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Thursday, December 31, 2009

कांग्रेस की वर्षगांठ, राहुल का नववर्ष!

कांग्रेस की स्थापना के 125वें वर्ष पर आयोजित समारोह में सभी थे। अध्यक्ष सोनिया गांधी मौजूद थीं, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह थे और छोटे-बड़े वे सभी सिपहसालार मौजूद थे जो अपनी उपस्थिति के द्वारा वफादारी साबित करना चाहते थे। किंतु इस ऐतिहासिक मौके पर राहुल गांधी अनुपस्थित थे। जिस राहुल को पार्टी की ओर से भावी अध्यक्ष और भावी प्रधानमंत्री के रूप में सगर्व पेश किया जाता रहा है उनकी अनुपस्थिति पर समारोह में एक बेचैन खामोशी छाई थी। लेकिन, किसकी मजाल जो जुबान खोले! ऐसे किसी अवसर पर मीन-मेख निकालने वाले मीडिया ने भी मौन साध रखा। कांग्रेस के माध्यम प्रबंधक (मीडिया मैनेजर) यहां विजयी रहे। उन्होंने मीडिया की खामोशी को सुनिश्चित कर रखा था। राहुल को महिमामंडित करते रहने की 'जिम्मेदारी' ले लेने वाले भला उनकी शान में कोई गुस्ताखी करें तो कैसे करें। वे देश को प्रमुखता से यह नहीं बता पाए कि राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका व उसके परिवार के साथ 'नव-वर्ष' का स्वागत करने छुट्टियों पर बाहर चले गए हैं। इस बड़ी खबर को दबा दिया गया। लेकिन राहुल गांधी की प्राथमिकता उस दिन चिन्हित हो गई। पार्टी की ऐतिहासिक 125वीं वर्षगांठ को हाशिए पर रखकर उन्होंने नववर्ष को प्राथमिकता दी।
मैंने दिल्ली के अपने पत्रकार मित्रों से जानकारी लेनी चाही तो वे सिर्फ रहस्यमय मुस्कान ही दे पाए। हां, यह अवश्य बताया कि इसमें अजूबा क्या है? देश की भोली-भाली गरीब जनता के बीच 'गांधी' बन पहुंचने वाले राहुल गांधी इस सच को जान गए हैं कि गरीब, शोषित बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्ग की सुध लेकर ही चुनावी वैतरणी पार कर सकते हैं। सभा, समारोह, संसद की उपयोगिता सीमित है। फिर क्या आश्चर्य कि जब संसद में बाबरी मस्जिद विध्वंस संबंधी लिबरहान आयोग की रिपोर्ट पर गरमागरम बहस चल रही थी, राहुल गांधी अलीगढ़ में मुस्लिम छात्रों को संबोधित कर रहे थे! और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे विदेश दौरे पर। 'गांधी दर्शन' कथित रुप से आत्मसात कर लेने वाले राहुल गरीबों की झोपडिय़ों में जा उनके साथ चाय पीते हैं, भोजन करते हैं। ठीक उसी तरह जैसा कभी लालू प्रसाद यादव किया करते थे। फर्क यह है कि राहुल के झोपड़ी में पहुंचने से पूर्व सुरक्षाकर्मी झोपड़ी की न केवल साफ-सफाई कर दिया करते हैं बल्कि उस गरीब परिवार की झोपड़ी में अच्छे खाद्य पदार्थ भी पहुंचा दिया करते हैं। लालू के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की जाती थी। वे अचानक पहुंचते थे और जो उपलब्ध रहता था उसे खा-पी लिया करते थे। किन्तु उनका 'नाटक' बेअसर रहा। जनता ने उन्हें, उनकी पार्टी को नकार दिया। बिहार में उनकी सत्ता समाप्त हुई और बाद में केंद्रीय शासन से भी अलग कर दिए गए। राहुल के भविष्य पर अभी कोई टिप्पणी नहीं। लालू और नेहरु-गांधी परिवार में फर्क तो है ही। नेहरु-गांधी परिवार के प्रति आकर्षण कांग्रेस पार्टी की अतिरिक्त शक्ति है। पार्टी की 125वीं वर्षगांठ समारोह में कांग्रेस और नेहरु गांधी परिवार का राष्ट्र निर्माण व विकास में योगदान पर लंबे चौड़े भाषण दिए गए। यहां तक तो ठीक था। किंतु जब आर्थिक सुधार और उदार अर्थनीति के लिए राजीव गांधी को श्रेय दिया गया तब लोगों की भौंहे तन गई। आर्थिक सुधारों के लिए राजीव गांधी को श्रेय दिए जाने से बड़ा झूठ और कुछ नहीं हो सकता। वह भी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की उपस्थिति में। वह तो नरसिम्हा राव थे जिन्होंने 1991 में प्रधानमंत्री बनने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया। राव ने तब डॉ. सिंह के साथ मिलकर आर्थिक सुधार की रूपरेखा तैयार की। उदारवादी नीति को अपनाया। आर्थिक सुधार के क्षेत्र में वस्तुत: तब क्रांति का बीजारोपण हुआ था। मुझे अच्छी तरह याद है सन 2004 में नरहिम्हा राव की दिल्ली में मृत्यु के बाद शोक प्रकट करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, 'नरसिम्हा राव देश में आर्थिक सुधार के जनक थे।' खेद है कि उसी मनमोहन सिंह की मौजूदगी में आर्थिक क्रांति का श्रेय राव से छीनकर राजीव गांधी को दे दिया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री का मौन शर्मनाक था। लेकिन, परिवारवाद को सिंचित कर रही कांग्रेस पार्टी की संस्कृति किसी अन्य को महिमामंडित किए जाने की अनुमति नहीं देती। बेचारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या करते! क्या लोकतांत्रिक भारत अपनी इस अवस्था पर गर्व करे?

Wednesday, December 30, 2009

अपेक्षा एक स्थिर झारखंड की!

आज जब शिबू सोरेन तीसरी बार इतिहास रचते हुए झारखंड राज्य की कमान संभाल रहे हैं तब व्यक्त दो शंकाएं गौरतलब हैं। पहली कि सोरेन को भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन क्यों दिया? दूसरी यह कि क्या यह गठबंधन स्थायी सरकार व सुशासन दे पाएगा?
जवाब पहले सवाल का, पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से ही झारखंड राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार होता रहा है। सभी ने षडयंत्र रच खनिज व वन संपदा में अद्वितीय इस प्रदेश को लूटा। मुझे याद है, झारखंड आंदोलन का वह काल जब आंदोलनकारी नेता गर्व के साथ दलील दिया करते थे कि राज्य बनने पर झारखंड अपने संसाधनों से देश का सर्वाधिक समृद्ध राज्य बन जाएगा। उस दावे के आधार मजबूत थे लेकिन झारखंड का दुर्भाग्य कि जिन हाथों में नेतृत्व गया उनकी प्राथमिकता लूट की रही, विकास और सुशासन को हाशिए पर रख दिया गया। पिछले छह मुख्यमंत्री चाहे जितना भी दावा कर लें, इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता है कि किसी ने भी झारखंड में विकास के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए। कारण चाहे जो भी हो राजनीतिक अस्थिरता की दुहाई देकर वे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
झारखंड के उपरोक्त सच के आलोक में खंडित जनादेश ने एक बार फिर खतरे की घंटी बजा दी। शिबू सोरेन अपने डेढ़ दर्जन विधायकों के साथ मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने। कांग्रेस व उसकी सहयोगी बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाले झारखंड विकास मोर्चा ने सोरेन का साथ देने से इंकार किया तो अपने स्वार्थवश कांग्रेस नेतृत्व पहले से ही सोरेन के खिलाफ था। कारण स्पष्ट है, दोहराने की जरूरत नहीं। बाबूलाल मरांडी आदिवासियों के बीच सोरेन के विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहे हैं, ऐसे में वे सोरेन का साथ कैसे देते? इसके पूर्व मधु कोड़ा की सरकार और फिर राष्ट्रपति शासन से त्रस्त झारखंड ऐसा कोई खतरा लेने को तैयार नहीं था। भाजपा नेतृत्व ने प्रदेश हित में कड़ा फैसला करते हुए सोरेन को समर्थन दे दिया। 82 सदस्यीय विधानसभा में आजसू के 5 विधायकों के साथ भाजपा, झामुमो के 44 विधायकों का बहुमत राज्य को स्थिर सरकार देने में सक्षम है। भाजपा पर यह आरोप कि उसने सिर्फ सत्ता के लिए अवसरवादी निर्णय लिया है, तर्क संगत नहीं। अगर भाजपा समर्थन नहीं देती तब कि स्थिति की कल्पना कीजिए। प्रदेश राष्ट्रपति शासन के अधीन होता और पुन: चुनाव होते। निश्चय ही ऐसी अवस्था प्रदेश के हित में नहीं होती। मतदाता के साथ छल भी होता या इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी कि पुनर्मतदान पश्चात किसी एक दल को बहुमत मिल ही जाता। भाजपा ने जोखिम उठाया, यह ठीक है किन्तु प्रयोग के तौर पर ही सही विकास के नारे के साथ राजनीतिक स्थिरता प्रदान करने की पहल की।
जहां तक सरकार के स्थायित्व का सवाल है यह तो तय है कि गठबंधन के तीनों घटकों में समय-समय पर मनमुटाव, संघर्ष, विवाद होंगे, खींचतान भी होगी, आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद वर्तमान सरकार दीर्घायु होगी, अल्पायु नहीं। झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व अर्थात शिबू सोरेन कभी डगमगाए भी तो उसे संतुलित करने के लिए भाजपा और आजसू तट पर मिलेंगे। झारखंड की त्रासदी देखते हुए ये तीनों अस्थिरता की डगर पर चलने की हिम्मत नहीं कर सकते। मतदाता के विश्वास से अब जो भी खिलवाड़ करेगा। उसे फिर कोई पनाह नहीं देगा। चूंकि अगले वर्ष पड़ोसी बिहार में चुनाव होना है, भाजपा अपने नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के घोष वाक्य 'विकास के लिए राजनीति' के मार्ग पर चलेगी और तब झारखंड मुक्ति मोर्चा और आजसू भी स्वयं को एक दूसरे से अधिक विकासोन्मुख साबित करने की होड़ शुरु कर देंगे। ऐसी स्थिति झारखंड के लिए निश्चय ही हितकारी साबित होगी। सत्ता के लालच के बावजूद अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए शायद ही इन तीनों में से कोई मतदाता के साथ विश्वासघात से इंकार करे। राज्य विकास की ओर अग्रसर होगा तब शिबू सोरेन का कथित स्याह अतीत भी स्वच्छ हो जाएगा।

Tuesday, December 29, 2009

एक 'मर्द' शीला बाकी सब...?

सुना आपने, बाल ठाकरे के ज्ञान-चक्षु की नई खोज के विषय में, नहीं तो सुन लीजिए। बाल ठाकरे की ताजा शोध के अनुसार, पूरी की पूरी कांग्रेस पार्टी में सिर्फ एक 'मर्द' है और वह है दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित। अर्थात, कांग्रेस पार्टी में शेष सभी 'नामर्द' हैं। सचमुच अद्वितीय खोज है यह- चाहें तो अद्भुत भी कह लें। अब कांग्रेस की इस पर क्या प्रतिक्रिया है, इसकी जानकारी फिलहाल नहीं मिली है किंतु यह तो तय है कि कांग्रेस अपनी झेंप मिटाने के लिए इसे मंद-बुद्धि खोज बताकर खारिज कर देगी। हाल के दिनों में अपने दड़बे से बाहर निकल राजनीतिक सक्रियता प्रदर्शित करने वाले बाल ठाकरे दुखद रूप से अब तक अर्जित अपनी प्रतिष्ठा, गरिमा, आभा खोते जा रहे हैं। वह भी किसलिए? अपने भतीजे राज ठाकरे की बढ़ती राजनीतिक ताकत को रोकने के लिए! ताकि उनके वारिस उद्धव ठाकरे को चुनौती देने वाला कोई न रहे। दूसरे शब्दों में भतीजे राज ठाकरे इतने ताकतवर न बनें कि पुत्र उद्धव ठाकरे को चुनौती दे सकें। राजनीतिक विरासत का यह नाटक सचमुच दिलचस्प है।
अब उस मुद्दे पर जिसे आधार बनाकर बाल ठाकरे ने यह ताजा टिप्पणी की है। शीला दीक्षित की प्रशंसा करने वाले ठाकरे कहते हैं कि किसी जमाने में कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी एकमात्र मर्द थीं। कांग्रेस में इन दिनों शीला दीक्षित एकमात्र मर्द हैं, इसलिए कि शीला दीक्षित ने दिल्ली में पर-प्रांतीयों की बढ़ती भीड़ के खिलाफ कठोर भूमिका अपनाई है। निर्भीक होकर शीला दीक्षित ने कहा है कि पड़ोसी राज्यों से आने वालों के कारण दिल्ली की समस्या बढ़ रही है। ठाकरे मतानुसार, शीला ने जो बात दिल्ली के लिए कही है, वही बात पूरी तरह से मुंबई पर भी लागू होती है। यहां दो बातें स्पष्ट हैं एक तो यह कि ठाकरे की स्मरण-शक्ति क्षीण हो गई है, दूसरी ठाकरे अभी भी मुंबई को अपनी जागीर समझने की भूल कर रहे हैं।
यह ठीक है कि शीला दीक्षित ने पर-प्रांतीयों के विषय में ऐसी टिप्पणी की थी किंतु ठाकरे साहब आपको याद दिला दूं कि उनकी टिप्पणी से जो बवाल उठा था, उसके 24 घंटे के अंदर शीला दीक्षित ने माफी मांगते हुए अपने शब्दों को वापस ले लिया था। निश्चय ही कोई निडर 'मर्द' ऐसा नहीं करता। यह कैसा मर्द जो 24 घंटे में ही अपने उगले को निगल माफी मांग ले। शीला दीक्षित ने वस्तुत: एक अच्छे व निष्पक्ष शासक की तरह गलती का एहसास करते हुए क्षमा मांगी थी। यह एक अच्छा राजनीतिक गुण है। अगर बाल ठाकरे पर-प्रांतीयों के कारण दिल्ली की समस्या को मुंबई की समस्या बताते हैं और शीला दीक्षित को मर्द मानते हैं तो अविलंब शीला की तरह सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगें। तब वे भी मर्द कहलाएंगे। शीला को आदर्श मानने वाले बाल ठाकरे क्या ऐसा करने को तैयार है?
प्रसंगवश, इससे संबंधित एक और वाकये की बाल ठाकरे को याद दिला दूं। जिन दिनों शीला दीक्षित ने उपरोक्त टिप्पणी की थी, उन्हीं दिनों दिल्ली के उप राज्यपाल ने एक आदेश निकाल दिया था कि दिल्ली में किसी अन्य राज्यों द्वारा जारी 'ड्रायविंग लायसेंस' वैध नहीं माने जाएंगे। अर्थात, महाराष्ट्र राज्य में जारी लायसेंस को भी सही मानने से दिल्ली के उप राज्यपाल ने इनकार कर दिया था। यानी, दिल्ली के उप राज्यपाल की नजर में महाराष्ट्र भी अविश्वसनीय था। क्या बाल ठाकरे इस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे? उक्त आदेश पर भी बवाल मचा और विवश उप राज्यपाल को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। इन तथ्यों की मौजूदगी के बावजूद बाल ठाकरे द्वारा शीला दीक्षित को उद्धृत करना निश्चय ही एक हास्यापद कृत्य है?

