्पादन के लिए जान जोखिम में डालने को तत्पर रहते हैं उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कोन लेगा? सिवान के राजदेव रंजन नि:संदेह पत्रकारीय कर्तव्य निष्पादन के दौरान मारे गये। इनकी हत्या के पीछे चॅूकि बाहुबली राजनेताओं के नाम आ रहे हैं, बिहार सरकार को चुनौती हे कि बगैर किसी भय अथवा दबाव के वह असली अपराधी को पकड़ दंड सुनिश्चित करे। यह सुखद है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सहित राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव ने भी अपराधियों को पकड़ दंडित किये जाने की बात कही है।   मुख्यमंत्री नीतीश सीबीआई जॉच की अनुशंसा भी कर चुके है। उन्हें यह सुनिश्चित करना ही होगा। तभी जंगल अथवा महाजंगलराज के आरोप से वे बिहार को बचा पाएंगे। और इसी बहाने ईमानदार पत्रकारों की सुरक्षा संबंधी पुख्ता यंत्रणा की व्यवस्था भी सुनिश्चित की जाये। घोर अस्थिर राजनीतिक वातावरण में मीडिया की निर्णायक भूमिका के मद्देनजर कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों को सुरक्षा कवच मुहैया करने की जिम्मेदारी शासन की ही है।

Thursday, May 12, 2016

अक्षम्य अपराध है इतिहास से छेड़छाड़!

कोई तर्क-वितर्क, कुतर्कनहीं ! जिस प्रकार प्रकृति अपने साथ छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती, उसी प्रकार इतिहास भी स्वयं के साथ छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करता। देश समाज के विभिन्न कालखंडों में हर विधा के क्रियाकलापों, घटनाओं  का प्रमाणित दस्तावेज होता है इतिहास। इतिहास से छेड़छाड़ का सीधा अर्थ होता है सचाई अथवा यथार्थ के साथ छेड़छाड़। इतिहास का विस्तार तो स्वभाविक है, किन्तु इतिहास में परिवर्तन बाध्यकारी परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप ही हो सकते हैं। सत्ता परिवर्तन अथवा वैचारिक मतभेद के आधार पर इतिहास में परिवर्तन अपराध है। देश व समाज के साथ छल करने वाले ऐसे कदमों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इतिहास एक ऐसा दस्तावेज होता है जो बगैर कांट-छांट, संशोधन के घटनाओं और व्यक्तियों को प्रस्तुत करता है। ऐसी घटनाओं और व्यक्तियों की समीक्षा व आकलन का कार्य देश स्वयं करता है। शोधकर्ता तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करते हैं और निष्कर्ष से समाज को अवगत कराते हैं। ऐसे निष्पादन न किसी पूर्वाग्रह से और न ही किसी राजनीति अथवा विचारधारा से प्रभावित होते हैं। सिर्फ यथार्थ की तटस्थ व निष्पक्ष प्रस्तुति होती है ऐसे विश्लेषणों से।
खबर मर्माहत करने वाली है कि राजस्थान की स्कूली पाठ्यपुस्तकों से देश के प्रथम प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम नेताओं में से एक पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा दिया गया है। अर्थात स्कूली छात्रों को इस जानकारी से वंचित कर दिया गया है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे?  यही नहीं, छात्र अब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में भी नहीं जान पाएंगे। जबकि पं. नेहरू उन अग्रज नेताओं में रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त कराने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। जिस पं. नेहरु का नाम इतिहास में अन्य महान विभूतियों के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, उस नाम को इतिहास से हटाने का मकसद राजनीति और सिर्फ राजनीति ही हो सकती है। सच पर झूठ का ऐसा मुलम्मा! कोई राजनीति नहीं, कोई दुराग्रह नहीं, मैं  इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि इस 'पाप’ को अंजाम देने वाले राष्ट्रभक्त तो नहीं ही हो सकते। मैं व्यक्तिगत रूप से पं. नेहरूकी अनेक नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता, बल्कि अनेक मामलों में देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए उनकी कतिपय नीतियों को दोषी मानता हूं। मामला कश्मीर का हो, तिब्बत का हो या फिर 1962 के चीनी आक्रमण का हो, पं. नेहरू की गलत नीतियों व निर्णयों के कारण भारत को शर्मिंदा होना पड़ा। बावजूद इसके स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान व उनके त्याग को इतिहास कैसे भूल सकता है? पं. जवाहरलाल नेहरू नाम का व्यक्ति भारत देश का प्रधानमंत्री था, इस तथ्य को इतिहास के पन्नों से कैसे बाहर निकाला जा सकता है? इतिहास देश-समाज को शिक्षित करता है, अशिक्षित नहीं। ज्ञानी बनाता है अज्ञानी नहीं। इस पाश्र्व में राजस्थान सरकार का नेहरू विरोधी कदम एक अक्षम्य राष्ट्रीय अपराध माना जाएगा। निर्णयकर्ता किसी भ्रम में ना रहें। एक राज्य की पाठ्यपुस्तक से पं. नेहरू का नाम हटा देने से भारत देश पं. नेहरू को भूल नहीं जाएगा। विलंब अभी नहीं हुआ है। राज्य सरकार संशोधन कर लें ।
