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Sunday, August 29, 2010

खतरनाक शिगूफा है 'भगवा आतंकवाद'

राजनीतिक स्वार्थ और लक्ष्य का नया विदू्रप चेहरा अत्यंत ही भयावह है। हिन्दी नहीं जानने-समझने का ऐलान कर चुके केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को अचानक 'भगवा' का अर्थ कैसे समझ में आ गया? 'हिन्दू आतंकवाद' से आगे बढ़ते हुए 'भगवा आतंकवाद' के चिदंबरम-प्रलाप को फिसलती जुबान या फिर भाषा के प्रति अज्ञानता करार देकर फिर कोई खारिज न करे। यह राजनीतिक स्वार्थ का वह वीभत्स चेहरा है तो प्रकारान्तर में साम्प्रदायिकता का दानव बन तांडव करने लगता है। क्या दोहराने की जरूरत है कि ऐसी अवस्था समाज व देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य व घृणा का जहर घोल देती है। ऐसे में भारत सरकार के गृहमंत्री द्वारा 'भगवा आतंकवाद' का प्रलाप क्यों? यह तो तय है कि चिदंबरम की कोई निजी आकांक्षा या स्वार्थ इस प्रकरण में निहित नहीं है। निश्चय ही या तो उन्हें गुमराह किया गया है या फिर केंद्र रचित किसी बड़ी साजिश के चिदंबरम प्रवक्ता बन गए। हालांकि कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर खुद को चिदंबरम की भगवा टिप्पणी से अलग कर लिया है। किन्तु यह नाकाफी है। चिदंबरम के बयान ने जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी क्षतिपूर्ति तत्काल संभव नहीं है। ध्यान रहे, आज पूरा संसार जिस आतंकवाद से खौफजदा है वह इस्लामिक आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। यह पीड़ादायक है किन्तु सच है कि वैश्विक स्तर पर व्याप्त आतंकवाद के पाश्र्व में इस्लाम अथवा मुस्लिम संप्रदाय ही है। इस बीच भारत में हुए कुछ विस्फोटों में कथित रूप से अंतर्लिप्त कतिपय हिन्दू संगठनों से जुड़े हिन्दू कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। विस्फोटों को अंजाम देने के आरोप इन पर लगे। जाहिर है कि इन्हीं घटनाओं को आधार बना केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने 'भगवा आतंकवाद' का शिगूफा छोड़ दिया। यह एक ऐसी गैरजिम्मेदाराना हरकत है जिसे भारत देश सहन नहीं कर सकता। 'मुस्लिम आतंकवाद' के मुकाबले पहले हिन्दू आतंकवाद और अब 'भगवा आतंकवाद' को खड़ा कर मुस्लिम वोट बैंक को साबूत रखने की यह चाल हर दृष्टि से राष्ट्र विरोधी हरकत है। पूरे संसार में आतंकवाद के एक पर्याय के रूप में 'भगवा आतंकवाद' को जन्म देकर चिदंबरम ने देश का अहित किया है, राष्ट्र विरोधी हरकत की है। अगर प्रधानमंत्री अपने इस गैरजिम्मेदार गृहमंत्री के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते तब आम लोगों की इस आशंका को बल मिलेगा कि अकेले चिदंबरम नहीं बल्कि यह साजिश स्वयं भारत सरकार रचित है। जब अलकायदा जैसा खतरनाक आतंकवादी संगठन पुणे के जर्मन बेकरी विस्फोट की सार्वजनिक जिम्मेदारी ले रहा है, भगवा आतंकवाद को खड़ा किया जाना निश्चय ही एक समुदाय विशेष को दूसरे समुदाय विशेष की कीमत पर खुश करने की चाल है। ऐसा तो कभी गुलाम भारत में ब्रिटिश शासक किया करते थे। चिदंबरम ने तो कथित रूप से इस्लाम के खिलाफ खड़े इस्लाम के दुश्मनों को पनाह देने वालों को सबक सिखाने का दंभ भरने वाले ओसामा बिन लादेन के अल कायदा की मदद कर दी है। अगर कांगे्रस अपने इस कथन पर कायम है कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता, तो वह तुरंत चिदंबरम को केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करे। देश में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने के आरोप में उन्हें दंडित करे। अन्यथा हम यह मानने को मजबूर हो जाएंगे कि चिदंबरम के बयान से स्वयं को अलग करने संबंधी कांग्रेस का बयान दिखावा मात्र है।

Sunday, August 22, 2010

निराश किया राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ने!

