centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Sunday, August 19, 2012

कोयला, कोयला, तू कितना काला?


चलो अब काले कोयला के बाद सीधे प्रधानमंत्री से भी पूछ लें '...मनमोहनजी, मनमोहनजी, आप कितने सफेद? कितने पाक, कितने साफ ? कोयला तो काला है। अब आपको अपनी सफेदी का प्रमाण देना होगा। स्वयं को पाक - साफ साबित करने के लिए प्रधानमंत्री को ही सामने आना पड़ेगा, क्योंकि आरोप देश के मुखिया पर है। मुखिया को हर हाल में स्वच्छ -पवित्र रहना ही होगा। अब देखना है कि प्रधानमंत्री में कितना नैतिक बल है। या तो वे स्वयं को निर्दोष साबित करेंगे या फिर 2जी के आरोपी ए. राजा की पंक्ति में खड़े कर दिए जाएंगे। और तब न्याय जनता करेगी।
मुखिया के संदर्भ में मुझे आपातकाल के दिनों की एक घटना की याद आ रही है। कांग्रेस के एक लेखक-पत्रकार सांसद शंकर दयाल सिंह के गांव देव (औरंगाबाद बिहार) में एक समारोह आयोजित था। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम मुख्य अतिथि के रुप मे मौजूद थे। अपने संबोधन में तब जगजीवन राम ने 'मुखिया' की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा था कि '...मुखिया पूरे गांव का अभिभावक होता है। वह सुबह-शाम गांव का चक्कर लगा सुनिश्चित करता है कि सभी घरों में चुल्हा जला की नही। उसके बाद ही मुखिया मुख में अन्न का दाना डालता है। ....लेकिन अगर मुखिया का मुख ही चोर हो जाए तो तब क्या होगा... मुख अन्न के कुछ दानों को चुराकर दबा लेगा। लेकिन बाद में वे दाने सड़कर दुर्गंध देने लगते हैं। मुखिया का पूरा मुख दुर्गंध देने लगता है। मुखिया चोर साबित हो जाता है। .... आज देश की हालत ऐसी ही हो गई है। मुखिया ही चोर नजर आ रहा है। ' मुखिया से जगजीवन राम का आशय स्पष्ट था। यह दोहराना ही होगा कि जगजीवन राम ने तब कांग्रेस और सरकार छोड़ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को समर्थन दे दिया था। 1977 जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब जगजीवन राम उपप्रधान मंत्री बनाए गये थे। आज जब देश के मुखिया को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी निश्चय ही मुखिया पर ही है।
ऐसे में सवाल यह भी की व्यक्तिगत रूप से ईमानदार अगर किसी व्यक्ति के अधीन, दूसरे शब्दों में उसकी छत्रछाया में, भ्रष्टाचार अपनी जडं़े फैलाता जाए तो क्या उस व्यक्ति को भ्रष्ट मुक्त करार दिया जा सकता है? शायद नहीं! उस व्यक्ति को 'क्लीनचिट' दिये जाने की हालत में भ्रष्टाचार की परिभाषा बदलनी होगी। इस पाश्र्व में 'ईमानदार' प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कोई 'क्लीनचिट' कैसे देगा? कोयला मंत्रायल का अतिरिक्त प्रभार संभालने की अवधि में उनके द्वारा खदानों के आबंटन पर सवालिया निशान लगाते हुए भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अनियमितता और पक्षपात के गंभीर आरोप लगाए हैं। उनकी रिपोर्ट के अनुसार मनमोहन सिंह के फैसलों के कारण सरकार को 1.86 लाख करोड़ की हानि हुई। 'कोयले की दलाली में हाथ काला' की पुरानी कहावत के जानकार पुष्टि करेंगे कि कोयला का पूरा का पूरा व्यापार, खदान आबंटन से लेकर विपणन तक भ्रष्टाचार के साये में होता है। विवादास्पद आबंटन के मामले में साफ-सुथरी प्रक्रिया और पारदर्शिता की दुहाई देने वाले कुतर्क दे रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। खदानों की नीलामी की अनुशंसा को दरकिनार कर सीधे आबंटन की प्रक्रिया वर्तमान व्यवस्था के अंदर भ्रष्टाचार मुक्त हो ही नहीं सकती। सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था ऐसा होने नहीं देगी। कोयला मंत्रालय द्वारा खदानों के आबंटन में जो प्रक्रिया अपनाई गई थी, उसमें अधिकारियों से लेकर आवदेकों तक की चांदी रही। रातों रात करोड़पति-अरबपति बन जाने वाले राजनीतिक भी अपने थैलों को वजनी बनाते गए। जिन दिनों पावर प्लांट, सीमेंट, स्टील उद्योगों के नाम पर कोयला खदानों के आबंटन के लिए कोयला खदानों को लेने की धूम मची थी, राजधानी दिल्ली के पांच सितारा होटलों की लॉबियों में दलालों की बैठकें  आम थी। दलाल कोई टूटपूंजीये नहीं थे। कोल इंडिया व उसकी अनुषंगी कम्पनियों के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष और निदेशक गणों के साथ-साथ बड़े राजनेता भी शामिल थे। उच्चाधिकारियों तक उनकी सीधी पहुंच और आबंटन प्रक्रिया संबंधी पूरी जानकारी होने के कारण ये अपने 'ग्राहकों' के पक्ष में फैसले करवाने में सक्षम थे। जाहिर है सब कुछ 'धन लाभ' के लिए किया जाता था। कोयला खदानों की लूट हुई और खूब हुई- नियमों को ताक पर रख कर या फिर उनमें ढील देकर। खदानों का आबंटन अपने पाले में करवाने वाले अगर मालामाल हो रहे थे तो संबंधित अधिकारियों-नेताओं की भी चांदी थी। फिर क्या आश्चर्य कि सरकारी खजाने को लाखो-करोड़ों से वंचित होना पड़ा। ऐसे में कोयला मंत्री के रुप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिम्मेदारी से बच कैसे सकते है? स्वयं प्रशासनिक अधिकारी रह चुके मनमोहन सिंह को 'लूट' की भनक नहीं लगी हो, इस पर कोई विश्वास कैसे करेगा। एक कुशल अनुभवी प्रशासक तो किसी संचिका में लिखी पहली पंक्ति को पढ़कर ही आशय-नीयत-मंशा को भाप लेता है। फिर मनमोहन सिंह कैसे चूक गए। साफ है कि 'ईमानदार मनमोहन' ने किसी दबाव या मजबूरी में आखें मूंद रखी होगी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अन्य घोटाला प्रधानमंत्री कार्यालय की आपराधिक उदासीनता सामने आ चुकी है। कोयला खदान आबंटन में भी निश्चय ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय कुछ खास लोगों को लाभ पहुंचाने की दिशा में अगर मौन रहा तो कहीं किन्ही अन्य कारणों से।  मनमोहन सिंह के घोर आलोचक भी 'धन लाभ' के बदले किसी को उपकृत करने का आरोप उनपर नहीं लगा सकते। लेकिन जब उनकी छत्रछाया में हजारों लाखों करोड़ का ऐसा घोटाला हुआ है तब प्रधानमंत्री कुछ और नहीं तो नैतिक रूप से जिम्मेदार तो हैं ही। उन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेनी होगी। विपक्ष अगर इस्तीफे की मांग कर रहा है तो इसके गलत क्या है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर अपनी सार्वजनिक छवि को पाक-साफ रखना चाहते हंै तो न केवल वे पद से इस्तीफा दें बल्कि उन अनजान दबावों और मजबूरी का भी खुलासा कर दें, जिनके कारण उनके चेहरे पर कालिख लगी है।

