centeral observer

centeral observer

To read

To read
click here

Tuesday, March 8, 2011

आखिर क्यों चाहिए, एक अदद 'विभीषण'

सचमुच यह समझ से परे है कि जनता की नजरों में पूरी तरह गिर चुकी , ढीली हो चुकी गठबंधन की गांठों के बावजूद केंद्र में संप्रग सरकार के पतन के लिए लालकृष्ण आडवाणी को आखिर किसी एक 'विभीषण' की प्रतीक्षा क्यों है? इस जरूरत को चूंकि आडवाणी ने सार्वजनिक किया है, सफाई भी उन्हें ही देनी होगी। जब आडवाणी यह कहते हैं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह भाग्यशाली हैं कि कांग्रेस के अंदर आज कोई वी.पी सिंह मौजूद नहीं है, तब क्या वे अपरोक्ष में हताशा को चिह्नित नहीं कर रहे? उनकी पार्टी भाजपा के अंदर और बाहर इसे आडवाणी की व्यक्तिगत हताशा निरूपित करेंगे-पार्टी की हर्गिज नहीं। सचमुच, यह एक पहेली ही है कि केंद्र में सत्ता परिर्वतन के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर आडवाणी विद्रोह की प्रतीक्षा करें। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं, कि देश का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य और भाजपा तथा राजग के उस के सहयोगी दलों में हिलोरे मारते उत्साह के बीच, कहीं किसी कोने में भी हताशा मौजूद है। भ्रष्टाचार के आरोपों से तार-तार और गठबंधन के घटक दलों में व्याप्त घोर असंतोष के बावजूद अगर आडवाणी सरीखा कोई वरिष्ठ नेता सत्तापक्ष के अंदर विद्रोह की प्रतीक्षा करता है, तब लोगों की भौंहें तो तनेंगी ही। निश्चय ही, आडवाणी इस मुकाम पर अकेले हताश लग रहे हैं। एक सामान्य कार्यकर्ता से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मंतव्य जानने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि पार्टी के अंदर उत्साह है, हताशा नहीं। भाजपा अपने और राजग के बलबूते सत्ता-परिवर्तन की ताकत रखती है। 70 के दशक के मध्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ 'सम्पूर्ण क्रांति' का झंडा किसी वी.पी सिंह ने नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीति से दूर सर्वमान्य जयप्रकाश नारायण ने उठाया था। शासकीय अत्याचारों, निर्ममता और क्रूरता के बावजूद तब विद्रोह कर प्राय: सभी लोकतांत्रिक दलों के नेता जयप्रकाश-आंदोलन की सफलता के माध्यम बने थे। 80 के दशक में बोफोर्स और फेयरफैक्स घोटालों के आरोपों से घिरे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का साथ उनके सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अवश्य छोड़ा था, किंतु वे 'लोकनायक' नहीं बन पाये थे। जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान कर कांग्रेस सरकार को तब अपदस्थ कर दिया था। आडवाणी यह कैसे भूल गए कि तब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बन पाए थे, भाजपा के सर्मथन पर और उनकी सरकार का पतन हुआ तो भाजपा की समर्थन वापसी के कारण। आज केंद्र की गठबंधन सरकार 70 और 80 के दशकों से कहीं अधिक विषम परिस्थितियों से गुजर रही है। वर्तमान मनमोहन सिंह सरकार के घोटालों के आगे इंदिरा और राजीव की सरकारों के घोटाले बौने दिखने लगे हैं। जनता के बीच असंतोष आज चरम पर है। हजारों, लाखों ,करोड़ों के घोटाले आज आम हो गए हैं। यह ऐसा पहली बार हुआ है, जब केंद्र सरकार का एक मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल के अंदर पड़ा है, एक पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल कर चुकी है, भारत के एक पूर्र्व मुख्य न्यायधीश व उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, हाईकोर्ट के एक जज के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल करती है, बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों पर राजकोष लूटने के आरोप लग रहे हैं, खेल-मनोरंजन से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों पर छापेमारी हो रही है, सत्तापक्ष का एक सांसद न्यायपालिका के खिलाफ सार्वजनिक आरोप लगा रहा है कि धन लेकर मा$कूल फैसले लिखवाये गये हैं और अनेक केंद्रीय मंत्री एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। देश की लूट का ऐसा आलम पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे में जब हर कोण से सत्ता- परिर्वतन के संकेत परिलक्षित है तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा सत्ता घराने के किसी 'विभीषण' के आगमन की प्रतीक्षा क्यों करेगी? पार्टी में नेतृत्व-स्तर पर अब शीर्ष नेतृत्व अर्थात पार्टी अध्यक्ष को कड़े फैसले लेने होंगे। नेतृत्व की कमान स्वयं संभालनी होगी। सभी को साथ लेकर चलने की नीति सराहनीय तो है, किंतु जब अन्य नेताओं का लक्ष्य कुछ और हो, व्यक्तिगत अभिलाषाएं पार्टीहित को चोट पहुंचा रही हों तब अनुशासित करने की जरूरत तो पड़ेगी ही। आडवाणी के ताजा कथन से उत्पन्न भ्रम का निराकरण होना ही चाहिए, जनता की अपेक्षा के अनुरूप परिणाम तभी संभव है, जब पार्टी का आत्मविश्वास मजबूत बना रहे। ध्यान रहे, मैं यहां किसी पार्टी विशेष का विरोध या समर्थन नहीं कर रहा, मै तों केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार के विरुद्ध व्याप्त, व्यापक असंतोष और परिवर्तन के पक्ष में बह रही बयार को रेखांकित कर रहा हूं। चूंकि विकल्प के रूप में भाजपा नेतृत्व के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से ही लोग आशा लगाए बैठे हैं, इसे एहसास तो दिलाना ही होगा। इतिहास गवाह है कि जब ऐसे अवसर आएं हैं विजय जनाकांक्षा की ही होती रही है।
बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी से देश की अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं, गड़करी के लिए यह एक चुनौती है। अब प्रतीक्षा रहेगी इस बात की, कि गड़करी जनाकांक्षा को समझ सार्थक, सकारात्मक नेतृत्व दे पाते हैं या नहीं।

Friday, March 4, 2011

न्यायपालिका की परवाह नहीं प्रधानमंत्री को!

सुप्रीम कोर्ट के ज़न्नाटेदार तमाचे के बाद भी निर्विकार भारत सरकार के गाल ही नहीं, ललाट के साथ-साथ पूरा का पूरा चेहरा पूर्ववत है। कोई लाज नहीं। कोई शर्म नहीं। कोइ खेद-पछतावा नहीं। सपाट सरकारी प्रतिक्रियाएं और वही कुतर्क। तमाचे की गूंज से देशवासी तो स्तब्ध हैं, किंतु सोनिया-मनमोहन-चिदंबरम की तिकड़ी पूर्णत: सामान्य। चिकने घड़े पर शर्म का पानी ठहरता भी कहां है। देश चीख रहा है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस्तीफा दें, गृहमंत्री चिदंबरम इस्तीफा दें। अभी तक तो खबर नहीं, आगे भी उम्मीद नहीं की देश की मांग का आदर करते हुए नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस्तीफा देंगे। नैतिकता को हर दिन पोंछा लगा कूड़ेदान में फेंकने का आदी आज का शासन वर्ग भला इसकी परवाह करे तो क्यों?
भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीबीसी) पद पर जोसफ थॉमस की नियुक्ति के लिए सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जिम्मेदार थे। नियुक्ति करनेवाली समिति में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष के नेता रहते हैं। नेता विपक्ष सुषमा स्वराज की आपत्ति को रद्दी की टोकरी में डाल थॉमस की नियुक्ति पर मोहर लगानेवाले मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम नैतिक ही नहीं, कानूनी रूप से भी जिम्मेदार हैं। थॉमस की नियुक्ति को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट जब साफ शब्दों में कहता है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें (थॉमस की नियुक्ति के संबंध में) असंवैधानिक थीं, तब शक की गुंजाइश कहां रह जाती है? कथित रूप से ईमानदार छवि के धारक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर इस्तीफा नहीं देते तो देश में एक अत्यंत ही गलत संदेश जाएगा। संदेश जाएगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के प्रधानमंत्री को अपनी ही न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है। न्यायपालिका की उन्हें परवाह नहीं। संदेश यह भी जाएगा की भारत के प्रधानमंत्री को लोकतांत्रिक भावना की परवाह नहीं है। ऐसे में उनके मंत्रिमंडल के अन्य सदस्य क्या ईमानदार और अनुशासित रह पायेंगे? कुतर्क का सहारा ले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रधानमंत्री का बचाव करनेवाले केंद्रीय कानून मंत्री विरप्पा मोईली जब यह कहते हैं की सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की है तब हमें यह मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए की देश का कानून मंत्रालय एक घोर अयोग्य व्यक्ति के हाथों में है। क्या सुप्रिम कोर्ट ने साफ-साफ यह नहीं कहा कि थॉमस की नियुक्ति संबंधी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें असंवैधानिक थी? लगता है मोइली का कानून मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट से चाहता था कि वह सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम लेकर भत्र्सना करता। सुप्रीम कोर्ट से कानून की भाषा से अलग सड़क छाप भाषा का इस्तेमाल करनेवाले मोइली ने निश्चय ही अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। थॉमस की सीबीसी पद पर नियुक्ति और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसे रद्द किया जाना वस्तुत: पूरी की पूरी केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली और उसकी बदनीयती को चिह्नित करता है। भ्रष्टाचार संबंधी अति गंभीर मामलों से घिरी भारत सरकार जब एक दागी और भ्रष्टाचार के जांच की जिम्मेदार सतर्कता आयोग के मुखिया के पद पर नियुक्त करती है तब सरकार की नीयत पर संदेह स्वाभाविक है। थॉमस के मामले में तो यह प्रमाणित हो चुका है कि थॉमस के संदिग्ध पाश्र्व की पूरी जानकारी होने के बावजूद, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनकी नियुक्ति पर स्वीकृति की मोहर लगाई। समिति की एक अन्य सदस्य विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों को नजरअंदाज कर प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र और पारदर्शिता की भावना को ठोकर मारी है। प्रधानमंत्री आज भले ही इस्तीफा न दें, देश उन्हें बख्शेगा नहीं। उन्हें और उनकी पार्टी कॉंग्रेस को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी। थॉमस के इस्तीफा दे देने मात्र से प्रधानमंत्री व उनकी सरकार बरी नहीं हो जाती। सुप्रीम कोर्ट के तमाचे की आवाज के बाद जनता की अदालत की चाबुक की गूंज तो अभी बाकी है।

Sunday, February 20, 2011

मीडिया के गाल पर यह कैसा तमाचा?

