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Wednesday, December 23, 2009

फिर कटघरे में न्याय प्रणाली!

चाहें तो इसे न्यायपालिका की अवमानना की श्रेणी में डाल दें, मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि एक बार फिर हमारी न्याय प्रणाली बदनाम हुई है, बेबस सिद्ध हुई है, सामथ्र्यवान के पक्ष में झुकी दिखी। अगर यह कहा जाए कि न्याय लांक्षित हुआ है तो गलत नहीं होगा। मैं इस टिप्पणी व आकलन में निहित कानूनी जटिलता को नहीं समझता। यह भावना यौन उत्पीडऩ मामले में हरियाणा के पूर्व पुलिस महासंचालक को छह माह की सजा सुनाए जाने के बाद मिल रही त्वरित प्रतिक्रियाओं पर आधिरित है। संसद में भी मामला उठा और ऐसे मामलों में त्रुटिपूर्ण न्यायिक व्यवस्था की चर्चा हुई। अल्प सजा पर असंतोष व्यक्त किए गए। मामले की फास्ट ट्रैक कोर्ट में पुन: सुनवाई की मांग की गई।
नि:संदेह इस मामले में अदालत की भूमिका ने न्याय की मूल भावना को चोट पहुंचाई है। विलंबित और संदिग्ध न्याय ने इस जरूरत को मजबूती प्रदान की है कि भारतीय न्याय व्यवस्था सुधार की आग्रही है।
आज से 19 वर्ष पूर्व 14 साल की उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरौत्रा के यौन उत्पीडऩ का आरोप तब के पुलिस महानिरीक्षक एसपीएस राठौड पर लगा था। चश्मदीद गवाह के रूप में रुचिका की एक मित्र मधु सामने आई और न्याय के लिए 19 वर्षों तक डटी रही। उसने पुलिस और अदालत को रुचिका के साथ छेड़छाड़ की घटना का सविस्तार वर्णन किया था। लेकिन पूरा मामला 19 वर्षों तक चला और सजा सुनाई गई मात्र छह माह जेल। यही नहीं सजा सुनाए जाने के 10 मिनट के अंदर राठौड को जमानत मिल गई। यानी राठौड जेल नहीं भेजे गए। इस घटना ने एक बार फिर यही तो सिद्ध किया है कि रसूखदार बड़ा से बड़ा अपराध कर बच निकलते हैं। धन बल और संपर्क शक्ति उन्हें बचा ले जाते हैं। इंकार तो किए जाएंगे किन्तु रुचिका के मामले में ये आरोप हर कोण से सही दिख रहे हैं। एक 14 साल की बच्ची के साथ राज्य के एक बड़े पुलिस अधिकारी की छेड़छाड़ यानी यौन शोषण अत्यंत ही गंभीर अपराध है। पूरा का पूरा पुलिस प्रशासन उन्हें बचाने में लगा रहा। यही नहीं, 1990 की इस घटना के बाद 3 वर्षों तक न केवल मामले को दबाने की कोशिश की जाती रही बल्कि रुचिका के परिवार के सदस्यों को प्रताडि़त भी किया गया। रुचिका का एक भाई चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया। परिवार की प्रताडऩा, अपने साथ किए गए दुव्र्यवहार और आरोपी पुलिस अधिकारी को बेखौफ घूमते देख क्षोभ, अपमान और ग्लानी की मारी रुचिका ने आत्महत्या कर ली। किन्तु शाबास मधु! अनेक दबाव और प्रलोभनों से अविचलित यह चश्मदीद गवाह 19 वर्षों तक अडिग रही। यहां तक कि आस्ट्रेलिया से वह भारत आई किन्तु न्याय के हाथों उसे निराशा हाथ लगी। यह ठीक है कि पूर्व डीजीपी राठौड को अदालत ने दोषी पाया किंतु अल्प सजा दिए जाने के कारण अदालत खुद कटघरे में खड़ी नजर आ रही है। न्याय की मूल भावना कि न्याय न केवल हो बल्कि वह होता हुआ दिखे भी, इस मामले में नदारद है। अदालत के फैसले से समाज में अत्यंत ही गलत संदेश गया है। बहस छिड़ गई है कि क्या सचमुच न्याय सिर्फ रसूखदारों की मदद करती है? सभी के लिए समान न्याय की अवधारणा कैसे गुम हो गई? जिस दिन यह स्थापित हो गया कि न्यायपालिका छोटे-बड़ों में भेद करती है, न्याय मंदिर की पवित्रता समाप्त हो जाएगी। लोगों का विश्वास न्याय मंदिर में बैठे 'देवताओं’ पर से उठ जाएगा। यह स्थिति अत्यंत ही खतरनाक है। अगर तत्काल न्यायपालिका अपनी खोती जा रही विश्वसनीयता को वापस प्राप्त नहीं कर लेती तो इसके प्रतिउत्पादक परिणाम भयंकर होंगे। मुठीभर रसूखदार-धनबली अपनी रक्षा नहीं कर पाएंगे। मैं दोहरा दूं कि यहां उन संभावनाओं की चर्चा कर रहा हूं जो गली-कूचों में दीवारों पर लिखी जा रही हैं। गरीबों की फटी एडिय़ों वाले पांव का मुकाबला रसूखदारों के कोमल पांव कभी नहीं कर सकते। भागने में असमर्थ यह वर्ग तब समर्पण कर देगा। डर सिर्फ इस बात का है कि ऐसी अवस्था में विलंब के कारण 'रुचिकाओं’ की संख्या कहीं बढ़ती न जाए। न्यायपालिका पर देश को भरोसा है। यह अवश्य है कि हर क्षेत्र की तरह न्याय के क्षेत्र में भी कतिपय काले भेडिय़ों को प्रवेश मिल गया है। फिर देर किस बात की? इन्हें पहचानें और अलग कर दें। न्यायपालिका की पवित्रता के लिए यह जरूरी है।

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