Saturday, August 18, 2012

न्यायपालिका का 'सच', ममता की चुनौती!



सत्य के धरातल पर सही होने के बावजूद ममता बनर्जी की टिप्पणी पर बवाल क्यों? क्या कहा था बंगाल की बाघिन, तेज-तर्रार ममता बनर्जी ने? यही न कि इन दिनों अदालतों में फैसले खरीदे जा सकते हैं! बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि उनका आशय पूरी की पूरी न्यायपालिका और सभी वकीलों से नहीं था। फिर बनर्जी ने गलत क्या कहा? क्या यह सच नहीं है कि अनेक न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं,मामले दायर किये गए हंै, जांच हो रही है? निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक आरोपों के घेरे में है? न्याय की मूल अवधारणा कि 'न्याय न केवल हो, बल्कि होता हुए दिखे भी' के विपरीत फैसले नही आ रहे हंै? और तो और, सर्वोच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने तो एक महत्वपूर्ण मामले में यहां तक टिप्पणी कर डाली कि, 'बुद्धिमान हवा के रूख के साथ चलते हैं'। अर्थात, हवा के बहाव में झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार शामिल हो तो सभी झूठे, बेईमान, भ्रष्ट, अत्याचारी बन जाएं! सर्वोच्च न्यायालय के आसन से आयी  ऐसी टिप्पणी के बाद अगर ममता बनर्जी न्यायपालिका में प्रविष्ट भ्रष्टाचार को रेखांकित करती हंै तो, कोई इसे न्यायपालिका की अवमानना कैसे माने? ममता अपनी जगह गलत नही हंै।
आम लोगों की नजरों में आज न्यायपालिका 'पवित्र' नहीं बल्कि 'संदिग्ध' है। महंगी होती न्याय- व्यवस्था में गरीबों के लिए न्याय की कल्पना करना भी आज बेमानी प्रतीत होने लगा है।  'न्यायिक सक्रियता' और 'लोकहित याचिका' के नये दौर में आशा तो बंधी, लेकिन उसका लाभ भी सीमित रूप में ही सामने आया। अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का मामलों को छोड़ दे, तो इससे एक विशेष वर्ग ही लाभान्वित हुआ। गरीब-अमीर के बीच न्याय बंटा, तो आर्थिक आधार पर ही।
1984 के सिख विरोधी दंगों में हुए कत्ले-आम से संबंधित एक मामले में आदेश देते हुए दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज शिवनारायण धिंगड़ा ने 27 अगस्त 1996 को टिप्पणी की थी कि 'कानून में समानता के जो बुनियादी सिद्धांत हंै, जो संविधान में निरूपित है, वे देश में बेअसर हो चुके हंै। जब पीडि़त शक्तिशाली और धनी हो तो, अदालतें तेजी से काम करती हैं, जब पीडि़त गरीब हो तो व्यवस्था काम करना बंद कर देती है।' एक जज की इस टिप्पणी को कोई चुनौती देने सामने आयेगा? किसी में है इतना नैतिक साहस?
यह तो वर्तमान का कठोर सत्य है।  किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम शाश्वत सत्य मानकर इसे स्वीकार कर लें, तटस्थ बैठ जाएं। विरोध में आवाजें उठानी होंगी। न्यायपालिका की सफाई के लिए कानून-संविधान के दायरे में पहल करनी होगी। यह तो अच्छी बात है कि केंद्र में मंत्री रह चुकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने पहल की है। प्रसंगवश, जरा उन दिनों की याद कर लें, जब कहा जाता था कि  'ङ्खद्धड्डह्ल क्चद्गठ्ठद्दड्डद्य ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशस्रड्ड4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशद्वशह्म्ह्म्श2'.

