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Friday, May 20, 2016

चुनाव परिणाम के मायने


यहां चर्चा असम की, चूंकि उत्तर-पूर्व के इसी राज्य ने भारतीय जना पार्टी को ताजा संजीवनी प्रदान की है। पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव में एक असम ही है जहां भाजपा को अप्रत्याशित बहुमत मिला है। चुनाव पूर्व राजनीति विश्लेषक और चुनावी विशेषज्ञ एकमत थे कि असम में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर है। गठबंधन के कारण भाजपा को बढ़त मिल रही है। किसी को भी ऐसे परिणाम की आशा नहीं थी। कैसे संभव हुआ यह?
2014 के लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद महाराष्ट्र, हरियाणा,  झारखंड के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मोदी लहर का भरपूर लाभ मिला था। इन तीनों राज्यों की चुनाव कमान स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभाल रखी थी। मोदी के चेहरे को आगे कर ही चुनाव लड़े गए और विजयश्री मिली। यह आम धारणा बन गई थी कि 'मोदी लहर' व्याप्त है और भाजपा इस लहर के सहारे अजेय अवस्था में पहुंच चुकी है।
भाजपा की रणनीति भी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी के 'पर्याय' के रूप में स्थापित कर दिया जाए। पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इसे स्वीकार कर चुके थे। पूरे देश में हर-हर मोदी , घर-घर मोदी का नारा बुलंद किया जा रहा था।  भाजपा को चुनाव जितानेवाला 'हीरो' मिल चुका था। वह आश्वस्त हो चुकी थी कि अब भारत को कांग्रेस मुक्त कर भाजपा और एक अकेले भाजपा के अधीन कर दिया जाएगा। लेकिन पिछले वर्ष दिल्ली और बिहार ने भारतीय जनता पार्टी के विजयी मोदी रथ को रोक दिया।
मोदी लहर पर सवार भाजपा दिल्ली और बिहार में जनता के मूड को समझने में भी विफल रही। दिल्ली और बिहार में भी भाजपा ने मोदी को आगे कर चुनाव लड़ा। मोदी को पार्टी का 'चेहरा' बना इन दोनों राज्यों में पार्टी ने मोदी के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित कीं। प्रधानमंत्री मोदी भी अपने खास अंदाज में जनता के बीच पहुंचते रहे और भाजपा विजय की भविष्यवाणी करते रहे। लोकसभा चुनाव की तरह इन राज्यों में भी चुनावी वादों के पहाड़ मोदी ने खड़े कर दिए। मोदी ने आश्वासन दिया कि भाजपा की विजय के बाद 'स्वर्ण युग' आ जाएगा। लेकिन मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद इन दोनों राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश-लालू और कांग्रेस ने मिलकर मोदी को धूल चटा दी। साफ है कि एकमात्र मोदी लहर पर सवारी और स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
असम में दिल्ली -बिहार से सीख लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी रणनीति पहले ही बदल ली थी। प्रधानमंत्री मोदी को न तो अपना 'स्टार प्रचारक' बनाया और न ही पार्टी के 'चेहरे' के रूप में सामने किया। वहां पहले से लोकप्रिय सर्वानंद सोनोवाल को सामने कर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा कर डाली। मुख्यमंत्री के रूप में उनका चेहरा सामने कर भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन भी कर डाला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नाममात्र की रैलियों का आयोजन हुआ। चुनावी वादों का पिटारा खोलने से भी भाजपा वहां बची। बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को उसने कांग्रेस से छीन लिया। जिसका लाभ पार्टी को मिला।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने निभाई। उत्तर -पूर्वी राज्यों में अपनी मजबूत पैठ के लिए बेचैन संघ लगभग एक वर्ष पूर्व से ही असम में सक्रीय हो उठा था। उसके कार्यकर्ता पूरे असम में फैल कर कांग्रेस विरोधी अभियान में जुट गए थे। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बना संघ के कार्यकर्ता इसके दूरगामी परिणाम को भुनाने में जुटे हुए थे। संघ की विशेष कार्यशैली ने वहां आम जनता को अपने अर्थात भाजपा के पक्ष में कर लिया। 15 वर्षों के कांग्रेस शासन से उत्पन्न असंतोष को संघ ने भाजपा के पक्ष में बखूबी भुनाया। लोगों ने भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया।
लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद एक कड़ा संदेश पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच में चला गया कि अब चुनाव में भाजपा को विजय तभी मिल सकती है जब 'चेहरे' के रूप में या 'स्टार प्रचारक' के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जगह स्थानीय नेताओं को वरीयता दी जाए। इस संदेश में अनेक संदेश निहित हैं। एक तो भविष्य में अब पार्टी सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भर रहने का खतरा मोल नहीं ले सकती। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात और कर्नाटक की विधानसभाओं के चुनाव में असम चुनाव परिणाम की छाप देखने को मिलेगी। मजबूरन ही सही भाजपा इन राज्यों में भी चुनाव पूर्व स्थानीय चेहरों को छांट कर सामने प्रस्तुत करेगी।  प्रधानमंत्री पर निर्भरता के दौर को पूर्ण विराम लग जाएगा।
भाजपा की रणनीति भी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी के 'पर्याय' के रूप में स्थापित कर दिया जाए। पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इसे स्वीकार कर चुके थे। पूरे देश में हर-हर मोदी , घर-घर मोदी का नारा बुलंद किया जा रहा था।  भाजपा को चुनाव जितानेवाला 'हीरो' मिल चुका था। वह आश्वस्त हो चुकी थी कि अब भारत को कांग्रेस मुक्त कर भाजपा और एक अकेले भाजपा के अधीन कर दिया जाएगा। लेकिन पिछले वर्ष दिल्ली और बिहार ने भारतीय जनता पार्टी के विजयी मोदी रथ को रोक दिया।
मोदी लहर पर सवार भाजपा दिल्ली और बिहार में जनता के मूड को समझने में भी विफल रही। दिल्ली और बिहार में भी भाजपा ने मोदी को आगे कर चुनाव लड़ा। मोदी को पार्टी का 'चेहरा' बना इन दोनों राज्यों में पार्टी ने मोदी के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित कीं। प्रधानमंत्री मोदी भी अपने खास अंदाज में जनता के बीच पहुंचते रहे और भाजपा विजय की भविष्यवाणी करते रहे। लोकसभा चुनाव की तरह इन राज्यों में भी चुनावी वादों के पहाड़ मोदी ने खड़े कर दिए। मोदी ने आश्वासन दिया कि भाजपा की विजय के बाद 'स्वर्ण युग' आ जाएगा। लेकिन मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद इन दोनों राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। बिहार में नीतीश-लालू और कांग्रेस ने मिलकर मोदी को धूल चटा दी। साफ है कि एकमात्र मोदी लहर पर सवारी और स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
असम में दिल्ली -बिहार से सीख लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी रणनीति पहले ही बदल ली थी। प्रधानमंत्री मोदी को न तो अपना 'स्टार प्रचारक' बनाया और न ही पार्टी के 'चेहरे' के रूप में सामने किया। वहां पहले से लोकप्रिय सर्वानंद सोनोवाल को सामने कर उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा कर डाली। मुख्यमंत्री के रूप में उनका चेहरा सामने कर भाजपा ने स्थानीय क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन भी कर डाला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नाममात्र की रैलियों का आयोजन हुआ। चुनावी वादों का पिटारा खोलने से भी भाजपा वहां बची। बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को उसने कांग्रेस से छीन लिया। जिसका लाभ पार्टी को मिला।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने निभाई। उत्तर -पूर्वी राज्यों में अपनी मजबूत पैठ के लिए बेचैन संघ लगभग एक वर्ष पूर्व से ही असम में सक्रीय हो उठा था। उसके कार्यकर्ता पूरे असम में फैल कर कांग्रेस विरोधी अभियान में जुट गए थे। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बना संघ के कार्यकर्ता इसके दूरगामी परिणाम को भुनाने में जुटे हुए थे। संघ की विशेष कार्यशैली ने वहां आम जनता को अपने अर्थात भाजपा के पक्ष में कर लिया। 15 वर्षों के कांग्रेस शासन से उत्पन्न असंतोष को संघ ने भाजपा के पक्ष में बखूबी भुनाया। लोगों ने भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार कर लिया।
लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद एक कड़ा संदेश पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं के बीच में चला गया कि अब चुनाव में भाजपा को विजय तभी मिल सकती है जब 'चेहरे' के रूप में या 'स्टार प्रचारक' के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जगह स्थानीय नेताओं को वरीयता दी जाए। इस संदेश में अनेक संदेश निहित हैं। एक तो भविष्य में अब पार्टी सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भर रहने का खतरा मोल नहीं ले सकती। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, गुजरात और कर्नाटक की विधानसभाओं के चुनाव में असम चुनाव परिणाम की छाप देखने को मिलेगी। मजबूरन ही सही भाजपा इन राज्यों में भी चुनाव पूर्व स्थानीय चेहरों को छांट कर सामने प्रस्तुत करेगी।  प्रधानमंत्री पर निर्भरता के दौर को पूर्ण विराम लग जाएगा। 

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