 इतिहास में परिवर्तन सिर्फ पं. नेहरु के नाम के साथ नहीं हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में पं. मदन मोहन मालवीय और सरोजनी नायडू जैसी महान विभूतियों के नाम भी हटा दिये गये हैं। क्या पं. मालवीय और सरोजनी नायडू महान स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे? क्या उनके योगदान सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और हेमू कालानी से कम थे? डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाम देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में तो शामिल किया गया है, किंतु स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उनके अतुल्य योगदान की उपेक्षा की गई है। ध्यान रहे वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिनकी इच्छा और प्रयास से डॉ. भीमराव आम्बेडकर न केवल संविधान सभा के सदस्य बन पाये बल्कि संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष भी बने। वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह की नींव रखी थी। वही चम्पारण सत्याग्रह जिसने महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जमीन तैयार कर दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन, भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के योगदान को कैसे विस्मृत कर सकते हैं? इतिहासकार देश के साथ गद्दारी करेंगे अगर ऐसे योगदान को इतिहास में शामिल नहीं किया गया। सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान को विस्तार में दर्ज कर उनके साथ न्याय तो किया गया किंतु उनकी पंक्ति में उनके समकक्ष कुछ अन्य नेताओं को शामिल करने पर सवाल खड़े होंगे।
सर्वाधिक आपत्तिजनक प्रसंग महात्मा गांधी के हत्यारे के रूप में नाथूराम गोडसे के नाम को हटाया जाना है। क्या राजस्थान सरकार चाहती है कि उनके छात्रों को इस सत्य की जानकारी से वंचित कर दिया जाए कि नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी? गुलाम भारत को निर्णायक आजादी दिलवाने वाले महात्मा गांधी की हत्या देश को आजादी मिलने के छह माह के अंदर नाथूराम गोडसे ने कर दी थी। इस सचाई पर परदा डालने वाले भारत देश और भारत के स्वतंत्रता संग्राम की सचाई पर परदा डालने का कुप्रयास कर रहे हैं। यह भी एक अक्षम्य अपराध है। राजस्थान सरकार तत्काल संशोधन कर ले।
यह ठीक है कि इतिहास लिखने- लिखवाने, तोडऩे-मरोडऩे का एक दुखद बल्कि आपराधिक  दौर चल पड़ा है। लोकतंत्र में सरकारें आती हैं, जाती हैं । विचारधाराओं में संघर्ष होते हैं, थोपने के प्रयास होते हैं। विचारधाराओं के अनुरुप राजदल समाज को प्रभावित करने की कोशिशें करते हैं। लोकतंत्र की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु सत्य के आइने के रुप में स्थापित इतिहास को विद्रूप करने की कोशिश स्वीकार नहीं की जा सकती। तथ्यानुसार सत्ता चाहे तो अपनी विभूतियों को इतिहास में समुचित स्थान दे दे, महिमामंडित भी कर दे, किंतु किसी अन्य को इतिहास के पन्नों से बाहर करने का दुष्कर्म न करे। जैसा कि मैने पहले कहा है, देश सक्षम है इतिहास पुरुषों के व्यक्तित्व, चरित्र का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालने में। इतिहास तो वह कच्चा पदार्थ होता है जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। विभिन्न कालखंड में उनका मूल्यांकन देश स्वयं करता है। मिलावटी पदार्थ तो भ्रम पैदा करते हैं। सत्य पर काली चादर डाल देते हैं।
ऐसे 'पाप’  की अपराधी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी बन चुकी हैं। वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने आपातकाल के दौरान लाल किले के प्रांगण में एक 'कालपात्र’ गड़वाकर भविष्य में इतिहास को प्रभावित करने की कोशिश की थी। 'कालपात्र’ में  एक पक्षीय जानकारियां डाल नेहरु परिवार को ही भारत की आजादी के पाश्र्व में महिमामंडित करने की कोशिश की गई थी। 'कालपात्र’ में तब दी गई जानकारियों से डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित अनेक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों के नाम नदारद थे। 1977 में जनता पार्टी ने सत्तारूढ़ होने के बाद खुदाई कर 'कालपात्र’ को बाहर निकलवाया था। तब इंदिरा गांधी के नापाक मंसूबे का पर्दापाश हुआ था। एक वह और ताजातरीन राजस्थान का उदाहरण चुगली करता है उस हकीकत की, कि इतिहास को तोडऩे-मरोडऩे के प्रयास पहले भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं।
क्या राजदल या राजनेता ऐसे 'पाप’ से स्वयं को पृथक नहीं रख सकते? फैसला इस सच के आलोक में करें कि देश, इतिहास बदलने या तोडऩे-मरोडऩे के किसी भी प्रयास को कभी बर्दाश्त या स्वीकार नहीं करेगा। 

रिहा करें छत्तीसगढ़ के गिरफ्तार पत्रकारों को!

कोई लाग-लपेट नहीं!
