पिछले दिनों ज्यादातर दौरे पर रहा। आपसे रू-ब-रू नहीं हो सका। कुछ परेशानियां, तनाव भी। लेकिन ये सभी आमंत्रित। बौद्धिक आजादी का एकल आंदोलन। समुद्र के किनारे बैठ लहरों को गिनने के समान। मजाक उड़ाया गया। बेवकूफ समझा गया। किसी-किसी ने तो पागल तक करार दिया। लेकिन मैं न तो निराश हूं और न ही हतोत्साहित। आश्वस्त हूँ कि एक पराजित की मौत नहीं मरूंगा। सीमित किंतु ठोस समर्थक धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं। लिखे-बोले पर कहीं-कहीं वैचारिक मंथन शुरू हो चुके हैं। किसी आंदोलन की शुरुआत ऐसी ही तो होती है। एक पग बढ़े तो शनै:-शनै: दो-चार-दस और फिर दर्जन... दर्जन अनुसरण को तत्पर। सो, कोई निराशा नहीं, जारी रहेगा आंदोलन और जारी रहेगा बेबाक-मंथन।
विगत दिनों हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह दोनों ने निराश किया। इन दिनों राष्ट्रकुल खेल की चर्चा जोरों पर है। वैसे चर्चा भ्रष्टाचार की अधिक, खेलों की कम है। मैं जिस निराशा की बात कर रहा हूं उसका संबंध सीधे-सीधे बौद्धिक गुलामी से है। राष्ट्रकुल खेल की चर्चा करनेवाले अमूमन, संभवत: जानबूझकर, इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन का पाश्र्व ही गुलामी अथवा दासतां है। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त आजाद भारत अब इन खेलों में शिरकत करता ही क्यों है? इसी से जुड़ा सवाल यह भी कि आखिर कथित राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें तो क्यों? हम बार-बार स्वयं को गुलाम मानसिकता के भारत के रूप में चिन्हित क्यों करते रहते हैं?
हद तो तब हो गई जब हमारे देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल राष्ट्रकुल खेलों की शुरुआत के प्रतीक 'बेटन रिले समारोह' में शरीक होने के लिए ब्रिटेन की महारानी के महल में पहुंच गईं। चाहे कोई कितनी भी सफाई दे, जायज ठहरा दे, ब्रिटेन की महारानी के महल में भारत की राष्ट्रपति की ऐसे समारोह में उपस्थिति से प्रत्येक भारतीय मन आहत हुआ है। बिल्कुल ऐसा लगा जैसे भारत अभी भी 'ब्रिटिश कालोनी' का हिस्सा है। दबी जुबान में ही सही भारतीय जनमानस इस कृत्य को बौद्धिक गुलामी की पुष्टि मान रहा है। इसी गुलामी से मुक्ति चाहते हैं हम। आजाद भारत के आजाद शासक बार-बार देश को शर्मसार न करें।
जम्मू- कश्मीर के बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का बयान आया कि घाटी के लिए सीमित स्वायत्तता की संभावना पर विचार किया जा सकता है। यह एक अत्यंत ही खतरनाक सोच है। देश के एक और विभाजन का पूर्व संकेत है यह। पीड़ा और दु:ख के बीच भयमुक्त मैं इस तथ्य को रेखांकित करना चाहूंगा कि केंद्रीय सत्ता में शामिल किसी भी दल को जनादेश प्राप्त नहीं है कि वह भारत के और टुकड़े की बात करे। जम्मू-कश्मीर को आखिर किस आधार पर सीमित स्वायत्तता की बातें की जा रही हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दानव वहां फल-फूल रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अर्थात् दादा, बाप और बेटे के शासन को स्थायित्व प्रदान कर दिया जाए? क्या सिर्फ इसलिए कि भारत की ढुलमुल विदेश नीति के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन चुका कथित कश्मीर विवाद का हल ढूंढऩे में हमारे शासक नाकाम रहे हैं? इन सचाइयों के बीच कटु सत्य यह है कि केंद्रीय सत्तापक्ष बिहार सहित अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाता का समर्थन चाहता है। मुस्लिम तुष्टीकरण की यही खतरनाक प्रवृत्ति है जिसने पूरे समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोल रखा है। कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़, तुष्टीकरण की इस प्रवृत्ति को ऊर्जा देनेवाले राजदल मुस्लिमों के हितैषी कदापि नहीं हैं। ये तो मुस्लिम मतदाता को वोट बैंक बनाकर सिर्फ उनका 'उपयोग' करना जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का तानाबाना इन्हीं का तो रचा है। मैं बार-बार मुस्लिम समाज से राष्ट्र की मुख्य धारा से जुडऩे का आग्रह इसीलिए करता हूं। वे राजदलों के इस षडय़ंत्र को समझ उन्हें नकार दें। जिस भारतीय लोकतंत्र ने, संविधान ने, सभी संप्रदाय को समान अधिकार दे रखा है, उसकी मूल भावनाओं को समझें। लालच-प्रलोभन से तुष्ट होने की जगह संविधान प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करें। इस देश पर उनका भी उतना ही अधिकार है जितना अन्य संप्रदाय के लोगों का। भारतीय मन और भारतीय भावना को अपना संपूर्णता में भारतीय बन जाएं। यह संभव है, शतप्रतिशत संभव है। शर्त यह कि सभी संप्रदाय-वर्ग के लोग धर्म-संप्रदाय से इतर भारत को ही अपना घर, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च समझें।
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