Wednesday, August 15, 2012

अन्ना के बाद बे-नकाब होते रामदेव!


एक तरफ स्वाधीनता दिवस की खुशी, दूसरी तरफ विलासराव देशमुख के देहावसान का गम! इस खुशी और गम के बीच न चाहते हुए भी देश के साथ गद्दारी और आम जनता के साथ विश्वासघात की गहरी पीड़ा की चर्चा करने के लिए मजबूर हॅंू। पाठक क्षमा करेंगे, प्रसंग ही ऐसा है।
आंदोलन और सत्याग्रह के नाम पर देश और जनता के साथ एक और धोखा! आंदोलन, सत्याग्रह, क्रांति और महाक्रांति जैसे शब्द चौराहे पर नीलाम हुए। पढऩे-सुनने में बुरा तो लगेगा, लेकिन ये सच इतिहास के पन्नों में दर्ज तो हो ही गया कि इन पवित्र शब्दों को अपनी  'हवस' का शिकार बनाया गांधी टोपी धारकों ने,भगवा वस्त्रधारियों ने! हाँ, हवस! राजनीति की हवस, सत्ता की हवस, व्यक्तिगत इच्छापूर्ति की हवस। पहले अन्ना हजारे और अब ढोंगी योग गुरु रामदेव।
कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने जब इन्हें ठग निरूपित किया था, तब अच्छा नहीं लगा था। लेकिन अब उनकी बात सच प्रतीत होने लगी है। कांग्रेस अपनी जगह बिल्कुल ठीक है, जब वह कह रही है कि आंदोलन के नेतृत्व का मुखौटा अब उतरने लगा है। अन्ना हजारे और उनकी गठित टीम ने पिछले वर्ष आंदोलन की शुरूआत में दो टूक घोषणा की थी कि,आंदोलन गैर-राजनीतिक होगा। किसी भी राजनीतिक को मंच पर स्थान नहीं मिलेगा। फिर सहयोगियों को अंधकार में रख अन्ना ने कांग्रेस के एक मंत्री से गुप्त मुलाकात क्यों की? क्या यह आंदोलनकारियों के साथ गद्दारी नहीं? सहयोगियों के साथ धोखा नहीं था? अन्ना तभी पूरी तरह से अविश्वसनीय बन गये थे। उनके आंदोलन के हश्र, बल्कि मौत से यह प्रमाणित हो गया। कथित योग गुरु रामदेव भी हमाम से निकल सीधे सड़क पर आ गए-निर्वस्त्र!  जी हॉं! बिल्कुल निर्वस्त्र! वस्त्र लाएं भी तो कहॉं से? पिछले वर्ष रामलीला मैदान में पुलिसिया कार्रवाई से भयभीत रामदेव एक पतित कायर की तरह, किसी महिला के उतारे 'सलवार सूट' पहन दुबक कर भाग गए थे। स्वंय को संत कहलाने वाले रामदेव को यह जानकारी तो होगी ही कि एक बार भगवा (गेरूवा) वस्त्र धारण कर लेने के बाद कोई साधु-संत अन्य किसी वस्त्र को हाथ नहीं लगाता। रामदेव तब 'नग्र' हो गए थे।
पुन:,उसी रामलीला मैदान से 'मेरा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है' की घोषणा के बाद खुले-आम राजनीति की बातें करते रामदेव विभिन्न दलों के राजनेताओं को गले लगा स्वागत करते दिखे। मुलायम, मायावती, शरद पवार जैसे दागी नेताओं के समर्थन की घोषणा कर अनुयायिओं से इन नेताओं के अभिनंदनार्थ तालियां बजवाते दिखे। रामदेव बताएं कि फिर वे किस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं? निर्णायक और आर-पार की कथित ऐतिहासिक लड़ाई की घोषणा के साथ रामलीला मैदान में बैठने वाले रामदेव ने अपने भक्तों की पीठ में नहीं, बल्कि सीने में तब खंजर घोंप दिया जब उन्होंने न केवल रामलीला मैदान छोड़ा, बल्कि यह भी घोषणा कर डाली कि अगले चुनाव तक अब कोई अनशन नहीं।  'अनशन'  के ऐसे हश्र की कल्पना तो उन्हें पहले ही होगी। अब वह हरिद्वार जा कर चाहे कितनी ही डुबकी लगा लें, उनके झूठ के पाप के दाग छुटने वाले नहीं। ये वहीं रामदेव हैं जिन्होंने पिछले वर्ष अनशन से पूर्व गुप्त रूप से भारत सरकार के एक मंत्री को लिखित आश्वासन दिया था कि वे अपना अनशन व आंदोलन तीन दिनों में समाप्त कर देंगे। भक्तों को अनिश्चित कालिन अनशन पर बैठा, स्वंय सरकार के साथ 'गुप्त समझौता' करने वाले रामदेव तभी पाखंडी सिद्ध हो गए थे। वह तो दिल्ली पुलिस की मूर्खता थी जो कि उसने उसी रात अनशनकारियों पर लाठियाँ बरसा डालीं। वेश बदल भागते रामदेव को धर दबोचा। तब अगर पुलिसिया कार्रवाई नहीं होती तो रामदेव बे-नकाब, नंगे हो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। आज वही रामदेव फिर से बे-नकाब हो गए हैं तब देश यह सोचने को मजबूर हो गया है कि भ्रष्टाचार, कालाधन और कुशासन के खिलाफ वह किस आंदोलन अथवा नेता पर विश्वास करे! अन्ना हजारे व रामदेव के नंगे हो जाने के बाद क्या अब कोई तीसरा चेहरा सामने आएगा?

