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Friday, May 20, 2016

सच, सच ही रहेगा झूठ, झूठ ही रहेगा


और,
सच यह कि भारत और भारत के लोकतंत्र की हत्या कोई नहीं कर सकता। बहुत मजबूत है यह।
और,
झूठ यह कि न्याय पालिका के कारण देश का विकास बाधित हो रहा है। झूठ बोल रहे हैं अरुण जेटली।
और,
सपाट सच यह भी कि अगर भारत की न्यायपालिका मजबूत नहीं होती तो लोकतंत्र भी मजबूत नहीं होता। और तब न तो जनादेश का आदर-सम्मान होता और न ही देश में सरल-शांत सत्ता हस्तांतरण होता। न मोरारजी देसाई कभी प्रधानमंत्री बनते और न ही नरेंद्र दामोदरदास मोदी। यह तो हमारे अत्याधिक सुदृढ़ लोकतंत्र की सफलता है कि विविधता से परिपूर्ण भारत में लोकवाणी अर्थात जनादेश को सम्मान मिलता है, जनता इच्छानुसार अपने शासक का चुनाव करती है, कार्यों के आधार पर मूल्यांकन कर शासकों को पुरस्कृत करती है या फिर दंडित करती है। और यह जटिल कार्य सफल-संपन्न होता है तो स्वतंत्र-मजबूत न्यायपालिका की मौजूदगी के कारण।
कोई आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक रूप से अत्याधिक महत्वाकांक्षी राजदल अथवा राजनेता समय-समय पर हथकंडे अपना अर्थात गलत व असंवैधानिक मार्ग का चयन कर न्यायपालिका पर कब्जे का कुत्सित प्रयास करते रहे हैं।  इस प्रक्रिया में टकराव तो दिखे किंतु कतिपय अस्थायी जख्मों के बावजूद न्यायपालिका की नींव को कोई क्षति नहीं पहुंचा पाया है। दबाव और प्रलोभन की शिकार कभी-कभी कुछ मामलों में न्यायपालिका हुई अवश्य है, किंतु जब-जब जनता के मौलिक अधिकारों पर प्रहार हुये असंवैधानिक कदमों द्वारा लोकतंत्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने की कोशिशें की गईं, जनहित में न्यायपालिका ने लोकतंत्र और समाज के पक्ष में फैसलों द्वारा अपनी निष्पक्षता दिखाई। यही कारण है कि कुछ राजनेताओं या यूं कह लें कि शासक वर्ग की ओर से प्रहार के बावजूद भारतीय न्यायपालिका के समक्ष सत्ताधारियों के मंसूबे धराशायी होते रहे हैं। निरंकुशता की लालसा पर लगाम लगाने का काम न्यायपालिका सफलतापूर्वक करती आई है। क्या आश्चर्य कि आज पूरे विश्व में भारतीय लोकतंत्र को शीर्ष स्थान प्राप्त है।
फिर ऐसा क्यों कि देश के वित्तमंत्री, स्वयं एक सुख्यात वकील, अरुण जेटली न्यायपालिका की न्यायिक सक्रियता पर चिंता प्रकट करते हुए उसे 'लक्ष्मण रेखा' के अंदर रहने की सलाह देते हैं। जेटली यह आरोप क्यों लगाते हैं कि न्यायपालिका के हस्तक्षेप के कारण देश के विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन बाधित हो रहा है? जेटली का यह कथन भी राष्ट्रीय बहस का आग्रही है कि अदालतें कार्यपालिका का स्थान नहीं ले सकती यह नहीं कह सकती कि वह कार्यकारी शक्ति का उपयोग करेगी।
जेटली के पूर्व अनेक राजनेता न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसी भावना प्रकट कर चुके है। न्यायिक सक्रियता उन्हें नहीं भाती। किंतु क्या यह सच नहीं कि विधायिका और कार्यपालिका की शर्मनाक विफलताओं के कारण ही पीडि़त अथवा प्रभावित अदालतों के दरवाजों पर दस्तक देते हैं और तब जनहित में संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत अदालतें हस्तक्षेप को बाध्य हो जाती हैं? यह सच है और शत-प्रतिशत सच है। न्यायपालिका को 'लक्ष्मण रेखा' का अतिक्रमण नहीं करने की सलाह देने वाले अरुण जेटली कहते हैं कि अगर कोई सरकारी निर्णय कार्यपालिका लेती है तब विभिन्न स्तरों पर उसकी जवाबदेही तय की जा सकती है। इससे चुनौती भी आ सकती है, इसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और अगर जनता इसे जनहित विरोधी पाती है तो वोट के माध्यम से सरकार के खिलाफ जनादेश दे सकती है। कहीं हास्य तो नहीं कर रहे जेटली? जनता जनहित विरोधी निर्णयों के खिलाफ फैसला देने के लिए पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करे और इस बीच जनता लुटती रहे, शोषित होती रहे और शासक लूटते रहें! जेटली जैसे विधितज्ञ से ऐसी उम्मीद नहीं थी। जनता को पांच वर्षों तक शासकों द्वारा लूटते रहने पर धैर्य धारण करने की सलाह कोई लुटेरा ही दे सकता है।
जनादेश के महत्व को रेखांकित करने वाले अरुण जेटली क्या बताएंगे कि जनादेश के आधार पर गठित कतिपय राज्य सरकारों को संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर बर्खास्त क्यों किया गया? दरवाजा खटखटाए जाने पर जब न्यायालय ने संवैधानिक प्रावधानों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित पूर्व के आदेशों के अनुरुप सरकार के ऐसे कदम को असंवैधानिक घोषित किया तो क्या इसे न्यायिक सक्रियता के नाम पर जनता गलत करार दे? कदापि नहीं। न्यायपालिका पर हाल में आरोप लगाए गए कि वह हर क्षेत्र में कार्यकारी शक्तियों का उपयोग कर शासन को निरीह कर रही है। यह आरोप भी गलत है। यह दुखद अवश्य है कि आज मामला चाहे पेयजल आपूर्ति का हो, स्कूल-कालेज में दाखिले का हो, सड़क निर्माण का हो, सरकारी व सार्वजनिक संस्थानों में नियुक्ति का हो, लोगों के लिए चिकित्सा सुविधा का हो, खाद्य पदार्थों में मिलावट का हो, उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य निर्धारण अथवा उपलब्धता का हो, आपराधिक जांच प्रक्रिया में घालमेल का हो या उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का, हर मामले में अदालतों को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। यहां तक कि सत्ता पक्ष द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के साथ छेड़छाड़ कर सत्ता के दुरुपयोग पर भी अदालतों के दरवाजों पर दस्तक पड़ रही है। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को जब उच्च न्यायालय ने लोकतंत्र की हत्या और शासकों का 'पाप' निरूपित किया तब देश की जनता आश्वस्त हुई कि सशक्त न्यायपालिका की मौजूदगी में लोकतंत्र के हत्यारे अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकते। जेटली यह क्यों भूल जाते हैं कि विधायिका को जहां कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, वहीं इनकी समीक्षा का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त है। अगर जनता को उससे मौलिक अधिकारों से वंचित किये जाने संबंधी सरकार कोई कदम उठाती है तब न्यायपालिका उस पर अंकुश लगाने के लिए संवैधानिक रूप से अधिकृत है। जनहित विरोधी किसी भी कानून की समीक्षा कर निरस्त करने का अधिकार न्यायापालिका को प्राप्त है। ऐसे में न्यायपालिका की आलोचना अथवा उसे 'लक्ष्मण रेखा' नहीं लांघने की सलाह देने की जगह बेहतर हो सरकार सुनिश्चित करे कि विधायिका और कार्यपालिका संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत जनहित में ही कानून बनाए और उनका क्रियान्वयन करे।
लोकतंत्र में बहुदलीय प्रणाली के अंतर्गत वैचारिक मतभेद या विचारधाराओं के बीच द्वंद्व स्वभाविक है। प्रत्येक राजदल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरुप जनता व समाज को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु, इस प्रक्रिया में सत्ता का दुरुपयोग एक अपराध है। विचारधाराओं को सामाजिक स्वीकृति के लिए जनता को शांतिपूर्ण ढंग से योग्यता के आधार पर शिक्षित किया जाना चाहिए। किसी व्यक्ति समूह या समाज पर विचारधारा थोपना गलत है। विवेक व ग्राहता के आधार पर जनता प्रस्तुत विचारधारा का विवेचन कर उसे स्वीकार या अस्वीकार करेगी। सत्ता के मद में शासक अगर जबरिया विचारधारा थोपेंगे तो याचिका प्रस्तुत होने पर न्यायपालिका अपना निर्णय सुनाएगी। हो सकता है,न्यायपालिका के निर्णय सत्तापक्ष के लिए असहज हों। तथापि, उन्हें न्यायपालिका का सम्मान करते हुए आदेश को शिरोधार्य करना चाहिए। न्यायपालिका के साथ टकराव की किसी भी संभावना को तत्काल जमींदोज कर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रहने दिया जाये। लोकतंत्र और स्वयं लोकप्रतिनिधि तभी सुरक्षित रहेंगे।
एक असहज संभावना भी। 'न्यायियक सक्रियता', का 'न्यायिक दुस्साहस' का रुप लेने की संभावना भी यदा-कदा दृष्टिगोचर हुई है। अतीत के कुछ असहज न्यायिक फैसले इस आरोप की चुगली करते हैं। बोफोर्स, सेंट किट्स कांड, सांसद रिश्वत कांड, उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालयों में कतिपय न्यायाधीशों की नियुक्तियों के अलावा पूर्व में राजधानी दिल्ली में बढ़ते अपराधों पर काबू पाने और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सेना के इस्तेमाल के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय का दिल्ली पुलिस को दिया गया निर्देश एक खतरनाक मिसाल है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद ने इस 'न्यायिक दुस्साहस' के फंदे के खिलाफ चेतावनी दी थी। न्यायमूर्ति आनंद ने कहा था कि जो क्षेत्र कार्यपालिका के दायरे में आते हैं, उनमें उच्च न्यायलयों द्वारा दिये जाने वाले निर्देशों के तहत बड़े पैमाने पर की जाने वाली दखल से विधायिका में भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है और उसके दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं। इस बिंदू पर सत्ता पक्ष की चिंता जायज हो सकती है, किंतु तब जब कथित चिंता पूर्वाग्रह के कब्जे से मुक्त रहे। आज जबकि भ्रष्टाचार, अपराधीकरण व निरंकुशता हमारे जीवन के मूल्य बनते जा रहे हैं यह सुनिश्चित करना अतिआवश्यक है कि न्याय प्रणाली व्यवस्था का ईमानदार हिस्सा बने, समस्या का हिस्सा नहीं। चूंकि, अरुण जेटली  की शंका और मांग में निरंकुशता और सत्ता की नाजायज चाहत की बू आ रही है, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही 'न्यायिक सक्रियता' कालांतर में 'न्यायिक दुस्साहस' न बने इसे सुनिश्चित करने का अहम दायित्व विधायिका का ही है। यह संभव है। शर्त यह कि सत्तापक्ष जनहित की सोचे, दलहित की नहीं। 

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