पिछले दिनों ज्यादातर दौरे पर रहा। आपसे रू-ब-रू नहीं हो सका। कुछ परेशानियां, तनाव भी। लेकिन ये सभी आमंत्रित। बौद्धिक आजादी का एकल आंदोलन। समुद्र के किनारे बैठ लहरों को गिनने के समान। मजाक उड़ाया गया। बेवकूफ समझा गया। किसी-किसी ने तो पागल तक करार दिया। लेकिन मैं न तो निराश हूं और न ही हतोत्साहित। आश्वस्त हूँ कि एक पराजित की मौत नहीं मरूंगा। सीमित किंतु ठोस समर्थक धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं। लिखे-बोले पर कहीं-कहीं वैचारिक मंथन शुरू हो चुके हैं। किसी आंदोलन की शुरुआत ऐसी ही तो होती है। एक पग बढ़े तो शनै:-शनै: दो-चार-दस और फिर दर्जन... दर्जन अनुसरण को तत्पर। सो, कोई निराशा नहीं, जारी रहेगा आंदोलन और जारी रहेगा बेबाक-मंथन।
विगत दिनों हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह दोनों ने निराश किया। इन दिनों राष्ट्रकुल खेल की चर्चा जोरों पर है। वैसे चर्चा भ्रष्टाचार की अधिक, खेलों की कम है। मैं जिस निराशा की बात कर रहा हूं उसका संबंध सीधे-सीधे बौद्धिक गुलामी से है। राष्ट्रकुल खेल की चर्चा करनेवाले अमूमन, संभवत: जानबूझकर, इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन का पाश्र्व ही गुलामी अथवा दासतां है। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त आजाद भारत अब इन खेलों में शिरकत करता ही क्यों है? इसी से जुड़ा सवाल यह भी कि आखिर कथित राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें तो क्यों? हम बार-बार स्वयं को गुलाम मानसिकता के भारत के रूप में चिन्हित क्यों करते रहते हैं?
हद तो तब हो गई जब हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल राष्ट्रकुल खेलों की शुरुआत के प्रतीक 'बेटन रिले समारोह' में शरीक होने के लिए ब्रिटेन की महारानी के महल में पहुंच गईं। चाहे कोई कितनी भी सफाई दे, जायज ठहरा दे, ब्रिटेन की महारानी के महल में भारत की राष्ट्रपति की ऐसे समारोह में उपस्थिति से प्रत्येक भारतीय मन आहत हुआ है। बिल्कुल ऐसा लगा जैसे भारत अभी भी 'ब्रिटिश कालोनी' का हिस्सा है। दबी जुबान में ही सही भारतीय जनमानस इस कृत्य को बौद्धिक गुलामी की पुष्टि मान रहा है। इसी गुलामी से मुक्ति चाहते हैं हम। आजाद भारत के आजाद शासक बार-बार देश को शर्मसार न करें।
जम्मू- कश्मीर के बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का बयान आया कि घाटी के लिए सीमित स्वायत्तता की संभावना पर विचार किया जा सकता है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक सोच है। देश के एक और विभाजन का पूर्व संकेत है यह। पीड़ा और दु:ख के बीच भयमुक्त मैं इस तथ्य को रेखांकित करना चाहूंगा कि केंद्रीय सत्ता में शामिल किसी भी दल को जनादेश प्राप्त नहीं है कि वह भारत के और टुकड़े की बात करे। जम्मू-कश्मीर को आखिर किस आधार पर सीमित स्वायत्तता की बातें की जा रही हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दानव वहां फल-फूल रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अर्थात् दादा, बाप और बेटे के शासन को स्थायित्व प्रदान कर दिया जाए? क्या सिर्फ इसलिए कि भारत की ढुलमुल विदेश नीति के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन चुका कथित कश्मीर विवाद का हल ढूंढऩे में हमारे शासक नाकाम रहे हैं? इन सचाइयों के बीच कटु सत्य यह है कि केंद्रीय सत्तापक्ष बिहार सहित अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाता का समर्थन चाहता है। मुस्लिम तुष्टीकरण की यही खतरनाक प्रवृत्ति है जिसने पूरे समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रखा है। कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़, तुष्टीकरण की इस प्रवृत्ति को ऊर्जा देनेवाले राजदल मुस्लिमों के हितैषी कदापि नहीं हैं। ये तो मुस्लिम मतदाता को वोट बैंक बनाकर सिर्फ उनका 'उपयोग' करना जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का तानाबाना इन्हीं का तो रचा है। मैं बार-बार मुस्लिम समाज से राष्ट्र की मुख्य धारा से जुडऩे का आग्रह इसीलिए करता हूं। वे राजदलों के इस षडय़ंत्र को समझ उन्हें नकार दें। जिस भारतीय लोकतंत्र ने, संविधान ने, सभी संप्रदाय को समान अधिकार दे रखा है, उसकी मूल भावनाओं को समझें। लालच-प्रलोभन से तुष्ट होने की जगह संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करें। इस देश पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य संप्रदाय के लोगों का। भारतीय मन और भारतीय भावना को अपना संपूर्णता में भारतीय बन जाएं। यह संभव है, शतप्रतिशत संभव है। शर्त यह कि सभी संप्रदाय-वर्ग के लोग धर्म-संप्रदाय से इतर भारत को ही अपना घर, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च समझें।