Tuesday, August 14, 2012

शाबास! देश का प्रधानमंत्री हो तो ऐसा!!


'सर, मेरा क्या होगा?' सन 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर के निवास पर उनके आर्थिक सलाहकार डॉ. मनमोहन सिंह गिड़-गिड़ा रहे थे, चिरौरी कर रहे थे। चंन्द्रशेखर की सरकार का तब पतन हो रहा था। क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी थी। राजीव गांधी का आरोप था कि सरकार उनके घर की जासूसी करवा रही है। जबकि सचाई कुछ और थी। बहरहाल, चर्चा मनमोहन सिंह की। सरकार के संभावित पतन से बेचैन मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर से मिलने उनके निवास पर गए। भीड़ में घंटों प्रतीक्षा के बाद जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री से मिले तब उनके बेचैनी भरे ये शब्द स्वयं के भविष्य को लेकर थे। आदतन बेबाक चंन्द्रशेखर ने तब पूछा था कि 'आप क्या चाहते हो?' मनमोहन ने तब कहा था कि यू.जी.सी. के चेयरमैन का पद खाली है, मुझे उस पर बिठा दें। चंन्द्रशेखर ने तब नियुक्ति प्रक्रिया की जानकारी लेकर उन्हें उपकृत कर दिया था। मनमोहन यू.जी.सी. के चेयरमैन बना दिये गये थे। 1991 चुनाव पश्चात नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व में गठित सरकार में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनाये गये। हालांकि राव की पहली पसंद नहीं थे मनमोहन सिंह। अपनी पहली पसंद के इंकार और फिर अनुशंसा पर राव ने मनमोहन को वित्त मंत्रालय सौंपा था। तब से अब तक की मनमोहन-यात्रा से देश बखूबी परिचित है। प्रधानमंत्री पद पर उनकी आकस्मिक नियुक्ति की घटना इतिहास में दर्ज है। पहली और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक उनकी 'जनपथ वंदना' के किस्से आम हैं। एक नौकरशाह को अपनी नौकरी बचाने के लिए जिन गुरों के ज्ञान की जरूरत होती है, मनमोहन को निश्चिय ही उसमें महारत हासिल है। चाटुकारिता के नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले मनमोहन बगैर चुनाव जीते विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के दो बार प्रधानमंत्री बन अनोखा विश्व रिकॉर्ड कायम कर चुके हैं। पूरे संसार में डॉ. मनमोहन सिंह एक अकेले गैर-निवार्चित प्रधानमंत्री हैं। अब ऐसे प्रधानमंत्री अगर 'वंदना' की मुद्रा में सार्वजनिक रूप से घोषणा करें कि राहुल गांधी का उनके मंत्रिमंडल में स्वागत है, तो आचश्र्य क्या? हां, लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को इस बात की पीड़ा अवश्य होगी कि 'लोकतंत्र' को अंगीकार करने वाले भारत में 'राजतंत्र' सरीखी यह कैसी परम्परा! यह ठीक है कि प्रधानमंत्री को मंत्रियों की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। किन्तु, एक निहायत अनुभवहीन, मंत्रीपद की पात्रता से कोसों दूर, राहुल गांधी को सार्वजनिक आमंत्रण जब प्रधानमंत्री देते हैं तब सवाल तो उठेंगे ही।
कांग्रेस को बार-बार मां-बेटे की पार्टी के रूप में संबोधित करते रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी ताल ठोक रहे होंगे कि '---मैंने कहा था न!' वैसे, इसमें किसी को आश्चर्य नहीं हुआ होगा। यह तो होना ही है। बुजुर्ग मनमोहन सिंह को युवा भरत बन कथित 'अग्रज' राहुल को तो एक दिन गद्दी सौंपनी ही होगी। तुर्रा यह कि सब कुछ होगा 'लोकतंत्र' के नाम पर। लोकतंत्र के साथ ऐसा 'बलात्कार'भारत में ही संभव है। परिवारवाद अथवा वंशवाद की जड़ें केवल कांग्रेस में ही नहीं बल्कि, कुछ अपवाद छोड़, अन्य राजनीतिक दलों में भी मजबूत पैठ बना चुकी है। हां, इस 'रोग' के प्रसार की जिम्मेदारी कांग्रसे के सिर है। शुुरुआत इसी ने जो की है। मजबूर मनमोहन बेचारे करें भी तो क्या! वे प्रसन्न हैं कि उनकी नौकरी फिलहाल बची हुई है। कुर्सी छोड़ेंगे तो अपनी 'आका' की ईच्छा के पक्ष में! उपकृत वे तब भी किये जाएंगे। स्वरूप 'जनपथ' से तय होगा।