Monday, December 28, 2009

भाजपा-शिवसेना हाथ मिलाएं, मजबूती से

झारखंड में शिबू सोरेन को भारतीय जनता पार्टी द्वारा समर्थन दिए जाने पर बहस का नया दौर-उसका स्वरूप विचारणीय है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की मीमांसा हमारी 'राजनीतिक-व्यवस्था' को बेपर्दा करेगी। लेकिन, सवाल यह कि ऐसी किसी ईमानदार मीमांसा से निकले निष्कर्ष को कोई स्वीकार करेगा-आत्मसात् करेगा। शायद राजनीतिक भाषणों में ऐसे कुछ संकेत मिलें किंतु व्यवहार के स्तर पर तो कतई नहीं। वर्तमान भारतीय राजनीति की यह ऐसी विडंबना पर निकट भविष्य में विराम लगता नहीं दिख रहा। मूल्य आधारित राजनीति, नैतिकता, ईमानदारी और राष्ट्र-समाज के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव इसके कारण हैं। अपने होल-खोल स्याह राजनीति के बीच गुम सक्रिय चमकदार हाथ क्या कभी दृष्टिगोचर नहीं होंगे? निश्चय ही हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी। सत्ता के लिए अपेक्षित सेवा-भावना का त्याग और 'मेवा' हड़पने की प्रवृत्ति की उपज ने 'राष्ट्रीयता' तक को निगल लिया है। ऐसे में मूल्य, सिद्घांत और आदर्श की अपेक्षा? किताबी ज्ञान लेकर राजनीति में प्रविष्ट नई पीढ़ी भ्रमित है, हताश है। किसी अनुकरणीय पग की तलाश में उसका हाथ-पैर मारना विफल हो रहा है।
शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा को भाजपा ने समर्थन की घोषणा की नहीं कि 'विद्वान समीक्षक' और विरोधी पक्ष सक्रिय हो गए। अखबारों में ऐसे समीक्षकों ने लिखा कि मूल्यों की दुहाई देने वाली भाजपा भी सिद्धांतहीन गठबंधन कर बैठी। टीवी चैनलों पर पुराने फुटेज दिखाए जाने लगे, जिनमें लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में लालकृष्ण आडवाणी को तब के केंद्रीय मंत्री शिबू सोरेन के खिलाफ दहाड़ते दिखाया गया। संसद के बाहर तेजतर्रार सुषमा स्वराज को शिबू सोरेन की बखिया उधेड़ते हुए यह कहते हुए दिखाया गया कि ऐसे व्यक्ति को मंत्री बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। यह भी दिखाया गया कि भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किन जोरदार शब्दों में विकास और मूल्यों की राजनीति की बातें कही थीं। सभी का एकमात्र उद्देश्य भाजपा को 'पार्टी विथ द डिफरेंस' संबंधी दावे की याद दिलाई जाए। मैं इसे एक स्वस्थ आलोचना के रूप में देख रहा हूं। शुभचिंतक ऐसी बातों को सामने लाकर संशोधन की कामना करते हैं। झारखंड अपने निर्माण के समय से ही दुविधा में जीता आया है। राज्य गठन के बाद से पिछले 9 वर्षों में 6 मुख्यमंत्री बने। एक के बाद एक सरकारें गिरीं, सत्ता के लिए छीना-झपटी, घात-प्रतिघात होते रहे, नेताओं के भ्रष्टाचार कुछ यूं उजागर हुए कि राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सुर्खियां मिली। फिर क्या आश्चर्य कि सभी राजनीतिक दल जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। अस्थिरता के न रूकने वाले दौर के कारण कोई भी सरकार अपने कार्यकाल का सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाई। कोई भी पार्टी इतना दम-खम नहीं दिखा सकी कि लोग-बाग उसे शासन की बागडोर सौंपने को तैयार हों। खंडित जनादेश इसी स्थिति की परिणति है। ऐसे में भाजपा ने अपनी ओर से पहल कर शिबू सोरेन को समर्थन देने का निर्णय लिया है, तब स्थिरता के पक्ष में उन्हें समय और अवसर दिया जाना चाहिए। मैं पहले जब भी अवसर मिला, इस तथ्य को रेखांकित करता रहा हूं कि एक सरलहृदयी क्रांतिकारी शिबू सोरेन हमेशा साजिशों के शिकार होते रहे हैं या फिर उनकी सरलता और उदारता का बेजा इस्तेमाल कर राजनीतिक दलों ने उनका उपयोग किया। भाजपा नेतृत्व को शिबू के इस पाश्र्व को ध्यान में रखते हुए उन्हें 'सु-शासन' के पक्ष में तैयार करना होगा, प्रेरित करना होगा। शासन के व्यवहार में आने वाली वर्जनाओं को हाशिए पर रख झारखंड के 'गुरूजी' के 'सपनों के झारखंड' को मूर्त रूप देने के लिए परस्पर सहयोग व विश्वास जरूरी है। झारखंड की जनता वस्तुत: शिबू की तरह सरलहृदयी व उदार है। उसके आगोश में कोई भी शरण ले सकता है। शर्त यह है कि उसकी पीठ में छुरा न भोंका जाए। राजनीतिक स्थिरता की स्थापना के लिए भी परस्पर विश्वास-सहयोग जरूरी है। इस आग्रह को भाजपा, झाारखंड मुक्ति मोर्चा, जद(यू) और आजसू भी हृदयस्थ कर लें।

Sunday, December 27, 2009

बेशर्म तिवारी का यह कैसा महिमामंडन!

नारायण दत्त तिवारी के राज्यपाल पद से इस्तीफे पर आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो कांग्रेस की ओर से इस्तीफे के स्वागत पर है। कांग्रेस को ेफख्र है कि तिवारी ने इस्तीफा देकर मिसाल कायम की है, एक आदर्श पेश किया है। शाबाश! अगर तिवारी इस्तीफा नहीं देते तब क्या राष्ट्रपति उन्हें बर्खास्त कर देतीं? क्या केंद्र सरकार बर्खास्तगी की अनुशंसा करती? कांग्रेस प्रवक्ता यह नहीं बता पाए। खबर है कि राजभवन में भाड़े की यौवनाओं के साथ रासलीला रचाने वाले राज्यपाल तिवारी इस्तीफा देने को तैयार नहीं थे। एक आम बेशर्म राजनीतिक की तरह वे स्वयं को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रहे थे। अपने खिलाफ रचे गए किसी अज्ञात षड्यंत्र की दुहाई दे रहे थे। लेकिन अंतत: दबाव में आकर उन्होंने इस्तीफा सौंप दिया। यहां केंद्र सरकार चूक गई। तिवारी का दुष्कर्म सामने होते ही उन्हें बर्खास्त कर केंद्र सरकार वस्तुत: अपनी ओर से मिसाल कायम कर सकती थी। उसने ऐसा तो किया नहीं, उल्टे तिवारी को महिमामंडित करने के लिए अवसर दे दिया कि वे कथित मिसाल पेश करें। क्या यह जनभावना का उपहास नहीं? बिल्कुल ऐसा ही है और केंद्र सरकार इसकी अपराधी है। अब यक्ष प्रश्र यह है कि क्या इस्तीफा दे देने से तिवारी अपराध मुक्त हो जाएंगे? कभी 'नई दिल्ली तिवारी' के नाम से मशहूर संजय गांधी भक्त तिवारी को जानने वालों को इस रासलीला की खबर पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे तो परिणाम की प्रतीक्षा में हैं। राजभवन की गरिमा-पवित्रता को लांछित करने वाले तिवारी के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की प्रतीक्षा है। रुचिका कांड के अपराधी हरियाणा के पूर्व पुलिस महासंचालक राठौर के खिलाफ पूरे देश में रोष है। सरकार ने उन्हें प्रदत्त पुलिस मेडल व पेंशन वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। राठौर एक नाबालिग लड़की के साथ छेड़छाड़ के दोषी पाए गए। इनके मुकाबले क्या नारायण दत्त तिवारी का अपराध गंभीर नहीं? तिवारी तो अपने पद का दुरुपयोग कर प्रलोभन देकर यौन-शोषण करने के अपराधी हैं। गरीब लड़कियों की अस्मत् के साथ खेलने का घृणित कृत्य किया है इन्होंने। खनन-पट्टा दिलाए जाने का झूठा प्रलोभन क्या षड्यंत्र की श्रेणी में नहीं आता? अपनी यौन-तुष्टि के लिए एक संदिग्ध चरित्र की महिला से सहयोग लेकर तिवारी ने न केवल राज्यपाल पद की गरिमा-पवित्रता को तार-ृतार किया है बल्कि भारत की संवैधानिक संस्थाओं पर आसीन सभी लोगों को कठघरे में खड़ा कर दिया है। ठीक उसी तरह, जिस तरह एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। तिवारी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे, यहां तक कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी रहे। भारतीय राजनीति के ऐसे किरदार ही लोकतंत्र को लांछित करते रहे हैं। अगर हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता-गरिमा को बेदाग रखने के प्रति गंभीर है, तब वह तिवारी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करे। उनके खिलाफ आपराधिक मामला चलाया जाए। तभी सभी के लिए समान कानून की पवित्र अवधारणा की विजय होगी।

Saturday, December 26, 2009

छेड़छाड़ ही नहीं, हत्या के अपराधी हैं 'राठौर'!

रुचिका तो अब वापस नहीं आएगी, किंतु उस मासूम की 'हत्या' में शामिल खूनी हाथों के धारक समाज में मुस्कुराते हुए कैसे विचरण कर रहे हैं? शायद बहुत कड़वा लगेे, अरुचिकर भी निरुपित किया जा सकता है, बावजूद इसके मैं विवश हूं इस टिप्पणी के लिए कि यह अवस्था शासन और समाज दोनों को 'नपुंसक' घोषित कर रहा है। रुचिका ने भले ही जहर पीकर आत्महत्या की हो, तथापि सभी समझदार इसे 'हत्या' ही मानेंगे। उसे मजबूर किया गया था अपने प्राण देने के लिए। फिर इसे हत्या की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाए? दोषी हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस.पी.एस. राठौर को मिली सजा अदालत के लिए भी सजा के आग्रही है। इस पर लचर न्याय प्रणाली की चर्चा मैं पहले कर चुका हूं। आज अगर इस विषय को उठा रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए कि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने जिम्मेदारी से बचते हुए राजनीतिक खेल खेलने की कोशिश की है। न्यायपालिका के बाद विधायिका का उजागर यह चरित्र चीख-चीख कर सड़ी-गली व्यवस्था को पूरी तरह से बदल डालने की मांग कर रहा है। चौटाला का यह कथन कि उन्होंने राठौर को नहीं बचाया था, गलत है। झूठ बोल रहे हैं चौटाला । दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं इस बात को प्रमाणित करने के लिए कि चौटाला और हरियाणा सरकार के तंत्र ने रूचिका को आत्महत्या करने और उसके परिवार को भूमिगत होने के लिए मजबूर किया था। पूरे मामले की फिर से जांच किए जाने का निर्णय हो चुका है, लेकिन जांच तो पहले भी हुई थी। सरकारी तंत्र और जांच एजेंसियां वही हैं, जो पहले थीं। चेहरे भले ही बदल गए हों, चरित्र नहीं । यही वह चरित्र है, जिसने अनेक रूचिकाओं को प्रकाश में नहीं आने दिया। कोई स्वतंत्र, निष्पक्ष एजेंसी जांच कर ले, पता चलेगा कि रूचिका की तरह घटित सैकड़ों हजारों मामलों के कब्र बना डाल गए। यहां मीडिया की विफलता भी परिलक्षित है। हाई-प्रोफाईल मामलों पर तो कलमें चलती हैं, कैमरे उन्हें कैद कर लेते हैं किंतु समाज में प्रतिदिन राठौर सदृश हवस की शिकार होते गरीब, शोषित वर्ग की कोई सुध नहीं लेता। चूंकि वे बिकाऊ नहीं होते, मीडिया नजरें चुरा लेता है। चुनौती है उन्हें कि वे सच बोलने, सच लिखने और सच दिखाने का साहस दिखाएं। रूचिका की आत्मा अदालत से बाहर निकलते राठौर की मुस्कुराहट पर सौ-सौ आंसू बहा रही होगी। उसे शांति तभी मिलेगी जब राठौर को छेड़-छाड़ के लिए, आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का दोषी करार दे अदालत कड़ी सजा दे । नए सिरे से जांच करने वाली एजेंसी पर पूरे देश की नजरें टिकी रहेंगी।

Friday, December 25, 2009

तेलंगाना : कमजोर एवं विवश केंद्र सरकार

तेलंगाना के मुद्दे पर अपने वादे से पीछे हटने वाली केंद्र सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह एक कमजोर सरकार है, गृह मोर्चे पर असहाय सरकार है। पहले तो केंद्र ने अपने ही गृहमंत्री पी. चिदंबरम को पूरे देश के सामने झूठा और निरीह साबित किया और अब आम सहमति के नाम पर पलायनवादी रूख अपना रही है। तेलंगाना को ठंडे बस्ते में डाल केंद्र सरकार क्या भड़की आग पर काबू पा सकेगी? यह संभव नहीं। मैं पहले टिप्पणी कर चुका हूं कि तेलंगाना की चिनगारी केंद्र सरकार की ढुलमुल नीति के कारण दावानल का रूप ले लेगी। हिंसक प्रदर्शन और सांसदों-विधायकों के इस्तीफे ने खतरे की घंटी बजा दी है। राजनीतिक दलों के बीच मतभेद की बात करने वाले गृहमंत्री पी. चिदंबरम को क्या इसकी जानकारी उस समय नहीं थी, जब उन्होंने पृथक तेलंगाना राज्य के गठन के पक्ष में नीतिगत घोषणा की थी। कहा था कि पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस मुद्दे पर मतभेद का इतिहास तो काफी पुराना है। लगभग 46 वर्ष पूर्व इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव को सिर्फ इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि तटीय आंध्रप्रदेश के विधायकों ने तेलंगानावासी राव के विरूद्ध हिंसक आंदोलन छेड़ दिया था। उस आंदोलन में पुलिस के हाथों लगभग 350 प्रदर्शनकारी मारे गए थे। पृथक तेलंगाना का आंदोलन तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए चुनौती था। इंदिरा ने तब अपनी विशेष शैली से आंदोलन की आग पर पानी डाल दिया था, लेकिन आग कभी बुझी नहीं। ताजातरीन आंदोलन तब के आंदोलन से आधिक उग्र बनने जा रहा है। पृथक तेलंगाना के विरोधियों का तर्क है कि एक ही भाषा बोलने वाले प्रदेश को दो राज्यों में नहीं बांटा जा सकता। यह तर्क बे-जान है। इसके पूर्व गठित झारखंड बिहार से अलग हुआ, छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग हुआ और उत्तराखंड उत्तरप्रदेश से अलग हो चुका है। ये राज्य भाषा के आधार पर नहीं बंटे। सभी की भाषा एक ही थी। आम सहमति की बात भी बेमानी है। जिस समय झारखंड बिहार से अलग हुआ, उस समय बिहार में जनता दल का शासन था और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। लालू घोषणा कर चुके थे कि बिहार का विभाजन उनकी लाश पर होगा। किंतु विभाजन हुआ और लालू भी सही सलामत रहे, लाश नहीं बने। वैसे लालू तो बेचारे छोटे हैं, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अखंड भारत के पक्ष में घोषणा कर रखी थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। उनके ही शिष्यों ने उनकी अनदेखी की। विभाजन के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। गांधी को पूछा भी नहीं। आज जब तेलंगाना जल रहा है, कड़े निर्णय की जरूरत है। राजनीतिक दांव-पेंच और तेलुगू भाषियों को लड़ाने की साजिश रची जा रही है। यह वह राजनीति का घृणित दांव-पेंच है, जो राजनीतिज्ञों को जनता की नजरों में अविश्वसनीय बनाती है। केंद्रीय नेता इस तथ्य को नजरअंदाज न करें कि आरंभिक विरोध के बावजूद आंध्र के विभाजन पर कोई बड़ा बवाल नहीं मचने वाला? उपेक्षा की शिकार तेलंगाना अगर एक राज्य बनकर विकास की दौड़ में शामिल होना चाहता है तो उसे क्यों रोका जा रहा है? और यहां तो मामला वादाखिलाफी का भी बनता है। तब अनशन पर बैठे तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव का अनशन तोड़वाया गया, पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की घोषणा के साथ। बेहतर हो इसी नेता व रूप विशेष को खुश करने की जगह तेलंगाना के व्यापक हित में उसे राज्य का दर्जा दे दिया जाए। भारत अभी महंगाई और आतंकवाद के खतरों से जूझ रहा है। अभी जरूरत है कि अन्य विवादों से परे सभी मिलजुल कर इनका मुकाबला करें। महंगाई जहां गरीबों के मुंह से निवाला छीन रही है, वहीं आतंकवाद निर्दोषों के खून से होली खेल रहा है।

Thursday, December 24, 2009

अब होगी शिबू सोरेन की असली परीक्षा!

झारखंड की राजनीति में मीडिया और तथाकथित चुनावी पंडितों द्वारा घोषित 'मृत शेर' अचानक दहाड़ कैसे उठा? हां! मैं बातें कर रहा हूँ झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन उर्फ गुरुजी की। विधानसभा चुनाव पूर्व सभी ने उन्हें अप्रासंगिक घोषित कर दिया था। कहा गया था कि शिबू सोरेन की लोकप्रियता झारखंड में खत्म हो गई है, बल्कि लोग उनसे घृणा करने लगे हैं, भ्रष्ट बताया गया, पुत्र मोह वाले धृतराष्ट्र निरूपित किए गए। लिखा गया और बोला गया कि इस बार चुनाव में मतदाता उन्हें नकार देगा। लेकिन परिणाम ने सभी के मुंह बंद कर दिए। जाहिर है इस करिश्मे को अंजाम दिया झारखंड के मतदाता ने। 18 सीटों पर मोर्चा के उम्मीदवारों को विजय का ताज पहनाकर। इनमें शिबू सोरेन के पुत्र व पुत्र वधू भी शामिल हैं। अर्थात धृतराष्ट्र का आरोप भी गलत साबित हुआ। शिबू अब मुख्यमंत्री बनेंगे। यही वह मुकाम है जहां पहुंचने के लिए शिबू व्यग्र थे। 70 के दशक में मृत घोषित पृथक झारखंड आंदोलन को पुनर्जीवित कर इसे हासिल करने वाले शिबू सोरेन हर दृष्टि से इस पद के हकदार हैं। मुझे याद है, पिछले वर्ष एक बार जब मैंने शिबू के पक्ष में जानकारी देते हुए लिखा था कि सोवियत रूस और चीन में उन्हें भारत का दूसरा गांधी कभी निरूपित किया था तब कुछ प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आईं थीं। लेकिन इस सच को भला कैसे झुठलाया जा सकता है। शिबू 'गुरुजी' यूं ही नहीं बने। कुर्बानियों का लंबा इतिहास है। सूदखोर महाजनों के खिलाफ और अपने समाज में नशामुक्ति का अभियान चला उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया था। राजनीति के तंग, स्याह गलियारे से बेदाग निकलना किसी मानव के लिए आज संभव नहीं है। कालिख के दाग बहुत संभल कर चलने के बावजूद यहां-वहां लग ही जाते हैं। यह समाज व वर्तमान राजनीति का यथार्थ है। लेकिन जब शिबू केंद्रीय मंत्री बने, तब उनके खिलाफ षड्यंत्र रचे गए। उन तत्वों द्वारा जिनकी निगाहें झारखंड की अकूत खनिज व वन संपदा पर थी। इस गिरोह की दाल शिबू के रहते गलनी संभव नहीं हो रही थी। षड्यंत्र को अंजाम दिया गया। उन्हें जेल तक भिजवा दिया गया। इस वर्ग से प्रभावित प्रचार तंत्र ने ही शिबू के खिलाफ वातावरण तैयार करने और उन्हें राजनीतिक रूप से 'मृत घोड़ा' प्रचारित किया। बूढ़ा शेर बताया गया। लेकिन अंत में मतदाता ने दूध का दूध और पानी का पानी कर ही दिया। यह सच सामने आ गया कि शिबू सोरेन की लोकप्रियता व प्रभाव में कोई कमी नहीं आई है। पृथक झारखंड प्रदेश के उदय का श्रेय चूंकि शिबू को जाता है, राज्य को एक नई दिशा देने की उनकी बेचैनी समझी जा सकती है। पिछले 9 वर्षों में छह मुख्यमंत्री देख चुका झारंखड राज्य अब स्थायित्व का आग्रही है। समय की मांग है कि राज्य हित में कांग्रेस व उसकी सहयोगी पार्टियां शिबू सोरेन को सहयोग, समर्थन देकर सत्ता की बागडोर सौंप दें। उन्हें अवसर प्रदान करें ताकि शिबू अपने वादों को पूरा कर सकें। शिबू सोरेन की तब परीक्षा भी हो जाएगी।

Wednesday, December 23, 2009

फिर कटघरे में न्याय प्रणाली!