क्या सचमुच, मीडिया इतना दागदार हो चुका है कि जब भी कोई चाहे, उसके मुंह पर थूक दे? 'दलाली' और 'दारू' का यह कैसा दौर, कि मीडिया को सड़क-चौराहों पर निर्वस्त्र किया जाता रहे? यह सवाल अब जनता नहीं कर रही, मीडिया की वह युवा पीढ़ी कर रही है, जो ईमानदारी और मूल्यों की पूंजी ले, सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ मीडिया में आयी है। अपवाद स्वरूप, मौजूद वे वरिष्ठ मीडियाकर्मी, इन सवालों से रू-ब-रू हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य और सिद्धांत के साथ कभी समझौते नहीं किए। फिर आज ऐसा क्यों, कि एक समाचारपत्र के मालिक, केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख ने आरोप लगा दिया कि 'टीवी चैनलों के लोग अपने कार्यालयों में बैठ कर नेताओं को नीचा दिखाने के लिए समूह-चर्चाएं आयोजित कर रहे हैं और यही लोग रात को जमकर शराब पीते हैं'
विलासराव की गिनती सड़क छाप नेताओं में नहीं होती। एक गंभीर राजनीतिक और सुलझे हुए व्यक्ति के रूप में इनकी विशिष्ट पहचान है, चिंतनीय यही है। जब विलासराव मीडिया को नंगा कर रहे हैं तो यह बहस का आग्रही तो है ही। इसके पूर्व, महाराष्ट्र के ही उपमुख्यमंत्री अजित पवार भी सार्वजनिक रूप से 'मीडिया पर अंकुश' की जरूरत बता चुके हैं। विडम्बना यह, कि अजित पवार भी एक समाचारपत्र समूह से जुड़े हुए हैं। ऐसे में, सामान्यजन तो यही कहेगा, कि ये दोनों अपनी बिरादरी अथवा परिवार का 'सच' बयान कर रहे हैं। लेकिन, हमें यह मान्य नहीं।
हां, मीडिया के लिए इसे एक चुनौती के रूप में हम अवश्य स्वीकार करेंगे। चुनौती है विश्वनीयता की। यह एक लांछन है, चरित्र पर दाग है। यह सच है कि एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, किंतु सच यह भी है कि उसी तालाब में निर्भीक विचरनेवाली मछलियां गंदले-दूषित पानी से ऊपर निकलकर स्वच्छ वायु को ग्रहण भी करती हैं। दलाली संबंधित अतिगंभीर आरोपों के नायिका-नायक बन उभरे बरखा दत्त और वीर संघवी ही मीडिया नहीं है। अल्पसंख्या के बावजूद, पुराने अनुभवी और नये युवा मीडियाकर्मियों की बड़ी पंक्ति, मीडिया के मूल्य व सिंद्धांत की रक्षार्थ चिह्नित की जा सकती है। चूंकि यह वर्ग अंतर्मुखी है, वाचाल नहीं, सुर्खियों में नहीं आ पाता, इनकी उपलब्धियों की चर्चा अपेक्षानुरूप इसलिए भी नहीं हो पाती, क्योंकि महानगरों में लॉबीइंग नहीं हो पाती। इसलिए विलासराव देशमुख के आरोप को या अजित पवार की मांग को हम संपूर्णता में स्वीकार नहीं कर सकते। मैं विलासराव को यह बताना चाहूंगा कि नदी या तालाब की गहराई नापने के लिए उनके तल में पैठने वाले पत्रकार मौजूद है और इन्हीं पत्रकारों के श्रम और निर्भीकता के कारण आज संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र यहां सुरक्षित है। राजनीति के सड़े, गंदले तालाब में उसे खंगालने का काम यही वर्ग तो कर रहा है! लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुरुपयोग कर पूरी की पूरी शासकीय व्यवस्था को भ्रष्ट-कलंकित करने वाले चेहरों को बेनकाब यही वर्ग तो कर रहा है? अगर यह नहीं रहते तब निश्चय जानिए भारतीय लोकतंत्र के साथ दिनदहाड़े सड़क-चौराहों पर बलात्कार कर ये राजनीतिक पूरे के पूरे देश को कब का नीलाम कर चुके होते, बेच देते ये भारत देश को। क्योंकि, तब ऐसे बेलगाम शासकों को अंकुश लगानेवाला कोई भी नहीं होता।
मैं यह कह चुका हूं कि मीडिया के तालाब में सड़ी मछलियों की कमी नहीं। लेकिन आभा बिखेरती वैसी स्वच्छ मछलियां भी मौजूद हैं जो पूरी ईमानदारी के साथ लोकतंत्र की अपेक्षा पर खरी उतरती हुई 'वॉच डॉग' की भूमिका में सक्रिय हैं। यह समूह चर्चा आयोजित करते हैं: लोकतंत्र के पायों को मजबूती प्रधान करने के लिए, यह चर्चाएं करते हैं: संविधान बदल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए, यह चर्चाएं करते हैं अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। यह चर्चाएं करते है, व्यवस्था को भ्रष्ट बनानेवाली ताकतों यथा-राजनेताओं नौकरशाहों को बेपर्दा करने के लिए। यह वर्ग चर्चा करता है राष्ट्रीय संपत्ति को दोनों हाथों लूटनेवाली राष्ट्रविरोधी ताकतों से मुकाबला करने के लिए। देशमुख या फिर अजित पवार चूंकि मीडिया बिरादरी की उपज हैं, मीडिया समूहों का संचालन करते हैं, वे ऐसे 'सच' से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैंं? किसी मीडियाकर्मी-विशेष या खबर-विशेष से आहत हुआ जा सकता है, किंतु इस कारण मीडिया संसार को लांछित तो नहीं किया जा सकता है। विलासराव देशमुख के शब्दों में व्यक्तिगत पीड़ा का आभास मिलता है उसे दूर किया जाना चाहिए, लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता और चरित्र को शराब के एक पेग के कारण संदिग्ध तो नहीं ठहराया जा सकता। बावजूद इसके, आरोप अथवा लांछन पर बहस तो होनी ही चाहिए। विश्वसनीयता की गारंटी तो मीडिया को ही देनी होगी!

Thursday, February 17, 2011

गठबंधन धर्म की आड़ में भ्रष्टाचार, बेईमानी!

जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से यह कहे कि गठबंधन धर्म की मजबूरी के कारण वे भ्रष्टाचार को सिंचित करते रहे, अनियमितताओं की अनदेखी करते रहे, हजारों करोड़ों की राष्ट्रीय संपत्ति की लूट को आंख मूंद देखते रहे तो क्या उन्हें पद पर बने रहने का हक है? कतई नहीं। देश ऐसे मजबूर, असहाय व्यक्ति के हाथों में शासन की बागडोर नहीं छोड़ सकता। उन्हें बर्दाश्त करने का अर्थ होगा, भ्रष्टाचार को स्वीकार करना। डॉ. मनमोहन सिंह पर आरंभ से ही कठपुतली और सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने के आरोप लगते रहे हैं। विपक्ष के ऐसे आरोपों को राजनीतिक निरूपित कर मनमोहन सिंह को संदेह का लाभ मिलता रहा। लेकिन अब तो हद हो गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ऐसा ऐलान करने, स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि वे मजबूर है, असहाय हैं। राष्ट्रधर्म की कीमत पर गठबंधन धर्म का पालन करने वाले प्रधानमंत्री भला विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के प्रधानमंत्री कैसे बने रह सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होना, भला होना एक बात है, प्रधानमंत्री के रूप में देश पर शासन करना कुछ और। एक प्रधानमंत्री यह कैसे कह गया कि उसके अपने ही विभाग में लिए गये निर्णय की जानकारी उन्हें नहीं मिली। और जब मिली तब विलंब से। इस विंदु पर पूर्व में जाहिर वह शंका उभर कर सामने आती है कि अनेक महत्त्वपूर्ण संचिकाएं प्रधानमंत्री की जानकारी के बगैर अधिकारी और कतिपय मंत्री कहीं और पहुंचा देते हैं, आदेश या सुझाव वहीं से ले लिए जाते हैं। देवास मल्टीमीडिया को एस बैंड आवंटन की प्रक्रिया में कहीं अधिकारियों ने ऐसा ही कुछ तो नहीं किया। देवास के मुख्य कार्यकारी अधिकारी खुलासा कर चुके हैं कि आवंटन की सारी प्रक्रिया में वरिष्ठ अधिकारी और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री शामिल थे। आश्चर्य है कि इन लोगों ने प्रधानमंत्री को जानकारी क्यों नहीं दी? कहीं वे किसी अदृश्य हाथों के इशारे पर तो नहीं चल रहे थे? भ्रष्टाचार, महंगाई, 2जी स्पेक्ट्रम और एस बैंड आवंटन के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री तक की नियुक्ति में गठबंधन धर्म की आड़ ले स्वयं को मजबूर असहाय बताकर मनमोहन सिंह ने भारत जैसे विशाल देश की शासन व्यवस्था का मजाक उड़ाया है। प्रधानमंत्री पद की गरिमा, मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा और राष्ट्रहित के साथ खिलवाड़ किया है। हमारा सिर शर्म से झुक गया जब हमने प्रधानमंत्री को गिड़गिड़ाते देखा कि, '...मैंने गलतियां की हैं लेकिन वैसी नहीं, जैसा दिखाया जा रहा है।' शर्म, शर्म! क्षमा करें प्रधानमंत्रीजी!, मीडिया भारत को घोटालों का देश बताकर देश का आत्मविश्वास कम नहीं कर रहा है, बल्कि आत्मनिरीक्षण कर रहा है।
एक तरफ तो आप प्रधानमंत्री को सीजऱ की पत्नी की तरह बेदाग देखे जाने की वकालत करते हैं और दूसरी ओर गलती का इजहार करने के बावजूद पद पर बने रहने की घोषणा भी! आप कैसे प्रधानमंत्री हैं जो नैतिक जिम्मेदारी का एहसास होने की बात तो करते हैं किन्तु अनैतिक कर्मों की पुष्टि के बावजूद नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने से साफ इनकार कर जाते हैं। प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लालच का त्याग करने में असमर्थ डॉ. मनमोहन सिंह अपने अतीत के मजबूत पाश्र्व को ही झुठला रहे हैं। अब बहुत हो चुका डॉ. मनमोहन सिंहजी। स्वयं को मजबूर, असहाय प्रधानमंत्री स्वीकार करने के बाद आप को पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं। राष्ट्रधर्म और राजधर्म के पक्ष में या तो मनमोहन सिंह तत्काल इस्तीफा दे दें, या फिर कथित गठबंधन धर्म की मजबूरियों के मुद्दे के साथ जनता की अदालत में जाएं। क्या मनमोहन सिंह इतनी हिम्मत दिखा पाएंगे? शायद नहीं। जो व्यक्ति बगैर जनादेश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चिपका रह सकता है, उससे ऐसे आदर्श की अपेक्षा ही बेमानी है।

Sunday, February 6, 2011

... तब कोई साबुत नहीं बचेगा!

दु:खद व पीड़ादायक यह नहीं कि केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रही यूपीए की भारत सरकार देश की जनता को 'धैर्यवान मूर्ख' मानती है। खतरनाक यह है कि हम अर्थात् भारतवासी स्वयं को पेश ही इसी रूप में कर रहे हैं। फिर क्या आश्चर्य कि भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय में झूठा हलफनामा दायर करती है, संसद में और संसद के बाहर गलत बयानी करती है, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन जैसे अतिगंभीर मुद्दों पर देश को गुमराह करती रही है। धिक्कार इस बात पर भी कि केंद्र कि ऐसी चालबाजियों को मदद करनेवाले देश विरोधी लालची हाथ भी समय-समय पर प्रकट हो जाते हैं।
विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के मामले में भी केंद्र ऐसे ही राष्ट्रविरोधी खेल को अंजाम दे रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कड़ी पूछताछ और कड़ी टिप्पणियों के बाद एक विदेशी बैंक में जमा काले धन के कुछ खाताधारकों के नाम बड़ी धूर्तता के साथ एक पत्रिका के द्वारा 'लीक' करा दिये गये। सर्वाेच्च न्यायालय व देशवासियों की आखों में धूल झोंकते हुए जिस तरह छोटी मछलियों के नाम सार्वजनिक किये गये हैं, उससे यह साबित हो गया कि भारत सरकार बड़ी मछलियोंं को बचाना चाहती है। भारत सरकार का यह कृत्य निश्चयही राष्ट्रविरोधी है। सर्वोच्च न्यायालय यह टिप्पणी कर चुका है कि विदेशी बैंकों में काला धन जमा कराने की कार्रवाई वस्तुत: राष्ट्रीय संपदा की लूट है। अर्थात ऐसे सभी खाताधारक इस लूट के अपराधी हैं। सरकार के ताजा कदम से आम जनता के बीच मौजूद यह शंका और भी बलवती हुई है कि विदेशी बैंकों में बड़े -बड़े राजनेताओं ने काला धन जमा करा रखा है। यह भी कहा जा रहा है कि भारत का वर्तमान शीर्ष राजनीतिक परिवार भी इस अपराध में शामिल है। ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्या हिम्मत कि उनकी सरकार असली अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई कर सके। खेद है कि सरकार की इस कवायद में 'सहयोगी हाथ' (जो मीडिया बिरादरी के हैं) कटघरे में खड़े दिख रहे हैं। यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि जिस पत्रिका में कथित खाताधारकों के नाम प्रकाशित किए हैं, पूर्व के उसके सभी स्टिंग ऑपरेशन कांग्रेस के हित साधनेवाले साबित होते रहे हैं। यह सवाल मौजू है कि वह पत्रिका और उसकी वेब साईट सत्ता में मौजूद व उससे जुड़ी बड़ी मछलियों का स्टिंग क्यों नहीं करती। जब पूरे देश में यह चर्चा जोरों पर है कि नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने भी विदेशी बैंकों में खाते खोल रखे हैं तब उनका स्टिंग क्यों नहीं कर रहे हैं वे। रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी के एक पूर्व अधिकारी जब यह सार्वजनिक कर चुके हैं कि स्वयं सोनिया गांधी का विदेशी बैंक में एक पुराना खाता (संभवत: तब अल्प वयस्क राहुल के नाम) मौजूद है , अब तक आरोप की जांच क्यों नहीं हुई। वह पत्रिका क्या इसका कोई स्टिंग करेगी? नीरा राडिया टेप प्रकरण में अनेक बड़े पत्रकारों के नाम दलाल के रूप में सामने आ चुके हैं। इस पाश्र्व में उक्त पत्रिका और वेबसाईट की भूमिका संदिग्ध है। ध्यान रहे देश की युवा पीढ़ी अब सतर्क हो, सभी राष्ट्रविरोधी हरकतों पर नजरें रख रही हैं। देश की वर्तमान विकृत छवि पर यह वर्ग चिंतित है। मिस्त्र की घटना पर उसकी निगाहें हैं। 70 के दशक के जन आंदोलन के पन्नों को वह उलट रही है। जिस दिन वर्तमान भ्रष्टाचार व कुशासन के खिलाफ लडऩे को तैयार कोई 'जननायक' उसे मिल जाएगा, युवापीढ़ी 'जनयुद्ध' का ऐलान कर देगी। और तब निश्चय मानें, राष्ट्रिय शुद्धिकरण की प्रक्रिया में कोई भी 'दागदार' साबुत नहीं बचेगा।

अब ऐलान हो जाए 'जनयुद्ध' का!