Sunday, August 12, 2012

प्रधानमंत्री पद के 'नाजायज' दावेदार आडवाणी!


उगले हुए शब्दों को वापस निगलने की क्रिया को कोई चाहे तो मजबूरी कह ले, चालबाजी कह ले, कूटनीति कह ले, किन्तु उन शब्दों का यथार्थ कायम रहता है। और, जब संदर्भ राजनीति का हो, कारक राजनीतिज्ञ हो तो तय मानिये कि घटना 'बेशर्म राजनीति' की बन जाती है। अपने हालिया बयान के लिए लालाकृष्ण आडवाणी अगर इसी कसौटी पर कसे जा रहे हंै तो आश्चर्य क्या!
एक त्वरित टिप्पणी आई है कि लालकृष्ण आडवाणी अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। भारतीय राजनीति व समाज में उनका योगदान, आयु और अनुभव को देखते हुए यह उचित तो नहीं लगता, किंतु राजनीतिक संदर्भ में आडवाणी का ताजा आचरण टिप्पणी की सचाई की चुगली करते हैं। वयोवृद्ध भाजपा नेता आडवाणी अगर अपनी वाणी व लेखनी पर नियंत्रण रखने में विफल हो रहे हैं तब उचित-अनुचित कयास से बचना संभव नहीं। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए 'नाजायज' दावेदारी करने वाले आडवाणी कभी पार्टी का 'चेहरा' रहे हैं। 2009 में प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार रहे आडवाणी जब कहते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ऐसी स्थिति में नहीं होगी कि इसका कोई व्यक्ति प्रधान मंत्री बन सके, तो इस भविष्यवाणी में छुपी 'नीयत' पर बहस तो होगी ही। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व की सरकार को संसद में 'नाजायज' निरूपित करने वाले आडवाणी शोर के आगे घुटने टेक जब अपने उगले शब्दों को वापस निगलते देखे गए तब इस धारणा की ही पुष्टि हुई कि वे 'स्वस्थ' नहीं हैं। उन्हें लौह पुरुष सरदार पटेल के समकक्ष बताने वाले अचानक नदारद हो गए। क्या हो गया है आडवाणी को? पदलोलुपता के लिए भी एक सीमा तो तय होती ही है। राजनीति में लगभग सब कुछ हासिल कर चुके आडवाणी को उनकी अंतिम इच्छा पूर्ति के लिए 2009 में पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था। लेकिन मतदाताओं को वे स्वीकार्य नहीं हुए। बल्कि, कठोर सत्य के रूप में यह दर्ज है कि प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी के कारण ही अनुकूल चुनावी स्थितियों के बावजूद भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। 2004 की तुलना में भाजपा को कम सीटों पर विजय मिली। आडवाणी के आयु वर्ग में पहुंच चुका कोई भी राजनीतिक चुनाव परिणाम में निहित संकेत को भांप राजनीतिक वनवास पर चला जाता।  पदपिपासु आडवाणी ने ऐसा नहीं किया तो इसलिए कि वे 'लालच' का त्याग नहीं कर पा रहे। इस प्रकार भाजपा 2009 में केन्द्रीय सत्ता में आने का एक सुनहरा अवसर गंवाने को मजबूर हुई थी। दोषी आडवाणी ही थे। इसके पूर्व 2004 मेंं जब भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी तब भी असली कारण आडवाणी ही बने थे। 2002 में गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की इच्छा को दरकिनार कर तब के गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में शांति स्थापना की दिशा में अपेक्षित कदम नहीं उठाये थे। वाजपेयी के 'राजधर्म' को उन्होंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था। तब गुजरात का बदला मतदाताओं ने 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर कर लिया था। आडवाणी की एकल-एकपक्षीय सोच का खामियाजा पूरी पार्टी ने सत्ता गवांकर भुगता। जिद्दी और लालची आडवाणी अब अगर  '....मैं नहीं तो और कोई नहीं' की तर्ज पर चलते हुए पार्टी के लिए कब्र खोद रहे हैं, तो भाजपा की राजनीति और भविष्य पर विलाप कौन करे!

Monday, August 6, 2012

अन्ना की सोच और 'राजनीति' का सच !