चाहें तो इसे न्यायपालिका की अवमानना की श्रेणी में डाल दें, मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि एक बार फिर हमारी न्याय प्रणाली बदनाम हुई है, बेबस सिद्ध हुई है, सामथ्र्यवान के पक्ष में झुकी दिखी। अगर यह कहा जाए कि न्याय लांक्षित हुआ है तो गलत नहीं होगा। मैं इस टिप्पणी व आकलन में निहित कानूनी जटिलता को नहीं समझता। यह भावना यौन उत्पीडऩ मामले में हरियाणा के पूर्व पुलिस महासंचालक को छह माह की सजा सुनाए जाने के बाद मिल रही त्वरित प्रतिक्रियाओं पर आधिरित है। संसद में भी मामला उठा और ऐसे मामलों में त्रुटिपूर्ण न्यायिक व्यवस्था की चर्चा हुई। अल्प सजा पर असंतोष व्यक्त किए गए। मामले की फास्ट ट्रैक कोर्ट में पुन: सुनवाई की मांग की गई।
नि:संदेह इस मामले में अदालत की भूमिका ने न्याय की मूल भावना को चोट पहुंचाई है। विलंबित और संदिग्ध न्याय ने इस जरूरत को मजबूती प्रदान की है कि भारतीय न्याय व्यवस्था सुधार की आग्रही है।
आज से 19 वर्ष पूर्व 14 साल की उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरौत्रा के यौन उत्पीडऩ का आरोप तब के पुलिस महानिरीक्षक एसपीएस राठौड पर लगा था। चश्मदीद गवाह के रूप में रुचिका की एक मित्र मधु सामने आई और न्याय के लिए 19 वर्षों तक डटी रही। उसने पुलिस और अदालत को रुचिका के साथ छेड़छाड़ की घटना का सविस्तार वर्णन किया था। लेकिन पूरा मामला 19 वर्षों तक चला और सजा सुनाई गई मात्र छह माह जेल। यही नहीं सजा सुनाए जाने के 10 मिनट के अंदर राठौड को जमानत मिल गई। यानी राठौड जेल नहीं भेजे गए। इस घटना ने एक बार फिर यही तो सिद्ध किया है कि रसूखदार बड़ा से बड़ा अपराध कर बच निकलते हैं। धन बल और संपर्क शक्ति उन्हें बचा ले जाते हैं। इंकार तो किए जाएंगे किन्तु रुचिका के मामले में ये आरोप हर कोण से सही दिख रहे हैं। एक 14 साल की बच्ची के साथ राज्य के एक बड़े पुलिस अधिकारी की छेड़छाड़ यानी यौन शोषण अत्यंत ही गंभीर अपराध है। पूरा का पूरा पुलिस प्रशासन उन्हें बचाने में लगा रहा। यही नहीं, 1990 की इस घटना के बाद 3 वर्षों तक न केवल मामले को दबाने की कोशिश की जाती रही बल्कि रुचिका के परिवार के सदस्यों को प्रताडि़त भी किया गया। रुचिका का एक भाई चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया। परिवार की प्रताडऩा, अपने साथ किए गए दुव्र्यवहार और आरोपी पुलिस अधिकारी को बेखौफ घूमते देख क्षोभ, अपमान और ग्लानी की मारी रुचिका ने आत्महत्या कर ली। किन्तु शाबास मधु! अनेक दबाव और प्रलोभनों से अविचलित यह चश्मदीद गवाह 19 वर्षों तक अडिग रही। यहां तक कि आस्ट्रेलिया से वह भारत आई किन्तु न्याय के हाथों उसे निराशा हाथ लगी। यह ठीक है कि पूर्व डीजीपी राठौड को अदालत ने दोषी पाया किंतु अल्प सजा दिए जाने के कारण अदालत खुद कटघरे में खड़ी नजर आ रही है। न्याय की मूल भावना कि न्याय न केवल हो बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, इस मामले में नदारद है। अदालत के फैसले से समाज में अत्यंत ही गलत संदेश गया है। बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच न्याय सिर्फ रसूखदारों की मदद करती है? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा कैसे गुम हो गई? जिस दिन यह स्थापित हो गया कि न्यायपालिका छोटे-बड़ों में भेद करती है, न्याय मंदिर की पवित्रता समाप्त हो जाएगी। लोगों का विश्वास न्याय मंदिर में बैठे 'देवताओं’ पर से उठ जाएगा। यह स्थिति अत्यंत ही खतरनाक है। अगर तत्काल न्यायपालिका अपनी खोती जा रही विश्वसनीयता को वापस प्राप्त नहीं कर लेती तो इसके प्रतिउत्पादक परिणाम भयंकर होंगे। मुठीभर रसूखदार-धनबली अपनी रक्षा नहीं कर पाएंगे। मैं दोहरा दूं कि यहां उन संभावनाओं की चर्चा कर रहा हूं जो गली-कूचों में दीवारों पर लिखी जा रही हैं। गरीबों की फटी एडिय़ों वाले पांव का मुकाबला रसूखदारों के कोमल पांव कभी नहीं कर सकते। भागने में असमर्थ यह वर्ग तब समर्पण कर देगा। डर सिर्फ इस बात का है कि ऐसी अवस्था में विलंब के कारण 'रुचिकाओं’ की संख्या कहीं बढ़ती न जाए। न्यायपालिका पर देश को भरोसा है। यह अवश्य है कि हर क्षेत्र की तरह न्याय के क्षेत्र में भी कतिपय काले भेडिय़ों को प्रवेश मिल गया है। फिर देर किस बात की? इन्हें पहचानें और अलग कर दें। न्यायपालिका की पवित्रता के लिए यह जरूरी है।

एक अनुकरणीय पहल अनिवार्य मतदान!

फिर पीड़ा हुई, मन क्षुब्ध हो उठा। बुद्धिजीवी बुद्धि का इस्तेमाल करें, यह तो वांछित है। लेकिन उनमें से जब कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पक्षपात और पूर्वाग्रही सोच के लिए इसका प्रयोग करते हैं, तब देश-समाज छला जाता है। स्वयं को हमेशा सही और सर्वश्रेष्ठ बताने की इनकी ललक से समाज में भ्रांतियां पैदा होती रहती हैं। निष्पक्षता से वंचित कोई व्यक्ति बुद्धिजीवी के रूप में पूर्णत: स्वीकार्य कभी नहीं हो सकता। ये बातें उन समीक्षकों पर भी लागू होती हैं जो देश और समाज की नाड़ी परखने की अहम् जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं।
गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार की अनिवार्य मतदान के लिए की गई ऐतिहासिक पहल क्या अनुकरणीय नहीं है? फिर तथाकथित बुद्धजीवियों के एक वर्ग की ओर से आलोचना क्यों? मुझे याद है 1996 का आम चुनाव। तब मैं दिल्ली में था। मतदान के दिन सुख्यात पत्रकार व समीक्षक कुलदीप नैयर ने एक मतदान केंद्र पर मतदाताओं की पंक्ति की ओर देखकर टिप्पणी की थी कि इनमें से अधिकांश अपरिपक्व हैं। इनमें वह वर्ग नदारद है जो मत और शासन के महत्व को समझता है। इसके बाद ऐसी मांग उठती रही कि कानून बनाकर मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए। इस मांग को समर्थन मिला, किसी कोने से विरोध नहीं हुआ। क्योंकि यह सच मुंह बाये सामने खड़ा दिखा कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करने वाला अधिकांश मतदाता जाति, धर्म, दबाव, प्रलोभन और बयार से प्रभावित है। शिक्षित, समझदार मतदाताओं का बड़ा वर्ग मतदान के दिन अपने घरों में बैठ अवकाश का लुत्फ उठाता है। चाय, कॉफी की चुस्कियों के बीच लोकतंत्र, चुनाव और सत्ता पर बहस करेंगे, भाषण देंगे। किन्तु यह कथित समझदार वर्ग सत्ता निर्माण की प्रक्रिया से स्वयं को अलग रखता है। फिर क्या आश्चर्य कि आज देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया राजनीतिक दल केंद्रित हो गई है? मोदी सरकार ने पहल कर स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए मतदान को अनिवार्य कर दिया है। कोई इसमें मीन-मेख न निकाले। राजनीति के माइक्रोस्कोप से न देखें। यह वह अनुकरणीय पहल है जो लेाकतांत्रिक प्रक्रिया को मतदान केंद्रित बनाएगी। 'ड्राइंग रूम पालिटिक्स' की चर्चाएं बेमानी हो जाएंगी। चूंकि गुजरात के बने कानून में नकारात्मक मतदान का भी प्रावधान रखा गया है, यह आरोप नहीं लगेगा कि मतदाता की इच्छा के विरुद्ध किसी को बाध्य किया गया। स्वतंत्र सोच संबंधी जनतंत्र की मूल भावना की रक्षा भी होगी। बावजूद इसके अगर कोई इसकी आलोचना कर रहा है तो सिर्फ इसलिए कि इस ऐतिहासिक पहल का श्रेय नरेंद्र मोदी के खाते में जा रहा है। उनकी असली चिंता यही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दलगत राजनीति और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से इतर गुजरात की इस पहल का अनुकरण कर राष्ट्रीय स्तर पर आम चुनावों के लिए भी अनिवार्य मतदान सुनिश्चित किया जाए।

Monday, December 21, 2009

एक न्यायाधीश 'दलित' कैसे हो सकता है!

जातीयता के जहर में बुझा यह तीर इस बार सीधे राजनीति के सीने को भेद गया है। साथ ही घोर स्वार्थी राजनीति का बदरंग स्याह चेहरा भी एक बार फिर सामाजिक सौहाद्र्र को मुंह चिढ़ा रहा है। मैं बार-बार इस पीड़ा को उद्घृत करता रहा हूं कि सांप्रदायिकता से कहीं अधिक खतरनाक जातीयता है। यह एक ऐसा कैंसर है जो धीरे-धीरे लाइलाज की अवस्था में पहुंचने लगा है। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती खफा हैं कि कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनकरण के खिलाफ संसद में महाभियोग इसलिए लाया गया क्योंकि वे एक दलित हैं। शर्म तो खैर मायावती को आएगी नहीं, लेकिन फिर भी देश चाहेगा कि वह बेशर्मों की तरह ही सही ऐसी घोषणा कर दें कि वे और उनकी पार्टी बसपा पूर्णत: जातीय आधारित पार्टी है, देश का सामाजिक ताना-बाना चाहे छिन्न-भिन्न हो जाए, वे जातीयता और सिर्फ जातीयता करेंगी। शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे न्याय मंदिर के एक प्रहरी दिनकरण को जातीयता के धागे में बांध उन्होंने देश की न्याय व्यवस्था को लांछित करने की कोशिश की है। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता। न वह दलित होता है और न उच्चवर्गीय। न्याय की कुर्सी पर बैठा हुआ समानता व योग्यता के आधार पर न्याय करता है। उसके आदेश को ईश्वर के फैसले के रूप में मान्यता मिलती है। यह पूरे देश के लिए शर्म की बात है कि मायावती के साथ-साथ छह दर्जन से अधिक सांसद भी न्यायाधीश दिनकरण के खिलाफ कार्रवाई को जातीय रंग दे रहे हैं। धिक्कार है उन पर। उन्हें जनप्रतिनिधि कहलाने का अधिकार नहीं। मामला महाभियोग के रूप में संसद में है। अपेक्षा तो यह थी कि भ्रष्टाचार का आरोप लगते ही माननीय न्यायाधीश इस्तीफा दे देंगे। लेकिन इस्तीफा तो दूर महाभियोग प्रस्ताव आने के बाद न्यायिक कार्यों से वंचित दिनकरण प्रशासनिक कार्य निष्पादन में संलग्र हैं। उनके एक सहयोगी न्यायाधीश डी.वी. शैलेंद्र कुमार ने बिल्कुल ठीक ही इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज की है। देश की जनता तो स्तब्ध इस बात को लेकर है कि एक बार फिर संविधान में महाभियोग के प्रावधान का मजाक बनने जा रहा है। इसके पूर्व न्यायाधीश रामास्वामी के मामले में दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर तब सत्ता पक्ष ने महाभियोग प्रस्ताव पर मतदान में अनुपस्थित रह उनकी मदद कर दी थी। संसद उन्हें दंडित नहीं कर पाया था। जब दिनकरण के खिलाफ महाभियोग का नोटिस दिया गया था, तभी मैंने आशंका प्रकट की थी कि इस मामले का भी हश्र शायद रामास्वामी सरीखा ही हो। लेकिन इस बार इसका खतरनाक पहलू जातीय सर्प का फन काढऩा है। संसद भवन की दीवारें शायद गवाह बनेंगी, जातीय आधार पर संसद में विभाजन का। महाभियोग प्रस्ताव आया है, तब सांसदगण इसका निपटारा योग्यता के आधार पर होने दें। जातीयता के बदबूदार चादर को दिनकरण का सुरक्षा कवच न बनने दें। अन्यथा देश का लोकतंत्र लांछित होगा। जातीयता और सांप्रदायिकता ऐसी प्रवृत्ति है जिस पर आरंभ में अगर अंकुश न लगा तब वह दावानल की तरह विस्तार ले लेती है। लोग अभी भूले नहीं होंगे क्रिकेट खिलाड़ी अजहरुद्दीन के मामले को। जब 'मैच फिक्सिंग' के आरोप में दंडित कर उन पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया था, तब प्रतिक्रिया स्वरूप उनकी टिप्पणी क्या थी? मोहम्मद अजहरुद्दीन ने तब सांप्रदायिकता का सहारा लेते हुए अपने बचाव में कहा था- चूंकि वे एक मुसलमान हैं, उन्हें फंसाया जा रहा है। विवेकशील भारत में तब उनके विचार का खरीदार कोई सामने नहीं आया था। लेकिन वही अजहरुद्दीन आज लोकसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस के एक सम्माननीय सदस्य हैं। यह बहस का एक स्वतंत्र विषय है किन्तु कभी न कभी कांग्रेस नेतृत्व से यह अवश्य पूछा जाएगा कि मायावती की जातीय सोच की तरह सांप्रदायिक सोच वाले अजहरुद्दीन को धर्मनिरपेक्षता का पहरूआ बताने वाली कांग्रेस ने अपने आगोश में लिया तो कैसे? प्रसंगवश, न्यायाधीश दिनकरण के मामले में मायावती की सोच का साथ कुछ कांग्रेसी सांसद भी दे रहे हैं।

चुनौती गडकरी के लिए नहीं, कांग्रेस के लिए है!

भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने चुनौतियों का हौव्वा खड़ा करने वाले दरअसल असली चुनौती की अनदेखी कर रहे हैं। चादर के नीचे ढंकी यह चुनौती है कांग्रेस के लिए, उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए। भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी की नियुक्ति पर शंका-कुशंका प्रकट करने वाले वस्तुत: एक गहरी साजिश के शिकार बन गए। जब से ऐसी बात उछली थी कि भाजपा का नया अध्यक्ष दिल्ली की चौकड़ी से बाहर का होगा, षड्यंत्र का जाल बुना जाने लगा था। और जब निर्णायक रूप में महाराष्ट्र के नितिन गडकरी का नाम सामने आया, तब एक योजना बना कर नकारात्मक प्रचार का पिटारा खोल दिया गया- कहा गया कि दिल्ली और महाराष्ट्र में अंतर है..., अनुभवहीन हैं...., ब्राह्मण हैं...., महाराष्ट्र के बाहर पहचान नहीं..., सिर्फ संघ की पसंद हैं..., राष्ट्रीय राजनीति से सरोकार नहीं..., जूनियर हैं... आदि-आदि। ऐसे दुष्प्रचार की जनक मंडली को असल में सचाई की तनिक भी जानकारी नहीं। नकारात्मक और सनसनी पैदा करने वाली खबरों को ईजाद करनेवाले इन लोगों का निहित स्वार्थी तत्वों ने आसानी से इस्तेमाल कर लिया। अब सचाई सामने आने पर अब ये झेंप मिटाने हेतु मुंह छिपाते नजर आ रहे हैं। यह सच सामने आ गया कि गडकरी भाजपा संगठन की पसंद हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मनोनीत नहीं। गडकरी के अध्यक्ष पद पर चयन ने ही सभी शंकाओं-कुशंकाओं को खारिज कर दिया है। विद्यार्थी परिषद के एक साधारण कार्यकर्ता से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर पहुंचना क्या उनकी राष्ट्रीय लोकप्रियता, पहचान, स्वीकार्यता और कुशल-सफल संगठन क्षमता को चिन्हित नहीं करता? तथ्य चीख-चीख कर इनकी पुष्टि कर रहे हैं। अफवाहें फैलाकर गडकरी के खिलाफ न केवल वातावरण तैयार करने की कोशिश की गई थी बल्कि स्वयं गडकरी को भी डराने का प्रयास था वह। कारण जान लें। अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद यह कड़वा सच रेखांकित है कि अनेक बड़े राज्यों में सत्तासीन, मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय दल भारतीय जनता पार्टी लगभग नेतृत्वहीन रही। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का यह एक दुखद पक्ष है। केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस इसलिए अपनी मनमानी करती रही है कि उसे विपक्ष से अब तक कोई बड़ी चुनौती नहीं मिली थी। पिछले लोकसभा व कुछ राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को अगर सफलताएं मिलीं तो उसकी लोकप्रियता के कारण नहीं, बल्कि विपक्ष, मुख्यत: भाजपा के बिखराव के कारण। अन्यथा जिस देश में शक्कर व प्याज की बढ़ी कीमतों के कारण जनता ने केंद्र सरकार उखाड़ फेंके, वही देश आज खाद्य पदार्थों, तेल, नमक, शक्कर व सब्जियों की आसमान छूती कीमतों के बावजूद अगर तटस्थ है तो विपक्ष की निष्क्रियता के कारण ही। महंगाई के मुद्दे पर जनता को आंदोलित करने में अब तक विपक्ष विफल रहा है। इनकी निष्क्रियता का लाभ कांग्रेस भरपूर उठा रही है। लेकिन, अब और नहीं! कांग्रेस को सावधान करने की जरूरत नहीं, वह अंदर ही अंदर पहले से ही बेचैन है। गडकरी के रूप में भाजपा को एक ऐसा आक्रामक अध्यक्ष मिला है, जो धूप-बरसात की परवाह किए बगैर सड़कों पर उतर जनांदोलन छेडऩे में निपुण है। विषम परिस्थितियों को झेलने के आदी गडकरी कांग्रेस को चुनौती देने को तैयार मिलेंगे- चाहे मुद्दा बढ़ी हुई कीमतों का हो, कथित सांप्रदायिकता का हो, विदेश नीति का हो, सीमा की सुरक्षा का हो, अर्थव्यवस्था का हो, या फिर विश्व समुदाय में भारत की सशक्त छवि का हो, नितिन गडकरी हर जगह मौजूद दिखेंगे। राजनीतिक भाषणबाजी से दूर गडकरी योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने में विश्वास रखते हैं। कोई लफ्फाजी नहीं, काम करो और काम करने दो। आम नेताओं की तरह समय का अपव्यय कर दरबार सजाने से घृणा करने वाले गडकरी कांग्रेसी संस्कृति के सामने राष्ट्रहितकारी 'गडकरी संस्कृति' का आदर्श प्रस्तुत करेंगे। कुछ लोगों को ये आकलन मात्र लफ्फाजी लग सकती है। उनसे प्रार्थना है, वे थोड़ी प्रतीक्षा करें, सच सामने आ जाएगा। कांग्रेस खेमे में बेचैनी यूं ही नहीं है। गडकरी को भयभीत करने का अभियान यूं ही नहीं चलाया गया था। आने वाले दिनों में भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी के सामने कांग्रेस नेतृत्व की कथित तेजस्विता फीकी पड़ जाएगी और तब सभी साजिशकर्ता फर्श पर चित नजर आएंगे।