'मीडिया मंडी’ छत्तीसगढ़ के उन पत्रकारों की मांग के साथ है, कि जुल्मी पुलिसिया कार्रवाई  लिए कुख्यात बस्तर के पुलिस आईजी एसआरपी कल्लूरी के खिलाफ कार्रवाई की जाए, बस्तर से तबादला कर दिया जाए। सुदूर ग्रामीण इलाकों, नक्सल प्रभावित संवेदनशील क्षेत्रों में प्राणों की बाजी लगा दायित्व निर्वाह कर रहे पत्रकारों को धमका कर प्रताडि़त कर शासन के अनुकूल एकपक्षीय खबर लिखने को मजबूर करने संबंधी किसी भी कदम का समर्थन नहीं किया जा सकता। अनेक कारणों से पहले से ही दबे-सहमे इन पत्रकारों के खिलाफ जब ऐसी शासकीय कार्रवाई होती है, तो यह राज्य सरकार का दायित्व हो जाता है कि पत्रकारों को संरक्षण प्रदान करे। खेद है, इस मोर्चे पर छत्तीसगढ़ सरकार अब तक विफल रही है। मजबूरन वहां के पत्रकार राजधानी दिल्ली में दस्तक देने पहुंच गये।
ये सचमुच छत्तीसगढ़ सरकार के लिए शर्म की बात है कि ऐसे पत्रकारों को संरक्षण की जगह उसकी यंत्रणा पत्रकारों को नक्सली बता गिरफ्तार करने लगी है। पत्रकारों से मधुर संबंध रखने वाले मुख्यमंत्री डा रमनसिंह  से ऐसी अपेक्षा नहीं थी। यह वहीं छत्तीसगढ़ है जहां पूर्व में नक्सलियों ने सार्इं रेड्डी और नेमीचंद जैन जैसे पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया था। मुख्यमंत्री ने तब कड़ी कार्रवाई का आश्वासन भी दिया था। लेकिन सुधार की जगह स्थिति और बदतर होती चली गई है। पत्रकारों के लिए उन संवेदनशील इलाकों में काम करना मुश्किल हो गया है। अगर आफत नक्सलियों अथवा अन्य अपराधी गिरोह की ओर से आती है तब क्या यह सरकार का दायित्व नहीं होता कि वह पत्रकारों को संरक्षण प्रदान करे? परंतु विडंबना यह कि छत्तीसगढ़ में स्वयं प्रशासन ही पत्रकारों को प्रताडि़त करने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वयं पुलिस प्रशासन और नक्सली तथा आपराधिक तत्वों की मिलीभगत है। जिस प्रकार नक्सलियों तथा उन क्षेत्रों में बड़े 'कार्पोरेट घरानों’ को लाभान्वित करने के लिए जबरिया जमीन का अधिग्रहण कर उन्हें आबंटित करने के मामले पत्रकार उजागर कर रहे हैं, इसमें निहित जोखिम को देखते हुए स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि वे पत्रकारों को उचित सुरक्षा प्रदान करे। लेकिन जब स्वयं पुलिस पत्रकारों को ही आरोपी बना गिरफ्तार करने लगे, उन्हें धमकाने लगे तब पूरी की पूरी राज्य सरकार की नीयत पर संदेह तो उठेंगे ही। समय रहते मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ऐसे आरोपों और पुलिसिया कार्रवाई का निराकरण करें अन्यथा विकास के मार्ग पर तेजी से अग्रसर छत्तीसगढ़ राज्य नक्सलियों और अपराधियों के समक्ष नपुंसक की मुद्रा में खड़ी दिखेगी।
'मीडिया मंडी’ पूरी तरह से राज्य के पत्रकारों के साथ है। 'मीडिया मंडी’ हर दिन राजधानी दिल्ली सहित  देश के विभिन्न बड़े शहरों की सड़कों पर कुछ पत्रकारों को सुरक्षा के घेरे में विचरण करते देखता है। हर तरह से सुविधा संपन्न इन पत्रकारों के लिए सुरक्षा कवच वस्तुत: राजनेताओं की तरह 'प्रतिष्ठा सूचक’ ही होते हैं। वास्तविक सुरक्षा की जरुरत तो बस्तर व इस जैसे असुरक्षित क्षेत्रों के उन पत्रकारों को हैं, जिनके प्राण हमेशा जोखिम में होते हैं। वे कर्तव्य निर्वाह के लिए घर से बाहर निकलते हैं, वापस लौटने तक परिवार भयभीत रहते हैं। ऐसे में नक्सल प्रभावित बस्तर में पत्रकारों के खिलाफ गिरफ्तारी जैसी पुलिसिया कार्रवाई की न सिर्फ भत्र्सना, ऐसी कार्रवाई करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई हो। पिछले वर्ष मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने आश्वासन दिया था कि निप्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता के पक्ष में सरकार सभी आवश्यक कदम उठाएगी। पत्रकारों की गिरफ्तारी संबंधी मामलों की पुर्नसमीक्षा का आश्वासन भी मुख्यमंत्री ने दिया था। बावजूद इसके महीनों बीत गये आजतक कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं हुई।
यह किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक है कि उनके राज्य के पत्रकारों को दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाना पड़े। यह स्वयं मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के लिए शर्म की बात है कि बस्तर में चार पत्रकारों सोमारु नाग, संतोष यादव, प्रभात सिंह व दीपक जैस्वाल को फर्जी मामलों में फंसा जेल में डाल दिया गया है। सर्वाधिक शर्मनाक यह कि बस्तर में पदस्थ आईजी कल्लूरी पत्रकारों को फोन कर धमकाने लगे हैं।
चुनौती है मुख्यमंत्री डा. रमनसिंह को कि वे  इस आईजी कल्लूरी के खिलाफ प्रशासकीय कार्रवाई करते हुए गिरफ्तार पत्रकारों के मामलों की पुर्नसमीक्षा का तत्काल आदेश जारी करें। मुख्यमंत्री ध्यान रखें, फिलहाल यह मामला एक बस्तर का है। अगर पत्रकारों के खिलाफ ऐसी दमनात्मक कार्रवाई पर अंकुश नहीं लगाए जाते तो बस्तर की चिंगारी दावानल का रूप ले पूरे छत्तीसगढ़ राज्य को अपनी चपेट में ले लेगी। लालफीताशाही के पक्षधर ऐसे अधिकारी हमेशा निर्वाचित सरकार की मजबूत पांव के नीचे की जमीन खोदने का काम करते हैं। इनकी प्रवृति ही लोकतंत्र विरोधी होती है। इनका चरित्र ही चरित्रवानों की सफेदी पर दाम लगाने का होता है। अपराध और अपराधियों के मध्य विचरने को प्राथमिकता देने वाला यह वर्ग कभी भी इनकी समाप्ति नहीं चाहेगा। आजादी के बाद का लगभग सात दशक इनकी अभी भी मौजूदगी से कलंकित है। लालफीताशाह के ये 'लाल’ जब तक निर्बाध फलते-फूलते रहेंगे, अपराध और अपराधियों का भी विस्तार होता रहेगा। इन दोनों पर निगरानी और अंकुश रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पत्रकारों को फिर सुरक्षा क्यों नहीं? अभी समय बीता नहीं है। मुख्यमंत्री डा. रमनसिंह कृपया तत्काल हरकत में आएं। गिरफ्तार पत्रकारों की रिहाई सुनिशित करे और कल्लूरी जैसे अधिकारी को दंडित करें। 

लोकतंत्र की हत्या का अनधुला 'पाप'!