यह भी खूब रही! विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अब इस बात का एहसास हुआ है कि भ्रष्टाचार से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। बेचारे प्रधानमंत्री ! जब पूरे देश में शीर्ष सत्ता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोहराम मचादो है, गली-कूचों में आम आदमी भी आक्रोश व्यक्त कर रहा है, भारतीय संसद ठप की जा रही हो, मंत्री और मुख्यमंत्री के खिलाफ मामले दर्ज हो रहे हों, केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफे लिए जा रहे हों, विदेशी बैंको में भारतीयों द्वारा अकूत धनराशी जमा कराई जा रही हो, स्पेक्ट्रम जैसे घोटाले से एक झटके में पौने दो लाख करोड़ के वारे-न्यारे हो जाएं, राष्ट्रमंडल खेलों में दिन दहाड़े लूट की खबरें गुंजायमान हो, तब देश की छवि साबुत कैसे रह सकती है? भ्रष्टाचार संबंधी गतिविधियों पर वर्षों मौन रहनेवाले प्रधानमंत्री के ज्ञानचक्षु अब खुलते हैं और उन्हें समझ में आता है कि भ्रष्टाचार सुशासन की जड़ पर प्रहार करता है, विकास की दिशा में रुकावट है! कारण साफ है। गठबंधन राजनीति के 'अधर्म' को सींचित कर सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौते किए। कहीं उन्होंने आंखे मूंद रखीं, तो कहीं समर्पण कर भ्रष्ट आचरण-निर्णय के भागीदार बनते रहे। ऐसे में उनके मुख से निकले उपदेश उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं, बहुरुपिया बना देते हैं। घोर गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अगर मजबूर हैं तो अपनी सत्ता वासना की पूर्ति के पक्ष में। सत्ता सुख का त्याग वे करना नहीं चाहते। देश की छवि को रसातल में पहुंचाने के बाद छवि की चिंता! बेहतर हो, सत्य को स्वीकार कर देशहित के पक्ष में वे सत्ता बंधन से मुक्त हो जाएं। अन्यथा ए. राजा और सुरेश कलमाड़ी की तरह एक दिन वे स्वयं को बलिवेदी पर निरीह लेटे पायेंगे।
भारत की विशाल आबादी के साथ सत्तापक्ष का ऐसा छल अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सत्ता की राजनीति करनेवाले इस संभावना की उपेक्षा न करें। केंद्रीय सत्ता का संचालन कर रहे संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन (यूपीए)की अध्यक्ष सोनिया गांधी भी देश के साथ ऐसा ही छल कर रही हैं। सोनिया न तो संत हंै और न ही दार्शनिक! फिर इनके सदृश अभिनय क्यों? उन्होंने सत्ता और धन के लिए अंधी दौड़ पर चिंता जताई है। कहा है कि जीवन में धन ही सबकुछ नहीं होता, सत्ता ही सबसे बड़ा सुख नहीं। गांधी और विवेकानंद के ये शब्द सभी के मुख को अच्छे नहीं लगते। ऐसे में शब्द दमित हो जाते हैं, शब्द अपमानित हो जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि सोनिया गांधी के इन शब्दों का कोई खरीदार सामने नहीं आया। आज देश त्रस्त है, संतप्त है तो भ्रष्टाचार के दानव से। इस दानव की उत्पत्ति नई नहीं, किंतु आजादी के 64 वर्षों में इसे फलने-फूलने के लिए आवश्यक ऊर्जा क्या इन्हीं भ्रष्ट सत्ताधारियों और नौकरशाहों ने नहीं दी? स्वीस बैंक के डायरेक्टर ने जानकारी दी है कि लगभग 280 लाख करोड़ रुपए भारतीयों ने स्वीस बैंकों में जमा करा रखे हैं। क्या यह दोहराने की जरुरत है कि यह विशाल धनराशि राष्ट्रीय संपत्ति की लूट से परिवर्तित काला धन है। जरा गौर करें। 200 साल के शासनकाल के दौरान अंग्रेजों ने 1 लाख करोड़ लूटा था। और अब आजादी के बाद 64 सालों में 280 लाख करोड़! इस मोर्चे पर विदेशी अंग्रेजों को मात देनेवाले आजाद भारत के हमारे शासक, नौकरशाह, उद्योगपति किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित चिंतक नहीं कहे जायेंगे। इतिहास इन्हे राष्ट्रद्रोही के रूप में दर्ज करेगा। मिस्त्र में जारी 'जनयुद्ध' एक संकेत है। 80 के दशक में इरान के शाह को ऐसे ही जनयुद्ध ने सत्ता छोड़ पलायन के लिए मजबूर कर दिया था। मिस्त्र के होस्नी मुबारक को भी संभवत: ऐसे ही हश्र से रुबरु होना पड़े। कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जब सड़क पर उतरती है तब राष्ट्रकवि (स्व.)रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां, ''... सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है...'' साकार हो उठती हैं। धन और सत्ता की अंधी दौड़ पर चिंता व्यक्त करनेवाली सोनिया को चाटुकारों ने भले ही त्याग मूर्ति बना डाला हो, वास्तविकता से सारा देश परिचित है। आम जनता का धैर्य अब टूटने लगा है। पिछले दिनों, एक दिन के लिए ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनता सड़कों पर उतरी थी। वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ वह आयोजन 'जनयुद्ध' का पूर्व संकेत था। जनता कालरात्रि की समाप्ति चाहती है। उसे अब इस बात का पुन: एहसास हो गया है कि क्रांति और परिवर्तन की आवश्यकता आज बाहर से नहीं, स्वयं हमारे भीतर है। व्यक्ति का स्थान ले चुके समूह को चुनौतियां मिलनी शुरु हो चुकी हैं। व्यक्ति की अहमियत को रेखांकित करने के लिए समाज अंगड़ाई लेने लगा है। जोड़-तोड़ कर सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे शासक यह न भूलें कि विश्व की प्राय: सभी वैचारिक क्रांतियां मात्र अकेले व्यक्तियों के कारण ही सफल हुई हैं। अब चुनौती है भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर जन का। वे अब और प्रतीक्षा न करें। भ्रष्टाचार के लिए स्वयं को जिम्मेदार मान सत्ता त्याग कर जन अदालत का सामना करने की जगह शासक अब ढोंगी संत-दार्शनिक की भूमिका में आ गए हैं। ऐसे में और विलंब नहीं! निर्णय की घड़ी मान 'जनयुद्ध' का ऐलान कर दिया जाए! परिणति के रुप में तब शासन-समाज निश्चय ही स्वच्छ छवि के साथ अवतरित होगा।'

Sunday, January 30, 2011

नकली नहीं, असली गांधी बनें राहुल!

राहुल गांधी फिर भ्रमित दिख रहें हैं। कारण साफ है। सलाहकार चाहते ही हैं कि राहुल यूं ही भ्रमित दिखते रहें। जी हाँ, कांग्रेस संस्कृति का यह एक ऐसा पीड़ादायक सच है जिससे पूरा देश परिचित है। नेहरु युग के आरंभिक काल में पुत्री इंदिरा गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। तब इंदिरा गांधी को सलाहकारों ने लोकतंत्र को हाशिए पर रखकर निर्मम राजनीति का पाठ पढ़ाया था। हश्र इतिहास में दर्ज है। पॉयलट की नौकरी के दौरान स्वयं को राजनीति से कोसों दूर रखने का लगातार ऐलान करते रहनेवाले राजीव गांधी को जब प्रधानमंत्री के रुप में देश पर थोपा गया था, तब उनकी 'मिस्टर क्लीन' की छवि को सलाहकारों ने कुछ ऐसी गति दी कि जनता ने भ्रष्टाचार का मेडल उनके सीने पर जड़ कर अगले ही चुनाव (1989) में सत्ताच्यूत कर दिया था। फिर इंदिरा गांधी की तरह उन्हें भी जान की कुर्बानी देनी पड़ी थी। कांग्रेस दरबार के चाटुकारों ने तब सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की। सास और पति की 'कुर्बानी' से डरी-सहमी सोनिया ने तब सत्ता और संगठन से स्वयं को दूर रखा। चाटुकार फिर भी सक्रिय रहे। नेहरु-गांधी परिवार के अस्तित्व-भविष्य की दुहाई देकर वे सोनिया को कांग्रेस संगठन में लाने में सफल रहे। तब कवायद ऐसी हुई कि कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष सीताराम केसरी को बाथरुम में बंद कर सोनिया को अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया गया था। तब लोकतांत्रिक पद्धति से इतर कांग्रेस की विशिष्ट संस्कृति की विजय हुई थी। आज जब सोनिया पुत्र राहुल गांधी यह कहते फिर रहे हैं कि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है और कंाग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जहाँ आंतरिक लोकतंत्र है, तब टेढ़ी भौंह के साथ देश सवाल तो पूछेगा ही।
महाराष्ट्र का दौरा कर रहे राहुल गांधी वंशवाद के खिलाफ भी मुखर हैं। ऐलान करते फिर रहे हैं कि पार्टी में अब भाई-भतीजावाद नहीं चलेगा। वंशवाद के कारण योग्य पात्र अवसर से वंचित रह जाते हैं। दल में काम करनेवाले समर्पित लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। इस मुकाम पर स्वाभाविक सवाल यह कि जो राहुल गांधी स्वयं पार्टी में वंशवाद की पौध हैं, क्या वे मजबूती से जड़ जमा चुकी कांग्रेस की इस परंपरा को बदल पायेंगे? वैसे राहुल ने स्वीकार किया है कि वे स्वयं 'मजबूत राजनीतिक पारिवारिक पाश्र्व' के कारण ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं। मैं यहां राहुल की नीयत पर संदेह का लाभ देने को तैयार हूं। हां, शर्त यह अवश्य कि वे स्वयं को वचन के प्रति ईमानदार प्रमाणित करें, आदर्श स्थापित करें। इसके लिए उन्हें सोनिया गांधी के 'त्याग' से अलग 'वास्तविक त्याग' करना होगा। सत्ता-शासन से आजीवन दूर रहने की घोषणा करनी होगी। नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लेना होगा। जिस गांधी शब्द को उन्होंने अपने नाम साथ जोड़ रखा है तब उसकी सार्थकता प्रमाणित हो आदर्श के रुप में स्थापित होगी, पवित्रता कायम रहेगी। क्या राहुल इसके लिए तैयार हैं? भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए जिस तंत्र को बदलने का आह्वान राहुल कर रहे हैं, वर्तमान तंत्र का हिस्सा बनकर कभी नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी इस सचाई को जान लें कि आज उनकी कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्हें देश का भावी प्रधानमंत्री के रुप में पेश कर रहीं है, वह स्वयं उनके नए 'अवतार' को चुनौती है।
बावजूद इसके अगर वे सचमुच भ्रष्ट व्यवस्था की समाप्ति चाहते हैं, वंशवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाना चाहते हैं, जाति-धर्म-क्षेत्र-परिवार से अलग सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं तो उन्हें 'नकली गांधी' नहीं 'असली गांधी' के सच्चे अनुयायी के रुप में सामने आना होगा।
तब देशवासी सभी दु:खद, विरोधाभासी शब्द-प्रसंग भूल जायेंगे। गलती का एहसास कर समझदार सुधार कर लेते हैं। और जब बात व्यापक समुदाय-संगठन की हो तब 'आदर्श पहल' की जाती है। अर्थात् संबंधित व्यक्ति अपने कर्म से पहले स्वयं को नि:स्वार्थ, समाज के प्रति समर्पित साबित कर आदर्श स्थापित करता है। लोगों का विश्वास अर्जित करता है। समाज की नजरों में अगर वह 'सेवक' दिखा तब अनुसरण में करोड़ों पग कदमताल करने लगते हैं। आजादी पूर्व महात्मा गांधी और आजादी पश्चात् जयप्रकाश नारायण ऐसे 'आदर्श पुरुष' के रुप में स्थापित हो चुके हैं। राहुल गांधी अगर मन-वचन-कर्म से स्वयं को आदर्श प्रवर्तक के रुप में स्थापित करना चाहते हैं तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले सत्ता-शासन से दूर नि:स्वार्थ देश सेवा का व्रत लें। देशवासी उन्हें अपने कंधों पर बिठा लेंगे। क्या राहुल इसके लिए तैयार होंगे???

Sunday, January 23, 2011

प्रधानमंत्रीजी! धिक्कार है आपके भारतीय होने पर!

क्या हो गया है हमारे देश के विद्वान प्रधानमंत्री को! क्या वे किसी दबाव में हैं? किसी अदृश्य ताकत के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन गए हैं? ऐसे असहज सवाल से आज पूरा देश रूबरू है। शंका के आधार मौजूद हैं। भला भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री अपने ही देश के एक प्रदेश में राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराने के उपक्रम को 'राजनीति' से कैसे जोड़ सकता है? गणतंत्र दिवस पर देश के एक भाग में कोई तिरंगा फहराना चाहता है तो वह विभाजनकारी एजेंडा कैसे हो गया? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को इसका जवाब देना होगा। वे स्पष्ट करें कि उनकी पार्टी और सरकार जम्मू-कश्मीर को भारत का अंग मानती है या नहीं? यह जिज्ञासा दु:खदायी तो है किंतु इसके लिए प्रेरित स्वयं प्रधानमंत्री ने किया है। भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा द्वारा श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस के दिन तिरंगा फहराने के कार्यक्रम पर आपत्ति जड़ प्रधानमंत्री ने राष्ट्रविरोधी अलगाववादी ताकतों का साथ दिया है। डॉ. मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री पद पर आसीन विद्वान व्यक्ति अनजाने में तो ऐसी टिप्पणी नहीं कर सकता। सो इन्हें संदेह का लाभ भी नहीं मिल पाएगा। तिरंगा फहराने के कार्यक्रम को 'राजनीतिक फायदा' निरूपित कर उन्होंने वस्तुत: स्वयं राजनीति की हैं। जम्मू-कश्मीर के मामले में संयम बरतने की उनकी सलाह प्रधानमंत्री पद की गरिमा के विपरित है। इस क्रम में वे अपनी पार्टी द्वारा बार बार देश की एकता और अखंडता के पक्ष में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुर्बानी की याद दिलाए जाने की बात भूल गए। वे भूल गए कि उनका प्रदेश पंजाब जब अलगाववादी आतंक की आग में झुलस रहा था तब इंदिरा गांधी ने कड़े कदम उठाते हुए अलगाववादियों को कुचल डाला था। परिणति के रूप में उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े थे। शहीद हो गई थीं वे। फिर आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जम्मू-कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष घुटने क्यों टेक रहे हैं। तिरंगा फहराने का विरोध कर वे जम्मू कश्मीर को भारत से अलग चिन्हित कर रहे हैं। निश्चय ही इससे पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों की बांछें खिल गई होंगी। यही तो चाहते हैं वे। क्या प्रधानमंत्री चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर अंतरराष्ट्रीय विवाद का मुद्दा बन कालांतर में भारत के एक और विभाजन का कारण बने। अगर प्रधानमंत्री की ऐसी नीयत है तब न तो उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने का हक है और न ही भारतीय। क्या वे ऐसी अवस्था के लिए तैयार हैं? अगर हां, तो वे तत्काल प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर किसी और देश में शरण ले लें। अगर नहीं, तो वे देश से क्षमा मांग ले और तिरंगा फहराए जाने का विरोध करने वाले जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की सरकार को तुरंत बर्खास्त कर दें। उमर के पिता फारूख अब्दुल्ला को केंद्रिय मंत्रिमंडल से निकाल बाहर कर दोनों पिता-पुत्र को गिरफ्तार कर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाएं। जब विनायक सेन देश के नक्सवादियों से संपर्क रखने के कारण राष्ट्रद्रोही घोषित कर दंडित किए जा सकते हैं, तब विदेशी आतंकवादियों के मनसूबों का साथ देने वाले क्यों नहीं? अगर ऐसा नहीं हुआ, तो क्षमा करेंगे, देशवासी धिक्कारेंगे प्रधानमंत्री भारतीय होने पर!