Saturday, December 19, 2009

भाजपा की दशा-दिशा और गडकरी

क्या नितिन गडकरी दिल्ली की कथित भाजपा चौकड़ी की मौजूदगी में पार्टी को प्रभावी नेतृत्व दे पाएंगे? क्या दिल्ली का समर्थन-सहयोग गडकरी को मिल पाएगा? ये सवाल हवा में उछाले जा रहे हैं। लोग जान लें कि ये सवाल न तो भाजपा संगठन के लोग पूछ रहे हैं और न ही पार्टी के अन्य नेता। वस्तुत: सवाल पूछे जा रहे हैं मीडिया की ओर से-संदेह के रूप में। इसमें कोई कारण नहीं। कारण साफ है। चूंकि, नितिन गडकरी दिल्ली के बाहर के हैं, मीडिया परेशान है। वह अचंभित है कि 'दिल्ली संस्कृति' से दूर 'झुनका भाकर ' संस्कृति वाले गडकरी राजधानी की चिकनी सड़कों पर पैर जमाएंगे तो कैसे? लेकिन, दिल्ली मीडिया और उसके सुर में सुर मिलाने वाले किसी गफलत में न रहे। गडकरी जरूरत पडऩे पर कारपोरेट संस्कृति और आवश्यकतानुसार गली-कूचों की संस्कृति को न केवल सरलतापूर्वक अपना लेते हैं बल्कि इनकी वेश-भूषा में सफल नेतृत्व भी भली-भांति कर लेते हैं। वह भी यूं कि लोग-बाग स्वत: अनुकरण को आतुर हो जाएं। गडकरी राजनीति के लिए नहीं, बल्कि विकास के लिए राजनीति करने वाले अद्वितीय राजनीतिक हैं। इनकी दृष्टि स्पष्ट है। गडकरकहते हैं कि अगर हम राज्य के विकास के लिए सिर्फ सरकार पर निर्भर करेंगे, तब लक्ष्य-प्राप्त करना सरल नहीं होगा। गडकरी को जानने वाले सादे कागज पर हस्ताक्षर कर प्रमाण-पत्र देने को तैयार मिलेंगे कि गडकरी सदृश सांगठनिक क्षमता का धनी व्यक्तित्व विरले ही धरती पर आता है। निर्धारित नीति और लक्ष्य का क्रियान्वयन और प्राप्ति की वांछित कर्मठता गडकरी के रोम-रोम में मौजूद है। ईमानदारी इनकी पूंजी है और इंसानियत धर्म। नागपुर के एक छोटे से मोहल्ले की गली से निकल रायसीना का रास्ता कोई यूं ही तय नहीं कर सकता।
रही बात दिल्ली चौकड़ी और सहयोग-समर्थन की, तब मैं यह बता देना चाहूंगा कि ये सारी बातें कपोल-कल्पित हैं। दिल्ली में मौजूद सभी वरिष्ठ नेता पार्टी के अनुशासन से ही नहीं बंधे हुए हैं, बल्कि पार्टी हित में उनके समर्पण को कोई चुनौती नहीं दे सकता। हां, मानव हैं तो मानवीय भूल के अपराधी यदाकदा वे बन जा सकते हैं। लेकिन, उनकी नीयत असंदिग्ध है। जिस बिखराव के दौर से भाजपा अभी गुजर रही है, उसे समेट एक सार्थक दिशा देने को सभी आतुर हैं- दिल्ली और बाहर के सभी नेता-कार्यकर्ता। कोई भी परिवर्तन से उभरे नए नेतृत्व के पीठ में छुरा नहीं भोंकेगा। परिवर्तन की सचाई को सभी जान लें। यह कहना बिलकुल गलत है कि दिल्ली का कोई धड़ा अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी के चयन से नाराज है। दिल्ली में प्रविष्ट एक नए चेहरे के प्रति उत्सुकता को नाराजगी निरूपित करना गलत है और फिर यह सच भी तो चिन्हित है कि भारतीय जनता पार्टी में ताजा परिवर्तन संघ की इच्छा-पूर्ति व योजना का कार्यान्वयन है। प्रेरक शक्ति के रूप में लालकृष्ण आडवाणी मौजूद हैं- अटलबिहारी वाजपेयी के आशीष के हाथ उपलब्ध हैं। राजनाथसिंह का अनुभव और सुषमा स्वराज तथा अरूण जेटली की प्रखरता कायम है। कोई शक-शुबहा नहीं, किंतु-परंतु की भी गुंजाइश नहीं। जिस आशा और विश्वास के साथ नितिन गडकरी का चयन किया गया है, वे पूरे होंगे। गडकरी पार्टी की दशा-दिशा को संवारने के लिए सार्थक संवाहक बनेंगे- समय आने पर देश के भी।

Friday, December 18, 2009

'पेड न्यूज' और निर्वाचन आयोग

खबर आपने पढ़ी होगी या फिर सुनी होगी। देश की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था भारत का निर्वाचन आयोग दंतविहीन प्रेस कौंसिल से चाहता है कि वह 'पेड न्यूज' अर्थात् पूर्व भुगतानी खबर की परिभाषा बताए। हर दृष्टि से निर्वाचन आयोग की यह पहल दायित्व से पीछा छुड़ाने की कसरत है। क्या निर्वाचन आयोग में बैठे तीनों आयुक्त इतने मासूम व अज्ञानी हैं कि उन्हें 'पेड न्यूज' की परिभाषा जानने के लिए प्रेस कौंसिल की मदद चाहिए? आयोग का यह सुझाव भी विचित्र ही नहीं बल्कि विवेकहीन है कि 'पेड न्यूज' के मसले का हल स्वयं राजनीतिक दल और मीडिया मिलकर निकालें। आयोग यह भी मानता है कि इस व्याधि के उपचार की दिशा में प्रेस कौंसिल बड़ी भूमिका निभा सकती है। आयोग ने इस मुद्दे को उठाया यह तो ठीक है। इस कदम के लिए आयोग का अभिनंदन। किंतु यह बात समझ से परे है कि वह अपने अधिकारों का 'आउटसोर्स' क्यों करना चाहता है। यहां आयोग की नीयत पर सवालिया निशान लग रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया के एक वर्ग ने लांछनयुक्त इस प्रवृत्ति (पेड न्यूज) के खिलाफ आवाज उठाई थी। दिवंगत प्रभाष जोशी की अगुवाई में अभियान छेड़ा गया था। सेमिनार आयोजित किए गए, लेख लिखे गए, भाषण हुए। निर्वाचन आयोग को प्रतिवेदन भी दिए गए थे। तब आयोग की ओर से कहा गया था कि अगर प्रमाण सहित कोई निश्चित शिकायत उसके पास आती है तब वह वैसी खबरों के भुगतान को संबंधित उम्मीदवार के खर्चे के मद में डाल देगा। लेकिन, सब कुछ बेअसर। उसके बाद कुछ राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव में 'पेड न्यूज' से आगे बढ़ते हुए 'न्यूज पैकेज' का उदय हुआ। मीडिया घरानों ने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए निश्चित राशि के पैकेज तय कर डाले। ऐलान कर दिया गया था कि खबरें तभी छपेंगी-प्रसारित होंगी जब पैकेज में निश्चित राशि का भुगतान होगा। आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा को चुनौती ही तब नहीं दी गई थी बल्कि व्यापक स्तर पर काले धन का लेनदेन हुआ। उम्मीदवारों ने काले धन से भुगतान किया और मीडिया घरानों ने काले धन को संरक्षित किया। क्या यह अपराध नहीं? उम्मीदवार और मीडिया घराने किसकी आंखों में धूल झोंकना चाहते थे? अखबारों में तब छपी खबरों के स्वरूप-आकार और टीवी चैनलों पर प्रसारित खबरों के चरित्र चीख-चीख कर बता रहे थे कि ये सब भुगतानी खबरें हैं। यहां मुद्दा सिर्फ राजनीतिक दल या मीडिया का नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करनेवाले काले धन के प्रसार व संरक्षण का भी है। इनका संज्ञान तो चुनाव आयोग के अलावा आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय सदृश अन्य एजेंसियों को भी लेना चाहिए। चुनाव जीत संसद व विधानसभाओं में पहुंच कानून बनाने की अहम जिम्मेदारी निभाने वाले ऐसे जनप्रतिनिधियों से क्या उम्मीद की जाए? क्या ये सुशासन दे पाएंगे? अपेक्षा ही नहीं की जा सकती।
पाप की सीढिय़ां पापघर में जाकर समाप्त होती हैं। इन पर चढऩे वाले पांव पापीयों के ही होते हैं। लोकतंत्र का यह एक ऐसा 'कोढ़' है जिसकी तत्काल शल्यक्रिया की जानी चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त और उनके दोनों सहयोगी आयुक्त 'पेड न्यूज' के अर्थ से अच्छी तरह परिचित होंगे ही। इसे परिभाषित करने में चुनाव आयोग पूर्णत: सक्षम है। संविधान ने उसे अपार शक्तियां प्रदान की हैं। किसी भी जांच एजेंसी को तलब करने का अधिकार प्राप्त है। फिर, 'पेड न्यूज' के मामले में कार्रवाई से टालमटोल क्यों? जरूरत है, वे किसी दबाव में न आएं। दलीय पक्षपात से दूर रहें। संसदीय लोकतंत्र में अपने महत्व को पहचाने आयोग। इस 'कोढ़' से देश को मुक्ति दिलाए। ऐसा कर आयोग लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण पायों-विधायिका और प्रेस दोनों को पापमुक्त कर पवित्र करने का पुण्यलाभ भी उठा सकता है।

Thursday, December 17, 2009

न्यायपालिका, विधायिका और न्याय

इन तीन शब्दों के उच्चारण के साथ स्वत: एक अतुलनीय पवित्रता का एहसास होता है। विशेषकर न्यायपालिका और न्याय के साथ। किसी भी लोकतांत्रिक देश की नींव इनकी पवित्रता और मजबूती से ही सुरक्षित रह सकती है। न्यायपालिका को 'न्यायमंदिर' और न्यायाधीश को 'भगवान' मानते हैं लोग। ऐसे में जब ये 'भगवान' भी कटघरे में दिखने लगे तब? हमारे संविधान में ऐसे भगवानों को दंडित करने का अधिकार विधायिका अर्थात संसद को प्राप्त है। संसद की सर्वोच्चता यहीं चिन्हित होती है। लेकिन, जब 'न्याय' के साथ न्याय करने वाली विधायिका संदिग्ध दिखे? कहते हैं उनका फैसला, ऐसी स्थिति में, देश की सर्वोच्च अदालत 'जन-अदालत' कर देती है। लेकिन, वह तो बाद की बातें हैं। फिलहाल लोग-बाग बहस कर रहे हैं कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनकरन के खिलाफ महाभियोग को लेकर। भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों से घिरे न्यायमूर्ति दिनकरन के खिलाफ सांसदों ने संसद में महाभियोग का नोटिस दे दिया है, कार्रवाई संबंधी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लेकिन, स्वाभाविक शंका यह कि न्यायिक सक्रियता के बाद विधायिका की इस सक्रियता का हश्र क्या होगा? कहीं 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ संसद में प्रस्तुत महाभियोग के हश्र की तरह न्यायमूर्ति दिनकरन का मामला भी टांय टांय फिस्स होकर तो नहीं रह जाएगा। रामास्वामी के खिलाफ तब भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। सांसद उन्हें दंडित करना चाहते थे। लेकिन, राजनीति के पनाले ने विधायिका को बदरंग कर डाला। दलीय आधार पर सांसद विभाजित हो गए। सत्तापक्ष अर्थात् कांग्रेस के सांसद महाभियोग पर मत विभाजन के समय अनुपस्थित रह गए। संसद महाभियोग पारित नहीं कर सकी। तब टिप्पणियां की गईं थीं कि रामास्वामी कांग्रेस नेतृत्व के दुलारे हैं। विधायिका पर एक बार फिर संदेह और कर्तव्यहीनता का लेबल चिपक गया। तब संसदीय लोकतंत्र अपनी असहायता पर बिलख उठा था। बात वहीं खत्म नहीं हुई। अभी पिछले वर्ष ही भारत के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस. सेन के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी। इसे यूं समझें कि सर्वोच्च न्याय मंदिर का मुख्य पुजारी अपने एक संदिग्ध पुजारी को दंडित करना चाहता था। भारतीय संसद के 58 सांसदों ने भी न्यायमूर्ति सेन को हटाने की सिफारिश की थी। अभी तक कुछ नहीं हो पाया। आरोपों की जांच के लिए गठित 3 सदस्यीय पैनल अभी तक अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाया है। यह कैसा संविधान, कैसा कानून और कैसा लोकतंत्र कि आरोपों के समर्थन में पर्याप्त सबूत होने के बावजूद न्याय मंदिर असहाय की अवस्था में दिखता है। राजनीति प्रभावित विधायिका ऐसे आरोपियों को सुरक्षा कवच उपलब्ध करा देती है। तो क्या, देश इन हथकंडों के सामने नतमस्तक हो, इन्हें मनमानी करने की छूट दे दे। स्वाभाविक उत्तर 'ना' तो मिलेगा किंतु निराकरण के उपाय तो ढूंढने ही होंगे। उचित तो यही होगा कि इस दिशा में स्वयं न्यायपालिका पहल करे। उनकी ईमानदार सक्रियता विधायिका को आत्म चिंतन के लिए मजबूर कर देगी।

अज्ञानी नेता, बेबस मनसे विधायक!