उत्तराखंड में उठा राजनीतिक बवंडर हरीश रावत द्वारा शक्ति परीक्षण में विजय हासिल करने के साथ ही शांत तो हो गया किंतु यक्ष प्रश्न अभी भी अपने विकराल रूप में मौजूद है कि क्या वहां हुई लोकतंत्र की हत्या का 'पाप' धुल गया? चूंकि प्रदेश में तब थोपे गए राष्ट्रपति शासन को स्वयं उच्च न्यायालय ने अलोकतांत्रिक करार देते हुए टिप्पणी की थी कि राष्ट्रपति शासन वस्तुत: लोकतंत्र की हत्या का पाप है, भारत का लोकतंत्र अपने हत्यारे की पहचान भी जरूर चाहेगा। जनधारणा भी यही है। किसी भी निर्वाचित सरकार को आपत्तिजनक हथकंडे अपना बर्खास्त कर दिया जाना निश्चय ही जनादेश का अपमान और लोकतंत्र के गालों पर तमाचा है। नैनीताल उच्च न्यायालय ने इसे हत्या निरूपित किया था तो कुछ गलत नहीं।
अब जबकि कांग्रेस के हरीश रावत सर्वोच्च न्यायलय के आदेशानुसार बहुमत साबित कर पुन: सत्तासीन हो गए हैं, सवाल तो बरकरार ही रहेगा कि क्या हत्या के दोषी की पहचान कर उसे दंडित किया जाएगा? प्रश्न स्वाभाविक है, किंतु उत्तर अधर में ही रहेगा। यह हमारे लोकतंत्र का एक स्याह पहलू है कि विभिन्न राजदल अपने शासनकाल में संविधान की धारा 356 का कथित उपयोग अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु करते रहे हैं।  केंद्र व राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ यह प्रवृत्ति बढ़ती चली गई। केंद्र में सत्तारूढ़ शासकदल में एकाधिकार की इच्छा ने भी इस प्रवृत्ति को शक्ति प्रदान की है।  दुर्भाग्यवश लोकतंत्र विरोधी इस प्रवृत्ति को सींचित किया लोकतांत्रिक राजदलों ने ही। लोकतंत्र के कथित पहरुओं ने लोकतंत्र विरोधी ऐसे हथकंडों को मजबूत किया।
सर्वाधिक दुखद पहलू तो यह कि संविधान की धारा 356 का पहला दुरुपयोग किसी और ने नहीं लोकतंत्र के एक प्रतीक  प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही किया था।  तब पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव के बहुमत की सरकार को केंद्र सरकार ने सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि प्रधानमंत्री नेहरू मुख्यमंत्री भार्गव से किसी कारणवश नाराज थे।  पुन: 1954 में नेहरू सरकार ने ही आंध्र प्रदेश की निर्वाचित बहुमत की सरकार को इस शंका के आधार पर बर्खास्त कर दिया था कि वहां 'कम्युनिस्ट' के अवतरण का भय पैदा हो गया था।  फिर 1959 में केरल की निर्वाचित 'कम्युनिस्ट' सरकार भी केंद्र की नाखुशी के कारण बर्खास्त कर दी गई थी। कहने का तात्पर्य यह कि संविधान की धारा 356 के दुरुपयोग की कहानी पुरानी है। नंगा दुरुपयोग 1977 और 1980 में हुआ। तब जनता पार्टी और कांग्रेस ने केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद दूसरे दलों की राज्य सरकारों को बगैर किसी पर्याप्त कारण के बर्खास्त कर दिया था। एक संवैधानिक प्रावधान के साथ ऐसी घटनाएं अनाचार की हैं।
उत्तराखंड के मामले में चूंकि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के पक्ष में तीखी टिप्पणियां की हैं और केंद्र सरकार का दोहरा चरित्र सामने आया है, जरूरी है कि पूरा देश इस पर वैचारिक मंथन करे। लोकतंत्र में जनता की पसंद पर सरकारें आती हैं, जाती हैं। बहुदलीय लोकतंत्र का यह एक सुखद पहलू है कि देश की जनता जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप केंद्र व विभिन्न राज्यों में अलग-अलग दलों को सत्ता सौंपती रही है। ऐसे जनादेश देश के संघीय ढांचे की मजबूती को मोटी रेखाओं से चिन्हित करते रहे हैं। केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप परस्पर सहयोगात्मक संबंधों की जरूरतें बार-बार चिन्हित हुई हैं।
दुखद है कि केंद्र की वर्तमान भाजपा सरकार पर हाल के दिनों में आरोप लगे हैं कि वह येन-केन प्रकारेण  गैर भाजपाई राज्य सरकारों को अपदस्थ करना चाहती है। अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में ऐसी कोशिश हुई। यह तो हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा निर्धारित प्रावधान हैं जिस कारण लोकतंत्र के रक्षार्थ न्यायपालिका दूध का दूध और पानी का पानी कर देती है। उत्तराखंड के मामले में भी राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की दिशा में उठाए गए केंद्र सरकार के अनैतिक कदम को न्यायपालिका ने रोक दिया। इस प्रक्रिया में न्यायपालिका ने जो कठोर टिप्पणियां की है उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। राजनीति में स्वच्छता और शुचिता की पक्षधर भारतीय जनता पार्टी से अपेक्षा है कि वह न्यायपालिका की टिप्पणियों को सकारात्मक रूप में ग्रहण करते हुए संशोधनात्मक प्रयास शुरु करे। लोकतंत्र के सभी पायों को मजबूती प्रदान करना निर्वाचित सरकार का दायित्व होता है। उत्तराखंड के बहाने भाजपा की केंद्र सरकार समुचित कदम उठाकर यह सुनिश्चित करे कि लोकतंत्र में लोकभावना का आदर करते हुए किसी भी निर्वाचित सरकार को षड्यंत्रवश अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की जाएगी।

Thursday, May 5, 2016

राम नाईक, गोविंदा और राजनीति का अपराधीकरण !