अन्ना हजारे न तो ईश्वर हैं, न अल्लाह हैं और न ही क्राइस्ट ! भगतसिंह भी नहीं हैं, चंद्रशेखर आजाद भी नहीं हैं ! मंगल पांडे भी नहीं हैं ! सुभाषचंद्र बोस भी नहीं हैं ! डा. भीमराव आंबेडकर भी नहीं हैं ! न तिलक हैं, न गोखले हैं! न तो पं. जवाहरलाल नेहरू हैं, न डा. राजेंद्र प्रसाद हैं और न ही सरदार पटेल हैं! और न ही जयप्रकाश नारायण हैं ! फिर ये चाल, चेहरा और चरित्र बदलकर अगले तीन वर्षों में भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी, विकेंद्रीकृत सुशासित भारत देश कैसे दे पायेंगे? ऐसा तो किसी 'चमत्कार' से ही संभव हैं!  समर्थक दावा कर सकते हैं कि चमत्कार कर अन्ना हजारे अपने दावे को पूरा कर सबों से कहीं उपर अपने लिए आसन प्राप्त कर लेंगे। बिल्कुल सही। सफलता की हालत में अन्ना हजारे सभी को छोडशीर्ष पर विराजमान हो जाएंगे! ईश्वर से भी उपर, क्योंकि स्वयं देवी-देवता भी भारत देश को भ्रष्टाचार मुक्त सुशासित बनाने में विफल रहे हैं।
अब सवाल यह कि अन्ना हजारे या उनकी टीम अपेक्षित 'चमत्कार' को कैसे  और किसके भरोसे अंजाम देने को सोच रही है? लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता के समथन के बगैर न तो ऐसा कोई 'चमत्कार'  और न ही क्रांति संभव है !
इस बिन्दु पर वास्तविकता चिन्हित है कि 16 माह पूर्व शुरु अन्ना आंदोलन को अब वह जन समर्थन नहीं मिल रहा जो आरंभ में मिला था। अर्थात, अन्ना को आवश्यक जन समर्थन प्राप्त नहीं है। फिर किसके भरोसे आंदोलन से आगे बढ़ 'राजनीतिक विकल्प' देने का वादा कर लिया अन्ना ने ! सीधे चुनावी राजनीति के आखाड़े मे कूद विकल्प देने का उनका दावा किसी भी कोण से व्यवहारिक नहीं दिखता।  अलंकारिक लफ्फाजी को छोड़ दें तो यह दावा घोर भ्रमित मस्तिष्क का प्रलाप साबित होगा। इतिहास गवाह है कि यह दावा बिल्कुल बेतुका है कि भ्रष्ट व्यवस्था की सफाई सत्ता में रह कर ही की जा सकती है। सच तो यह है कि सत्ताधारी-ईमानदार और बेईमान दोनों - अपने -अपने कारणों से ऐसी कोई सफाई चाहते ही नही हैं। उनके स्वार्थो की पूर्ति करने वाली भ्रष्ट व्यवस्था ही उन्हें, सुहाती है। बावजूद इसके इस 'रोग' से निजात संभव है। सत्ता की राजनीति नहीं, बल्कि सड़कों पर जनता की हुॅंकार से यह संभव है।
जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का उदाहरण सामने है। तत्कालीन भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ सड़कों पर जनसैलाब को उतार जयप्रकाश नारायण ने केंद्र में ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन कर दिखाया था। लेकिन, जब 'आंदोलनकारी'  स्वयं सत्ता की कुर्सी पर बैठे तब कथित राजनीतिक मजबूरियों के नाम पर जनता द्वारा बनाई गई 'जनता सरकार' के नुमाइंदे उन्हीं राहों पर चल पड़े जिनकेे खिलाफ विद्रोह का बिगुल उन्होंने बजाया था। उसी सड़ी-गली भ्रष्ट व्यवस्था के संरक्षक बन गए थे वे। जनता छली गई, देश छला गया। स्वयं जयप्रकाश नारायण भी विश्वासघात के शिकार हुए। राजनीति के इस कड़वे सच की मौजूदगी के बावजूद अन्ना हजारे राजनीति के द्वारा व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देख रहे हैं, तो ईश्वर उनकी रक्षा करें।
भारत के पूर्व अर्टानी जनरल सोली जे. सोराबजी ने एक बार कहा था कि 'जब देवी -देवता किसी को बर्बाद करना चाहते हैं तो पहले उसे पागल बना देते हैं', तब संदर्भ अवश्य दूसरा था । किन्तु दिल्ली के जंतर-मंतर पर जब अन्ना ने घोषित 'आमरण अनशन' का त्याग कर देश को 'राजनीतिक विकल्प' देने की बात कही तब सोली सोराबजी के शब्दों की याद अनयास आ गई। मैं चाहॅूंगा कि अन्ना हजारे सफल हों, उनका स्वप्न पूरा हो। क्योंकि, ये देश की चाहत है। लेकिन संदेह के अनेक कारण विफलता की चुगली कर रहे हैं। सफल होने के लिए उन्हें रास्ता बदलना होगा। क्रांति संभव है। शर्त यह कि वह 'जन क्रांति' हो। अन्ना को एक और परामर्श। हर दृष्टि, हर कोण से जन-जन के हित-चिंतक, गुलाम भारत को आजाद भारत में परिवर्तित कराने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का स्मरण वे कर लें। आजादी के पूर्व ही भ्रष्टाचार से व्यथित महात्मा गांधी ने 24 सितंबर 1934 को 'हरिजन' के अंक में लिखा था कि, ''भ्रष्टाचार तब खत्म होगा जब बड़ी संख्या में लोग यह महसूस करने लगेंगे कि राष्ट्र का उनके लिए कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, लेकिन वे राष्ट्र के लिए हैं। इसके लिए उच्च आदर्शों वाले उन लोगों की ओर से कड़ी निगरानी रखने की जरुरत है, जो भ्रष्टाचार से एकदम मुक्त हों और भ्रष्ट लोगों पर अपना प्रभाव डाल सकें''। कोई आश्चर्य नहीं कि आजादी के पश्चात महात्मा गांधी ने कांग्रेस संगठन को भंग कर देने की ईच्छा जताई थी।