आगामी 15 दिनों में समाप्त हो रहे वर्ष 2009 की दो सर्वाधिक रोचक खबरें! पहली- महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे इन दिनों पृथक विदर्भ राज्य की मांग को लेकर अध्ययन, परीक्षण और सर्वेक्षण की अहम् भूमिका में व्यस्त हैं। दूसरी- विधानसभा के अंदर 'गुंडागर्दी' के कारण निलंबित उनके विधायकों को दुख है कि जनता ने तो उन्हें चुना किंतु, निलंबन के कारण वे उनकी आवाज, उनकी समस्याएं विधानसभा में नहीं उठा पा रहे हैं। क्या इससे बड़ी कोई रोचक खबर हो सकती है? विदर्भ के दौरे पर आए राज ठाकरे ने दोटूक शब्दों में जब ऐसी घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी अलग विदर्भ राज्य के गठन के खिलाफ है, तब फिर कैसा अध्ययन, कौन सा परीक्षण और किस तरह का सर्वेक्षण? दरअसल, वे नागपुर में पत्रकारों के सटीक सवालों का जवाब अपनी अज्ञानता के कारण नहीं दे पा रहे थे। उनसे तथ्य आधारित, वैचारिक बातों की अपेक्षा करनी भी नहीं चाहिए। विदर्भ क्षेत्र की समस्याओं और जरूरतों से अनभिज्ञ राज जब विदर्भ के दौरे पर आए हैं, तब पहले उन्हें अच्छी तरह 'होमवर्क' कर लेना चाहिए था। तब वे अध्ययन, परीक्षण, सर्वेक्षण के मकडज़ाल में नहीं फंसते। यह उनकी अज्ञानता ही है कि उन्होंने इस मुद्दे पर विदर्भ में मतदान अर्थात आत्मनिर्णय का जुमला उछाल दिया। अगर राज ठाकरे अपने शब्दों पर कायम रहते हैं, तब चुनौती है उन्हें कि किसी भी स्तर पर मतदान करा लें। 90 प्रतिशत से अधिक विदर्भवासी पृथक विदर्भ राज्य के गठन के पक्ष में मतदान करेंगे। क्या तब ठाकरे 'जय विदर्भ' के नारे का साथ देंगे? शायद नहीं। तब हठी और अज्ञानी राज ठाकरे कोई नया बहाना ढूंढ़ विदर्भ आंदोलनकारियों को गालियां देते नजर आएंगे। गाली, हुड़दंग, मारपीट और झूठ इनकी स्थायी फितरत है। रचनात्मकता से दूर तोडफ़ोड़ की राजनीति करने वाले राज ठाकरे, बेहतर हो, मुंबई के अपने पिंजड़े में ही गरजें- विदर्भ में नहीं। यहां की शांतिप्रिय जनता धर्म, भाषा, जाति में भेदभाव भी नहीं बरतती। पश्चिम महाराष्ट्र की तुलना में अपने लिए सौतेला व्यवहार से खिन्न विदर्भवासियों ने पृथक विदर्भ राज्य का झंडा उठाया है। क्षेत्र के विकास के लिए, विदर्भवासियों के सम्मान के लिए पृथक विदर्भ राज्य एक मात्र उपाय है।
अब बात निलंबित मनसे विधायकों के मगरमच्छी आंसुओं की। अपनी 'गुंडागर्दी' पर अभी भी गर्व करने वाले इन अज्ञानियों को अब कौन समझाए कि इन चारों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के करीब 20 लाख मतदाताओं ने इन्हें इसलिए नहीं चुना था कि वे विधानसभा के अंदर 'गुंडागर्दी' का मंचन करें। उन्हें दुख है कि वे जनता की समस्याओं को, विकास से संबंधित मांगों को विधानसभा में नहीं उठा पा रहे हैं। आश्चर्य है कि एक ओर तो ये जनता की समस्याओं, क्षेत्र के विकास आदि मुद्दों को विधानसभा में उठाए जाने संबंधी अपने दायित्व को रेखांकित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मुंबई में विधानसभा के अंदर अपने घोर आपत्तिजनक व असंसदीय कृत्य पर गर्व भी महसूस कर रहे हैं। कौन करेगा इन पर विश्वास? उन्हें चुनने वाली जनता भी अब इन पर विश्वास नहीं करेगी। निलंबन के आदेश की शर्तों के अनुसार ये निलंबित विधायक विधान मंडल परिसर के आस-पास भी नहीं फटक सकते। बावजूद इसके ये विधान मंडल के सिर्फ दरवाजे तक ही नहीं पहुंचे, बल्कि गालियां बकते हुए सुरक्षा कर्मियों के साथ बदतमीजियां भी कीं। निश्चय ही जनता ने इस हेतु इन्हें नहीं चुना है। निलंबन वापस लिए जाने के अनुरोध के पूर्व ये पश्चाताप करें। आचरण में सुधार लाएं। और जनता को विश्वास दिलाएं कि वे एक सही, अनुशासित जनप्रतिनिधि के रूप में आगे से पेश आएंगे। मनसे विधायक ऐसा कर पाएंगे, यह संदिग्ध है। कारण स्पष्ट है। अपने कृत्य पर शर्म की जगह गर्व का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले ये विधायक बेचारे अपने नेतृत्व के हाथों भी मजबूर हैं। जब निलंबन के पश्चात नेता राज ठाकरे इनका सार्वजनिक अभिनंदन करते हैं, तब ये बेचारे अपनी 'गुंडागर्दी' पर गर्व कैसे न करें!

Tuesday, December 15, 2009

नहीं चव्हाणजी, नहीं! यहां गलत हैं आप!!

अचानक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण बाल ठाकरे और राज ठाकरे की भाषा कैसे बोलने लगे? वह कौन-सी दिव्य-दृष्टि है जिससे उन्होंने देख लिया कि विदर्भवासी पृथक विदर्भ राज्य नहीं चाहते? यह जानकारी उन्हें कहां से मिली? चुनौती है हमारी, वे विदर्भ में सर्वेक्षण करा लें, उन्हें पता चल जाएगा कि क्षेत्र की 90 प्रतिशत से अधिक जनता अपने लिए विदर्भ राज्य चाहती है। फिर, किस जनता की आवाज बन मुख्यमंत्री चव्हाण ने झारखंड की राजधानी रांची में ऐलान कर दिया कि विदर्भ की जनता पृथक राज्य नहीं चाहती है? समझ में नहीं आता कि चव्हाण को ऐसी जानकारी किसने दी? अगर खुफिया एजेंसियों ने उन्हें ऐसा बताया है तब निश्चय ही वे गलत सूचना देने के अपराधी बन गए हैं। यह संभव है कि उनकी पार्टी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पृथक विदर्भ के विरोध में ऐसी जानकारी दी होगी। निश्चय ही, ये वही नेता होंगे जो विदर्भ में तो पृथक राज्य के आंदोलन में शामिल हो ऊंची आवाज में यह बताते हैं कि क्षेत्र का विकास बगैर अलग राज्य के हो ही नहीं सकता, विदर्भ का पिछड़ापन तभी दूर होगा, जब विदर्भ राज्य अस्तित्व में आएगा और यहां की जनता अपने लिए योजना बनाएगी, उन्हें क्रियान्वित करेगी। यह सब मीडिया में प्रचार पाने के लिए होता है। क्योंकि, दूसरी ओर यही नेता शासन को समझाते हैं कि वस्तुत: पृथक राज्य में विदर्भवासियों की कोई दिलचस्पी नहीं। इसका कारण ऐसे नेताओं का मुंबई-मोह है। समृद्ध मुंबई व पश्चिम महाराष्ट्र में इनकी आर्थिक दिलचस्पी है। नेतागीरी चमकाने के लिए विदर्भ और जेबें भरने के लिए मुंबई! लगता है इन्हीं नेताओं द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर मुख्यमंत्री चव्हाण इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि विदर्भ की जनता अपने लिए पृथक राज्य नहीं चाहती। यह सरासर गलत है। इस निष्कर्ष को तो विदर्भ की गलियों में खेलने वाला छोटा बच्चा भी चुनौती दे डालेगा। चूंकि मुख्यमंत्री चव्हाण ने निर्णय भी सुना डाला कि उनकी सरकार विदर्भ की मांग को कभी स्वीकार नहीं करेगी, विदर्भवासी आहत महसूस कर रहे हैं। एक पुरानी व जायज मांग को एक झटके में खरिज कर चव्हाण ने इस क्षेत्र की भावना के साथ खिलवाड़ किया है। दु.ख इस बात का भी है कि मुख्यमंत्री के शब्दों में 'अहं' परिलक्षित हुआ है। अशोक चव्हाण जैसा सुलझा हुआ व्यक्ति आखिर यह कैसे बोल गया कि ''मैं इसे पूरी तरह अस्वीकार करता हूं।'' एकबारगी तो मुझे तत्संबंधी खबर ही गलत लगी। पूछताछ की। पता लगा कि चव्हाण ने वाकई में ऐसा कहा है। पूछताछ के दौरान मौजूद एक पत्रकार मित्र ने यह जड़ दिया कि ठीक है , आज ये स्वीकार नहीं करें, लेकिन जब कल पूरा विदर्भ 'जय विदर्भ' के नारों के साथ सड़क पर होगा, तब क्या करेंगे? कोई कड़वा वचन नहीं। सीधी-सपाट बात यह कि तब मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण लोक-आवाज के समक्ष नतमस्तक हो, अपने हाथों से विदर्भ के झंडे का अनावरण करेंगे।

Monday, December 14, 2009

चूक गया कांग्रेस नेतृत्व!

दिल्ली में बैठे कांग्रेस के शीर्ष नेता 'तेलंगाना की आग' से विचलित नहीं बल्कि चकित हैं। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि पार्टी के रणनीतिकारों ने पूरे मामले को राष्ट्रीय मुद्दा कैसे बन जाने दिया। उनके कदम से इतनी 'भद्द' हो रही है कि लोग-बाग मजाक उड़ाने लगे हैं। लगता ही नहीं कि सरकार और संगठन के स्तर पर कोई स्थिर नेतृत्व सक्रिय है। पहले पृथक तेलंगाना के निर्माण के पक्ष में आधिकारिक घोषणा, फिर प्रधानमंत्री द्वारा टालमटोल सरीखे शब्द! आखिर कहां हुई चूक?
पूरे मामले पर संजीदगी के साथ गौर करें। स्पष्ट नजर आएगा कि वस्तुत: कांग्रेस नेतृत्व इस सचाई को भूल गया है कि केंद्र में एक अकेली कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं बल्कि गठबंधन की खिचड़ी सरकार है। वह यह भी भूल जाती है कि अनेक राज्यों में अब गैरकांग्रेसी सरकारें स्थापित हैं। ऐसे में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जब हकीकत से परे स्वयं को जवाहर-इंदिरा के जमाने की अवस्था में पहुंचा निर्णय लेने लगता है, तब दुर्घटनाएं तो होंगी ही। वह जमाना और था जब केंद्रीय नेतृत्व ने निर्णय लिया और पार्टी के लोगों ने मान लिया। आंध्र की ताजा घटना प्रमाण है कि केंद्रीय नेतृत्व का अब राष्ट्रव्यापी दबदबा नहीं रहा। पार्टी इस तथ्य को भूल रही है कि ताजा घटना विकासक्रम वस्तुत: स्व. राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के विरु द्ध पार्टी नेतृत्व के निर्णय की परिणति है। आलाकमान का वह निर्णय अब प्रतिउत्पादक सिद्ध हो रहा है। बहुमत बल्कि एकमत की राय को रद्दी की टोकरी में फेंक कांग्रेस आलाकमान ने जगन को रोक दिया था। तब नवनिर्वाचित सांसद जगन शांत तो हो गए थे किन्तु उनके समर्थकों में बेचैनी बरकरार रही। ऐसा नहीं है कि जगन अपने प्रदेश में बहुत लोकप्रिय हैं। वह तो राजशेखर रेड्डी का आभामंडल था, क्षेत्र में प्रभाव था, उनके प्रति लोगों के दिलों में अप्रतिम आदर था, जिस कारण न केवल पार्टी के विधायक-सांसद बल्कि आंध्र की आम जनता भी जगन को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी। यहां बता दूं कि अगर राजशेखर रेड्डी जीवित रहते, तब आने वाले दिनों में उनका नाम आंध्रप्रदेश के पर्याय के रूप में स्थापित होता। उनकी लोकप्रियता और नेतृत्व की छाप काफी गहरी थी। उनके बगैर कांग्रेस का आंध्र में नेतृत्व संभवत: गौण हो जाता। ठीक उसी तरह जैसे आज तमिलनाडु में डीएमके और एआईडीएमके के समक्ष कांग्रेस तुच्छ की स्थिति में है। कांग्रेस नेतृत्व इस परिप्रेक्ष्य में तेलंगाना की ताजा स्थिति का मूल्यांकन करे। अपनी हैसियत को पहचाने। वर्तमान नेतृत्व इंदिरा गांधी सदृश किसी 'आयरन लेडी' के हाथों में नहीं है। तेलंगाना की आग फैले, इसके पूर्व पार्टी और शासन के स्तर पर सकारात्मक निर्णय ले लिया जाए। आंध्रप्रदेश के लोग अभी यह भूले नहीं हैं कि स्वयं आंध्रप्रदेश के लिए पोट्टी श्रीरामुलु आमरण अनशन पर बैठ अपनी प्राणाहुति दे चुके हैं। चंद्रशेखर राव संभवत: उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनशन पर बैठे थे। तब पोट्टी की मांग मरणोपरांत ही सही, पंडित नेहरू ने मान ली थी। आज अनशनकारी राव की मांग जब सिद्धांत रूप में मान ली गई है, तब किसी भी कारणवश पीछे हटना आत्मघाती सिद्ध होगा।

Sunday, December 13, 2009

चिदंबरम अर्थात सरकार के शब्दों को सम्मान दें प्रधानमंत्री!

'लोक' भावना से इतर लोकतंत्र के सर्वोच्च प्रहरी अगर अब तेलंगाना के साथ विश्वासघात करते हैं तब न तो उन्हें कभी इतिहास माफ करेगा और न ही देश का लोकतंत्र। कथनी और करनी के फर्क को अच्छी तरह समझने वाला 'लोक' चीख-चीख कर कह रहा है कि केंद्र सरकार अपने उगले को अब वापस निगलने की कोशिश कर रही है। अब ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पृथक तेलंगाना के गठन पर यह कहने को मजबूर हुए कि फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया जाएगा? अगर यह केंद्र सरकार का फैसला है तक देश यह जानना चाहेगा कि मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने ऐसी घोषणा कैसे कर दी थी कि पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है? यही नहीं, केन्द्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए भी घोषणा कर दी थी कि हैदराबाद तेलंगाना और आंध्र की संयुक्त राजधानी बनेगी। क्या यह दोहराये जाने की जरूरत है कि गृहमंत्री की घोषणा के बाद ही आमरण अनशन पर बैठे चंद्रशेखर राव ने अनशन तोड़ा था? आंध्र में पटाखे फोड़े गए, मिठाइयां बांटी गईं। फिर 'पुनर्विचार' सदृश प्रधानमंत्री का बयान कैसे? अगर आंध्रप्रदेश में कांग्रेस, तेलुगूदेशम् आदि के विरोध और वहां कथित रूप से तेलंगाना विरोधी आंदोलन भड़कने से प्रधानमंत्री दबाव में आ गए हैं तब मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि ..... मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं। क्या यह समझने और समझाने की जरूरत है कि कथित विरोध प्रदर्शन राजनीति प्रेरित है? शत-प्रतिशत प्रायोजित हैं? यह तो संभव ही नहीं है कि चिदंबरम ने पृथक तेलंगाना की घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस तथा संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी की अनुमति के बगैर की होगी। अब चिदंबरम इंदिरा गांधी तो हैं नहीं जिन्होंने मंत्रिमंडल को विश्वास में लिए बगैर सन 1975 में आपातकाल की घोषणा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से हस्ताक्षर ले लिया था। वह घटना भारत की एक अलग व्यथा-कथा के रूप में इतिहास में दर्ज है। चिदंबरम जैसा मंत्री अपनी मर्जी से आंध्रप्रदेश का टुकड़ा कर तेलंगाना के निर्माण की घोषणा कर दे, क्या इस पर कोई विश्वास करेगा? लगता है केन्द्र सरकार कुछ अन्य राज्यों से उठ रही समान मांग से राजनीतिक दबाव में आ गई है। विकास के लिए छोटे राज्यों के निर्माण की कल्पना पं. जवाहरलाल नेहरू ने की थी। 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बना और 1956 में की गई आयोग की अनुशंसा पर 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए थे। क्या 5 दशक के बाद आज और छोटे राज्यों की जरूरत नहीं है? इस बीच हर राज्य की आबादियां बढ़ीं हैं, जरूरतें बढ़ीं हैं। सत्ता पक्ष राजनीतिक लाभ-हानि से हटकर विचार-मंथन करे। उसे पुन: नए राज्यों के गठन की जरूरत का एहसास हो जाएगा। देश का सार्वभौम चरित्र तब भी कायम रहेगा। बेहतर हो केंद्र सरकार अविलंब चिदंबरम अर्थात सरकार की घोषणा को सम्मान देते हुए तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया को तेज करे।

Saturday, December 12, 2009

विदर्भ राज्य' से अब कोई छल न करे!

केंद्र सरकार और आंध्रप्रदेश की राज्य सरकार तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की भावनाओं के साथ अब इस मुकाम पर पहुंचने के बाद कोई चाल न चले। केंद्र सरकार अच्छी तरह समझ ले कि अब लोगबाग राजनीति की बिसात पर होने वाली हर हरकतों को भलीभांति समझते हैं। गोटियां बिठाने वाले हाथों को भी लोग पहचानते हैं। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की पृथक तेलंगाना राज्य के पक्ष में नीतिगत फैसले की घोषणा के बाद 'किन्तु-परंतु-यदि' का उद्भव अगर रहस्यमय नहीं तो आश्चर्यजनक अवश्य है। आंध्र में कांग्रेस के कतिपय विधायकों और सांसदों का विरोधस्वरूप इस्तीफा दिया जाना कैसे संभव हुआ? केंद्र की घोषणा के बाद वहां के मुख्यमंत्री के. रोसैया ने यह टिप्पणी कैसे कर दी थी कि आम सहमति के बाद ही विधानसभा में तेलंगाना का प्रस्ताव लाया जाएगा? क्या कांग्रेस की संस्कृति-परंपरा में कोई परिवर्तन हुआ है? क्या केंद्र ने बगैर राज्य सरकार को विश्वास में लिए तेलंगाना के निर्माण की घोषणा कर दी? यह संभव नहीं। साफ है कि कोई राजनीतिक चाल चली गई है। यह तो संभव नहीं कि चंद्रशेखर राव के अनशन से विचलित केंद्र ने बगैर कुछ सोचे-समझे आनन-फानन में घोषणा कर दी। फिर विधायकों व सांसदों को इस्तीफा देने के लिए किसने प्रेरित किया? आम सहमति की भावना को कब से सम्मान दिया जाने लगा? अभी पिछले सितंबर में ही जब तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो गई थी, तब उनके उत्तराधिकारी पर बनी आम सहमति को तवज्जो क्यों नहीं दिया गया? तब क्या प्राय: सभी विधायकों, सांसदों व केंद्र में प्रदेश के मंत्रियों ने स्वर्गीय रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की एक स्वर से मांग नहीं की थी? तब तो आम सहमति के सिद्धांत को बला-ए-ताक रख दिया गया था। कांग्रेस नेतृत्व ने विधायक दल में बनी आम सहमति के विरुद्ध के. रोसैया को मुख्यमंत्री बनाए रखा। इसलिए अब अगर पृथक तेलंगाना के लिए आम सहमति की बात उठाई जा रही है, तब लोग चकित तो होंगे ही।
तेलंगाना का उल्लेख मैं यहां विदर्भ के संबंध में कर रहा हूं। तेलंगाना के पक्ष में आरंभिक खबर आने के बाद ही सुखद रूप से सभी राजनीतिक दलों के नेता, सांसद, विधायक मिलकर पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। भय सिर्फ इस बात का है कि कहीं एक बार फिर यह सक्रियता क्षणिक उफान मात्र न सिद्ध हो जाए। पुन: 'किन्तु-परंतु-यदि' के ताने-बाने में यह उलझकर न रह जाए। चेतावनी है उन्हें, इस बार वे विदर्भ की जनभावना का मर्दन करने की कोशिश न करें। विदर्भवासी अब इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्षेत्र में मौजूद नेताओं की लंबी पंक्ति इस तथ्य को अच्छी तरह समझ ले। दलीय दबाव या अन्य प्रलोभन के आगे अगर वे झुक कर अगर पुन: 'विदर्भ की कुर्बानी' देते हैं तब यहां की जनता उन्हें दुत्कार किसी नए नेतृत्व को तलाश लेगी। बेहतर हो, पृथक विदर्भ राज्य के पुराने सपने को साकार करने की दिशा में दलीय प्रतिबद्धता व निज स्वार्थ का त्याग कर सभी एक साथ कदमताल करें। अन्यथा विदर्भवासी उनके कदमों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे।

विदर्भ राज्य' से अब कोई छल न करे!