क्या राम नाईक झूठ बोल रहे हैं? राजनीतिक विरोधी भले ही उत्तर 'हां' में दें, मैं पूरे विश्वास के साथ अपना उत्तर 'ना' में अंकित कर रहा हूं। कानूनी अखाड़े में जरूरी प्रमाण भले ही राम नाईक उपलब्ध न करा पाएं, उनके शब्दों को चुनौती नहीं दी जा सकती। जानकार जब अपना हृदय टटोलेंगे तो वहां से भी उत्तर राम नाईक के आरोप की पुष्टि करनेवाले ही मिलेंगे।
वैसे महाराष्ट्र के एक दिग्गज नेता, वर्तमान में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, राम नाईक अपने अनेक वक्तव्य को लेकर विवादों में घिरते रहे हैं। किंतु सहज-सरल राम नाईक पर कोई भी झूठ बोलने का आरोप नहीं लगा सकता। आलोच्य प्रसंग में भी नहीं।
राम नाईक ने अपनी ताजा प्रकाशित पुस्तक 'चरैवेति-चरैवेति' में आरोप लगाया है कि उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से चुनाव में उन्हें हराने के लिए कांगे्रस के अभिनेता उम्मीदवार गोविंदा ने 'अंडरवल्र्ड डॉन' दाऊद इब्राहिम और बिल्डर हितेंद्र ठाकुर की मदद ली थी। उल्लेखनीय है उस चुनाव में गोविंदा ने राम नाईक को 11,000 मतों से पराजित किया था। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस और स्वयं गोविंदा ने आरोप को झूठा करार दिया है। कांग्रेस का कहना है कि अपनी पुस्तक की बिक्री में इजाफा करने के लिए राम नाईक ने सनसनी का सहारा लिया है। मैं नहीं समझता कि धीर-गंभीर राम नाईक पुस्तक की बिक्री के लिए ऐसे हथखंडे अपना सकते हैं।
राम नाईक के इस खुलासे ने एक बार फिर राजनीति में नेताओं और अपराधियों के बीच गठजोड़ पर बहस छेड़ दी है। मुंबई में ऐसे गठजोड़ को लेकर नेताओं पर आरोप पहले भी लगते रहे हैं। स्वयं मराठा छत्रक शरद पवार को भी ऐसे आरोपों से जूझना पड़ा हैं। पवार पर भी 'अंडरवर्ल्ड' बल्कि दाऊद के साथ संबध होने के आरोप लग चुके हैं। बताया जाता है कि 'वोरा आयोग' ने अपनी 'रिपोर्ट' में ऐसे संबधों की पुष्टि की थी। आयोग ने राजनीतिकों और  'अंडरवर्ल्ड' के बीच संबधों की पड़ताल की थी। चूंकि आयोग की 'रिपोर्ट' कभी सार्वजनिक नहीं की गयी दावे के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता, किंतु चर्चा जोरों पर रही कि शरद पवार के दाऊद के साथ संबधों की पुष्टि हुई थी। मुंबई में तब एक कथित घटना की चर्चा जोर-शोर से हुई थी। जिसमें पवार और दाऊद के संबंधों को लेकर चटखारे लिए गए थे। घटना 90 के दशक के आरंभ की है जब शरद पवार भारत के रक्षामंत्री थे। कहते हैं कि एक पांच सितारा होटल में तब के एक बड़े बिल्डर सपत्नीक रात्रि भोजन पर गए थे। तब व्याप्त चर्चा के अनुसार होटल के लॉबी में एक व्यक्ति ने बिल्डर की पत्नी को छेड़ दिया। स्वाभाविक रुप से बिल्डर ने आवेश में उस व्यक्ति का कॉलर पकड़ लिया। तत्काल चारों और से कई 'स्टेनगन' धारियों ने बिल्डर और उसकी पत्नी को निशाने पर ले लिया। बताते हैं वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि दाऊद का भाई इकबाल था। होटल प्रबंधन ने बीच-बचाव कर मामले को शांत किया। उक्त बिल्डर पत्नी के साथ वापस घर चले गए। घर पर उन्हें एक फोन आता है। फोन पर बिल्डर को निर्देश मिलता है, वह सुबह आठ बजे अपनी पत्नी को लेकर 'इकबाल साहब' के पास पहुंच जाए, अन्यथा दोनों को गोली मार दी जाएगी। बिल्डर के पवार के साथ नजदीकी संबंध थे। उसने पवार को इस घटना की जानकारी दी। लेकिन शरद पवार अर्थात भारत के रक्षामंत्री भी लाचार साबित हुए, बिल्डर की मदद नहीं कर पाए। कहते हैं कि उक्त बिल्डर निर्धारित समय पर इकबाल के पास पहुंचा, माफी मांगी, एक बड़ी राशि का भुगतान किया और तब जाकर उन्हें मुक्ति मिली।
नेताओं और  'अंडरवर्ल्ड' के बीच रिश्तों तथा  'अंडरवर्ल्ड' के दबदबे को बताने के लिए यह एक उदाहरण काफी है। बताते हैं कि 'वोरा आयोग' की 'रिपोर्ट' में नेताओं और  'अंडरवर्ल्ड' के बीच मधुर रिश्तों की विस्तार से चर्चा की गई है। अनेक बार रिपोर्ट को सार्वजनिक किए जाने की  मांग तो उठी, किंतु रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। यह अपने आप में एक शोध का विषय है कि जिस रिपोर्ट को जनहित में सार्वजनिक किया जाना था उस पर स्वयं विभिन्न सरकारें क्यों कुंडली मार बैठी हैं?
