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Wednesday, January 12, 2011

नौकर थे, नौकर हैं, नौकर ही रहेंगे!

अपने देश के प्रधानमंत्री को ऐसे आपत्तिजनक शब्द से नवाजा जाना सुसंस्कृत कतई नहीं। हमारी संस्कृति-सभ्यता इसकी इजाजत नहीं देती। प्रधानमंत्री के अनादर की ऐसी कवायद को किसी विकृत मस्तिष्क की करतूत भी कह सकते हैं। किन्तु, जब पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर हाहाकार मचा हो, समाज का हर क्षेत्र अभिशप्त दिख रहा हो, लोकतंत्र के पाये लडख़ड़ा रहे हों, संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता जमीन चाटती दिखे, अनुशासनहीनता पराकाष्ठा पर हो, चहुंओर अराजकता का बोलबाला हो, तब जिम्मेदारी सुनिश्चित किये जाने की प्रक्रिया के बीच असहज स्थिति का पैदा होना स्वाभाविक है। फिर असहज, असंस्कृत या फिर असभ्य श्रेणी के शब्दों का इस्तेमाल दिखे तो इसे अस्वाभाविक भी कैसे कह सकते हैं! पिछली रात दिल्ली के एक जिम्मेदार (निश्चय ही इमानदार भी) पत्रकार फोन पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को 'नौकर' के रूप में संबोधित कर रहे थे। तब संस्कृति से इतर उठी पीड़ा के कुछ और भी कारण थे। स्पष्ट कर दूं कि 'नौकर' जनता के नौकर के रूप में प्रतिपादित नहीं था, एक दुखद 'मानसिकता' को चिन्हित किया जा रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और भारतीय प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार के अलावा विश्व बैंक में काम कर चुके डा. मनमोहन सिंह सचमुच विशुद्ध 'नौकर मानसिकता' को ढोने वाले साबित हो रहे हैं। आज जब उनकी पार्टी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी महंगाई के मोर्चे पर सरकार की विफलता के लिए गठबंधन की राजनीति पर दोष मढ़ रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए कि हर मोर्चे पर विफल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बचाव किया जा सके। बात कड़वी लग सकती है। किन्तु इस कड़वे सच को दोहराना जरूरी है कि सन 2004 से प्रधानमंत्री पद पर आसीन डा. मनमोहन सिंह सिर्फ अपनी नेता के एजेंडे को लागू करने के प्रति गंभीर रहे। व्यक्तिगत रूप से उनकी नीयत, उनकी इमानदारी, उनके देशप्रेम पर संदेह नहीं किया जा सकता। लेकिन वैसी इमानदारी किस काम की, जिससे पूरी की पूरी सरकार भ्रष्टाचार के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करती दिखे, पूरा देश कमरतोड़ महगाई के तले सिसकने को मजबूर हो। जरा याद कीजिए 1991 के उन दिनों को, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने मनमोहन सिंह को देश का वित्तमंत्री नियुक्त किया था। तब उनकी नई उदारवादी आर्थिक नीति का कुछ ऐसा ढिंढोरा पीटा गया था जैसे आर्थिक क्षेत्र की नई क्रांति से आने वाले दिनों में देश में सिर्फ खुशहाली-खुशहाली का आलम होगा। लेकिन तभी गंभीर तटस्थ आर्थिक समीक्षकों ने चेतावनी दी थी कि मनमोहन सिंह की नई आर्थिक नीति से देश में मुद्रा स्फीति बढ़ेगी और आम जनता के सामने परेशानियों का अंबार खड़ा हो जाएगा। अगर मुझे ठीक से याद है तो समीक्षकों ने ऐसी दु:स्थिति के लिए 20 वर्ष की सीमा भी निर्धारित कर दी थी। आज 20 वर्षों बाद क्या हम ऐसी दु:स्थिति से नहीं गुजर रहे! आश्चर्य है कि तब अर्थशास्त्री वित्तमंत्री और अब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ऐसी स्थिति को क्यों नहीं भांप पाए थे। संदेह इस मुकाम पर प्रगाढ़ हो जाता है। एक अर्थशास्त्री के रूप में डा. मनमोहन सिंह की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि आज देश उनकी नीयत पर शक कर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री निश्चय ही कुशलतापूर्वक अपने गुप्त एजेंडे को अंजाम देते रहे- लागू करने में सफल रहे। दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोहन धारिया अनेक अवसरों पर मनमोहन सिंह की नीति और नीयत को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं। एक अवसर पर चंद्रशेखर ने झल्लाकर टिप्पणी की थी कि मनमोहन सिंह के सुझावों पर अगर मैं अमल करता तो देश के साथ धोखा होता। खेद है, आज सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सच्चाई से मुंह मोड़ जनता के साथ धोखा कर रहा है। कुछ कारपोरेट घरानों, नौकरशाहों, राजनीतिकों का 'घर' भरने के लिए आम जनता की जेबें खाली की जा रही हैं।

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आश्चर्यजनक तथ्य पता चल रहे हैं कि बीस साल पहले ही आर्थिक परिस्थितियों की भविष्यवाणी कर दी गयी थी.