केंद्र सरकार और आंध्रप्रदेश की राज्य सरकार तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की भावनाओं के साथ अब इस मुकाम पर पहुंचने के बाद कोई चाल न चले। केंद्र सरकार अच्छी तरह समझ ले कि अब लोगबाग राजनीति की बिसात पर होने वाली हर हरकतों को भलीभांति समझते हैं। गोटियां बिठाने वाले हाथों को भी लोग पहचानते हैं। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की पृथक तेलंगाना राज्य के पक्ष में नीतिगत फैसले की घोषणा के बाद 'किन्तु-परंतु-यदि' का उद्भव अगर रहस्यमय नहीं तो आश्चर्यजनक अवश्य है। आंध्र में कांग्रेस के कतिपय विधायकों और सांसदों का विरोधस्वरूप इस्तीफा दिया जाना कैसे संभव हुआ? केंद्र की घोषणा के बाद वहां के मुख्यमंत्री के. रोसैया ने यह टिप्पणी कैसे कर दी थी कि आम सहमति के बाद ही विधानसभा में तेलंगाना का प्रस्ताव लाया जाएगा? क्या कांग्रेस की संस्कृति-परंपरा में कोई परिवर्तन हुआ है? क्या केंद्र ने बगैर राज्य सरकार को विश्वास में लिए तेलंगाना के निर्माण की घोषणा कर दी? यह संभव नहीं। साफ है कि कोई राजनीतिक चाल चली गई है। यह तो संभव नहीं कि चंद्रशेखर राव के अनशन से विचलित केंद्र ने बगैर कुछ सोचे-समझे आनन-फानन में घोषणा कर दी। फिर विधायकों व सांसदों को इस्तीफा देने के लिए किसने प्रेरित किया? आम सहमति की भावना को कब से सम्मान दिया जाने लगा? अभी पिछले सितंबर में ही जब तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की विमान दुर्घटना में असामयिक मौत हो गई थी, तब उनके उत्तराधिकारी पर बनी आम सहमति को तवज्जो क्यों नहीं दिया गया? तब क्या प्राय: सभी विधायकों, सांसदों व केंद्र में प्रदेश के मंत्रियों ने स्वर्गीय रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की एक स्वर से मांग नहीं की थी? तब तो आम सहमति के सिद्धांत को बला-ए-ताक रख दिया गया था। कांग्रेस नेतृत्व ने विधायक दल में बनी आम सहमति के विरुद्ध के. रोसैया को मुख्यमंत्री बनाए रखा। इसलिए अब अगर पृथक तेलंगाना के लिए आम सहमति की बात उठाई जा रही है, तब लोग चकित तो होंगे ही।
तेलंगाना का उल्लेख मैं यहां विदर्भ के संबंध में कर रहा हूं। तेलंगाना के पक्ष में आरंभिक खबर आने के बाद ही सुखद रूप से सभी राजनीतिक दलों के नेता, सांसद, विधायक मिलकर पृथक विदर्भ के लिए आवाज उठाने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। भय सिर्फ इस बात का है कि कहीं एक बार फिर यह सक्रियता क्षणिक उफान मात्र न सिद्ध हो जाए। पुन: 'किन्तु-परंतु-यदि' के ताने-बाने में यह उलझकर न रह जाए। चेतावनी है उन्हें, इस बार वे विदर्भ की जनभावना का मर्दन करने की कोशिश न करें। विदर्भवासी अब इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्षेत्र में मौजूद नेताओं की लंबी पंक्ति इस तथ्य को अच्छी तरह समझ ले। दलीय दबाव या अन्य प्रलोभन के आगे अगर वे झुक कर अगर पुन: 'विदर्भ की कुर्बानी' देते हैं तब यहां की जनता उन्हें दुत्कार किसी नए नेतृत्व को तलाश लेगी। बेहतर हो, पृथक विदर्भ राज्य के पुराने सपने को साकार करने की दिशा में दलीय प्रतिबद्धता व निज स्वार्थ का त्याग कर सभी एक साथ कदमताल करें। अन्यथा विदर्भवासी उनके कदमों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे।

Friday, December 11, 2009

अब तो जागो विदर्भवादी!

क्या अब भी मुंबई दरबार में 'विदर्भ की नपुंसक राजनीति' ठुमके लगाकर खुश होती रहेगी? पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की लड़ाई में अपनी जान की आहुति दने को तैयार चंद्रशेखर राव की सफलता के बाद यह सवाल विदर्भवासी पूछ रहे हैं। नब्बे के दशक में झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल राज्यों के गठन के बाद भी यह सवाल पूछा गया था। समय-समय पर विदर्भ आंदोलन को तेज करते रहने वाले नेता अपनी पीठ पर छुरे के वार होते देख सवाल को टाल जाते थे। कभी दोष केंद्र सरकार पर, तो कभी दोष विदर्भ की जनता के सिर मढ़ ये नेता पल्ला झाड़ते रहे हैें। झूठ बोलते रहे ये! विदर्भवासियों को मूर्ख समझने वाले ये कथित आंदोलनकारी नेता क्या यह बताएंगे कि जब केंद्र की ओर से कहा गया था कि महाराष्ट्र विधानसभा पृथक विदर्भ के पक्ष में प्रस्ताव पारित कर भेजे, तब वे सोए क्यों रह गए थे? विदर्भवासियों की इस हेतु उदासीनता का तर्क देने वाले भी वस्तुत: अपना नकारापन ही छुपाते रहे हैं। या फिर 'मुंबई मोह' संबंधी उनके स्वार्थ पृथक विदर्भ की मांग के आड़े आते हैं! हिम्मत है तो नेतागण इस सचाई को स्वीकार करें और आंदोलन के कथित नेतृत्व से अलग हो जाएं। विदर्भवासी नया नेतृत्व ढूंढ लेंगे। आंध्र के चंद्रशेखर राव ने मार्ग दिखा दिया है। अब विदर्भवासी मौन नहीं रहेंगे। उसने देख लिया कि लगभग दिवास्वप्न हो चली पृथक तेलंगाना की मांग में चंद्रशेखर राव ने कैसे नई ऊर्जा का संचार किया। उनकी जीवटता ने सपने को साकार कर ही दम लिया। यह अंतिम नहीं है। ऐसी अनेक मांगों की चिंगारियां और भी जगह राख के नीचे दबी हुई हैं। विदर्भवासी यह मान कर चल रहे थे कि तेलंगाना के साथ पृथक विदर्भ भी अस्तित्व में आ जाएगा। लेकिन विदर्भ में एक 'राव' की कमी के कारण यह साकार नहीं हो पाया। विदर्भ अभी भी हाशिए पर है। शर्म आती है विदर्भ की इस अवस्था पर। क्या केंद्र में तेलंगाना के मुकाबले विदर्भ का वजन कम है? क्या कर रहे हैं केंद्रीय मंत्रिमंडल में विदर्भ का प्रतिनिधित्व करने वाले मंत्रिगण? क्या कर रहे हैं यहां से निर्वाचित खासदार? निर्णायक लड़ाई लडऩे से इनका कतराना निश्चय ही असली 'नीयत' को दर्शाता है। इनकी राजनीतिक यात्रा का यह 'गुप्त अध्याय' विदर्भवासियों की इच्छा-भावना का दमन करता है। मुंबई दरबार में ठुमके वाली बात पिछले दिनों विरोधी पक्ष के एक नेता ने कही थी। क्या यह हकीकत नहीं? विदर्भ के हिस्से की राशि कई बार पश्चिम महाराष्ट्र हड़प कर चुका है। आपत्ति करने वालों की झिड़की खाते ही घिग्गी बंध जाती है। दिल्ली की बात तो दूर, राजधानी मुंबई में भी विदर्भ बेबस नजर आता है। पृथक तेलंगाना के पक्ष में चंद्रशेखर राव के आंदोलन की निरंतरता और अनशन की सफलता ने यह तो साबित कर ही दिया कि केंद्र अंतत: दबाव के सामने ही झुकता है। इसके पूर्व पंजाबी सूबा आंदोलन के प्रणेता संत फतह सिंह के सामने पंडित जवाहरलाल नेहरू के झुकने का उदाहरण भी मौजूद है। चंद्रशेखर राव के ताजा आंदोलन और अनशन ने कांग्रेस और केंद्र सरकार दोनों को गहरे दबाव में ला दिया था। खेद है कि विदर्भ के राजनीतिक पटल पर वैसा एक भी चेहरा नहीं दिख रहा जो राव जैसा प्रभाव छोड़ सके। निश्चय ही कारण 'राजनीतिक इमानदारी' का अभाव है, विदर्भ विकास के प्रति उनकी स्वार्थभरी उदासीनता है। राव ने जिस तरह भगीरथ प्रयास किया, कोई विदर्भवादी नेता उनका अनुसरण क्यों नहीं करता? राव ने तो दिल्ली दरबार की चौखट चूमने की प्रवृत्ति से खुद को अलग करते हुए दिल्ली दरबार को ही तेलंगाना में ला नंगा खड़ा कर दिया। क्या कोई विदर्भवादी नेता ऐसी ताकत दिखाने को तैयार है? तेलंगाना के पक्ष में केंद्र के ताजा फैसले पर समीक्षकों का कहना है कि अब उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और बुंदेलखंड तो महाराष्ट्र में विदर्भ, बंगाल में गोरखालैंड से लेकर तमाम अलग राज्य की मांग करने वाले झंडे उठा लेंगे। यह गर्म लोहे पर हथौड़े मारने का सुअवसर है। विदर्भ के नेता इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दें। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ओर से उठी ताजा आवाजों का स्वागत है। सुनिश्चित यह करना होगा कि ये आवाजें अवसरवादी आवाज बन कर न रह जाए। दलीय प्रतिबद्धता से इतर विदर्भ में सभी दल एकजुट होकर आगे बढ़ें, विदर्भवासी पुष्पहार लेकर उनके स्वागत को तैयार मिलेंगे। नागपुर में जारी शीतसत्र के पहले मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने ऐलान किया था कि विदर्भ की धरती पर विदर्भ की समस्याओं को प्राथमिकता दी जाएगी। लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं पाया। सत्र से फिलहाल विदर्भ नदारद है। 'फयान' ने जोर पकड़ा लेकिन यहां प्राय: प्रतिदिन किसानों के घरों में तांडव मचाने वाली 'फयान' की सुध नहीं ली गई। विदर्भ की धरती क्या यूं ही प्राण-आहुतियां देने को मजबूर होती रहेगी। विदर्भवासियों को जवाब चाहिए, कथित विदर्भवादी नेताओं से।

Wednesday, December 9, 2009

कोई हवा न दे सांप्रदायिक चिनगारी को!

लगता है कहीं कोई बड़ी साजिश रची जा रही है या फिर अनजाने में सत्ता पक्ष साजिश का एक किरदार बनता जा रहा है। अगर ये दोनों आशंकाएं गलत हैं तब शायद 'नियति' देश के साथ बड़ा खिलवाड़ करने जा रही है। मेरे इस आकलन का आधार अयोध्या कांड पर लिबरहान आयोग का निष्कर्ष, उसकी सिफारिश, संसद में बहस, ध्वनित 'सांप्रदायिक ताल' पर है। हर दृष्टि से रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक लिबरहान आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर भारत सरकार ने बड़ी भूल की है। आयोग के निष्कर्ष का समर्थन करते हुए केंद्र सरकार की ओर से गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के इस बयान पर किसी को आश्चर्य नहीं होगा कि संघ परिवार ने विवादित ढांचे को ढहाया। लोग चकित इस बात पर हुए कि चिदम्बरम ने कांग्रेस सरकार का तो बचाव किया किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को गलत राजनीतिक फैसला लेने का अपराधी बना डाला। परोक्ष में उन्होंने राहुल गांधी के उस वक्तव्य की पुष्टि कर दी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं गिरता, अगर उस समय नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री होता। क्या यह मात्र संयोग है कि जब संसद में आयोग की रिपोर्ट पर बहस चल रही थी, राहुल गांधी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित कर रहे थे। उन्हें बता रहे थे कि कोई सक्षम मुस्लिम भी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। इस पर मैं पहले टिप्पणी कर चुका हूं। आज इतना जोडऩा चाहूंगा कि राहुल ने अनजाने में ही सही सांप्रदायिक आधार पर समाज को बांटने का काम किया है। सर्वोच्च राष्ट्रपति पद को डॉ. जाकिर हुसैन, फखरूद्दीन अली अहमद और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सुशोभित कर चुके हैं। डॉ. कलाम तो उस भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार थे, जिसे कांग्रेस बार-बार सांप्रदायिक निरूपित करती रहती है। भला इससे कौन इनकार करेगा कि कोई भी सक्षम व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता है? विभाजन के समय जिन्ना प्रसंग से आगे बढ़ते हुए लोग-बाग यह जानना चाहेंगे कि पिछले 60 सालों में कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद के योग्य कोई मुस्लिम व्यक्ति कैसे नहीं मिला। क्या आज तक सभी मुस्लिम नेता सांसद कांग्रेस की नजरों में अक्षम रहे हैं। मैंने पहले कहा है कि या तो कोई साजिश रची जा रही है या फिर नियति खिलवाड़ कर रही है। संसद में बहस के दौरान भारतीय जनता पार्टी की सुषमा स्वराज ने यह कह ही दिया कि यदि आयोग की रिपोर्ट बहस का मुद्दा बना रहा तो इससे देश में दंगा भड़कने का खतरा बना रहेगा। चूंकि, अब इस बात में कोई संदेह नहीं कि लिबरहान आयोग की रिपोर्ट किसी खास मकसद से 17 वर्षों के बाद तब सार्वजनिक हुई जब देश की नई पीढ़ी अयोध्या कांड को भूल चुकी थी। अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम मिल-जुलकर हंसी-खुशी रह रहे हैं। रिपोर्ट सार्वजनिक होने का तरीका भी रहस्यमय रहा। गोपनीय रिपोर्ट संसद में पेश हो इसके पहले ही एक अखबार ने उसे प्रकाशित कर डाला। रिपोर्ट के 'लीक' होने पर सरकार की ओर से कोई सफाई नहीं आई। तथ्य और कानूनी त्रुटियों से भरपूर लिबरहान आयोग की रिपोर्ट निश्चय ही एक राजनीतिक दस्तावेज है। इस सचाई के बावजूद आग्रह है सत्ता पक्ष से और आग्रह है विपक्ष से कि वे अपनी ओर से किसी साजिश के भागीदार न बनें। अगर नियति कुछ करवाना चाहती है तब इसका मुकाबला दोनों मिलकर करें। राजनीतिक लाभ के लिए सांप्रदायिकता की चिनगारी को हवा न दें।

Tuesday, December 8, 2009

कौन बनाएगा मुस्लिम को प्रधानमंत्री?

राहुल गांधी कह रहे हैं कि भारत में योग्यता के आधार पर कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री बन सकता है। वे यह भी कह रहे हैं कि महात्मा गांधी उनके राजनीतिक आदर्श हैं। वे उनके अनुयायी हैं। चूंकि, इन दिनों राहुल गांधी के शब्द पार्टी और सरकार के शब्द माने जाते हैं, उन्हें गंभीरता से लिया जाएगा। शंका सिर्फ यह कि वे ऐसा कहीं अति-उत्साह में तो नहीं कह रहे हैं। इसका जवाब तो भविष्य में मिलेगा, फिलहाल बहस का मुद्दा यह कि क्या सचमुच योग्यता के आधार पर कभी कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री बन सकेगा? महात्मा गांधी को अपना राजनीतिक आदर्श घोषित करने वाले राहुल गांधी से यह भी पूछा जाएगा कि ब्रिटिश शासन से मुक्ति के बाद महात्मा गांधी की पसंद सर्वाधिक सक्षम, सुपात्र मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाए? इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी चाहते थे कि जिन्ना प्रधानमंत्री बनें। क्या यह बताने की जरूरत है कि अगर गांधी की इच्छानुसार जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया जाता, तब न तो देश का बंटवारा होता और न ही लगभग 10 लाख हिंदू-मुस्लिमों का सांप्रदायिक दंगों में कत्ल-ए-आम होता, लेकिन तब कांग्रेस के पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित अन्य हिंदू नेता जिन्ना के नाम पर तैयार नहीं हुए थे। उन्हें देश का बंटवारा मंजूर था, लेकिन प्रधानमंत्री के पद पर मोहम्मद अली जिन्ना मंजूर नहीं थे। क्या राहुल गांधी को यह पता है कि देश विभाजन का फैसला कर लेने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था,''हम सिर कटाकर सिरदर्द से छुटकारा पा रहे हैं।

'' कौन था वह 'सिरदर्द।' बता दूं कि नेहरू के लिए वह सिरदर्द और कोई नहीं, जिन्ना ही थे। नतीजतन देश का टुकड़ा हुआ, हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे की गर्दनें काटीं। बंटवारे के बाद अवश्य नेहरू गांधी की पसंद बने। लेकिन, तब भी बहुमत की राय को ठेंगा दिखाते हुए, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ छल किया गया था। युवा राहुल गांधी में अनेक संभावनाएं मौजूद हैं। देश के हर गली-कूचों में, हर वर्ग, हर संप्रदाय के बीच पहुंचकर उनकी सुध लेने वाले राहुल गांधी में नि:संदेह देश का भविष्य निहित है, ऐसे में जरूरी यह है कि वे इतिहास के पन्नों को पलटकर गांधी-नेहरू की गलतियों को रद्दी की टोकरी में फेंक दें, उनका अनुसरण करने की भूल न करें। भारत देश हमेशा लोकतांत्रिक देश रहेगा। राहुल यह न भूलें कि लोकतंत्र में किसी एक व्यक्ति की इच्छा को नहीं, 'लोक'

की इच्छा को वरीयता दी जाती है। एक व्यक्ति की इच्छा राज-तंत्र का आग्रही होता है, लोकतंत्र का नहीं। कांग्रेस का नेतृत्व जब वे कर रहे हैं, तब इसकी विवादित संस्कृति का चोला फेंक दें, इसके लिए जरूरी है कि वे चाटुकारों से दूर रहें, स्वविवेक का इस्तेमाल करें। ये चाटुकार हमेशा उन्हें भ्रमित करते रहेंगे। उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने जब यह कहा था कि 1992 में अगर नेहरू-गांधी परिवार का प्रधानमंत्री होता तब अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं गिरता। तो क्या पूरी कांग्रेस पार्टी में सिर्फ नेहरू-गांधी ही धर्म-निरपेक्ष हैं? संदेश तो यही गया था। राहुल गांधी तब यह भूल गए थे कि वे घोर सांप्रदायिक वक्तव्य दे रहे हैं। निश्चय ही चाटुकारों ने उन्हें ऐसा समझाया होगा। दूर रहें इनसे वे। ये तत्व कभी भी उन्हें गड्ढे में धकेल देंगे या आग में झोंक देंगे। कांग्रेस पार्टी को आज भी देश में, स्वतंत्रता आंदोलन के पाश्र्व के कारण, अभिभावक दल माना जाता है। ऐसे में यह अपेक्षा अनुचित कदापि नहीं कि एक अभिभावक दल का एक अभिभावक सहयोगियों से विचार-विमर्श तो करे लेकिन निर्णय स्वविवेक से ले।

Sunday, December 6, 2009

जाति-व्यवस्था के पाप से मुक्ति!