Sunday, August 8, 2010

राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ें मुस्लिम!

क्या मुस्लिम समुदाय हमेशा 'वोट बैंक' का कर्जदार बना रहेगा? बंधक बना रहेगा? राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग बना रहेगा? विकास में भागीदारी से दूर रहेगा? अत्यंत ही संवेदनशील व असहज इन सवालों के जवाब चाहिए। सिर्फ जवाब ही नहीं सार्थक और तार्किक परिणति भी चाहिए। एक ऐसा समाधान भी चाहिए जो हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच परस्पर सम्मान और विश्वास को जन्म दे। आजाद भारत में बगैर किसी भेदभाव के हिन्दू-मुस्लिम समानता के आधार पर सम्मानपूर्वक जीवन यापन का अधिकार दे। दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास की रेखा मिटा दे। अब अगर ऐसा नहीं हुआ तो कड़वे वचन के रूप में घोषणा कर दी जा सकती है कि फिर मुस्लिम 'वोट बैंक' स्थायी बंधक बनकर रह जाएंगे। स्वार्थी राजनीतिक तुष्टीकरण की रोटी खिलाकर इन्हें हमेशा हाशिये पर रखने की कोशिश करते रहेंगे। देश-समाज की नजरों में संदिग्ध बनाकर पेश करते रहेंगे। भारत के राष्ट्रीय स्वरूप पर लगा सांप्रदायिकता का पैबंद फिर कभी हट नहीं पाएगा। पहले अंग्रेजों ने और अब स्वार्थी राजनीतिकों ने दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास का बीज बोया और बोते रहे हैं। यह बताया जाता रहा है कि इस्लामी विचारधारा ही वस्तुत: राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। दूसरी ओर मुस्लिम संप्रदाय को विशुद्ध सांप्रदायिकता के आधार पर राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग कर धर्मनिरपेक्षता का ताना-बाना तैयार किया जाता है। मुस्लिमों के लिए तुष्टीकरण के दाने तैयार करने वाले ये छद्मधर्मनिरपेक्षी ही हैं जो 'वोट बैंक' का दिवाला नहीं निकलने देते। इसे समृद्ध बनाए रखते हैं। मुस्लिमों के मन में भय पैदा कर उन्हें अलग-थलग रखने का षडय़ंत्र रचने वाले राजनीतिक इस्लाम के मूल तत्व पर भी परदा डाल देते हैं। दुखद रूप से कतिपय मुस्लिम नेता-संगठन भी, संभवत: असुरक्षा की भावना के कारण, इस्लाम की वास्तविकता की अनदेखी कर जाते हैं। इस सचाई को दरकिनार कर दिया जाता है कि इस्लाम एक सुसंगठित मजहब है। एक पैगंबर हजरत मोहम्मद के द्वारा ईश्वर के इशारे पर बोली गई कुरान पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए एकल आस्था है। मुसलमान कुरान को अल्लाह के वचन मानते हैं। इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे में कुरान की ही इस उक्ति को सतह पर क्यों नहीं आने दिया जाता कि ''सारे मनुष्य एक समुदाय हैं।'' हालांकि इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मनुष्य के एक समुदाय वाली बात को राजनीतिक स्वार्थ में फंसे मुस्लिम धर्म प्रचारक भी जानबूझकर दबा देते हैं। वस्तुत: ये तत्व राजनीतिकों के हाथों में खेलते होते हैं। हालांकि 'एक' ईश्वर की बात करने वाले हिन्दू धर्म प्रचारक भी आदर्श और व्यवहार में फर्क करने लगे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक ने पूरी की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रखा है, मुस्लिम समुदाय को उनके वांछित हक से वंचित कर रखा है। मैं चाहूंगा कि अब और बगैर विलंब के सांप्रदायिकता से दूर मुस्लिम संप्रदाय राष्ट्र की मुख्य धारा का अविभाज्य और महत्वपूर्ण अंग बन जाए। याद दिला दूं कि जब संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दर्जा का प्रस्ताव आया था तब मोहम्मद करीम छागला ने लगभग रूदन करते हुए संविधान निर्माताओं से विनती की थी कि उन्हें (मुसलमानों को) राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग न किया जाए। अर्थात् समझदार मुस्लिम राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ ही बना रहना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी पर भी कथित धर्मनिरपेक्ष तत्व सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन परिवर्तन की बयार में सामने आ भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए उल्लेखनीय पहल की है। मुस्लिम समाज के विकास और सशक्तिकरण की उनकी पहल को सही परिपे्रक्ष्य मेें लेते हुए निर्णायक कदम उठाए जाएं। गडकरी ने वक्फ संपत्तियों के प्रभावी ढंग से इस्तेमाल का सुझाव दिया है। उनके अनुसार 1.20 लाख करोड़ की वक्फ संपत्ति का सही इस्तेमाल किया जाए तो तकरीबन 12 हजार करोड़ रु. की वार्षिक आमदनी हो सकती है। यह एक बहुत बड़ी राशि है। इसका सही इस्तेमाल कर मुस्लिम समुदाय के आर्थिक और सामाजिक विकास के क्षेत्र में क्रांति लाई जा सकती है। समुदाय की जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है। रोजगार के नए-नए द्वार खुल सकते हैं। राजनीतिक शंकाओं की पर्वाह न करते हुए गडकरी ने जब ऐसी पहल की है तब मुस्लिम समुदाय इस अवसर को हाथ से न निकलने दे। तुष्टीकरण और 'वोट बैंक' की राजनीति करने वाले तत्वों को दरकिनार कर गडकरी के सुझावों पर अमल करे। इससे समुदाय का विकास तो होगा ही, दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास की रेखा मिटेगी, विश्वास का नया इतिहास रचेगा। यह सब संभव है बशर्ते दोनों संप्रदाय पूर्वाग्रह और कुंठाओं को दफना दें।

Sunday, August 1, 2010

'छिनाल': दिमागी दिवालियेपन की उपज!