राम नाईक के दावे को झुठलाने की कोशिश करनेवाले पहले अपने गिरेबान में झांके। क्या वे इस बात से इंकार कर सकते हैं कि मुंबई पर वास्तविक नियंत्रण आज भी 'अंडरवर्ल्ड' का ही है?  'अंडरवर्ल्ड' के साथ नेताओं की सांठगांठ के किस्से आम हैं। पुलिस प्रशासन की सहभागिता भी हमेशा चर्चा का विषय बनती रही है।  राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का मेल अगर खतरनाक साबित हो रहा है, तो दोषी वह 'व्यवस्था' है जो वर्तमान राजनीति की देन है और जिसे नकारात्मक ऊर्जा राजनीतिक उपलब्ध कराते रहे हैं। जनप्रतिनिधि के रुप में संविधान की शपथ लेने वाले ये राजनीतिक अपराध और बाहुबलियों को संरक्षण देते समय भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का बेरोजगारी, अशिक्षा, क्षीण स्वास्थय सेवाओं आदि जैसी गंभीर समस्याओं पर सीधा प्रतिकूल असर पड़ता है। राजनीति के इस अपराधीकरण ने प्रशासन और पुलिस को अपने शिकंजे में कस इतना पंगु बना डाला कि  'अंडरवर्ल्ड' के रुप में एक पृथक साम्राज्य निर्मित हो गया। बंबई अर्थात मुंबई इसका एक गंभीर शिकार हुआ है। राम नाईक गलत नहीं हैं। मुझे आज भी याद है भारत के पूर्व कैबिनेट सचिव डी. जी. देशमुख की वह टिप्पणी, जिसमें उन्होंने इस महानगर को लेकर गंभीर चेतावनी दी थी। देशमुख ने टिप्पणी की है कि, ' यदि गैंगों (गिरोह) द्वारा की जा रही हत्याओं को रोकने के लिए शीघ्र सख्त कदम नहीं उठाये गये तो आशंका है कि मुंबई 30 के दशक के शिकागो जैसा बन जाएगा। उस समय इस अमेरिकी शहर पर माफिया गिरोह राज करते थे। हममें से कई लोग तो हमेशा सोचते रहे हैं कि मुंबई सबसे सुरक्षित शहर है। यहां की पुलिस की गौरवपू़र्ण परंपरा और प्रतिष्ठा रही है, फिर इसे क्या हो गया कि यहां माफिया गैंग सरेआम लोगों की हत्या कर रहे हैं।  इसे कई कारण है मगर सबसे महत्पवूर्ण है राजनीति का अपराधीकरण'।
फिर राम नाईक गलत कैसे हो सकते हैं। बगैर किसी पुख्ता जानकारी के राम नाईक प्रसिद्ध अभिनेता गोविंदा पर ऐसे आरोप नहीं लगा सकते। प्रत्युत्तर में गोविंदा जिस 'जनसमर्थन' की दुहाई दे चुनाव में जीत का दावा कर रहे हैं, वह लचर है। अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिसमें जेलों में बंद बाहुबली चुनाव लड़ते रहे हैं और विशाल बहुमत से जीतते रहे हैं। वह बहुमत बाहुबली की लोकप्रियता अथवा जनसमर्थन को चिन्हित नहीं करता बल्कि उसके आतंक अथवा भय की परीणति को चिन्हित करता है। विजय हासिल करने वाले बाहुबलियों के दावों से इतर सच यही है कि बेचारा आम मतदाता उनके कहर के डर से अपना मत उसके पक्ष में डाल देता है। सच यही है। गोविंदा की लोकप्रियता संबंधी लचर दलील को मुंबईवासी स्वीकार नहीं करेंगे। समस्या अत्याधिक गंभीर व खतरनाक है। राम नाईक ने विषय छेड़ा है तो उन्हें चुनौती देने की जगह निदान के उपाय ढूंढे जाने चाहिए। 

'पेड न्यूज' पर फैसला


पाठक कर तो सकते हैं, ब-शर्ते...!
जब आक्षेप पूरी की पूरी बिरादरी पर लगे तब बचाव में अग्रिम पंक्ति में खड़े नेतृत्व को ही सामने आना होगा। 'मीडिया मंडी' में प्रविष्ट 'कैंसर' - 'पेड न्यूज'- पर पिछले दिनों सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहसें छिड़ीं तो बिरादरी का नेतृत्व भी सतर्क हो गया।
राष्ट्रीय हिन्दी दैनिकों में सर्वाधिक प्रसारित  'दैनिक भास्कर' ने अपने एक सम्पादकीय स्तंभ में विषय को उठाते हुए अपने तर्कों का निचोड़ यह निकाला कि 'पेड न्यूज' का फैसला पाठकों पर छोडऩा ही बेहतर होगा। अब नई बहस यह कि क्या पाठक अखबारों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर 'पेड न्यूज' पर फैसला कर पाएंगे? क्या अखबारी प्रबंधन पाठकों के साथ अपने इस अवैध गोपनीय व्यवहार को साझा करेंगे? क्या पाठकों को प्रबंधन यह अधिकार देगा कि वह उनके सम्पादकीय कक्ष में प्रवेश कर 'पेड न्यूज' संबंधी आवश्यक पूछताछ कर सके? संभव ही नहीं है।
चूंकि  'दैनिक भास्कर' ने पाठकों के पक्ष को रेखांकित करते हुए फिल्म जगत के 'बॉक्स ऑफिस' की मिसाल दी है, ऐसा प्रतीत होता है कि अखबार का आशय पाठकीय जागरुकता व प्रतिसाद को लेकर है। जिस प्रकार दर्शक किसी फिल्म का 'बॉक्स ऑफिस' पर निर्णय कर देते हैं, उसी प्रकार संभवत: 'दैनिक भास्कर' चाहता है कि पाठक अखबारों का भविष्य निर्धारित करें।  इस सोच और पहल को समर्थन और सम्मान मिले इसके लिए जरूरी है कि समाचार पत्रों की ओर से भी इस बिन्दू पर पाठकों को जागरुक करने का अभियान छेड़ा जाए। लखटकिया सवाल यह है कि क्या समाचार पत्र प्रबंधन इसकी इजाजत देगा? मूल्य और सिद्धांत के पक्षधर क्रांतिकारी पत्रकार तो इस हेतु कदमताल को तैयार हो जाएंगे किंतु जब तक प्रबंधन का समर्थन नहीं मिलता है विषय की तार्किक परिणति संभव नहीं। पत्रकार चाहे जितना भी दावा कर लें यह कड़वा सच मोटी रेखाओं से चिन्हित हो चुका है कि अब संपादकीय कक्ष पर प्रबंधन का पूरा नियंत्रण कायम हो चुका है। चूंकि 'अपवाद' शब्द अभी भी शब्दकोश में मौजूद है, हो सकता है कुछ इस निष्कर्ष को झुठला भी दें। परंतु संभावना धूमिल ही है।