Saturday, January 22, 2011

जिसके पास 'बोफोर्स' वही राजा, वही रानी!

पूरे संसार के काले धन अर्थात बेईमानी के धन को अपने यहां सहेजकर रखनेवाला स्वीटजरलैंड धरती के स्वर्ग के रुप में विख्यात है। फिर इस कहावत पर चकित क्या होना कि बेईमानी का धन रखनेवाले ही फलते-फूलते हैं। ईमानदार पसीना बहाते रहें, खून सुखाते रहें, समाज में वे दीन-हीन ही बने रहते हैं। ईमानदार के रूप में कोई अगर चर्चित हुआ, तो पीठ पीछे उसे मूर्ख या विदूषक निरुपित करनेवालों की संख्या गिनी नहीं जा सकती। इस विलाप को किसी ओर ने नहीं स्वयं हमारे महान देश के ईमानदार अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंमत्रित किया है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 21 लाख हजार करोड़ रुपए काले धन के रुप में हमारे देश के कुछ महान लोगों ने विदेशी बैंकों में जमा करवा रखे हैं। इस धन को भारत वापस लाने और जमाकर्ताओं पर कार्रवाई करने की मांग संबंधी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी से बेचैन केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में चर्चा हुई। कुछ मंत्रियों की जिज्ञासा पर सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा के अनुरुप ही प्रधानमंत्री ने दो-टूक शब्दों में कह डाला कि सरकार के पास काले धन जमा करानेवालों के नाम तो उपलब्ध हैं किंतु वे बतायेंगे नहीं। दलील वही पुरानी कि खातों के बारे में जानकारी बाहरी सरकारों ने इसी शर्त पर उपलब्ध कराई है कि उनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जायेंगे। अगर उन नामों का खुलासा कर दिया तब भविष्य में विदेश की कोई सरकार हमें ऐसी जानकारी नहीं देगी। हां, सरकार इन लोगों से टैक्स अवश्य वसूलेगी। सरकार की ओर से बार-बार दिए जा रहे तर्क को स्वीकार करने को देश तैयार नहीं। भारत सरकार का रवैया बिल्कुल हास्यास्पद है, बल्कि देशहित के खिलाफ है। विदेशी बैंको में जमा काले धन को टैक्स चोरी के रुप में लेकर भारत सरकार आखिर क्या संदेश देना चाहती है। कहीं यह तो नहीं कि चोरी-डकैती करते रहो, सिर्फ टैक्स भर दो, अपराध माफ !!! यह तो चोरी-डकैती रोकने की जगह उसे बढ़ावा देना हुआ। काले धन को जप्त करने, खाताधारकों को जेल भेजने की जगह उनसे टैक्स मात्र वसूल करने की बात करनेवाली सरकार देश की अर्थव्यवस्था को चौपट नहीं कर रही? जिस कथित संधि की आड़ में सरकार देश को लुटनेवालों का बचाव कर रही है, उस संधि को तोड़ क्यों नहीं दिया जाता? विदेशी बैंक कालाधन जमा करनेवालों की गोपनीयता संबंधी शर्त तब स्वत: तोड़ देंगे, और तब भारत सरकार विदेशी बंैकों को वहां की सरकारों के माध्यम से कह सकती है कि वे भारतीयों के खाते या तो न खोलें या भारत सरकार की पूर्वानुमति ले लें। पारदर्शिता की ऐसी अवस्था में राष्ट्रीय संपत्ति को लूटनेवाले विदेशी बैंकों का सहारा ले ही नहीं पायेंगे। भारत के उपर विदेशी कर्ज से लगभग 13 गुना अधिक विदेशी बैंको में जमा भारतीय काला धन क्या इस बात का आग्रही नहीं कि उसे तत्काल भारत वापस लाया जाए? इस प्रक्रिया में किसी भी तकनीकी अड़चन या संधि को सरकार स्वीकार न करें। बकौल सुप्रीम कोर्ट जब यह विशाल धनराशि राष्ट्रिय संपत्ति है, जिसे लुटा गया है, तब सभी कथित बंधनों को तोड़ यह धन भारत वापस लाया ही जाना चाहिए। भारत सरकार जिस प्रकार काले धन के अपराधियों का बचाव कर रही है उससे अनेक गलत संदेश समाज में जा रहे हैं। पूरे देश में चर्चा गरम है कि विदेशों में जमा काला धन किसी और के नहीं बल्कि राजनीतिक दलों एवं सत्ता से जुड़े बड़े-बड़े नेताओं, नौकरशाहो और बड़े व्यापारियों का है। लोग तो अब खुलकर यह भी कहने लगे हैं कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार सहित विपक्ष के भी बड़े नेताओं ने विदेशों में कालेधन जमा करा रखे हैं। ऐसी अवस्था में देश सचाई जानना चाहेगा। सत्ता-शासन की कमान संभाल रहे लोग लोकप्रतिनिधि हैं, कोई राजा या रानी नहीं। वे सभी लोक अर्थात जनता के प्रति जिम्मेदार हैं। फिर जनता को अंधकार में क्यों रखा जा रहा है? यह सरकार की ढुलमुल व रहस्य पूर्ण आचरण ही है कि लोग-बाग अब यह मान बैठे हैं कि जिसके पास जितना बड़ा 'बोफोर्स', वही राजा और वही रानी! क्या प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इस मंतव्य पर सरकारी मुहर लगाना चाहेंगे? देश को जवाब चाहिए।

Thursday, January 20, 2011

देशद्रोही हैं काले धन के ये व्यापारी !

यह समझ से बिलकुल परे है और अनेक संदेहों का आमंत्रक है। आखिर भारत सरकार देश के खजाने को लूट विदेशी बैंकों में जमा कराने वाले 'डकैतों' के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं करना चाहती? शासन में पारदर्शिता का तो तकाजा है ही, लोकतांत्रिक अपेक्षा भी है कि सरकार उन 'डकैतों' के नाम न केवल सार्वजनिक करे, उन्हें कठोर दंड भी दे। देश की जनता को यह जानने का अधिकार है कि उनकी खून-पसीने की कमाई को लूटनेवाले कौन है! उनके सफेद धन को काले धन में परिवर्तित कर विदेशी बैंको में जमा करानेवाले राष्ट्रद्रोही कौन हैं? देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करनेवाले नकाबपोश आखिर हैं कौन? पूरे संसार में भारत देश को भ्रष्टतम की श्रेणी में रखनेवाले लोगों के चेहरों को सरकार बेनकाब क्यों नहीं करना चाहती? निश्चय ही केंद्र सरकार का यह रवैया देशहित के विरुद्ध है।
सर्वोच्च न्यायालय में सरकार की ओर से कहा गया कि वह विदेशी बैंकों में पैसे जमा करानेवालों के नाम कोर्ट को तो बता सकती है। मगर सार्वजनिक नहीं कर सकती, देश स्तब्ध रह गया। साफ है कि सरकार की नीयत में खोट है। यह तो सभी समझते हैं कि विदेशी बैंकों में धन कोई साधारण व्यक्ति जमा नहीं करा सकता। ऊंची पहुंच वाले, सामथ्र्यवान ही ऐसा कर सकते हैं। सरकार की हिचक का कारण भी स्पष्टत: यही है। वह ऐसे प्रभावशाली लोगों को बचाना चाहती है। यह न केवल सामथ्र्यवानों का बचाव है बल्कि राष्ट्रद्रोही हरकत भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन राष्ट्रीय संपत्ति की लूट है। ऐसे लुटेरों को आखिर भारत सरकार सामने क्यों नहीं लाना चाहती? सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे काले धन के आतंकी गतिविधियों में इस्तेमाल किए जाने की आशंका जगाकर मामले को और भी गंभीर बना दिया है। अगर आतंकवादियों द्वारा ऐसे धन के इस्तेमाल की बात पुष्ट होती है, तब क्या स्वयं भारत सरकार आतंकवादियों की सहयोगी नहीं बन जाएगी? वैसी स्थिति में निश्चय ही सरकार सत्ता में बने रहने का हक खो देगी। अपराधी कही जाएगी वह! आरोप है कि स्विस बैंकों में लगभग 21 लाख हजार करोड़ रुपए की राशि कुछ भारतीयों के नाम जमा है। क्या यह बताने की जरूरत है कि इस राशि के भारत में वापस लाए जाने के बाद देश की अर्थव्यवस्था सकारात्मक करवट ले विकास के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर देगी! धनाभाव में रुकी योजनाएं दु्रत गति से अपने लक्ष प्राप्त कर लेंगी! इसी बात का तो अचरज है कि इन सब बातों की जानकारी के बावजूद भारत सरकार काले धन के अपराधियों का अब तक बचाव करती रही है। भारत सरकार की 'सीमा' संबंधी दलीलें किसी के गले उतरने वाली नहीं। देश हित के मार्ग में किसी सीमा, किसी संधि को स्वीकार नहीं किया जा सकता। साफ और सीधी बात यह है कि काले धन के इन व्यापारियों का बचाव कर सरकार देश के साथ छल कर रही है। खोट भरी अपनी नीयत से देश का अहित कर रही है। किसी लोकतांत्रिक देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ऐसा अधिकार कतई नहीं। अब भी समय है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश-अपेक्षा को राष्ट्रीय भावना समझ भारत सरकार अविलंब राष्ट्रीय संपत्ति को लूटनेवाले चेहरों को बेनकाब कर दे। अन्यथा दुखित-पीडि़त लोकतंत्र ने अगर अंगड़ाई ले ली तो उसके नीचे वे दब-कुचल जायेंगे।

Saturday, January 15, 2011

फिर फिसले मुलायम-बुखारी!

