Sunday, December 6, 2009
जाति-व्यवस्था के पाप से मुक्ति!
''इस देश में एक 'चमार' कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता।'' इसे हताशा कह लें, या व्यथा, बाबू जगजीवनराम के मुंह से ये शब्द तब निकले थे, जब आपातकाल के बाद 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार का गठन होने जा रहा था। प्रधानमंत्री पद पर बाबू जगजीवनराम की दावेदारी को खारिज कर मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया गया था। जगजीवन बाबू को उप प्रधानमंत्री पद से संतोष करना पड़ा था। हर दृष्टि से एक उचित अपेक्षा की यह कैसी बलि? राजनीति अथवा किसी भी क्षेत्र में ऐसे 'जाति-प्रभाव' को कदापि स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। मैं यहां बात जनता पार्टी या प्रधानमंत्री पद की नहीं कर रहा हूं। बहस का मुद्दा, समाज में व्याप्त वह जातीय-व्यवस्था है जिसे समाप्त करने की इच्छा देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जताई है। उच्च जाति के ठाकुरों द्वारा कुछ दलितों की हत्या के मामले में सजा सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि एक सभ्य देश में तथाकथित अगड़ी जातियों द्वारा तथाकथित निचली जातियों के खिलाफ किए जाने वाले दमन का यह सबसे बुरा स्वरूप है। सर्वोच्च न्यायालय का कार्यपालिका को यह निर्देश महत्वपूर्ण है कि कानून और लोकतंत्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए देश से जातीय-व्यवस्था को समाप्त करें। क्या इसके बाद भी कार्यपालिका तटस्थ बनी रहेगी? दलील दी जाती है कि सदियों पुरानी जातीय-व्यवस्था को आनन-फानन में खत्म करना संभव नहीं है। इस तर्क को तत्काल खारिज नहीं किया जा सकता किंतु यह तो पूछा ही जाएगा कि शासन के स्तर पर इसे समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? इस दिशा में सामाजिक चेतना लेखन व भाषण तक ही सीमित क्यों हैं? शासन की की ओर से ऐसे कौन-से व्यावहारिक कदम उठाए गए जिससे जातीय-व्यवस्था के खिलाफ समाज में चेतना जागृत हुई है? सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक जातीयता पर लगाम की आवश्यकता को चिन्हित करने वाले बताएं कि अब तक कोई ऐसा आंदोलन क्यों नहीं चला, जिससे कम से कम सत्ता-शासन को तद् हेतु मजबूर किया जा सकता था। सर्वोच्च न्यायालय ने बिल्कुल ठीक टिप्पणी की है कि कानून और लोकतंत्र की व्यवस्था सुचारू रूप से चलने के लिए जातीय-व्यवस्था की समाप्ति जरूरी है। साफ है कि शासन और लोकतंत्र दोनों पर इस कुरीति का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इससे मुकाबला दोनों स्तरों पर होना चाहिए। पहले बात कानून की करें। शासन की ओर से आरक्षण की दलील दी जाती है, जबकि सच यह है कि अब आरक्षण का राजनीतिकरण हो चुका है। आरक्षण की मूल भावना को राजनीति के हवन-कुंड में भस्म कर डाला गया। राज दल व राज नेता चाहे जितना इनकार कर लें, जातीय-आरक्षण और जातीय समीकरण के वोट बैंक इन लोगों ने ही तैयार किए हैं। किसी भी सभ्य देश के लिए यह शर्मनाक है। जातीयता के जहर का इन लोगों ने इतना विस्तार कर दिया है कि जन- प्रतिनिधियों का निर्वाचन बगैर इस वोट बैंक के समर्थन के संभव ही नहीं है। लोकतंत्र के मंदिर में क्या पुजारी, क्या याचक-सभी इस रोग से ग्रसित हैं। फिर, भला इस वोट बैंक या समीकरण के खिलाफ कानून बनाए जाने की आशा कोई करे तो कैसे करे? व्यवस्थित लोकतंत्र का मुद्दा भी इसी से जुड़ा है। सर्वोच्च न्यायालय जैसा सुधार चाहता है, क्या वर्तमान लोकतंत्र में वह संभव है? मैं समझता हूं, दृढ़ इच्छा शक्ति से यह संभव है। शर्त यह है कि सभी राज दल देश व समाज हित में पहले दलगत प्रतिबद्धता का त्यागकर संकल्प लें कि एक समाज-एक भारत के पक्ष में जातीय-व्यवस्था खत्म करेंगे। तात्कालिक राजनीतिक लाभ-हानि के लोभ का त्यागकर ही ऐसा संभव हो सकता है। समाज, देश व लोकतंत्र के हित में, बल्कि इनके अस्तित्व के लिए सभी दल मिलकर पहल करें। अंतत: लाभान्वित वे ही होंगे। देश व लोकतंत्र तो मजबूत होगा ही। जगजीवनराम जैसे व्यक्ति को तब जातीय-व्यवस्था के कारण धक्का पहुंचा था। नुकसान देश व लोकतंत्र का भी हुआ था। विशाल बहुमत से कांग्रेस को अपदस्थ कर केंद्र में सत्ता काबिज होने वाली जनता दल की सरकार अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी। तबके गवाह इस बात की पुष्टि करेंगे कि अगर उस समय जगजीवनराम प्रधानमंत्री बना दिए गए होते, तब जनता दल की सरकार नहीं गिरती। लेकिन वह जातीय-व्यवस्था ही थी, जिसने तब 'लोकतंत्र' और 'राजनीति' दोनों को अपना ग्रास बना लिया था। अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने फिर एक अवसर प्रदान किया है इस कुरीति से निजात पाने का। वैसे घोर स्वार्थी व निज लाभ की राजनीति के वर्तमान दौर के बावजूद एक आशा शेष है- अपवादस्वरूप उपलब्ध राजनीतिक, समाजसेवी व तटस्थ समीक्षक के रूप में। क्या सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से सूत्र पकड़ यह वर्ग सक्रिय होगा। अगर जातीय-व्यवस्था के पाप के कलंक से मुक्त होना है, तब बगैर और विलंब के उन्हें आगे बढऩा होगा।
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