बहस की शुरुआत अदालत के समक्ष सरकार द्वारा रखे गए उस प्रस्ताव को लेकर हुई जिसमें 'पेड न्यूज' पर अंकुश हेतु जनप्रतिनिधित्व कानून और भारतीय प्रेस परिषद कानून में संशोधन की बात कही गई है। प्रस्तावित संशोधन 'पीआरबी बिल 2015' को लेकर भी है जिसमें 'पेड न्यूज' छापनेवाले का प्रकाशन एक निश्चित अवधि तक निलम्बित किए जाने का सुझाव दिया गया है।  प्रेस की आजादी के नाम पर प्रस्ताव का विरोध करनेवालों का तर्क है कि  अगर तद्संबंधी कोई कानून बना दिए जाते हैं तो सरकार की ओर से ही कानून के दुरुपयोग की संभावना अधिक है।
अब सवाल यह कि क्या 'पेड न्यूज' सिर्फ चुनावों के समय ही प्रकाशित किए जाते हैं? शुरुआत तो ऐसी हुई थी किंतु अब हालत यह है कि चुनावों से इतर अन्य खबरों के लिए भी 'भुगतान' की मांंग की जाने लगी है। प्रबंधन और संपादकीय कक्ष इसका विरोध कर सकते हैं किंतु यह एक कटु सत्य है जो धीरे-धीरे अपना विस्तार करता जा रहा है। चाहे तो कोई सर्वेक्षण करा ले, ऐसी शिकायतों के अंबार लग जाएंगे। स्वयं 'प्रहरी' अभी पिछले ही दिनों ऐसी एक घटना से रूबरू हो चुका है।
मुंबई से प्रकाशित एक हिंदी 'दैनिक' को किसी संस्था ने एक कार्यक्रम से संबंधित सचित्र एक खबर प्रकाशनार्थ भेजी। दैनिक की ओर से उस खबर को प्रकाशित करने के लिए एक बड़ी रकम की मांग की गई। एक सार्वजनिक कार्यक्रम की खबर के प्रकाशन के लिए 'दैनिकश' द्वारा धनराशि की मांग किए जाने पर आयोजनकर्ता अचंभित रह गया। उन्होंने पैसे नहीं दिए। दिलचस्प परिणाम पर गौर करें। दो दिनों बाद उसी समूह के अंग्रेजी दैनिक में उक्त कार्यक्रम से संबंधित सचित्र एक बड़ी पूर्णत: नकारात्मक खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई। बिचारे आयोजक परेशान। अखबार के संपादकीय कक्ष से संपर्क स्थापित करने पर भी उन्हें कोई समाधान नहीं मिला। किसी की सलाह पर तब आयोजकों ने समूह के हिंदी दैनिक द्वारा पूर्व में मांगी गई धनराशि का भुगतान कर दिया। अब दिलचस्प यह कि कार्यक्रम की एक सचित्र बड़ी सकारात्मक खबर उक्त दैनिक में छप गई। समूह के ही अंग्रेजी संस्करण में प्रकाशित खबर के ठीक उलट समूह के हिंदी दैनिक में प्रकाशित खबर को देखने के बाद कोई भी समझ सकता है कि सारा मामला 'पेड न्यूज' का है। खबर किसी चुनाव या किसी राजनेता से संबंधित नहीं थी। यह एक उदाहरण पुष्टि करता है कि 'पेड न्यूज' का दायरा चुनावी परिधि से बाहर निकल सामान्य खबरों के क्षेत्र में विस्तार पा चुका है। इस पाश्र्व में अगर अदालत के समक्ष प्रस्तुत सरकारी सुझाव को अमली जामा पहनाते हुए कोई कानून बन भी जाता है तब उसकी उपयोगिता क्या होगी?
'दैनिक भास्कर' चाहता है कि इसका फैसला पाठक करें। हम सहमत हैं, बशर्ते इस दिशा में 'दैनिक' पहल करते हुए एक पाठकीय जागरण अभियान छेड़ें, बल्कि नेतृत्व करे। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि अंतत: इस कुप्रवृत्ति पर अंकुश पाठक ही लगा पाएंगे। जरूरत है इस विषय पर पाठकों को जागृत किया जाए, शिक्षित किया जाए, एहसास दिलाया जाए कि मुद्रित शब्दों की पवित्रता दांव पर है, इनके माध्यम से पाठकों के साथ छल किया जा रहा है।  पाठक जागें, प्रतिरोध करें। अखबारों के पाठकीय 'बॉक्स ऑफिस' पर सक्रीय प्रतिरोध के परिणामस्वरूप जब अखबारों के खाते में 'शून्य' नजर आएगा तब समाचार पत्र समूहों के मालिक चिंतन-मनन को विवश हो जाएंगे। प्रतिरोध सिर्फ प्रसार के क्षेत्र में न हो, विज्ञापन के मोर्चे पर भी हो। क्योंकि सभी जानते हैं कि प्रसार से होनेवाली आय संस्थान के लिए कोई मायने नहीं रखता है। वे तो विज्ञापन हैं जो किसी समाचार पत्र समूह के लिए आर्थिक संबल होता है। इस संबल पर चोट को प्रबंधन बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। पाठकों का यह अभियान तभी संभव हो पाएगा जब वे इस अभियान को एक आंदोलन का रूप देने में सफल हो पाएंगे। कठिन तो है, किंतु असंभव नहीं,  किसी को तो नेतृत्व करना होगा- विश्वसनीयता के पक्ष में! हां, यह यक्ष प्रश्न सामने जरूर खड़ा मिलेगा कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो कौन?