''इस देश में एक 'चमार' कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता।'' इसे हताशा कह लें, या व्यथा, बाबू जगजीवनराम के मुंह से ये शब्द तब निकले थे, जब आपातकाल के बाद 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार का गठन होने जा रहा था। प्रधानमंत्री पद पर बाबू जगजीवनराम की दावेदारी को खारिज कर मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया गया था। जगजीवन बाबू को उप प्रधानमंत्री पद से संतोष करना पड़ा था। हर दृष्टि से एक उचित अपेक्षा की यह कैसी बलि? राजनीति अथवा किसी भी क्षेत्र में ऐसे 'जाति-प्रभाव' को कदापि स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। मैं यहां बात जनता पार्टी या प्रधानमंत्री पद की नहीं कर रहा हूं। बहस का मुद्दा, समाज में व्याप्त वह जातीय-व्यवस्था है जिसे समाप्त करने की इच्छा देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जताई है। उच्च जाति के ठाकुरों द्वारा कुछ दलितों की हत्या के मामले में सजा सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि एक सभ्य देश में तथाकथित अगड़ी जातियों द्वारा तथाकथित निचली जातियों के खिलाफ किए जाने वाले दमन का यह सबसे बुरा स्वरूप है। सर्वोच्च न्यायालय का कार्यपालिका को यह निर्देश महत्वपूर्ण है कि कानून और लोकतंत्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए देश से जातीय-व्यवस्था को समाप्त करें। क्या इसके बाद भी कार्यपालिका तटस्थ बनी रहेगी? दलील दी जाती है कि सदियों पुरानी जातीय-व्यवस्था को आनन-फानन में खत्म करना संभव नहीं है। इस तर्क को तत्काल खारिज नहीं किया जा सकता किंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि शासन के स्तर पर इसे समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? इस दिशा में सामाजिक चेतना लेखन व भाषण तक ही सीमित क्यों हैं? शासन की की ओर से ऐसे कौन-से व्यावहारिक कदम उठाए गए जिससे जातीय-व्यवस्था के खिलाफ समाज में चेतना जागृत हुई है? सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक जातीयता पर लगाम की आवश्यकता को चिन्हित करने वाले बताएं कि अब तक कोई ऐसा आंदोलन क्यों नहीं चला, जिससे कम से कम सत्ता-शासन को तद् हेतु मजबूर किया जा सकता था। सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है कि कानून और लोकतंत्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलने के लिए जातीय-व्यवस्था की समाप्ति जरूरी है। साफ है कि शासन और लोकतंत्र दोनों पर इस कुरीति का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इससे मुकाबला दोनों स्तरों पर होना चाहिए। पहले बात कानून की करें। शासन की ओर से आरक्षण की दलील दी जाती है, जबकि सच यह है कि अब आरक्षण का राजनीतिकरण हो चुका है। आरक्षण की मूल भावना को राजनीति के हवन-कुंड में भस्म कर डाला गया। राज दल व राज नेता चाहे जितना इनकार कर लें, जातीय-आरक्षण और जातीय समीकरण के वोट बैंक इन लोगों ने ही तैयार किए हैं। किसी भी सभ्य देश के लिए यह शर्मनाक है। जातीयता के जहर का इन लोगों ने इतना विस्तार कर दिया है कि जन- प्रतिनिधियों का निर्वाचन बगैर इस वोट बैंक के समर्थन के संभव ही नहीं है। लोकतंत्र के मंदिर में क्या पुजारी, क्या याचक-सभी इस रोग से ग्रसित हैं। फिर, भला इस वोट बैंक या समीकरण के खिलाफ कानून बनाए जाने की आशा कोई करे तो कैसे करे? व्यवस्थित लोकतंत्र का मुद्दा भी इसी से जुड़ा है। सर्वोच्च न्यायालय जैसा सुधार चाहता है, क्या वर्तमान लोकतंत्र में वह संभव है? मैं समझता हूं, दृढ़ इच्छा शक्ति से यह संभव है। शर्त यह है कि सभी राज दल देश व समाज हित में पहले दलगत प्रतिबद्धता का त्यागकर संकल्प लें कि एक समाज-एक भारत के पक्ष में जातीय-व्यवस्था खत्म करेंगे। तात्कालिक राजनीतिक लाभ-हानि के लोभ का त्यागकर ही ऐसा संभव हो सकता है। समाज, देश व लोकतंत्र के हित में, बल्कि इनके अस्तित्व के लिए सभी दल मिलकर पहल करें। अंतत: लाभान्वित वे ही होंगे। देश व लोकतंत्र तो मजबूत होगा ही। जगजीवनराम जैसे व्यक्ति को तब जातीय-व्यवस्था के कारण धक्का पहुंचा था। नुकसान देश व लोकतंत्र का भी हुआ था। विशाल बहुमत से कांग्रेस को अपदस्थ कर केंद्र में सत्ता काबिज होने वाली जनता दल की सरकार अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी। तबके गवाह इस बात की पुष्टि करेंगे कि अगर उस समय जगजीवनराम प्रधानमंत्री बना दिए गए होते, तब जनता दल की सरकार नहीं गिरती। लेकिन वह जातीय-व्यवस्था ही थी, जिसने तब 'लोकतंत्र' और 'राजनीति' दोनों को अपना ग्रास बना लिया था। अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने फिर एक अवसर प्रदान किया है इस कुरीति से निजात पाने का। वैसे घोर स्वार्थी व निज लाभ की राजनीति के वर्तमान दौर के बावजूद एक आशा शेष है- अपवादस्वरूप उपलब्ध राजनीतिक, समाजसेवी व तटस्थ समीक्षक के रूप में। क्या सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से सूत्र पकड़ यह वर्ग सक्रिय होगा। अगर जातीय-व्यवस्था के पाप के कलंक से मुक्त होना है, तब बगैर और विलंब के उन्हें आगे बढऩा होगा।

व्यवस्था और सरकारी आतंक!

कहा जाता है और लिखा भी जाता है कि देश में शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ और हो रहा है। और यह भी कि सामाजिक जागरूकता भी बढ़ी है और बढ़ रही है। लोग सजग-सतर्क हैं अपने अधिकारों के प्रति। संविधान प्रदत्त अधिकारों से बखूबी परिचित देश के नागरिक लोकतंत्र के पायों को मजबूत कर रहे हैं। चौकस मीडिया की नजरें अपेक्षा के अनुरूप 'वाच डॉग' की भूमिका को अंजाम दे रही हैं। तब कोई हताश, निराश क्यों हैं? लेखक, कवि, व्यंग्यकार, मंच संचालक और संपादक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके राजेंद्र पटोरिया आज मिले। साथ में पत्रकार और राष्ट्रीय पुस्तक मेला के संयोजक चंद्रभूषण भी थे। विभिन्न विषयों पर चर्चा के दौरान दोनों फूट पड़े कि आज देश को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह है सरकारी आतंकवाद। पटोरियाजी ने यह भी जोड़ दिया कि मीडिया से भी खतरे मौजूद हैं। मेरी जिज्ञासा पर इन दोनों ने पुस्तक मेला के आयोजन में शासकीय स्तर पर उठाई गई कतिपय अड़चनों की जानकारी दी, जबकि ये पिछले 15 वर्षों से नागपुर में पुस्तक मेले का आयोजन करते आ रहे हैं। हर राज्य के अनेक क्षेत्रों में इनके आयोजन होते हैं। दोनों नागपुर के एक आईएएस अधिकारी के बर्ताव पर क्षुब्ध थे। कहा कि ''हमसे अभद्र बर्ताव किया गया, चुनौती दी गई कि आप आयोजन कर दिखाएं।'' इन पर अविश्वास का कोई आधार नहीं है। हां, यह आश्चर्य अवश्य कि एक युवा आईएएस अधिकारी ने गरिमा का त्याग कैसे कर दिया? ऐसा नहीं होना चाहिए था। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर कुशाग्र बुद्धिधारी युवा भारतीय प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रशासन की बागडोर सम्हालते हैं। बाबुओं की लालफीताशाही पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी उन पर होती है। इस दायित्व का निर्वाह ये बखूबी कर भी रहे हैं। फिर ऐसा क्यों कि समाज के दो जिम्मेदार व्यक्ति इनमें से किसी को 'आतंक' के रूप में देखने लगे। क्या इस पर सामाजिक चिंतन की जरूरत नहीं? इस प्रक्रिया के द्वारा ही संयम खोते-भटके अधिकारियों को सही रास्ते पर लाया जा सकता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के हाथों में ही पूरे प्रशासन की बागडोर है। अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ हैं ये। इन पर कोई दाग न लगे, आभा की चमक धूमिल न हो, इसकी जिम्मेदारी स्वयं प्रशासनिक अधिकारियों पर है। अपने दायित्व के प्रति ईमानदारी और आवेश पर नियंत्रण से ही ऐसा संभव है। क्या वे निराश करेंगे?
सामाजिक जागरूकता और मीडिया की 'वास्तविकता' पर आज सुख्यात सामाजिक कार्यकर्ता गिरीश गांधी भी निराश दिखे। एक प्रसंग में उन्होंने मुझसे पूछा कि आप जो बेबाक लिखते हैं, उससे आपको क्या मिलता है? उनकी इस जिज्ञासा का आधार मीडिया का वर्तमान 'सच' था। अपने सामाजिक और पत्रकारीय दायित्व बताने पर उन्होंने शून्य परिणाम को रेखांकित करते हुए निर्णय दे डाला कि इस देश में कुछ नहीं होने वाला। पिछले 4 दशक से अपनी जिंदगी के हर पल को समाज को समर्पित करने वाले व्यक्ति के मुख से ऐसी निराशाजनक बातें निकले, तब यह आमंत्रण है नये सिरे से पूरी व्यवस्था पर पुनर्विचार हेतु राष्ट्रीय बहस का। क्या कोई इस हेतु पहल करेगा? प्रतीक्षा रहेगी।

Saturday, December 5, 2009

राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में कोई दिवस?

-2 अंतिम
आज यह बात अजीब तो लगेगी, किंतु आंशिक रूप से ही सही यह सच है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व ने नेहरू के अंदर एक नकारात्मक कुंठा पैदा कर दी थी। अनेक घटनाएं प्रमाणbebak 5 december part-2 के रूप में मौजूद हैं। नेहरू नहीं चाहते थे कि राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व को प्रचार-प्रसार मिले। उन्हें देश-विदेश अर्थात् घर और बाहर दोनों जगह लोगों से दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसके लिए स्वयं नेहरू ही पहल करते थे। डॉ. आंबेडकर की दिल्ली में मृत्यु के पश्चात उनका अंतिम संस्कार 7 दिसंबर 1956 को मुंबई की चौपाटी पर किया गया। प्रसाद और नेहरू दोनों उपस्थित थे। महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार, संस्कार स्थल पर शोकसभा का आयोजन किया गया। जब नेहरू को यह पता चला कि वक्ताओं में डॉ. प्रसाद का भी नाम है तब वे बेचैन हो उठे। उन्होंने सीधे राजेंद्र बाबू को ही यह कहकर बोलने से रोकने की कोशिश की कि 'राष्ट्रपति के लिए उचित नहीं होगा'। राजेंद्र बाबू ने यह जवाब देकर कि ''यह महान आत्मा इसकी अधिकारी है'' नेहरू को निरूत्तर कर दिया। इसी तरह एक बार राजेंद्र बाबू काशी विश्वनाथ मंदिर दर्शन के लिए गए। पारिवारिक परंपरानुसार उन्होंने मंदिर में प्रधान पुरोहित के गंगाजल से चरण धोए। नेहरू ने तब पत्र लिखकर आपत्ति जताई। वही पुराना आलाप कि राष्ट्रपति को ऐसा शोभा नहीं देता। राजेंद्र बाबू ने जवाब भेजा दिया कि निजी धार्मिक आस्था राष्ट्रपति पद पर तिरोहित नहीं की जा सकती। आज राष्ट्रपति की बार-बार विदेश यात्रा पर किसी को आश्चर्य नहीं होता।
राजेंद्र बाबू को विदेश यात्रा की अनुमति नेहरू मंत्रिमंडल बिरले ही दिया करता था। छोटे-छोटे देशों की यात्रा पर ही राजेंद्र प्रसाद जा सके थे। नेहरू नहीं चाहते थे कि विश्व समुदाय में राजेंद्र बाबू की आभा-विद्वता चमके। 1961 में एक बार राजेंद्र बाबू गंभीर रूप से बीमार पड़े। बचने की उम्मीद कम थी। लाल बहादुर शास्त्री ने नेहरू से अंतिम संस्कार के लिए स्थल चयन पर बातचीत की। शास्त्री और नेहरू दोनों मोटरकार से जगह देखने निकले। शास्त्री ने महात्मा गांधी के समाधि स्थल की बगल की खाली जगह को चुना। नेहरू ने तपाक से कहा कि नहीं, नहीं, इसे तो मैंने अपने लिए सुरक्षित रखा है। बाद में उसी स्थान 'शांतिवन' पर नेहरू का अंतिम संस्कार किया गया। 1962 में अवकाश प्राप्त कर डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना के सदाकत आश्रम में रहने लगे। उसी वर्ष चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत की रक्षा व्यवस्था और सैन्य शक्ति की पोल खुल गई। पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी जनसभा का आयोजन किया गया था। आचार्य कृपलानी, राममनोहर लोहिया के साथ-साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी सभा को संबोधित किया। राजेंद्र प्रसाद के बारे में यह मशहूर था कि वे कभी गुस्सा नहीं करते थे लेकिन उस दिन की सभा में कृपलानी-लोहिया के साथ प्रसाद भी गुस्से में देखे गए। नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री वी. के. मेनन पर सभी जमकर बरसे। श्रोताओं के मूड से साफ था कि सभी चीन के हाथों पराजय पर भारत सरकार से क्रोधित थे। उस दिन आधी रात को पं. नेहरू विशेष विमान से दिल्ली से पटना पहुंचे। हवाई अड्डे से सीधे सदाकत आश्रम पहुंचकर राजेंद्र बाबू से मिलकर अनुरोध किया कि कम से कम वे लोहिया-कृपलानी का साथ न दें। नेहरू भयभीत थे कि अगर डॉ. प्रसाद खुलकर सरकार के विरोध में खड़े हो गए तब केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के लिए मुसीबतें पैदा हो जाएंगी। वक्त की नजाकत को देखते हुए राजेंद्र बाबू शांत रह गए थे। नेहरू की कुंठा राजेंद्र बाबू की मृत्यु के पश्चात भी जारी रही। 1963 में राजेंद्र बाबू की मृत्यु पटना में हुई। नेहरू अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए। जब उन्हें जानकारी मिली कि राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन अंतिम संस्कार में शामिल होने पटना जा रहे हैं तब उन्होंने टेलीफोन कर उन्हें मना किया। राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी। उन्होंने कहा कि ''मैं तो जाऊंगा ही और मेरा सुझाव है कि आप भी चलें''। नेहरू ने इनकार कर दिया। पहले से निर्धारित किसी प्रदेश में आयोजित जनसभा को उन्होंने प्राथमिकता दी-देश के प्रथम राष्ट्रपति के अंतिम संस्कार को नहीं। डॉ. प्रसाद के प्रति नेहरू की कुंठा से दोनों के नजदीकी अच्छी तरह परिचित थे। मैनेजर पांडे कहते हैं, चूंकि डॉ. प्रसाद के परिवार से कोई राजनीति में नहीं आया, इसलिए वे उपेक्षित रहे। डॉ. प्रसाद के बड़े बेटे मृत्युंजय प्रसाद ने पटना स्थित जीवन बीमा निगम से संभागीय प्रबंधक के रूप में अवकाश प्राप्त किया। हां, 1977 में आपातकाल के बाद घोषित चुनाव में अवश्य वे जनता पार्टी की टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। 1980 के चुनाव में वे खड़े नहीं हुए। दूसरे एवं तीसरे बेटे धनंजय प्रसाद व जनार्दन प्रसाद छपरा में लगभग उपेक्षित जिंदगी जीते रहे। थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी और एक स्थानीय बस परमिट से आजीविका चलाते थे वे। राजेंद्र प्रसाद के परिवार तथा किसी भी रिश्तेदार ने उनके पद का लाभ नहीं उठाया। राजेंद्र प्रसाद स्वयं तो नहीं ही चाहते थे, नजदीकी रिश्तेदार भी राष्ट्रपति पद की गरिमा पर कोई आंच नहीं आने देना चाहते थे। फिर यह देश इतना कृतघ्र कैसे हो गया कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे आदर्श पुरूष की स्मृति में कोई 'दिवस' समर्पित नहीं कर पाया? चाटुकारिता और वंशवाद का वर्तमान दौर वस्तुत: डॉ. प्रसाद जैसी महान विभूति की उपस्थिति को बर्दाश्त नहीं करता। आजाद भारत के लोकतंत्र का यह एक स्याह अध्याय है।

Friday, December 4, 2009

राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में कोई दिवस?

