फिर पीड़ा हुई, मन क्षुब्ध हो उठा। बुद्धिजीवी बुद्धि का इस्तेमाल करें, यह तो वांछित है। लेकिन उनमें से जब कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पक्षपात और पूर्वाग्रही सोच के लिए इसका प्रयोग करते हैं, तब देश-समाज छला जाता है। स्वयं को हमेशा सही और सर्वश्रेष्ठ बताने की इनकी ललक से समाज में भ्रांतियां पैदा होती रहती हैं। निष्पक्षता से वंचित कोई व्यक्ति बुद्धिजीवी के रूप में पूर्णत: स्वीकार्य कभी नहीं हो सकता। ये बातें उन समीक्षकों पर भी लागू होती हैं जो देश और समाज की नाड़ी परखने की अहम् जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं।
गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार की अनिवार्य मतदान के लिए की गई ऐतिहासिक पहल क्या अनुकरणीय नहीं है? फिर तथाकथित बुद्धजीवियों के एक वर्ग की ओर से आलोचना क्यों? मुझे याद है 1996 का आम चुनाव। तब मैं दिल्ली में था। मतदान के दिन सुख्यात पत्रकार व समीक्षक कुलदीप नैयर ने एक मतदान केंद्र पर मतदाताओं की पंक्ति की ओर देखकर टिप्पणी की थी कि इनमें से अधिकांश अपरिपक्व हैं। इनमें वह वर्ग नदारद है जो मत और शासन के महत्व को समझता है। इसके बाद ऐसी मांग उठती रही कि कानून बनाकर मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए। इस मांग को समर्थन मिला, किसी कोने से विरोध नहीं हुआ। क्योंकि यह सच मुंह बाये सामने खड़ा दिखा कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करने वाला अधिकांश मतदाता जाति, धर्म, दबाव, प्रलोभन और बयार से प्रभावित है। शिक्षित, समझदार मतदाताओं का बड़ा वर्ग मतदान के दिन अपने घरों में बैठ अवकाश का लुत्फ उठाता है। चाय, कॉफी की चुस्कियों के बीच लोकतंत्र, चुनाव और सत्ता पर बहस करेंगे, भाषण देंगे। किन्तु यह कथित समझदार वर्ग सत्ता निर्माण की प्रक्रिया से स्वयं को अलग रखता है। फिर क्या आश्चर्य कि आज देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया राजनीतिक दल केंद्रित हो गई है? मोदी सरकार ने पहल कर स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव के लिए मतदान को अनिवार्य कर दिया है। कोई इसमें मीन-मेख न निकाले। राजनीति के माइक्रोस्कोप से न देखें। यह वह अनुकरणीय पहल है जो लेाकतांत्रिक प्रक्रिया को मतदान केंद्रित बनाएगी। 'ड्राइंग रूम पालिटिक्स' की चर्चाएं बेमानी हो जाएंगी। चूंकि गुजरात के बने कानून में नकारात्मक मतदान का भी प्रावधान रखा गया है, यह आरोप नहीं लगेगा कि मतदाता की इच्छा के विरुद्ध किसी को बाध्य किया गया। स्वतंत्र सोच संबंधी जनतंत्र की मूल भावना की रक्षा भी होगी। बावजूद इसके अगर कोई इसकी आलोचना कर रहा है तो सिर्फ इसलिए कि इस ऐतिहासिक पहल का श्रेय नरेंद्र मोदी के खाते में जा रहा है। उनकी असली चिंता यही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दलगत राजनीति और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से इतर गुजरात की इस पहल का अनुकरण कर राष्ट्रीय स्तर पर आम चुनावों के लिए भी अनिवार्य मतदान सुनिश्चित किया जाए।
1 comment:
सुन्दर आलेख, मगर अफ़सोस कि लोग जो घर बैठ बड़ी बड़ी बाते करते है, कोसते है लोकतंत्र को कि अच्छे लोग प्रत्यासी नहीं है, इन निठ्ठले, निक्कमो के पास इस तरह की बातो को महत्व देने का भी वक्त नहीं ! बस कुछ तथाकथित सेकुलर तो इसी बात से दुबले हुए जा रहे है कि अगर यह पद्धति पूरे देश पर लागू करने की बात आ गई तो उनके वोट बैंक की तो ऐसी-तैसी हो जायेगी ! फिर इन्हें पूछेगा कौन ?
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