Friday, August 3, 2012

अन्ना का झूठ, कांग्रेस का सच!


एक पूर्णत: गैरराजनीतिक आंदोलन को राजनीति का स्वरूप देने की मंशा जतानेवाले अन्ना हजारे देश व जनता को धोखा दे रहे हैं। आंदोलन की शुरुआत से ही सत्तारूढ कांग्रेस अन्ना व उनकी टीम पर 'राजनीतिक एजेंडा' चलाने का आरोप लगाती रही है। अन्ना टीम आरोप को हमेशा बेबुनियाद बताती रही। अब क्या सफाई देगी टीम? कमाल तो यह कि एक ओर मंच से अन्ना हजारे देश को राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उनके प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल अनशन स्थल से ही एक वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी को यह बता रहे थे कि 'मैं जिंदगी में कभी राजनीति का हिस्सा नहीं बनूंगा, जो ऐसा कह रहे हैं वे बकवास कर रहे हैं' क्या यह छल नहीं? आज देश निराश है। अन्ना आंदोलन के हश्र को देख कर। भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जन लोकपाल के पक्ष में राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ आम जनता की सहानुभूति-समर्थन बटोरनेवाले अन्ना हजारे और उनकी टीम ने अभी कुछ घंटे पहले ही तो घोषणा की थी कि जब तक लोकपाल नहीं बनेगा तब तक अनशन जारी रहेगा। और यह भी कि अनशन कर वे आत्महत्या नहीं बल्कि बलिदान दे रहे हैं। क्या हुआ ऐसे वादों का? कहां मिला लोकपाल और कहां गया बलिदान?  तो फिर देश यह क्यों न मान ले कि राजनीतिक एजेंडे संबंधी कांग्रेस का आरोप सही था। तो फिर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अन्ना ने झूठ बोला था, जबकि कांग्रेस ने सच।
अन्ना हजारे यह न भूलें कि अगर उनके आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला तो इसलिए कि आंदोलन को गैरराजनीतिक बताया जा रहा था। वे इस सच को हृदयस्थ कर लें कि राजनीतिक एजेंडे को लेकर बढऩेवाले उनके कदम एक मुकाम पर अकेले रह जाएंगे।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩे का लक्ष्य लेकर राजनीतिक दल बनाने के बाद अन्ना क्या अपने कथित अच्छे ईमानदार उम्मीदवारों को चुनाव में विजयी करवा पाएंगे? पूर्व में अनेक ईमानदार स्वच्छ छवि वाले विद्वान चुनाव लड़ अपनी जमानतें जब्त करवा चुके हैं। वयस्क मताधिकार के नाम पर भ्रष्ट तंत्र हमेशा सफल मनमानी करता आया है। शुरुआत तो प्रथम आम चुनाव से ही हो चुकी है। मुझे याद है 1952 के पहले आम चुनाव में देश के जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. ज्ञानचंद 'सोशलिस्ट पार्टी' के उम्मीदवार के रुप में पटना से चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस की ओर से एक अशिक्षित किराणा व्यापारी राम (शरण/प्रसाद) साहू उनके विरूद्ध खड़े थे। इमानदार-विद्वान डॉ. ज्ञानचंद अशिक्षित व्यापारी साहू के हाथों चुनाव हार गए। संभवत: उनकी जमानत भी जब्त हो गई थी। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष मालवंकर के सर्वथा ईमानदार व शिक्षित पुत्र को इसी प्रकार गुजरात में पराजय का सामना करना पड़ा था। उनके पास चुनाव लडऩे के लिए आवश्यक धन उपलब्ध नहीं था। पोस्ट कार्ड पर पत्र लिखकर मतदाताओं से उन्होंने अपने लिए वोट मांगा था। जमानत जब्त हो गई। भारतीय चुनाव आयोग को  सुर्खियों में लाने वाले भारत के तत्कालिन चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने भी चुनाव लड़ा, हार गए।
भारतीय सेना के तत्कालिन उप मुख्य सेनापति लेफ्ट. जनरल एस. के. सिन्हा की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की कसमें खाई जाती है। तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनकी वरियता को नजरअंदाज कर मुख्य सेनापति नहीं बनने दिया। सेना छोड़ जनरल सिन्हा ने लोकसभा चुनाव लड़ा -अपनी ईमानदारी, सुपात्रता और स्वच्छ छवि को सामने कर। वह भी चुनाव हार गए।
अच्छे योग्य लोगों को राजनीति में आने की वकालत करने वाले क्या बताएंगे कि ऐसे सुयोग्य उम्मीदवारों की हार कैसे होती रही? निश्चय ही भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट तंत्र के साथ-साथ मतदाता पर दबाव और प्रलोभन के हथकंडों के कारण चुनावों का मजाक बनता रहा। अच्छे लोगों का चयन कर राजनीतिक विकल्प देने की बात करने वाले अन्ना हजारे बेहतर हो पहले चुनावी इतिहास का अध्ययन कर लें। आम मतदाता की मानसिकता और मजबूरी को पहचानें। यह ठीक है कि वर्तमान भ्रष्ट शासन व्यवस्था ऐसी ही मानसिकता और मजबूरियों की देन है, किंतु इनसे निजात पाने का रास्ता राजनीति ही नहीं हो सकती। विकल्प तो जनता ही देगी। कोई भ्रमित आंदोलन या नेतृत्व तो कदापि नहीं।