'वेगळा विदर्भ झालाच पाहिजे'


'विदर्भ वीर' जांबुवंतराव धोटे की कड़ी में अगर श्रीहरी अणे को विदर्भ के 'महानायक' के रूप में देखा जा रहा है, तो स्वाभाविक प्रश्न यह है कि क्या हश्र भी समान होगा? इस बिंदू पर हम स्पष्ट कर दें कि हम पृथक विदर्भ राज्य के निर्माण के पक्षधर हैं और रहेंगे। शत प्रतिशत जायज इस मांग के विरोधियों का विरोध भी करते रहेंगे, लेकिन पृथक विदर्भ राज्य के नए आंदोलन की हिंसक शुरूवात पर हमारी धारणा पृथक है।
महाराष्ट्र के पूर्व महाधिवक्ता श्रीहरी अणे जो कि स्वयं एक विधितज्ञ हैं, उन्हें आक्रामकता, उग्रता और हिंसा के बीच के फर्क की जानकारी अवश्य होगी। आक्रमक अथवा उग्र आंदोलन के मध्य अचानक उत्पन्न हिंसा को स्वभाविक परीणति में लिया जा सकता है। ऐसे आंदोलनों के साथ ऐसी परीणति के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। किंतु ऐलानिया हिंसक आंदोलन कानून और नैतिकता दोनों रूप से गलत है। सभ्य शिक्षित समाज में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। हिंसक आंदोलन का आह्वान कर श्रीहरी अणे चूक कर बैठे। विदर्भ के कण-कण से अच्छी तरह परिचित श्रीहरी अणे को आंदोलन के इतिहास से अज्ञानता पर चुनौती नहीं दी जा सकती। श्री धोटे के नेतृत्व में तब के उग्र आंदोलन और उसके बाद समय-समय पर प्रस्फुटित चिंगारियों से भी श्रीहरी अणे अच्छी तरह वाकिफ होंगे। ऐसे आंदोलनों के अवसरवादी नेतृत्व की जानकारी श्री अणे को अवश्य होगी। वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की महाराष्ट्र सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पर वादाखिलाफी का आरोप लगाने वाले श्री अणे को पिछली सरकारों की भूमिका की जानकारी होगी। कांग्रेस ने अपने लंबे शासनकाल के दौरान विदर्भ राज के निर्माण के लिए कभी गंभीर कदम नहीं उठाए। सत्ता से बाहर होने के बाद उनके नेताओं को पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाते देखा गया है। कांग्रेसी सांसद, विधायक व अन्य नेता जब वे सत्ता में नहीं होते पृथ्क विदर्भ के पक्ष में मुखर हो जाते हैं।  जाहिर है विपक्ष में रहकर वे स्वयं को राजनीतिक रूप से जीवित रखने के लिए कथित विदर्भ आंदोलन का सहारा लेते हैं।  भारतीय जनता पार्टी पर भी आरोप गलत नहीं हैं। दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि विपक्ष में रहते उन्होंने हमेशा पृथक विदर्भ के पक्ष में मत व्यक्त किए हैं। अब, जबकि उनकी पार्टी की सरकार है, उनके मुख्यमंत्री हैं, तब स्वाभाविक रूप से 'विदर्भ' एक राज्य के रूप में अपने पृथक अस्तित्व के प्रति आशान्वित होगा। लेकिन इस बिंदू पर भाजपा की अपनी राजनीतिक मजबूरियां भी हैं। 1995 की तरह इस बार भी प्रदेश में गठबंधन की सरकार है। तब नेतृत्व शिवसेना के हाथ में था और अब भाजपा के हाथों में। सर्वविदित है कि संयुक्त महाराष्ट्र की पक्षघर शिवसेना विदर्भ राज्य के निर्माण की वरोधी है। अपने अस्तित्व के रक्षार्थ, वर्तमान भाजपा नेतृत्व की गठबंधन की सरकार पृथक विदर्भ के लिए एकतरफा फैसला नहीं कर सकती। इस कड़वे यथार्थ की मौजूदगी में, पृथक विदर्भ राज्य का निर्माण कैसे संभव होगा? आंदोलन का नया नेतृत्व अगर 'हिंसक दबाव' के जरिए विदर्भ हासिल करने की सोच रहा है तो यह उसकी भूल है। प्रभावी दबाव के लिए व्यापक जनसमर्थन आवश्यक है। बेहतर हो विदर्भवादी नेता पहले ऐसे व्यापक जनसमर्थन को सुनिश्चित करें। एक ऐसे वातावरण, हिंसक नहीं, का निर्माण किया जाए जिससे यह संदेश निकले कि विदर्भ का बहुमत पृथक विदर्भ राज्य का आग्रही है। ऐसा सिर्फ कुछ नेताओं के जुबान से नहीं, प्रत्येक विदर्भ वासियों की जुबान से निकलना चाहिए। विदर्भवादी नेता पहल करें! इस हेतु मात्र मीडिया में सुर्खियां बटोर कर विदर्भ हासिल नहीं किया जा सकता। विदर्भ के दिल को टटोलें। सुनिश्चित करें कि उन दिलों से ईमानदारी पूर्वक प्रस्फुटित हो ''वेगळा विदर्भ पाहिजे''!