चलो, यह भी खूब रही। राजनीति के अखाड़े में तेजी से हाशिए की ओर बढ़ रहे मुलायम सिंह यादव को फिर बांग देने का मौका मिल गया। दिल्ली में जंगपुरा में अवैध रूप निर्मित नूर मस्जिद को प्रशासन ने ध्वस्त किया नहीं कि मुलायम की धर्मनिरपेक्षता ने जोर मारा और उन्हें अचानक अयोध्या के विवादित बाबरी ढांचे की याद आ गई। बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव के हश्र को देखते हुए बेचैन मुलायम नूर मस्जिद में अपने लिए नूर ढूंढऩे लगे। ताबड़तोड़ कांग्रेस पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप मढ़ दिया। मरहूम राजीव गांधी को कोस डाला कि उन्होंने वर्षों से बंद अयोध्या राम मंदिर का ताला क्यों खुलवा दिया था और नरसिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में कथित बाबरी मस्जिद कैसे ढहा दी गई। मुसलमानों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मुलायम कट्टरपंथी मौलाना बुखारी की शरण में पहुंच गए। कांग्रेस को संाप्रदायिक सौहार्द्र बिगाडऩे का दोषी करार देने वाले मुलायम के लिए मेरे दिल में सहानुभूति उमड़ रही है। उनके शब्दों का कोई खरीददार जो सामने नहीं आ रहा है। लेकिन देशहित के प्रति यह एक शुभ संकेत है। अयोध्या के राम मंदिर-बावरी मस्जिद विवाद पर अदालती फैसला आने के बाद सभी पूर्व आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए देश की हिंदू-मुस्लिम आबादी ने जिस प्रकार संयम का परिचय दिया था, ठीक इसी प्रकार के संयम का परिचय दिल्लीवासियों ने दिया। अन्यथा मुलायम-बुखारी की मंशा तो दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक देने की थी। लेकिन यह ताजा प्रकरण सिर्फ मुलायम-बुखारी तक सीमित नहीं है। स्वयं को धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार व अल्पसंख्यकों का हितैशी बताने वाली कांगे्रस नेतृत्व से मैं यह पूछना चाहूंगा कि दिल्ली प्रदेश की कांग्रेसी सरकार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अदालती आदेश पर अवैध मस्जिद को गिराने के बाद भी लोगों को उस जमीन का इस्तेमाल करने और वहां नमाज अदा करने के लिए जामा मस्जिद के शाही इमाम सय्यद अहमद बुखारी के साथ मिलकर लोगों को हिंसक रूप से भड़काने की कोशिश क्यों की? धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विपरीत क्या शीला सांप्रदायिक राजनीति नहीं कर रही हैं? जंगपुरा क्षेत्र के लोग गवाह हैं शीला दीक्षित की कानून विरोधी हरकत की और सांप्रदायिकता को हवा देने की। अगले वर्ष पड़ोसी उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में सांप्रदायिक आधार पर अगर शीला अपनी कांग्रेस पार्टी के लिए जमीन तैयार करने की मंशा रखती हैं तो बेहतर है वे बिहार चुनाव की याद कर लें। बिहार के जागरूक मतदाता ने सभी सांप्रदायिक ताकतों और बाहुबलियों को उनकी औकात बता दी थी। अब का युवा मतदाता तो सांप्रदायिक आधार पर समाज को बांटने वाले तत्वों से घृणा करने लगा है। सभी राजनीतिक दल इस सचाई को जान लें, विशेषकर कांग्रेस। क्योंकि यह कड़वा सच इतिहास में दर्ज है कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी मुसलमानों का इस्तेमाल एक वोट बैंक के रूप में करती रही है। पार्टी ने उस वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से दूर रखा। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता दिखावे के लिए यदा-कदा बड़े ओहदे उन्हें दिए गए लेकिन अल्पसंख्यंकों के उत्थान के लिए न तो कभी गंभीर प्रयास हुए न ही उन्हें अपेक्षित सम्मान मिला। इन तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद अगर शीला दीक्षित अल्पसंख्यकों को दिल जीतने के लिए अदालत की अवमानना करती हुईं ढहा दिए गए अवैध मस्जिद के पक्ष में खड़ी होती हैं तो शायद कांग्रेस की चाटुकार नीति से मजबूर होकर ही। संभवत: वे याद कर रही होंगी राहुल गांधी के उस बयान की जो उन्होंने उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में दिया था। तब कथित चुनाव में दिया था। तब कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के उपक्रम को आगे बढ़ाते हुए राहुल गांधी ने कहा डाला था कि अगर नेहरू-गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो बाबरी विध्वंस नहीं होता। राहुल का वही वक्तव्य शीला की परेशानी का सबब बना है। इस बार मस्जिद उस दिल्ली में गिराई गई जहां सरकार कांग्रेस की है और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हैं। बेचारी शीला अल्पसंख्यक समाज में मौजूद कट्टरपंथियों को यह तो नहीं बता सकतीं कि इसके लिए जिम्मेदार भाजपा-संघ परिवार अथवा शिवसेना है। अब यह कोई न कहे कि बाबरी मस्जिद तो बड़ा था, नूर मस्जिद छोटा है। मस्जिद या मंदिर छोटे-बड़े नहीं होते। आस्थाएं तो सड़क किनारे पड़े एक पत्थर में भी ईश्वर-अल्लाह ढूंढ़ लेती हैं।

काले धन के ये काले संरक्षक!

एक सीधा सवाल देश के हुक्मरानों से! कहां गई उनकी बहुप्रचारित शासन में पारदर्शिता? कथित रूप से पारदर्शिता लाने का श्रेय लेने वाली भारत सरकार जवाब दे कि जब चोर सामने हैं, उनके नाम-पता की पूरी जानकारी उन्हें है, तब फिर उनके पैर-हाथ में हथकडिय़ां क्यों नहीं डाली जा रहीं? उन्हें कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया जा रहा? अगर सचमुच हमारी एक लोकतांत्रिक सरकार है, पारदर्शी सरकार है तब निश्चय ही देश की जनता को इन चोरों के नाम-पते जानने का हक प्राप्त है। भारत सरकार इस अधिकार से जनता को वंचित क्यों कर रही है? देश को विश्वास में क्यों नहीं लिया जा रहा है? हमें जवाब चाहिए। विदेशी बैंकों में कालाधन रखने वाले भारतीयों के खिलाफ कार्रवाई और वैसे धन की भारत वापसी संबंधी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और फिर देश की जनता यह जानकर हतप्रभ रह गई कि कम से कम जर्मन सरकार वहां की बैंकों में काले धन जमा करवाने वाले भारतीयों की सूची तो भारत सरकार को उपलब्ध करा चुकी है, किन्तु सरकार किन्हीं कारणों से उसे सार्वजनिक नहीं कर रही है। क्या यह पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप है? कदापि नहीं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट हैरान है कि नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए जा रहे हैं। उनके नाम सार्वजनिक कर दिए जाने चाहिए। बावजूद इसके भारत सरकार हिचक रही है। उसका कहना है कि जर्मनी के साथ एक संधि के तहत वे उन नामों को सार्वजनिक नहीं कर सकते। सरकार की इस दलील को देश स्वीकार नहीं करेगा। यह कैसी संधि जो अपने देश के पैसे को कालाधन बना विदेशी बैंकों में जमा करवाने वालों को संरक्षण प्रदान करे! यह तो न केवल ऐसे काले धन धारकों का बचाव है बल्कि देश के साथ विश्वासघात भी है। देश के कानून के साथ धोखा भी है यह। पूरी की पूरी न्याय प्रक्रिया को ठेंगा दिखा भारत सरकार इन चोरों को बेनकाब करने से आखिर क्यों हिचकिचा रही है? लगभग 20 लाख करोड़ रुपए को काला धन बना विदेश भेज देने वाले लोग देशद्रोही ही तो हैं। काले धन से समानान्तर अर्थव्यवस्था का संचालन करने वाले ऐसे 'कालिए' ही देश की चरमराती अर्थव्यवस्था के जिम्मेदार हैं। ध्यान रहे, यह मामला केवल टैक्स चोरी का नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को चूर-चूर करने का षड्यंत्र है। यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसका दायरा व्यापक है। फिर इन्हें दंडित किए जाने की जगह सरकार संरक्षण प्रदान क्यों कर रही है? देश के अर्थशाी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इस मामले की गंभीरता व दुष्परिणाम से अनजान नहीं हो सकते। चूंकि विदेशी बैंकों में भारतीय खाताधारकों के नाम सरकार को मिल गए हैं, अविलंब मामले दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया जाए। कुछ दिनों पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से आश्वासन दिया गया था कि काले धन के राज से पर्दा उठा कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लेकिन विगत कल शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने जिस प्रकार खाताधारकों को संरक्षण प्रदान करने की कोशिश की, उससे निराशा हुई है। फिर भी सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख से ऐसी आशा बंधी है कि अंतत: सरकार झुकेगी और काले धन के पोषकों के चेहरों से नकाब उतर जाएंगे। अगर सरकार सचमुच देश की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के पक्ष में विदेशों में जमा काले धन को वापस भारत लाने में सफल रहती है, खाताधारकों को दंडित करती है तब वह देश हित में अपनी अच्छी नीयत को रेखांकित करेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो शासक वर्ग यह हृदयस्थ कर ले कि देश की जनता वैसे अपराधियों के साथ-साथ उन्हें संरक्षण प्रदान करने वाली सरकार को दंडित करने में भी सक्षम है।

Friday, January 14, 2011

चोरों की बारात का दूल्हा!

पागल न तो राहुल गांधी हैं, न डी.पी. त्रिपाठी हैं और न ही प्रफुल्ल पटेल हैं। मूर्ख भी नहीं हैं ये। दोष राहुल गांधी का है कि उन्हें डी.पी. त्रिपाठी ने 'इटलीÓ की याद दिला दी। राहुल की मां सोनिया गांधी के विदेशी (इटली) मूल को मुद्दा बना कांग्रेस का त्याग करने वाले शरद पवार भले ही राजनीतिक सुविधा अथवा मजबूरी के कारण कांग्रेस के सहयोगी बन गए हों, किंतु उनके सीने का दर्द कम नहीं हुआ है। उनकी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस के अधिकृत प्रवक्ता डी.पी. त्रिपाठी ने जब टिप्पणी की कि गठबंधन धर्म को समझने के लिए राहुल गांधी को कम से कम इटली पर तो नजर डाल लेनी चाहिए थी, तो वस्तुत: शरद पवार के दर्द को ही रेखांकित किया गया था। कांग्रेस छोडऩे और सन् 2004 में कांग्रेस नेतृत्व की संप्रग सरकार में शरद पवार के मंत्री बनने के बाद पहली बार उनकी पार्टी की ओर से इटली शब्द का उच्चारण किया गया। स्वयं को राजनीतिक रूप से परिपक्व घोषित कर चुके राहुल गांधी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे वस्तुत: अपरिपक्व ही हैं। कमरतोड़ महंगाई और कीर्तिमान स्थापित करते भ्रष्टाचार के आरोपों से भयभीत कांग्रेस अब पूर्णत: बचाव की मुद्रा में आ गई है। कांग्रेस की ओर से अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी तर्क-कुतर्क देकर स्थिति संभालने का असफल प्रयास करते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की ओर से घोषित भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने सब गुडग़ोबर कर दिया। पता नहीं किस मूर्ख की सलाह पर उन्होंने टिप्पणी कर दी कि गठबंधन की मजबूरियों के कारण महंगाई बढ़ी है। यह समझ से परे है कि महंगाई का गठबंधन की राजनीति से क्या संबंध है। गठबंधन की मजबूरियां निश्चय ही नीति निर्धारण को प्रभावित करती रही हैं। किंतु खाद्य पदार्थों सहित अन्य वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि के कारण कुछ और ही होते हैं। 1974-75 में तो इंदिरा गांधी नेतृत्व की कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि तब खाद्य पदार्थों की कीमत आसमान छूने लगी थी। महंगाई के लिए गठबंधन की राजनीति को जिम्मेदार बताने वाले राहुल गांधी को गठबंधन धर्म की परिभाषा और इससे जुड़े उद्धरण की जानकारी लेनी चाहिए। जब भाजपा के अटल बिहारी के नेतृत्व में लगभग 2 दर्जन दलों की गठबंधन सरकार बनी थी, तब स्वयं प्रधानमंत्री वाजपेयी ने देश को बता दिया था कि सरकार जिस एजेंडे को लेकर चल रही है, वह अकेले भाजपा का एजेंडा नहीं है बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का एजेंडा है। संविधान की धारा 370 को हटाने और राम मंदिर निर्माण की मांग पर उन्होंने ऐसा नीतिगत स्पष्टीकरण दिया था। लेकिन राजनीतिक रूप से घोर अपरिपक्व राहुल गांधी चूंकि चाटुकार सलाहकारों से घिरे हैं, जब भी मुंह खोलते हैं, नई-नई दुर्घटनाओं से उनका सामना हो जाता है। विशेषकर जब भी वे राजनीतिक रूप से गंभीर होने का स्वांग रचते हैं, उन्हें मुंह की खानी पड़ती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी के दर्शन से अनजान राहुल गांधी की ताजा कवायद ने उनकी मां सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे की दबी चिंगारी को ही हवा दे डाली। जिस युवा वर्ग के बलबूते राहुल सत्ता का नेतृत्व हथियाना चाहते हैं, वह युवा वर्ग किसी व्यक्तित्व के करिश्मा या स्टंट से प्रभावित नहीं होता। मैं यहां राहुल गांधी को हतोत्साहित करना नहीं चाहता। उनका श्रम, उनका उत्साह सराहनीय है। किंतु, उन्हें यह समझना होगा कि जिस बारात का नेतृत्व वे करना चाहते हैं, फिलहाल उसमें कतिपय अपवाद छोड़ चोरों की भरमार है। कोई आश्चर्य नहीं कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली केंद्र सरकार है, जिस पर प्राय: हर दिन भ्रष्टाचार में नए-नए आरोप लग रहे हैं। अत्यंत ही शातिर यह जमात अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए (देश हित की कीमत पर ही सही) बैंड-बाजे, रोशनी, आतिशबाजी की व्यवस्था कर एक ऐसे दूल्हे की तलाश में रहती है जो बारात की शोभा बढ़ा सके। बेनकाब ये बाराती नेहरू-गांधी परिवार के सामने नतमस्तक हो चरणवंदना करते हैं तो इस जरूरत की पूर्ति के लिए ही। अब फैसला राहुल गांधी करें कि चोरों की इस बारात का दूल्हा वे बनना चाहेंगे!

Wednesday, January 12, 2011

नौकर थे, नौकर हैं, नौकर ही रहेंगे!