यह तो हद हो गई! अगर सीमा पार कर उद्दंड-अश्लील बन जाने का भय नहीं होता तब मैं यहां श्लीलता की सीमापार वाले शब्दों का इस्तेमाल करता! वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के उप-कुलपति विभूतिनारायण राय ऐसे दुस्साहस के लिए उकसा रहे हैं। अगर उनकी मानें तो देश की हिन्दी 'लेखिकाओं' में होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल (वेश्या) कोई नहीं है ... यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है।' क्या राय की इस टिप्पणी को कोई सिरफिरा भी स्वीकार करेगा? अगर राय अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं तब फिर वे इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर कायम कैसे हैं? विश्वविद्यालय की कुलाधिपति महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए। पूर्व आईपीएस अधिकारी राय जब से इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने हैं, विवादों के घेरे में ही रहे हैं। विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में धांधली, जातिवाद और प्रशासनिक अक्खड़पन के आरोप उन पर लगते रहे हैं। विश्वविद्यालय में उनके खिलाफ आंदोलन भी चले। वर्तमान युग की सामान्य व्याधियां मान इनकी एक हद तक उपेक्षा की जा सकती है। किंतु ताजा प्रकरण? समझ से परे है। कोई सामान्य व्यक्ति, वह भी एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का उपकुलपति, भारतीय पुलिस सेवा का वरिष्ठ अधिकारी रहा व्यक्ति जब हिन्दी लेखिकाओं को छिनाल निरूपित करने लगे तब उसके सिर की तलब तो की ही जाएगी। अत्यंत ही प्रतिष्ठित संस्थान भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'नया ज्ञानोदय' को दिए एक साक्षात्कार में राय ने लेखिकाओं के लिए ऐसे आपत्तिजनक बल्कि अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया है। राय लेखिकाओं में स्वयं को सबसे बड़ी छिनाल साबित करने की होड़ को एक प्रवृत्ति करार देते हैं। एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उपकुलपति को शायद शब्दों के अर्थ और उनकी गरिमा की जानकारी नहीं है। अपने विचार को विस्तार देते हुए राय यह बताने से नहीं चूकते कि लेखिकाओं में ऐसी प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। लेखिकाओं की रचनात्मकता को विभूतिनारायण राय 'कितने बिस्तरों में कितनी बार' के संदर्भ में देखते हैं। धिक्कार है ऐसे कुत्सित विचारधारक उपकुलपति पर। शिक्षा जैसे ज्ञान के पवित्र मंदिर का मुखिया बने रहने का हक राय जैसे व्यक्ति को कदापि नहीं। इस प्रसंग में पीड़ादायक बात तो यह भी कि ज्ञानपीठ जैसा सुविख्यात संस्थान जो स्वर्गीय रमा जैन की स्मृति में प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया करता है, द्वारा प्रकाशित पत्रिका में विभूतिनारायण राय का घोर आपत्तिजनक अश्लील साक्षात्कार प्रकाशित किया ही क्यों गया? सुख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के अनुसार 'ज्ञानोदय' के संपादक रवीन्द्र कालिया ने विभूति की बकवास को इसलिए संपादित नहीं किया क्योंकि उनकी पत्नी ममता कालिया को विभूति ने अपने विश्वविद्यालय में नौकरी दे रखी है। इस पाश्र्व में रवीन्द्र कालिया को भी ज्ञानोदय का संपादक पद त्याग देना चाहिए। स्वयं नहीं छोड़ते तो निकाल देना चाहिए। रवीन्द्र कालिया से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे विभूति के विचारों से इत्तेफाक रखते हैं? कालिया इस तत्थ्य को ध्यान में रखकर जवाब दें कि स्वयं उनकी पत्नी उसी हिन्दी की एक लेखिका हैं जिसकी लेखिकाओं को विभूति छिनाल अर्थात्ï वेश्या बता रहे हैं। ताज्जुब तो इस बात पर भी कि स्वयं विभूतिनारायण राय की पत्नी पद्मा राय भी एक लेखिका हैं। फिर विभूति ने पद्मा को अपने घर में कैसे रख छोड़ा है, उसे 'सही स्थान' पर बैठा दें। मैत्रेयी पुष्पा विभूति को लफंगा मानती हैं। उन्होंने उदाहरण देकर यह साबित भी कर दिया है। अब इस लफंगे का क्या किया जाए? फैसला देश करे, देश की महिलाएं करें, लेखिकाएं करें। चूंकि विभूतिनारायण राय ने ऐसी टिप्पणी कर संविधान का भी अपमान किया है, इनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी हो। अन्यथा पुरुष-प्रधान भारतीय समाज का कलंक और गहरा हो जाएगा। पुरुषों के समकक्ष नारी को स्थान दिए जाने का दावा खोखला साबित हो जाएगा।

न्यायिक व्यवस्था पर अविश्वास!