तीन दिसंबर को छोटे स्तर पर ही सही एक बहस छिड़ी थी कि 'राष्ट्रीय सम्मान' की पात्रता क्या हो? व्यक्ति विशेष की योग्यता, देश के लिए योगदान, आदर्श व्यक्ति या जाति विशेष अथवा वंशवाद। देश के प्रथम राष्ट्रपति और भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिन पर यह बात उठी। जाने-माने साहित्यकार और समालोचक मैनेजर पांडेय की टिप्पणी आई कि ''चूंकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के परिवार का कोई व्यक्ति राजनीति में नहीं आया, इसलिए वे उपेक्षित हैं। वंशवाद को कभी प्रश्रय नहीं देने वाले राजेंद्र प्रसाद की ऐसी उपेक्षा अफसोसनाक है।'' कहा गया कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के सम्मान में तो दिवस समर्पित किए गए हैं किंतु स्वतंत्रता आंदोलन में अमूल्य योगदान देने वाले राजेंद्र प्रसाद इससे वंचित हैं। मैनेजर पांडेय की भावना गलत नहीं है। यह सचमुच दु:खद है कि ऊपर उल्लेखित विभूतियों के नाम पर देश में शासन की ओर से 'दिवस' घोषित है किंतु अनेक मामलों में अद्वितीय राजेंद्र प्रसाद की स्मृति में सरकार की ओर से कोई 'दिवस' घोषित नहीं है। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही। क्या कोई सफाई दे पाएगा? चूंकि सवाल पूछने वाला वर्ग ही अत्यंत छोटा है, किसी महिमामंडित वंश का प्रतिनिधित्व तो नहीं करता। शासकीय स्तर पर सवाल का संज्ञान भी कोई नहीं ले रहा। मैनेजर पांडेय की बातों में दम है। आजादी पूर्व दो बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके डॉ. राजेंद्र प्रसाद की विद्वता के सामने कोई टिक नहीं पाता था। शांति और सादगी की प्रतिमूर्ति राजेंद्र प्रसाद जब प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता (कोलकाता) में छात्र थे, तब परीक्षा में उनकी उत्तर-पुस्तिका जांचने वाले प्राध्यापक की टिप्पणी को याद करें। प्राध्यापक ने उत्तर-पुस्तिका में लिख दिया था कि ''The examinee is better than the examiner'' ब्रिटिश शासनकाल व आजाद भारत में भी किसी छात्र को अब तक ऐसा सम्मान नहीं मिल पाया। यह उनकी विद्वता ही थी कि भारतीय संविधान के निर्माण के लिए बनी संविधान सभा के अध्यक्ष पद पर उनका निर्वाचन किया गया। प्रसंगवश, जो बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में स्थापित हुए, वे संविधान सभा के सदस्य, डॉ. प्रसाद की पहल पर ही बने। विधि संबंधी डॉ. आंबेडकर के ज्ञान के कायल थे डॉ. प्रसाद। डॉ. प्रसाद की पहल पर ही डॉ. आंबेडकर को संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। संविधान स्वीकृति के पश्चात राष्ट्रपति पद के लिए उनके चयन पर सभी एकमत थे। हां, यह सच जरूर है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की निजी राय सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के पक्ष में थी, लेकिन राजेंद्र बाबू के पक्ष में अन्य सभी के समर्थन को देख वे चुप रह गए। 1957 में जब पुन: राष्ट्रपति के निर्वाचन का समय आया, तब पंडित नेहरू ने दक्षिण प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा। पत्र में उन्होंने डॉ. राधाकृष्णन का नाम तो नहीं नहीं लिया किंतु ऐसी इच्छा व्यक्त की थी कि अगला राष्ट्रपति कोई दक्षिण भारतीय हो। नेहरू चाहते थे कि दक्षिण के मुख्यमंत्री ऐसी मांग करें, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। दक्षिण के सभी मुख्यमंत्रियों ने जवाब भेज दिया कि जब तक राजेंद्र प्रसाद उपलब्ध हैं, उन्हें ही राष्ट्रपति बनना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद 1957 में दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। ऐसी थी उनकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता व लोकप्रियता। नेहरू के विरोध को जानकार उनकी कुंठा बताते हैं। तो क्या पंडित नेहरू राजेंद्र प्रसाद की विद्वता से भयभीत रहते थे?

Thursday, December 3, 2009

राज ठाकरे का नया अपराध !

दुखी मन से ही सही इस सच को स्वीकार करना पड़ रहा है कि अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण राज ठाकरे भरी जवानी में अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। बाल ठाकरे में इसके लक्षण तो बुढ़ापे में पाए गए किंतु राज तो बेचारे अभी जवान हैं। अगर कोई इस निष्कर्ष को गलत को साबित कर दे तो निश्चय ही वह दूसरी संभावना को झूठ नहीं साबित कर पाएगा। और यह दूसरी संभावना है कि राज ठाकरे एक ऐसे शातिर दिमाग का धारक है जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए देश और संविधान को रौंदने में नहीं हिचकता। जिस प्रदेश महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई पर वह अपनी बपौती का दावा करता है, उसकी महान संस्कृति, उसके वैभव, उसके साहित्य और इतिहास के साथ हर दिन, हर पल खिलवाड़ करने से नहीं चूकता यह शख्स। कोई शातिर दिमागधारी ही अपनी अज्ञानता को अपने अनुयायियों पर थोप उन्हें मूर्ख बनाए रखेगा। राज ठाकरे ने अपनी पार्टी के विधायकों को ज्ञान दिया कि हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बिलकुल नहीं है और यह कि हिंदी भाषा के बराबर ही हर राज्य की भाषा का महत्व है। अब राज जैसे अज्ञानी को कोई यह समझाएगा कि देश की राजभाषा ही राष्ट्रभाषा मानी जाती है? संविधान का उल्लेख करने वाले राज ठाकरे भारतीय संविधान के अनु'छेद 343(1) को पढ़ लें। इस अनु'छेद के अनुसार, देवनागरी में लिखित हिंदी संघ की राजभाषा है। अब अगर राज ठाकरे 'संघ' का अर्थ नहीं समझते तो कोई क्या करे? वैसे खीझ तो हो रही है किंतु उन्हें बता दूं कि संघ का अर्थ भारत देश है। देश के बहुभाषी व बहुसंस्कृति स्वरूप के कारण अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी संवैधानिक दर्जा दिया गया। त्रि-भाषा फार्मूला के द्वारा हिंदी के साथ अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग की छूट दी गई। किंतु, पूरे भारतीय संघ को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए हिंदी और सिर्फ हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। देश की भाषाई एकता के पक्ष में क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिया गया क्योंकि हिंदी का किसी के साथ कोई बैर नहीं। लेकिन, क्षेत्रीयता व धर्म की राजनीति करने वाले कतिपय संकुचित विचार के राजनीतिकों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए भाषा की राजनीति शुरू कर दी। एक ऐसी राजनीति जिसने देश की एकता और अखंडता पर सीधे प्रहार करने शुरू कर दिए। दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु, में सर्वप्रथम इसका राजनीतिकरण हुआ। अत्यंत ही दु.खद रूप से भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर वहां गठित राजनीतिक दलों ने राजनीतिक सफलताएं तो प्राप्त कीं लेकिन स्वयं को शेष भारत से लगभग अलग-थलग कर लिया। समाज में क्षेत्रीय और भाषाई घृणा के विष घोल डाले। ठाकरे एंड कंपनी अब उन्हीं के मार्ग पर चलते हुए भाषा और क्षेत्रीयता के जहर के सहारे समाज को छिन्न-भिन्न करने पर तुली है। अराजकता और वैमनस्य को सिंचित कर रही है। ठाकरे राजनीति करना चाहते हैं, करें। सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं, जरूर करें। किंतु, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भाषा को जहरीला न बनाएं- सामाजिक एकता को खंडित न करें।
एक महत्वपूर्ण बात और। राज ठाकरे ने हिंदी के संबंध में 'ज्ञान' का बखान अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समक्ष किया। नवनिर्वाचित विधायकों को विधायकी की जानकारी और शिष्ट आचरण करने के निर्देश की जगह भाषाई घृणा का पाठ पढ़ाने वाले राज ठाकरे गुनाहगारों की मदद के गुनाहगार भी बन गए। अशिष्ट और असंसदीय आचरण के कारण निलंबित विधायकों का सत्कार कर ठाकरे ने निश्चय ही जान-बूझकर पूरी विधानसभा और अध्यक्ष को ठेंगा दिखाया है। उनका यह कृत्य विधानसभा की अवमानना है। सर्वोच्च न्यायालय को राज ठाकरे की उद्दंडता के विरुद्ध उठाए गए कदमों की जानकारी देने वाली महाराष्ट्र सरकार क्या उनके इस नए अपराध का संज्ञान लेगी?

Wednesday, December 2, 2009

ये कैसे 'अगंभीर' सांसद !

तो ऐसे हैं हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि! इनके सीने पर चस्पा है सांसद का तमगा। भारतीय संसद के सम्माननीय सदस्य हैं ये। भारीभरकम वेतन-भत्ता। रेल-हवाई जहाज से मुफ्त यात्रा की सुविधा। हर जगह प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध सुख-सुविधा। दिल्ली में शानदार आवास और दैनंदिन कामकाज के लिए उपलब्ध सहायक-सेवक। विशेषाधिकार के अंतर्गत अनेक मामलों में विशिष्ट कानूनी संरक्षण। लगभग 115 करोड़ भारत की आबादी का संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं ये 795 सांसद। आश्चर्य है कि हमारे ये सांसद इस महत्वपूर्ण तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हैं। जी हां! अनभिज्ञ हैं ये अपनी जिम्मेदारियों से। अनभिज्ञ हैं ये देश व जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से। अनभिज्ञ हैं ये इस तथ्य से कि उनके कपड़ों की सफेदी और राजसी ठाठबाट के खर्चे आम नागरिक की जेब से ही आते हैं। संसद की कार्यवाही पर होने वाले लाखों-करोड़ों के व्यय का बोझ भी जनता की जेबें सहन करती हैं। फिर ये इतने लापरवाह कैसे हो गए? संसद में प्रश्र पूछने की कागजी औपचारिकता पूर्ण करने के बावजूद प्रश्रकाल में इनकी अनुपस्थिति निश्चय ही संसद के प्रति इनकी अगंभीरता चिन्हित करती है। बल्कि यह संसद की अवमानना है। फिर क्यों नहीं ऐसे सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई की जाए? संसदीय प्रणाली व संविधान में अगर ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है तब संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जाए। क्या लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति यह सुनिश्चित करेंगे? पिछले सोमवार को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान 32 सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्र जब सामने आए तब पता चला कि उनमें से सिर्फ 2 सदस्य उपस्थित थे। क्या यह संसद की अवमानना नहीं? जब सदन के अंदर हो-हल्ला करने वाले सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है, उन्हें बाहर कर दिया जाता है, उन्हें निलंबित कर दिया जाता है, तब ऐसी ही कार्रवाई इन सांसदों के खिलाफ क्यों नहीं? बल्कि इन सांसदों का अपराध तो कहीं अधिक गुरुत्तर है। ऐसी ही स्थितियां निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाए जाने के अधिकार की मांग को मजबूत करती हैं। मतदाता निश्चय ही ऐसा अधिकार चाहेगा। क्योंकि निर्वाचित जनप्रतिनिधि यहां मतदाता से विश्वासघात करते दिख रहे हैं। देश का सबसे बड़ा लोकतंत्र ऐसी स्थिति को कैसे और क्यों स्वीकार करे? देश किसी की बपौती नहीं। लोकतंत्र पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी यह गांठ बांध लें कि वे देश के लिए अपरिहार्य कदापि नहीं हैं। जनता के विश्वास पर अगर वे खरे नहीं उतरते हैं तब वह दिन दूर नहीं जब दंडित करने के लिए मतदाता 5 वर्षों तक प्रतीक्षा नहीं करेंगे। जब भारतीय संविधान जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा तैयार है तब सर्वोच्च भारतीय संसद पर भी अधिकार अंतत: जनता का ही है। जरूरत पडऩे पर जनता दोषी जनप्रतिनिधियों को दंडित करने के लिए तत्संबंधी संविधान संशोधन के पक्ष में सरकार को मजबूर कर देगी। कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रश्रकाल के दौरान संसद में अनुपस्थित अपनी पार्टी के सांसदों की सूची मंगाई है। यह संकेत है कि पार्टी मुखिया ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। अन्य दलों के नेता भी इसका अनुसरण करें और यह सुनिश्चित करें कि भविष्य में उनके सांसद संसद को अगंभीर नहीं बनने देंगे, संसद को मखौल नहीं बनने देंगे।

Tuesday, December 1, 2009

कोड़ा का सच कभी सामने आएगा

मधु कोड़ा गिरफ्तार तो हुए किंतु इस पूरे प्रकरण में जो यक्ष प्रश्न खड़े हो गए हैं, क्या कभी उनके जवाब मिल पाएंगे? सत्तापक्ष सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय या फिर आयकर विभाग चाहे जितनी सफाई, जितना तर्क दे लें इस मामले में 'सच' और 'न्याय' अंधेरे में और संदिग्ध बने रहेंगे। हजारों करोड़ रूपए के हवाला मामले में आरोपित कोड़ा पूरे देश की सत्ता राजनीति में एक अकेले ऐसे उदाहरण हैं, जो मात्र 5 विधायकों के गुट के नेता के रूप में झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे। कैसे संभव हुआ था ऐसा? प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक विधायक थे। जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त की घिनौनी राजनीति को हवा दी गई और भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस-झामुमो और राजद ने मिलकर मधु कोड़ा के सिर पर मुख्यमंत्री का ताज रख दिया। इन दलों के अवसरवादी समर्थन से कोड़ा अच्छी तरह वाकिफ थे। बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी के एवज में कोड़ा से जो वादे लिए गए, 'कोड़ा कांड' का बीजारोपण तभी हो गया था। नीचे से उपर तक भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत भारतीय राजनीति में एक बार फिर गंदा खेल खेला गया था। सिर्फ पाने और गंवाने के नाम पर शून्य के धारक कोड़ा ने तब अगर भ्रष्टाचार की गंगोत्री के द्वार खोल दिए, फिर आश्चर्य क्यों? व्यवस्था में निर्दलीयों की भागीदारी न होने के बावजूद उन्हें सिर पर बैठाने की इस परिणति पर फिर विलाप क्यों? सभी जिम्मेदार हैं इसके लिए। चाहे कांग्रेस नेतृत्व हो या राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव 'कोड़ा कांड' के सूत्रधार-लेखक ये ही हैं। चुनौती है जांच एजेंसियों को कि वे दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाएं। कोई भी निष्पक्ष जांच सभी को घेरे में ले लेगी। 'गंगोत्री' के 'चरणामृत' को सभी ग्रहण कर चुके हैं। चूंकि कोड़ा की गिरफ्तारी को लेकर अनेक शंकाएं प्रकट की जा रही थीं, मीडिया ने नजर गड़ा रखी थी। झारखंड विधानसभा चुनाव में खुलकर प्रचार कर रहे कोड़ा अपने विरूद्ध जारी किए गए 'समन' की अवहेलना कर रहे थे। घोषणा कर दी थी कि चुनाव के बाद ही वे पूछताछ के लिए उपलब्ध होंगे। विपक्ष इसे साजिश बता रहा था। आरोप लगी कि जांच एजेंसियां जान-बूझकर उन पर हाथ नहीं डाल रही हैं। यह भी कहा गया कि जांच मंद कर दी गई है और दिशा से भटक रही है। बेशक ये बहुप्रचारित आशंकाएं ही कोड़ा की तत्काल गिरफ्तारी का कारण बनीं। अब गेंद जांच एजेंसियों के पाले में है। आरोप सिद्ध होने पर राजनीति से संन्यास ले लेने की घोषणा करने वाले कोड़ा का अपराध कभी साबित हो पाएगा? लोगों की शंका के कारण मौजूद हैं। जांच एजेंसियों को चुनौतियां यूं ही नहीं दी जा रहीं। दिल्ली में बैठे सत्तापक्ष की इस मामले में अंतर्लिप्तता से इनकार फिलहाल संभव नहीं। इसलिए भी जरूरी है कि पूरे मामले की निष्पक्ष और तत्काल जांच हो। अन्यथा संदेहों के काले बादल हमेशा विद्यमान रहेंगे। संसदीय लोकतंत्र और इसके तीनों स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका निष्क्रियता और पक्षपात के अपराधी बन जाएंगे। अविभाजित बिहार के लिए यह दूसरा अवसर है जब कोई पूर्व मुख्यमंत्री गिरफ्तार हुआ है। इसके पूर्व 1970 में एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह अपने निजी मेडिकल कालेज में घपले के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं। क्या यह सिलसिला जारी रहेगा?