अपने देश के प्रधानमंत्री को ऐसे आपत्तिजनक शब्द से नवाजा जाना सुसंस्कृत कतई नहीं। हमारी संस्कृति-सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। प्रधानमंत्री के अनादर की ऐसी कवायद को किसी विकृत मस्तिष्क की करतूत भी कह सकते हैं। किन्तु, जब पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर हाहाकार मचा हो, समाज का हर क्षेत्र अभिशप्त दिख रहा हो, लोकतंत्र के पाये लडख़ड़ा रहे हों, संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता जमीन चाटती दिखे, अनुशासनहीनता पराकाष्ठा पर हो, चहुंओर अराजकता का बोलबाला हो, तब जिम्मेदारी सुनिश्चित किये जाने की प्रक्रिया के बीच असहज स्थिति का पैदा होना स्वाभाविक है। फिर असहज, असंस्कृत या फिर असभ्य श्रेणी के शब्दों का इस्तेमाल दिखे तो इसे अस्वाभाविक भी कैसे कह सकते हैं! पिछली रात दिल्ली के एक जिम्मेदार (निश्चय ही इमानदार भी) पत्रकार फोन पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को 'नौकर' के रूप में संबोधित कर रहे थे। तब संस्कृति से इतर उठी पीड़ा के कुछ और भी कारण थे। स्पष्ट कर दूं कि 'नौकर' जनता के नौकर के रूप में प्रतिपादित नहीं था, एक दुखद 'मानसिकता' को चिन्हित किया जा रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और भारतीय प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार के अलावा विश्व बैंक में काम कर चुके डा. मनमोहन सिंह सचमुच विशुद्ध 'नौकर मानसिकता' को ढोने वाले साबित हो रहे हैं। आज जब उनकी पार्टी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी महंगाई के मोर्चे पर सरकार की विफलता के लिए गठबंधन की राजनीति पर दोष मढ़ रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए कि हर मोर्चे पर विफल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बचाव किया जा सके। बात कड़वी लग सकती है। किन्तु इस कड़वे सच को दोहराना जरूरी है कि सन 2004 से प्रधानमंत्री पद पर आसीन डा. मनमोहन सिंह सिर्फ अपनी नेता के एजेंडे को लागू करने के प्रति गंभीर रहे। व्यक्तिगत रूप से उनकी नीयत, उनकी इमानदारी, उनके देशप्रेम पर संदेह नहीं किया जा सकता। लेकिन वैसी इमानदारी किस काम की, जिससे पूरी की पूरी सरकार भ्रष्टाचार के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करती दिखे, पूरा देश कमरतोड़ महगाई के तले सिसकने को मजबूर हो। जरा याद कीजिए 1991 के उन दिनों को, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने मनमोहन सिंह को देश का वित्तमंत्री नियुक्त किया था। तब उनकी नई उदारवादी आर्थिक नीति का कुछ ऐसा ढिंढोरा पीटा गया था जैसे आर्थिक क्षेत्र की नई क्रांति से आने वाले दिनों में देश में सिर्फ खुशहाली-खुशहाली का आलम होगा। लेकिन तभी गंभीर तटस्थ आर्थिक समीक्षकों ने चेतावनी दी थी कि मनमोहन सिंह की नई आर्थिक नीति से देश में मुद्रा स्फीति बढ़ेगी और आम जनता के सामने परेशानियों का अंबार खड़ा हो जाएगा। अगर मुझे ठीक से याद है तो समीक्षकों ने ऐसी दु:स्थिति के लिए 20 वर्ष की सीमा भी निर्धारित कर दी थी। आज 20 वर्षों बाद क्या हम ऐसी दु:स्थिति से नहीं गुजर रहे! आश्चर्य है कि तब अर्थशास्त्री वित्तमंत्री और अब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ऐसी स्थिति को क्यों नहीं भांप पाए थे। संदेह इस मुकाम पर प्रगाढ़ हो जाता है। एक अर्थशास्त्री के रूप में डा. मनमोहन सिंह की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि आज देश उनकी नीयत पर शक कर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री निश्चय ही कुशलतापूर्वक अपने गुप्त एजेंडे को अंजाम देते रहे- लागू करने में सफल रहे। दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोहन धारिया अनेक अवसरों पर मनमोहन सिंह की नीति और नीयत को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं। एक अवसर पर चंद्रशेखर ने झल्लाकर टिप्पणी की थी कि मनमोहन सिंह के सुझावों पर अगर मैं अमल करता तो देश के साथ धोखा होता। खेद है, आज सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सच्चाई से मुंह मोड़ जनता के साथ धोखा कर रहा है। कुछ कारपोरेट घरानों, नौकरशाहों, राजनीतिकों का 'घर' भरने के लिए आम जनता की जेबें खाली की जा रही हैं।

Tuesday, January 11, 2011

... अब कपिल सिब्बल भी इस्तीफा दें!

नैतिकता का तकाजा है कि केंद्रीय संचार मंत्री कपिल सिब्बल अविलंब अपने पद से इस्तीफा दे दें। यह सोच पूरे देश की है, जिसे मैं यहां शब्दांकित कर रहा हूं - बगैर किसी पूर्वाग्रह के। यह कोई निजी मांग नहीं, किसी विचारधारा विशेष की उपज नहीं। चूंकि तत्कालीन केंद्रीय संचार मंत्री ए. राजा को इस्तीफा देना पड़ा था 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले के आरोप लगने पर, अब जबकि नये संचार मंत्री सिब्बल ऐसे किसी घोटाले से इन्कार कर रहे हैं, उन्हें पद पर बने रहने का अधिकार नहीं। सिब्बल का यह कदम भ्रष्टाचार को संवैधानिक स्वीकृति प्रदान करने के समान है। आजाद भारत के इतिहास में इस सबसे बड़े घोटाले की जांच का आदेश भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है। संसद की लोकलेखा समिति उस 'कैग' रिपोर्ट पर मंथन कर रही है जिसने घोटाले का खुलासा किया था। पूरा का पूरा विपक्ष घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से कराने की मांग पर अड़ा है। संसद में इसे लेकर गतिरोध कायम है। ऐसे में एक जिम्मेदार (?) केंद्रीय मंत्री का ऐसा बयान! यह न केवल सर्वोच्च न्यायालय बल्कि भारतीय संसद की अवमानना का भी मामला है। सिब्बल भले ही तर्क-कुतर्क देते रहें, यह साफ है कि उन्होंने घोटाले की जांच को प्रभावित करने की कोशिश की है, पूर्व मंत्री ए. राजा को बचाने की कोशिश की है। यह तो सर्वोच्च न्यायालय और संसद को चुनौती भी है। एक ऐसा मामला जिसकी सीबीआई जांच सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किए जाने संबंधी सुझाव स्वयं केंद्र सरकार दे चुकी है, एक मंत्री मामले पर फैसला सुना रहा है।
क्या हम प्रधानंमत्री डा. मनमोहन सिंह से आशा करें कि वे तत्काल कदम उठाते हुए या तो कपिल सिब्बल से इस्तीफा ले लें या फिर उन्हें बरखास्त कर देंगे? इसके पूर्व किसी केंद्रीय मंत्री ने कभी भी भारतीय संसद और सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी अवमानना नहीं की थी। लोकलेखा समिति के अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी और जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने बिल्कुल सही आलोचना की है। यह आश्चर्यजनक है कि दूरसंचार सचिव जब पीएसी के समक्ष पेश हुए थे, तब उन्होंने स्पेक्ट्रम आवंटन में संभावित नुकसान के आंकड़े पर कभी सवाल नहीं उठाया। विभागीय सचिव के विपरीत मंत्री सिब्बल ने नुकसान के आंकड़े को झूठा और काल्पनिक निरूपित कर स्वयं को मंत्री पद के अयोग्य प्रमाणित कर दिया है। इससे साथ ही सिब्बल ने अपने आचरण से केंद्र सरकार और अपनी कांग्रेस पार्टी को भी संदेहो के घेरों में ला दिया है। यह उचित समय है जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपनी चुप्पी तोड़ सिब्बल को तो पदमुक्त कर ही दें, स्पेक्ट्रम घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच को भी मंजूरी दे दें।

Sunday, January 9, 2011

सोनिया गांधी की 'नीयत' व चुनौती!

अगर सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने कथित संकल्प को अमली जामा पहनाना चाहती हैं, तो चुनौती है उन्हें कि वे पहले 'सीजर पत्नी' की भूमिका में स्वयं को पाक-साफ साबित करें। इमानदार, निर्दोष नेतृत्व ही सत्ता-समाज, दल-देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला सकता है, भ्रष्टाचारियों को दंडित कर सकता है। क्या सोनिया गांधी इसके लिए तैयार हैं? अगर हां तो पहली चुनौती यह कि वे बोफोर्स रिश्वत कांड संबंधी मामलों को बंद करने के 'सरकारी निर्णय' को वापस लें। इतालवी आरोपी ओत्तावियो क्वात्रोकी का प्रत्यर्पण करवा उसे भारत लाया जाए, गिरफ्तार किया जाए, मुकदमा चलाया जाए। क्या सोनिया गांधी ऐसा करने को तैयार हैं? कानून को अपना काम करते रहने की दुहाई देते रहने वाली सोनिया गांधी अगर ऐसा करती हैं तो इतिहास का निर्माण करेंगी। यह तथ्य सर्वविदित है कि सन 2004 के लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बावजूद शिवराज पाटिल को केंद्र में गृहमंत्री पद पर 'नियुक्त' किया था तो एक विशेष एजेंडा के तहत। क्या यह दोहराने की जरूरत है कि वह एजेंडा ही था बोफोर्स कांड को मौत देने का और क्वात्रोकी को मुक्त कराने का। एजेंडा था, बोफोर्स कांड में संदिग्ध राजीव गांधी को निर्दोष साबित करवाने का। निष्ठावान शिवराज पाटिल ने एजेंडे को क्रियान्वित करते हुए क्वात्रोकी को बाइज्जत स्वदेश लौटवा दिया, उसके जब्त बैंक खातों को खुलवा दिया। सीबीआई ने कानूनी दांव-पेंच के ऐसे खेल खेले कि क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण संबंधी हर कानूनी मोर्चे पर भारत को शिकस्त मिलती रही। गृह मंत्रालय के अधीन सीबीआई कोई सबूत नहीं जुटा सकी। उसने अदालत में मामला बंद करने की अर्जी लगा दी। चूंकि सोनिया गांधी के पति तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स रिश्वत कांड के प्रकाश मेें आते ही (1987 में) संसद में बयान दे चुके थे कि बोफोर्स तोप खरीदी में कोई घोटाला नहीं हुआ, कोई रिश्वत या कमीशन का लेन-देन नहीं हुआ है, सरकारी जांच एजेंसियां उसी लाइन पर चलती रहीं। लेकिन घोटाले की सत्यता के प्रति आश्वस्त देश की जनता ने अपना फैसला सुना दिया। घोटाले के तत्काल बाद हुए 1989 के चुनाव में जनता ने राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका। जनता की अदालत का वह फैसला भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को कड़ी चेतावनी थी। लेकिन नहीं। राजदल भला ऐसी घटनाओं से सीख कैसे लें? सिर्फ बीते वर्ष के कालखंड को ही लें, तो भ्रष्टाचार के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान चिन्हित होता दिखेगा। इतिहास ने इस कालखंड को एक ऐसी अवधि के रूप में दर्ज किया है। जब प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, बड़े नौकरशाह, बड़े-बड़े उद्योगपतियों सहित दुखद रूप से अनेक न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे दिखे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जब एक साथ समाज के हर वर्ग के अग्रिम प्रतिनिधि भ्रष्टाचार के घेरे में आए। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा करने वालीं सोनिया गांधी अगर अपने संकल्प के प्रति गंभीर हैं, तब उन्हें अपनी 'नीयत' की शुद्धता प्रमाणित करनी होगी। स्वयं को 'शुद्ध' प्रमाणित करने के साथ ही ताजा घटनाएं उनकी नीयत को चुनौती दे रही हैं।
सोनिया गांधी को यह बताना होगा कि सदी के सबसे बड़े 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य संदिग्ध पूर्व मंत्री ए राजा को बचाने की कोशिश क्यों की जा रही है। जिस कैग (नियंत्रक और महालेखापरीक्षक) की रिपोर्ट के आधार पर राजा कटघरे में खड़े किए गए, उस रिपोर्ट को ही उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी कपिल सिब्बल ने 'बकवास' कैसे निरूपित कर डाला। प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं से घबरा कांग्रेस पार्टी ने भले ही स्वयं को सिब्बल के बयान से किनारा कर लिया हो, लोग यह भूले नहीं हैं कि अभी कुछ दिनों पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह भी 'कैग' को नसीहत दे चुके हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से परेशान प्रधानमंत्री ने तब टिप्पणी की थी कि 'कैग देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण संस्था तो है किन्तु दूध का दूध और पानी का पानी करने की प्रक्रिया में भूल और जानबूझ कर की गई गड़बड़ी में फर्क करना भी इसकी जिम्मेदारी है। कैग को यह भी देखने की जिम्मेदारी है कि कोई निर्णय किन परिस्थितियों में लिया गया।' प्रधानमंत्री ने तब कैग को पेशेवर क्षमता और कौशल को बढ़ाने का सुझाव भी दिया था। प्रधानमंत्री ने ऐसी टिप्पणी कर अपनी ओर से ए. राजा को संदेह का लाभ दे दिया था। अब जब सिब्बल ने यह कह डाला कि ए. राजा ने कोई भी घोटाला नहीं किया और स्पेक्ट्रम आवंटन से राजकोष को एक पैसे का भी नुकसान नहीं हुआ तो निश्चय ही पूरे घोटाले पर पर्दा डालने की यह शासकीय कोशिश है। फिर किस भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाना चाहती हैं सोनिया गांधी?
इसके पूर्व कांग्रेस के बड़बोले राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह भी ऐसा करतब दिखा चुके हैं। आयकर अपीलीय ट्रिब्युनल द्वारा यह बताए जाने पर कि बोफोर्स सौदे में क्वात्रोकी को कमीशन दिया गया था, दिग्विजय ने ट्रिब्युनल की खोज और उसकी नीयत पर ही सवालिया निशान जड़ दिए। संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सत्ता पक्ष का यह व्यवहार निंदनीय है। यह तो भला हो अदालत का जिसने बोफोर्स मामले को बंद करने की सीबीआई की अर्जी को फिलहाल नामंजूर करते हुए जांच एजेंसी व सरकार से कुछ सवाल पूछे हैं। लेकिन अदालत की ये टिप्पणी कि सीबीआई की पहल (मामला बंद करने की) घोड़े के आगे गाड़ी को रखने सदृश है, मामले की असलियत को रेखांकित कर देता है। हालांकि, इसके पूर्व 1975 में स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने खिलाफ न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर न्यायपालिका की तौहीन कर चुकी हैं। समाजवादी राजनारायण (अब स्वर्गीय) की चुनाव याचिका को स्वीकार कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया था। बाद की घटनाएं इतिहास हैं। इंदिरा गांधी न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए इस्तीफा देने की जगह न केवल अपने पद पर बनी रहीं बल्कि जनाक्रोश को दबाने के लिए पूरे देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया। लोगों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित कर न्यायपालिका को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया गया था। अन्य बातों को न दोहराते हुए सिर्फ यह याद दिलाना चाहूंगा कि 1989 की तरह आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी और उनकी कांगे्रस सरकार को उखाड़ फेंका था।
अब परीक्षा के केंद्र में सोनिया गांधी हैं। उन्हें यह तो मालूम है कि देश की जनता भ्रष्ट शासन व शासक को बर्दाश्त नहीं करती। अब चूंकि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात कर रही हैं, उन्हें स्वयं की नीयत की पवित्रता साबित करनी होगी। देश की जनता उनके अथवा किसी अन्य के शब्दजाल में फंसने वाली नहीं। जनता भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई चाहती है। अगर सोनिया गांधी में नैतिक साहस है, तब वे पहल कर बोफोर्स के अभियुक्त क्वात्रोकी और स्पेक्ट्रम के अभियुक्त ए. राजा के खिलाफ दंडात्मक कदम उठाएं।

Wednesday, January 5, 2011

जांच हो दिग्विजय के मुंबई संबंधों की!

