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Monday, December 28, 2009

भाजपा-शिवसेना हाथ मिलाएं, मजबूती से

झारखंड में शिबू सोरेन को भारतीय जनता पार्टी द्वारा समर्थन दिए जाने पर बहस का नया दौर-उसका स्वरूप विचारणीय है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की मीमांसा हमारी 'राजनीतिक-व्यवस्था' को बेपर्दा करेगी। लेकिन, सवाल यह कि ऐसी किसी ईमानदार मीमांसा से निकले निष्कर्ष को कोई स्वीकार करेगा-आत्मसात् करेगा। शायद राजनीतिक भाषणों में ऐसे कुछ संकेत मिलें किंतु व्यवहार के स्तर पर तो कतई नहीं। वर्तमान भारतीय राजनीति की यह ऐसी विडंबना पर निकट भविष्य में विराम लगता नहीं दिख रहा। मूल्य आधारित राजनीति, नैतिकता, ईमानदारी और राष्ट्र-समाज के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव इसके कारण हैं। अपने होल-खोल स्याह राजनीति के बीच गुम सक्रिय चमकदार हाथ क्या कभी दृष्टिगोचर नहीं होंगे? निश्चय ही हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की होगी। सत्ता के लिए अपेक्षित सेवा-भावना का त्याग और 'मेवा' हड़पने की प्रवृत्ति की उपज ने 'राष्ट्रीयता' तक को निगल लिया है। ऐसे में मूल्य, सिद्घांत और आदर्श की अपेक्षा? किताबी ज्ञान लेकर राजनीति में प्रविष्ट नई पीढ़ी भ्रमित है, हताश है। किसी अनुकरणीय पग की तलाश में उसका हाथ-पैर मारना विफल हो रहा है।
शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा को भाजपा ने समर्थन की घोषणा की नहीं कि 'विद्वान समीक्षक' और विरोधी पक्ष सक्रिय हो गए। अखबारों में ऐसे समीक्षकों ने लिखा कि मूल्यों की दुहाई देने वाली भाजपा भी सिद्धांतहीन गठबंधन कर बैठी। टीवी चैनलों पर पुराने फुटेज दिखाए जाने लगे, जिनमें लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में लालकृष्ण आडवाणी को तब के केंद्रीय मंत्री शिबू सोरेन के खिलाफ दहाड़ते दिखाया गया। संसद के बाहर तेजतर्रार सुषमा स्वराज को शिबू सोरेन की बखिया उधेड़ते हुए यह कहते हुए दिखाया गया कि ऐसे व्यक्ति को मंत्री बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। यह भी दिखाया गया कि भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किन जोरदार शब्दों में विकास और मूल्यों की राजनीति की बातें कही थीं। सभी का एकमात्र उद्देश्य भाजपा को 'पार्टी विथ द डिफरेंस' संबंधी दावे की याद दिलाई जाए। मैं इसे एक स्वस्थ आलोचना के रूप में देख रहा हूं। शुभचिंतक ऐसी बातों को सामने लाकर संशोधन की कामना करते हैं। झारखंड अपने निर्माण के समय से ही दुविधा में जीता आया है। राज्य गठन के बाद से पिछले 9 वर्षों में 6 मुख्यमंत्री बने। एक के बाद एक सरकारें गिरीं, सत्ता के लिए छीना-झपटी, घात-प्रतिघात होते रहे, नेताओं के भ्रष्टाचार कुछ यूं उजागर हुए कि राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सुर्खियां मिली। फिर क्या आश्चर्य कि सभी राजनीतिक दल जनता की नजरों में संदिग्ध बन बैठे। अस्थिरता के न रूकने वाले दौर के कारण कोई भी सरकार अपने कार्यकाल का सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाई। कोई भी पार्टी इतना दम-खम नहीं दिखा सकी कि लोग-बाग उसे शासन की बागडोर सौंपने को तैयार हों। खंडित जनादेश इसी स्थिति की परिणति है। ऐसे में भाजपा ने अपनी ओर से पहल कर शिबू सोरेन को समर्थन देने का निर्णय लिया है, तब स्थिरता के पक्ष में उन्हें समय और अवसर दिया जाना चाहिए। मैं पहले जब भी अवसर मिला, इस तथ्य को रेखांकित करता रहा हूं कि एक सरलहृदयी क्रांतिकारी शिबू सोरेन हमेशा साजिशों के शिकार होते रहे हैं या फिर उनकी सरलता और उदारता का बेजा इस्तेमाल कर राजनीतिक दलों ने उनका उपयोग किया। भाजपा नेतृत्व को शिबू के इस पाश्र्व को ध्यान में रखते हुए उन्हें 'सु-शासन' के पक्ष में तैयार करना होगा, प्रेरित करना होगा। शासन के व्यवहार में आने वाली वर्जनाओं को हाशिए पर रख झारखंड के 'गुरूजी' के 'सपनों के झारखंड' को मूर्त रूप देने के लिए परस्पर सहयोग व विश्वास जरूरी है। झारखंड की जनता वस्तुत: शिबू की तरह सरलहृदयी व उदार है। उसके आगोश में कोई भी शरण ले सकता है। शर्त यह है कि उसकी पीठ में छुरा न भोंका जाए। राजनीतिक स्थिरता की स्थापना के लिए भी परस्पर विश्वास-सहयोग जरूरी है। इस आग्रह को भाजपा, झाारखंड मुक्ति मोर्चा, जद(यू) और आजसू भी हृदयस्थ कर लें।

1 comment:

चलते चलते said...

मूल्‍य और सिद्धांतो की राजनीति की बात की जाए तो यह देश स्‍वतंत्र हुआ तब से पूरी समीक्षा करनी होगी। भाजपा यदि शिबू सोरेन के साथ नहीं जाती तो कांग्रेस जाती। राजनीति में न तो कोई स्‍थाई दुश्‍मन होता है और न ही स्‍थाई दोस्‍त। चलने दीजिए जो चल रहा है।