Thursday, August 2, 2012

शिंदे 'दलित' पहचान के मोहताज क्यों?


देश का गृहमंत्री जब 'जातीय पहचान' का मोहताज दिखे तब कोई शांत - सुरक्षित समाज की कल्पना भी कैसे कर सकता है? देश के नए गृहमंत्री की ऐसी पहल से सभी हतप्रभ हैं।
'जातीय पहचान' के साथ नार्थ ब्लाक अर्थात गृह मंत्रालय में प्रवेश करने वाले सुशीलकुमार शिंदे ने जब स्वयम् को कटघरे में खड़ा कर लिया है, तब उनके साथ  'न्याय' कौन करेगा? 1990 में जब लालूप्रसाद यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने जातीयता का न केवल पोषण किया, उसे सींचित भी किया था। तब उन्होंने बिहार प्रदेश में पूरे समाज को जातीय आधार पर विभाजित कर डाला था। स्कूली बच्चों से लेकर शासन-प्रशासन की सर्वोच्च कुर्सियों तक से 'जातीय बदबू' आने लगी थी। लालू-राबड़ी को पंद्रह वर्षो की जातीय-शासन से त्रस्त जनता ने अंतत: उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। अब देश अपने गृहमंत्री शिंदे का क्या करे? एक साधारण चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के रूप में अपने जीवन की यात्रा शुरू कर राज्य में मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और केंद्रीय मंत्री के पद तक पहुंचने वाले शिंदे की जीवन यात्रा को एक आदर्श के रूप में ग्रहण करने वाले इस देश में अनेक अनुयायी हैं। उनकी सफल संघर्ष-यात्रा का प्रशंसक मैं भी हूं। किंतु, आज देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी निराश हूं। जिम्मेदारियों के प्रति उनकी कर्मठता, कार्य कुशलता और अनुभव के पाश्र्व में केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में उनके चयन से एक आशा बंधी थी। लेकिन बुधवार 1 अगस्त को गृहमंत्री का कार्यभार संभालने के साथ ही जब उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कहकर आभार प्रकट किया कि सरदार बूटासिंह के बाद वे दूसरे  'दलित' हंै, जिन्हें महत्वपूर्ण गृहमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई, तब पूरे देश में निराशा फैल गई। इतने अनुभवी शिंदे से ऐसी चूक कैसे हो गई? सभी को समान अवसर दिए जाने की संकल्पना के साथ विकास की ओर कदमताल करता भारतीय समाज तो अब  'जातीय पहचान' से दूर एक 'भारतीयता' को सामने रखता है। और तो और, अब तो जातीय पहचान वाले उपनामों से निजात पाने की मांग भी उठने लगी है। 'दलित' अथवा 'हरिजन' जैसे शब्दों को भारतीय समाज अब अपनी जुबां पर नहीं लाना चाहता। सभी सिर्फ एक  'भारतीय' के रूप में पहचान चाहते हंै। शोषित-प्रताडि़त सूचक कोई शब्द अब स्वीकार नहीं। दलित शब्द में निहित नकारात्मक संदेश लोकतांत्रिक भारत के लिए निश्चय ही अपमान सूचक है। स्कूलों में जाएं, हर जाति-हर वर्ग के बच्चों को बगैर किसी भेदभाव से टिफिन शेयर करते आप देख सकेंगे। ऐसे में देश का गृहमंत्री एक 'दलित' के रूप में अपनी पहचान देते हुए आसन ग्रहण करे और अपने नेताओं के प्रति आभार प्रकट करे कि उन्होंने एक दलित पर विश्वास प्रकट किया, तब हर भारतीय मन अवसाद से तो भर ही जाएगा। आजादी के साढ़े छह दशक बाद सत्ता शीर्ष की दीर्घा से  'दलित' शब्द की गूंज ने आजाद भारत की उपलब्धियों को निश्चय ही हाशिये पर डाल दिया है। सुशीलकुमार शिंदे को ऐसा नहीं करना चाहिए था।