पूरे देश को ठेंगे पर रखने की सत्तापक्ष की कवायद के क्या कहने! मामला चाहे आपातकाल की ज्यादतियों के लिए संजय गांधी को दोषी ठहराने का हो, बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को कटघरे में खड़ा करने का हो, बोफोर्स कांड के अभियुक्त क्वात्रोकी को बाइज्जत बरी करवाने का हो, भोपाल महात्रासदी के अभियुक्त एंडरसन को देश से पलायन करवा देने का हो, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्रधानमंत्री को पाक साफ निरूपित किये जाने का हो या फिर राष्ट्रमंडल खेलों और मुंबई के आदर्श घोटाले में अशोक चव्हाण की बलि लेने का हो। सत्तापक्ष चतुराई के साथ सांप-सीढ़ी का खेल खेलता हुआ स्वयं को बचाता रहा। ताजा मामला तो और भी दिलचस्प है।
रोचक है 'दिग्विजय-पुराण' में जुड़ा नया अध्याय। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अपने जादू के पिटारे से भारत संचार निगम के टेलीफोन का वह विवरण निकाल लाए जो पहले आधिकारिक तौर पर, जी हां आधिकारिक तौर पर, उपलब्ध नहीं था। किसी और ने नहीं स्वयं दिग्विजय ने कहा था कि निगम 'फोन कॉल्स' का एक साल से अधिक का रिकार्ड नहीं रखता। फिर अब वे इसका विवरण कहां से और कैसे ले आए? इस विवरण के आधार पर दिग्विजय अपने उस दावे की पुष्टि कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि 26/11 की घटना के कुछ घंटों पूर्व शहीद पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे ने उन्हें फोन पर बताया था कि देश के हिंदू संगठन उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं। जाहिर है दिग्विजय के बयान पर राजनीतिक बवंडर पैदा हुआ और स्वयं कांग्रेस पार्टी ने उनसे इस मुद्दे पर किनारा कर लिया। करकरे की पत्नी के खंडन के बाद दिग्विजय बचाव की मुद्रा में आ गये थे। स्वयं महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने विधानसभा में बयान दे डाला था कि दिग्विजय के साथ करकरे की बातचीत का कोई रिकार्ड सरकार के पास नहीं है। दिग्विजय पर आरोप लगा कि वे झूठ बोल रहे हैं, जानबूझकर देश का ध्यान बंटाने के लिए हिंदू संगठनों को निशाने पर ले रहे हैं। भगवा आतंकवाद का शिगूफा छोड़ दिग्विजय देश का ध्यान बंटा रहे हैं। अब टेलीफोन के दस्तावेज को लहराते हुए दिग्विजय उन लोगों से माफी मांगने को कह रहे हैं, जिन्होंने उन्हें झूठा करार दिया था। लेकिन दिग्विजय इस शाश्वत सत्य को नजरअंदाज कर गये कि झूठ का छुुपाने का चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, वह बेनकाब हो ही जाता है। इस मामले में ऐसा ही हो रहा है। लोगों को यह अच्छी तरह याद है कि दिग्विजय ने स्वयं कहा था कि उन्होंने अपने फोन से करकरे को फोन किया था। बाद में पलटते हुए कहा था कि फोन शहीद करकरे ने उन्हें किया था। अब जो दस्तावेज वे सार्वजनिक कर रहे हैं उसका कमाल देखें। इसके अनुसार दिग्विजय के बीएसएनएल फोन नम्बर 09425015461 पर 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पुलिस एटीएस के लैंडलाइन नम्बर 022-23087336 से फोन आया था। गौर करें, एटीएस के जिस लैंडलाइन नम्बर से दिग्विजय के नम्बर पर फोन किया गया, वह करकरे का सीधा नम्बर नहीं था। वह एटीएस कार्यालय का नम्बर है। क्या दिग्विजय यह प्रमाणित कर सकते हैं कि उस नम्बर से करकरे ने ही उनसे बात की थी? यह संदिग्ध है। सवाल यह भी कि एटीएस प्रमुख करकरे को अगर अपनी जान पर खतरा नजर आ रहा था तो उन्होंने इसकी जानकारी अपने प्रदेश महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या फिर प्रधानमंत्री को न देकर कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह को क्यों दी? करकरे न तो दिग्विजय के मित्र थे और न ही दिग्विजय के हाथों में कोई ऐसी एजेंसी थी जो करकरे के लिए सुरक्षा मुहैया करवा सकती थी। बल्कि अब जांच इस बात की हो कि दिग्विजय सिंह के फोन पर मुंबई पुलिस एटीएस के नम्बर से किसने फोन किया। एटीएस कार्यालय से दिग्विजय से संपर्क करने वाला व्यक्ति कौन था? 26/11 के हमले के कुछ घंटों पूर्व दिग्विजय से संपर्क क्यों साधा गया? चूंकि 26/11 का मुंबई पर हमला 2001 में संसद पर हमले के बाद सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था, दिग्विजय सिंह और मुंबई एटीएस कार्यालय के बीच हुई बातचीत के ब्यौरे की जानकारी जरूरी है। हाल के दिनों में दिग्विजय सिंह देश में हिंदू और मुसलमान के बीच न केवल खाई पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि हिंदू संगठनों को निशाने पर लेकर हिंदू आतंकवाद के नये जुमले को प्रचारित-प्रसारित भी कर रहे हैं। अत्यंत ही पीड़ा के साथ ऐसी टिप्पणी करने को मैं मजबूर हूं कि दिग्विजय नारायण सिंह की ये हरकतें राष्ट्र विरोधी हरकतों की श्रेणी की हैं। दिग्विजय इस बात को क्यों नहीं समझ पा रहे, यह आश्चर्यजनक है। अगर वे हाल के दिनों में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस सरकार की ओर से जनता का ध्यान बंटाना चाहते हैं तो क्षमा करेेंगे, यह हरकतें बचकानी हैं। चूंकि दिग्विजय कोई बच्चे नहीं हैं, लगता है जाने-अनजाने वे किसी बड़ी साजिश के मोहरे बन गये हैं। बेहतर हो दिग्विजय शांति से इस पर चिंतन-मनन करें और स्वयं के तथा देश हित में धर्म संप्रदाय के नाम पर राजनीति की तलवार से समाज को बांटने की कोशिश न करें।

Tuesday, January 4, 2011

बोफोर्स का 'जिन्न' फिर बाहर!

बोतल फोड़ फिर बाहर निकले बोफोर्स के 'जिन्न' को क्या पुन: कैद कर पाएगी केंद्र सरकार? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तो अपनी ओर से 'बोफोर्स' को स्थायी मौत दे चुके हैं। प्रधानमंत्री तो 'बोफोर्स' मामले के जारी रहने को देश की छवि के खिलाफ निरूपित करते हुए यहां तक टिप्पणी कर चुके हैं कि किसी को परेशान करना अच्छी बात नहीं है। प्रधानमंत्री का आशय क्वात्रोकी से ही था। प्रधानमंत्री यह बताने से भी नहीं चूके थे कि क्वात्रोकी के खिलाफ कोई पुख्ता मामला नहीं है और पूरी दुनिया कह रही है कि हमारे पास भी क्वात्रोकी के खिलाफ कोई मामला नहीं हैं। तब भारत सरकार ने क्वात्रोकी को इंटरपोल के रेडकॉर्नर नोटिस की सूची से बाहर निकलवा दिया था और फ्रीज किए गए क्वात्रोकी के विदेशी बैंक खातों को भी खुलवा दिया था। देश को यह भी मालूम है कि इसके पूर्व किस प्रकार भारत के अभियुक्त क्वात्रोकी को देश से बाहर निकल जाने दिया गया था। तब विश्लेषकों ने टिप्पणी की थी कि सन् 2004 में सत्तारूढ़ हुई सोनिया गांधी के नेतृत्व की संप्रग सरकार का एजेंडा ही था 'बोफोर्स' को मौत दे क्वात्रोकी को आजाद कराना! अपने वफादार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मार्फत सोनिया गांधी अपने एजेंडे को क्रियान्वित करने में तब सफल हुई थीं। जिस 'बोफोर्स' कांड ने 1989 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सरकार की बलि ले ली थी, उस कांड के ऐसे हश्र पर पूरा देश चकित था। सत्ता शक्ति के दुरुपयोग की मिसाल के रूप में बोफोर्स के हश्र को चिन्हित किया गया। पूरा देश इस तथ्य से अवगत है कि सोनिया गांधी का नजदीकी क्वात्रोकी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल से प्रधानमंत्री के आवास में ही रहा करता था। लेकिन आज इन्कमटैक्स ट्रिब्यूनल विभाग के खुलासे के बाद भारत सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या जवाब देंगे? ट्रिब्यूनल ने साफ शब्दों में कह दिया है कि ओत्तावियो क्वात्रोकी और एक अन्य दलाल विन चड्ढïा को बोफोर्स सौदा करवाने के एवज में बोफोर्स कंपनी की ओर से करोड़ों रुपए की रिश्वत मिली थी। ट्रिब्यूनल ने यह भी रेखांकित किया है कि रक्षा सौदों में भारत में दलाली गैरकानूनी है। यही नहीं क्वात्रोकी और चड्ढïा भारत में इन्कमटैक्स न चुकाने के भी अपराधी हैं। क्या अब भी भारत सरकार, उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहेंगे कि सौदे में कोई दलाती नहीं दी गई थी? जनहित में क्वात्रोकी के खिलाफ मुकदमा वापिस लेने की अर्जी दाखिल करनेवाली सीबीआई के माथे पर भी ट्रिब्यूनल के इस खुलासे के बाद एक और काला धब्बा लग गया है। इस बिन्दु पर मैं यह चिन्हित करना चाहंूगा कि स्वयं सीबीआई दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में मामला बंद करने की अर्जी दिए जाने के पूर्व एक अर्जी दाखिल कर चुकी थी कि इस मामले में अगर कोई क्लोजर रिपोर्ट दाखिल होता है तो उसे खारिज कर दिया जाये।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर स्वयं को मसीहा के रूप में प्रस्तुत करनेवाली सोनिया गांधी को चुनौती है कि वे क्वात्रोकी के मामले को पुन: खुलवाएं। चुनौती है प्रधानमंत्री को भी और भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को भी कि वे जनहित में और देशहित में बोफोर्स कांड के मुख्य आरोपी क्वात्रोकी को भारत वापस ला कानून के हवाले करें। किसी भी भ्रष्टाचारी को न बख्श दिए जाने की घोषणा पर अमल करते हुए क्वात्रोकी को दंडित किया जाए।
यह मामला दलाली अथवा रिश्वत की दखल का ही नहीं, रक्षा सौदों में व्याप्त भ्रष्टाचार का है। केंद्र सरकार की ही नहीं बल्कि पूरे देश की छवि व साख का मामला है यह! चूंकि ताजा खुलासा किसी विपक्षी दल ने नहीं बल्कि भारत सरकार की ही एक एजेंसी ने किया है, उम्मीद है कि कम से कम इसे झुठलाने की कोशिश भारत सरकार नहीं करेगी।

Monday, January 3, 2011

प्रधानमंत्री की 'विदाई' की पटकथा!

देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सावधान हो जाएं। कांग्रेस के 'वफादारों' ने उनकी विदाई की पटकथा लिखनी शुरू कर दी है। अब इसे कांग्रेस संस्कृति का अंग कहें या षडय़ंत्र! कांग्रेसी दीवार पर लिखी जा रहीं ताजा इबारतें उनकी विदाई की चुगली कर रही हैं। आखिर कांग्रेस को भी तो भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता के प्रहार से बचने के लिए कोई बलि का बकरा चाहिए ही! जेहन में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं जिनके जवाब कांग्रेसी खेमे से चाहिए। नैतिक रूप से पराजित नेतृत्व तो जवाब नहीं ही देगा, पार्टी में मौजूद कुछ विचारवानों-बुद्धिमानों से अपेक्षा है कि वे आगे आएं। वे बताएं कि क्या केंद्रीय वित्तमंत्री व पार्टी के वरिष्ठतम नेता प्रणब मुखर्जी वास्तव में सठिया गये हैं? क्या उनकी स्मरणशक्ति ने काम करना बंद कर दिया है? क्या उन्होंने अपनी बुद्धि को गिरवी रख दिया है? क्या वे चाटुकारों का ही नेतृत्व करना चाहते हैं? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी बड़े राजनैतिक खेल के एक प्यादे के रूप में नेतृत्व उनका इस्तेमाल कर रहा है। कांग्रेस पार्टी के ताजा प्रकाशित 'इतिहास' के संपादक के रूप में अपनी फजीहत करा चुके मुखर्जी एक बार फिर 'हास्य-नाटक' के नायक बन उभरे हैं। संसदीय लोकलेखा समिति (पीएसी) के समक्ष हाजिर होने की पेशकश के कुछ दिन बाद प्रणब मुखर्जी का बयान आता है कि प्रधानमंत्री को समिति के सामने पेश नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे लोकसभा के प्रति जिम्मेदार हैं, किसी समिति के प्रति नहीं। कांग्रेस पार्टी की कार्यप्रणाली और कायदे-कानून का जानकार कोई भी व्यक्ति दावे के साथ इस पर टिप्पणी करेगा कि यह विचार प्रणब मुखर्जी का न होकर कांग्रेस पार्टी का है। कांग्रेस नेतृत्व ने प्रणब का इस्तेमाल कर उनके माध्यम से प्रधानमंत्री को सलाह दी है। अब सवाल यह कि प्रणब ने सार्वजनिक तौर पर ऐसी सलाह क्यों व कैसे दी। वे प्रधानमंत्री से प्रत्यक्ष मिलकर अकेले में ऐसी सलाह दे सकते थे। भला एक मंत्री प्रधानमंत्री द्वारा उठाए गए किसी ऐतिहासिक कदम पर सार्वजनिक आपत्ति कैसे जता सकता है? जाहिर है कांग्रेसी नाट्ïयमंच पर परदे के पीछे कोई बड़ी साजिश रची गई है। साजिश को अंजाम देने की प्रक्रिया में प्रणब मुखर्जी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया है। जरा गौर करें। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग पर अड़ा हुआ है। किन्हीं कारणों से कांग्रेस जेपीसी जांच नहीं चाहती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी जेपीसी जांच के खिलाफ बोल चुके हैं। पूरा का पूरा कांग्रेसी कुनबा एकजुट हो जेपीसी जांच की मांग का विरोध कर रहा है। पिछले माह कांग्रेस महाअधिवेशन में जेपीसी जांच की मंाग को निरर्थक निरूपित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए स्वयं को पीएसी के सामने पेश होने की पेशकश कर डाली। उन्होंने यह भी कह डाला था कि वे पीएसी अध्यक्ष डा. मुरलीमनोहर जोशी को पत्र लिखकर अपनी इच्छा बताएंगे। प्रधानमंत्री ने मुरलीमनोहर जोशी को पत्र लिख भी डाला। अब प्रणब मुखर्जी यह कैसे कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने बगैर पार्टी से परामर्श किए ऐसा फैसला किया? यह रहस्यपूर्ण है। प्रणब की यह बात भी हास्यास्पद है कि 'अगर प्रधानमंत्री मुझसे इस बारे में विमर्श करते तो मैं उन्हें ऐसा प्रस्ताव न देने की सलाह देता।' प्रणब की ऐसी अपेक्षा कि प्रधानमंत्री किसी निर्णय के पूर्व उनसे परामर्श करें, स्वयं में रहस्य से भरा हुआ है। प्रणब का तर्क कि प्रधानमंत्री सिर्फ लोकसभा के प्रति जिम्मेदार हैं, किसी समिति के प्रति नहीं, स्वीकार्य नहीं। जिस संयुक्त संसदीय समिति की मांग विपक्ष कर रहा है वह संसद का ही प्रतिनिधित्व करती है। लोकलेखा समिति के मुकाबले जेपीसी के पास व्यापक अधिकार होते हैं। इस तथ्य की अनदेखी कर जब प्रणब मुखर्जी जैसा अनुभवी सांसद, राजनेता बच्चों सरीखी दलील देता दिखता है तब निश्चित ही दाल में काला रेखांकित होता है। पिछले कुछ समय से कांग्रेस खेमे से ऐसे संकेत मिलने शुरू हो गए हैं कि नेतृत्व अब प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर किसी अन्य को बिठाना चाहता है। क्या यह मात्र संयोग है कि पिछले कुछ समय से प्रणब मुखर्जी व कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह यह दोहराते घूम रहे हैं कि राहुल गांधी में प्रधानमंत्री पद की सारी पात्रता मौजूद है, राहुल अगले प्रधानमंत्री हो सकते हैं। भ्रष्टाचार व कुशासन के आरोपों से घिरी कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार इन दिनों बचाव की मुद्रा में है। कांग्रेस हर मोर्चे पर पराजित हो रही है। अपनी सारी शक्ति लगा देने के बावजूद पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में वहां उसका लगभग अस्तित्व ही समाप्त हो गया। ऐसे में कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व सरकार में भ्रष्टाचार, कुशासन और पार्टी की चुनावी विफलताओं का ठीकरा प्रधानमंत्री के सिर फोड़ उनकी बलि लेने की सोच रहा है? कांग्रेस और विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार का इतिहास इसके पक्ष में चुगली कर रहा है। अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के राजनीतिक महत्व ही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षार्थ कांग्रेस पार्टी कोई बड़ा दांव खेल सकती है। क्या आश्चर्य कि उस चुनाव के पूर्व ही मनमोहन सिंह को विश्राम दे 'युवराज' की ताजपोशी कर दी जाए! और तब युवा नेतृत्व, युवा शक्ति की हवा चला कांग्रेस मतदाता के सामने गिड़गिड़ाती दिखे!

Saturday, January 1, 2011

सदी का सबसे बड़ा झूठ!

पूरा देश आहत है सदी के इस सबसे बड़े झूठ पर। झूठ ही नहीं सदी के सबसे बड़े अपराध के रूप में भी यह चिन्हित किया जाएगा। मैं यहां अभी-अभी समाप्त हुए वर्ष में गुंजायमान भ्रष्टाचार व महाघोटालों की चर्चा नहीं कर रहा। हजारों-लाखों करोड़ के सरकारी खजाने पर डाके की बात नहीं कर रहा। मैं यहां राष्ट्रपिता महात्मा के त्याग और मूल्यों की अवमानना की चर्चा कर रहा हूं। सामथ्र्यवानों द्वारा इतिहास भी लिखवाए जाने के इस युग में ऐसा अपराध किया है केंद्रीय सत्ता की कमान संभालने वाली कांग्रेस ने। अपनी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की तुलना महात्मा गांधी से कर कांग्रेस ने न केवल महात्मा गांधी बल्कि आजादी की लड़ाई में शहीद हुए राष्ट्रभक्तों और अन्य सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान किया है। महात्मा गांधी के त्याग की तुलना सोनिया गांधी के कथित त्याग से कोई सिरफिरा ही कर सकता है। सच्चा इतिहासकार ऐसा कभी भी नहीं कर सकता। सोनिया गांधी के कथित त्याग की बात अभी कल की ही है। केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी के संपादन में प्रस्तुत कथित इतिहास 'कांग्रेस एंड द मेकिंग आफ द इंडियन नेशन' चाहे जो दावा कर ले, देशवासी इस सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं कि प्रधानमंत्री पद का कथित त्याग सोनिया गांधी की मजबूरी थी। उनकी कायरता थी। परिवार की सुरक्षा को लेकर एक भयभीत मां का कायराना निर्णय था वह। देश में विद्रोह की संभावना से डरी हुई एक पार्टी अध्यक्ष का फैसला था वह। अगर प्रधानमंत्री पद के प्रति उनके मन में कोई मोह नहीं था, वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थीं, तब उन्होंंने स्वयं को कांग्रेस संसदीय दल का नेता क्यों चुने जाने दिया? सभी जानते हैं कि कांग्रेस में संसदीय दल का नेता कैसे और किसकी इच्छा पर चुना जाता है। अगर सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थीं तो पार्टी के सांसद उन्हें कभी भी नेता नहीं चुनते। यही नहीं, इससे आगे बढ़ते हुए उन्होंने क्या स्वयं को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का नेता नहीं चुनवाया? यूपीए ने सोनिया को नेता चुना तो उनकी इच्छा से। उस काल में पूरे देश ने टेलीविजन पर देखा था-सुना था ताजा विमोचित इतिहास के संपादक प्रणब मुखर्जी को ऐलान करते हुए कि ''सोनिया गांधी हमारी निर्विवाद नेता हैं और वे राष्ट्रपति के समक्ष सरकार बनाने का दावा करेंगी। ... सोनियाजी ही प्रधानमंत्री बनेंगी।'' उस समय तो सोनिया गांधी की ओर से ऐसा कोई वक्तव्य नहीं आया था कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं। फिर किस त्याग का दावा कांग्रेस कर रही है? वह तो सुषमा स्वराज व उमा भारती के बागी तेवर थे जिससे सोनिया भयभीत हो उठी थीं। सुषमा व उमा ने तब घोषणा कर दी थी कि अगर सोनिया को प्रधानमंत्री बनाया गया तब वे अपने सिर के बाल मुंडवा विधवा के सफेद वस्त्र धारण कर सड़क पर निकल पड़ेंगी। देश में एक राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ा जाएगा। अगर ऐसा हो जाता तब देश की भावुक जनता भारत और भारतीयता के पक्ष में बगावत पर उतर जाती। इसी भय ने सोनिया को कदम पीछे लेने पर मजबूर किया और तब त्याग का नाटक रचा गया। सोनिया ने स्वेच्छा से कोई त्याग नहीं किया था। निश्चय ही आने वाली पीढ़ी को गुमराह करने की यह साजिश है। उसी तरह की साजिश जैसी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने की थी। तब देश के इतिहास को तोड़-मरोड़कर सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार को महिमामंडित करने वाली सामग्री को एक कालपात्र मेें रख लाल किले में गाढ़ दिया गया था। बाद में जनता पार्टी सरकार ने उसे निकलवा फेंक नई पीढ़ी को गुमराह होने से बचा लिया था। प्रणब मुखर्जी संपादित इस इतिहास में भारतीय लोकतंत्र के सर्वाधिक स्याह काल आपातकाल के लिए एक अकेले संजय गांधी को दोषी करार देकर असली अपराधियों को बचाने की कोशिश की गई है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में संजय गांधी एक संविधानेतर सत्ता के रूप में उभरे थे तो इंदिरा गांधी के आशीर्वाद से ही। लेकिन आपातकाल का निर्णय क्या संजय ने लिया था? अगर हां तो यह पूछा जाएगा कि फिर उन्हें ऐसा अधिकार किसने प्रदान किया था? सरकार में न होते हुए भी अगर संजय सरकार का संचालन कर रहे थे तो कैसे? अगर आपातकाल में सारी ज्यादतियों के लिए संजय दोषी थे तो उन्हें अधिकार किसने दिए थे? तब संजय के विशेष चहेते प्रणब मुखर्जी और अंबिका सोनी आज केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हैं। इनसे बेहतर तो कोई जान नहीं सकता। प्रणब जहां तब संजय की चाटुकारी किया करते थे वहीं अंबिका सोनी तो हमेशा साये की तरह संजय के साथ रहती थीं। आपातकाल की घोषणा से लेकर जयप्रकाश नारायण सहित सभी बड़े नेताओं व पत्रकारों की गिरफ्तारी के लिए अगर कोई जिम्मेदार था तो वह इंदिरा गांधी थीं। जिस लोकतंत्र की दुहाई आज कांग्रेस दे रही है, उस लोकतंत्र के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों से जनता को वंचित करने वाली इंदिरा गांधी ही थीं। प्रेस सेंसरशिप लागू कर जनता को बेजुबान करने की कोशिश तब इंदिरा गांधी ने ही की थी। देश को दूसरी गुलामी की जंजीरों से जकडऩे वाली इंदिरा गांधी ही थीं। कांग्रेस इतिहास का यह दावा सरासर झूठ है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी की ज्यादतियों से देश की जनता परेशान हुई थी। सच तो यह है कि तब इंदिरा सरकार के कुशासन, भ्रष्टाचार और आपातकाल की ज्यादतियों से विद्रोह कर देश की जनता ने इंदिरा को उखाड़ फेंका था। ब्रिटिश शासन काल की तरह आपातकाल के दौरान लापता आज भी अनेक नाम प्रकाश में नहीं आ पाए। आपातकाल की ज्यादतियों की कथा अनंत है। इन ज्यादतियों के लिए एक अकेले संजय गांधी को कटघरे में खड़ा कर कांग्रेस नेे झूठ तो बोला ही है, राष्ट्रीय अपराध भी किया है। संजय ही क्यों? उत्तर सरल है। संजय गांधी की विधवा मेनका गांधी व पुत्र वरुण गांधी आज प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। वह भाजपा जो कांग्रेस के लिए कड़ी चुनौती बन रही है। चूंकि स्वयं इंदिरा गांधी ने संजय गांधी की असामयिक मौत के बाद अपनी जवान विधवा बहू मेनका और अबोध बालक वरुण को घर से निकाल दिया था, नेहरू-गांधी परिवार उन्हें अछूत मानने लगा है। खेद है कि कांग्रेस के इतिहास ने सोनिया को महिमामंडित करने के क्रम में इन और इन जैसे असहज पहलुओं पर जानबूझकर परदा डाल दिया। इस मुकाम पर मैं चाहूंगा कि, कांग्रेस आपातकाल के अपने 'कालपात्र' की याद कर ले। संभवत: आलोच्य इतिहास का हश्र भी कहीं 'कालपात्र' की तरह न हो जाए।