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Tuesday, August 14, 2012

शाबास! देश का प्रधानमंत्री हो तो ऐसा!!


'सर, मेरा क्या होगा?' सन 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर के निवास पर उनके आर्थिक सलाहकार डॉ. मनमोहन सिंह गिड़-गिड़ा रहे थे, चिरौरी कर रहे थे। चंन्द्रशेखर की सरकार का तब पतन हो रहा था। क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी थी। राजीव गांधी का आरोप था कि सरकार उनके घर की जासूसी करवा रही है। जबकि सचाई कुछ और थी। बहरहाल, चर्चा मनमोहन सिंह की। सरकार के संभावित पतन से बेचैन मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चंन्द्रशेखर से मिलने उनके निवास पर गए। भीड़ में घंटों प्रतीक्षा के बाद जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री से मिले तब उनके बेचैनी भरे ये शब्द स्वयं के भविष्य को लेकर थे। आदतन बेबाक चंन्द्रशेखर ने तब पूछा था कि 'आप क्या चाहते हो?' मनमोहन ने तब कहा था कि यू.जी.सी. के चेयरमैन का पद खाली है, मुझे उस पर बिठा दें। चंन्द्रशेखर ने तब नियुक्ति प्रक्रिया की जानकारी लेकर उन्हें उपकृत कर दिया था। मनमोहन यू.जी.सी. के चेयरमैन बना दिये गये थे। 1991 चुनाव पश्चात नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व में गठित सरकार में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनाये गये। हालांकि राव की पहली पसंद नहीं थे मनमोहन सिंह। अपनी पहली पसंद के इंकार और फिर अनुशंसा पर राव ने मनमोहन को वित्त मंत्रालय सौंपा था। तब से अब तक की मनमोहन-यात्रा से देश बखूबी परिचित है। प्रधानमंत्री पद पर उनकी आकस्मिक नियुक्ति की घटना इतिहास में दर्ज है। पहली और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक उनकी 'जनपथ वंदना' के किस्से आम हैं। एक नौकरशाह को अपनी नौकरी बचाने के लिए जिन गुरों के ज्ञान की जरूरत होती है, मनमोहन को निश्चिय ही उसमें महारत हासिल है। चाटुकारिता के नये-नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले मनमोहन बगैर चुनाव जीते विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के दो बार प्रधानमंत्री बन अनोखा विश्व रिकॉर्ड कायम कर चुके हैं। पूरे संसार में डॉ. मनमोहन सिंह एक अकेले गैर-निवार्चित प्रधानमंत्री हैं। अब ऐसे प्रधानमंत्री अगर 'वंदना' की मुद्रा में सार्वजनिक रूप से घोषणा करें कि राहुल गांधी का उनके मंत्रिमंडल में स्वागत है, तो आचश्र्य क्या? हां, लोकतंत्र में आस्था रखने वालों को इस बात की पीड़ा अवश्य होगी कि 'लोकतंत्र' को अंगीकार करने वाले भारत में 'राजतंत्र' सरीखी यह कैसी परम्परा! यह ठीक है कि प्रधानमंत्री को मंत्रियों की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। किन्तु, एक निहायत अनुभवहीन, मंत्रीपद की पात्रता से कोसों दूर, राहुल गांधी को सार्वजनिक आमंत्रण जब प्रधानमंत्री देते हैं तब सवाल तो उठेंगे ही।
कांग्रेस को बार-बार मां-बेटे की पार्टी के रूप में संबोधित करते रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी ताल ठोक रहे होंगे कि '---मैंने कहा था न!' वैसे, इसमें किसी को आश्चर्य नहीं हुआ होगा। यह तो होना ही है। बुजुर्ग मनमोहन सिंह को युवा भरत बन कथित 'अग्रज' राहुल को तो एक दिन गद्दी सौंपनी ही होगी। तुर्रा यह कि सब कुछ होगा 'लोकतंत्र' के नाम पर। लोकतंत्र के साथ ऐसा 'बलात्कार'भारत में ही संभव है। परिवारवाद अथवा वंशवाद की जड़ें केवल कांग्रेस में ही नहीं बल्कि, कुछ अपवाद छोड़, अन्य राजनीतिक दलों में भी मजबूत पैठ बना चुकी है। हां, इस 'रोग' के प्रसार की जिम्मेदारी कांग्रसे के सिर है। शुुरुआत इसी ने जो की है। मजबूर मनमोहन बेचारे करें भी तो क्या! वे प्रसन्न हैं कि उनकी नौकरी फिलहाल बची हुई है। कुर्सी छोड़ेंगे तो अपनी 'आका' की ईच्छा के पक्ष में! उपकृत वे तब भी किये जाएंगे। स्वरूप 'जनपथ' से तय होगा।

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