पता नहीं हमारा महान भारत किन-किन क्षेत्रों में 'महानताÓ की ऊंचाइयों को किन उपकरणों से या फिर हथियारों से नापना चाहता है। गुजरात के मामले को लेकर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की ताजा पहल हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती है। गुजरात के एक असरदार नेता अमित शाह की गिरफ्तारी के बाद अदालत से सीबीआई की यह गुजारिश कि उनके मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर किसी अन्य राज्य में की जाए, अविश्वास का एक अत्यंत ही विद्रुप चेहरा है। सीबीआई का यह अविश्वास देश के संघीय ढांचे पर व्यक्त अविश्वास है। यह तो पूरी की पूरी संघीय व्यवस्था को तोडऩे का प्रयास है। इस पहल को एक सामान्य न्यायिक कार्यवाही अथवा पुलिसिया जांच का अंग मानने की भूल कोई न करे।
एक प्रदेश विशेष की अदालतों, अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों को संदेह के कटघरे में क्यों खड़ा किया जा रहा है? क्या गुजरात की अदालतें अक्षम हैं या फिर ऐसी पक्षपाती कि वे अपने प्रदेश के किसी नेता के खिलाफ दोष प्रमाणित होने पर फैसला नहीं सुना सकतीं? मैं यहां सीबीआई के इस मंतव्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं कि गुजरात के असरदार नेता और नौकरशाह अदालती सुनवाई और न्याय को प्रभावित कर सकते हैं। सीबीआई का यह कथन पूर्वाग्रह से ग्रासित है। उनका यह दावा कि न्याय को प्रभावित करने की बात को मानने के उनके पास पर्याप्त कारण हैं, आश्चर्यजनक है। किसी जांच एजेंसी का न्यायपालिका के प्रति ऐसा अविश्वास अगर जारी रहा तब कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में देश की पूरी की पूरी संघीय व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाए। गुजरात के मुख्यमंत्री अगर सीबीआई के इस कदम को गुजरात सरकार और स्वयं अपने विरुद्ध षडय़ंत्र बता रहे हैं, तो इसका औचित्य मौजूद है। केंद्रीय सत्ता द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग की बात अब आम है। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले 8 वर्षों से नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व वाली गुजरात सरकार को अस्थिर करने की केंद्रीय सत्ता की कोशिशें जारी हैं। गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव में तो मोदी और उनकी सरकार को 'मौत का सौदागरÓ तक निरूपित कर दिया गया था। बावजूद इसके यह सच भी बार-बार रेखांकित हुआ कि गुजरात हर क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास कर रहा है। राजनीतिक लड़ाई और अपराध को एक पलड़े पर रखने की कोशिशें हमेशा विनाश के द्वार खोलती हैं। अमित शाह के मामले को आधार बना पूरे के पूरे गुजरात को निशाने पर लिया जाना अनुचित है। राजनीतिक विश्लेषक पुष्टि करेंगे कि पूरा का पूरा खेल नरेंद्र मोदी को घेरे में लेने के लिए खेला जा रहा है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा बिहार विधानसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी को स्टार प्रचारक के रूप में उतारने का संकेत भी एक कारण हो सकता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इस खेल में न्यायिक व्यवस्था पर संदेह प्रकट कर सीबीआई ने एक अक्षम्य अपराध किया है। अविश्वास की ऐसी प्रवृत्ति तो एक दिन पूरे देश की न्यायिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर देगी। और तब प्रभावित पक्ष और विपक्ष दोनों होंगे।