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Sunday, December 13, 2009

चिदंबरम अर्थात सरकार के शब्दों को सम्मान दें प्रधानमंत्री!

'लोक' भावना से इतर लोकतंत्र के सर्वोच्च प्रहरी अगर अब तेलंगाना के साथ विश्वासघात करते हैं तब न तो उन्हें कभी इतिहास माफ करेगा और न ही देश का लोकतंत्र। कथनी और करनी के फर्क को अच्छी तरह समझने वाला 'लोक' चीख-चीख कर कह रहा है कि केंद्र सरकार अपने उगले को अब वापस निगलने की कोशिश कर रही है। अब ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पृथक तेलंगाना के गठन पर यह कहने को मजबूर हुए कि फैसला जल्दबाजी में नहीं लिया जाएगा? अगर यह केंद्र सरकार का फैसला है तक देश यह जानना चाहेगा कि मंत्रिमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने ऐसी घोषणा कैसे कर दी थी कि पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है? यही नहीं, केन्द्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए भी घोषणा कर दी थी कि हैदराबाद तेलंगाना और आंध्र की संयुक्त राजधानी बनेगी। क्या यह दोहराये जाने की जरूरत है कि गृहमंत्री की घोषणा के बाद ही आमरण अनशन पर बैठे चंद्रशेखर राव ने अनशन तोड़ा था? आंध्र में पटाखे फोड़े गए, मिठाइयां बांटी गईं। फिर 'पुनर्विचार' सदृश प्रधानमंत्री का बयान कैसे? अगर आंध्रप्रदेश में कांग्रेस, तेलुगूदेशम् आदि के विरोध और वहां कथित रूप से तेलंगाना विरोधी आंदोलन भड़कने से प्रधानमंत्री दबाव में आ गए हैं तब मैं इस टिप्पणी के लिए मजबूर हूं कि ..... मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं। क्या यह समझने और समझाने की जरूरत है कि कथित विरोध प्रदर्शन राजनीति प्रेरित है? शत-प्रतिशत प्रायोजित हैं? यह तो संभव ही नहीं है कि चिदंबरम ने पृथक तेलंगाना की घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस तथा संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी की अनुमति के बगैर की होगी। अब चिदंबरम इंदिरा गांधी तो हैं नहीं जिन्होंने मंत्रिमंडल को विश्वास में लिए बगैर सन 1975 में आपातकाल की घोषणा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से हस्ताक्षर ले लिया था। वह घटना भारत की एक अलग व्यथा-कथा के रूप में इतिहास में दर्ज है। चिदंबरम जैसा मंत्री अपनी मर्जी से आंध्रप्रदेश का टुकड़ा कर तेलंगाना के निर्माण की घोषणा कर दे, क्या इस पर कोई विश्वास करेगा? लगता है केन्द्र सरकार कुछ अन्य राज्यों से उठ रही समान मांग से राजनीतिक दबाव में आ गई है। विकास के लिए छोटे राज्यों के निर्माण की कल्पना पं. जवाहरलाल नेहरू ने की थी। 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बना और 1956 में की गई आयोग की अनुशंसा पर 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए थे। क्या 5 दशक के बाद आज और छोटे राज्यों की जरूरत नहीं है? इस बीच हर राज्य की आबादियां बढ़ीं हैं, जरूरतें बढ़ीं हैं। सत्ता पक्ष राजनीतिक लाभ-हानि से हटकर विचार-मंथन करे। उसे पुन: नए राज्यों के गठन की जरूरत का एहसास हो जाएगा। देश का सार्वभौम चरित्र तब भी कायम रहेगा। बेहतर हो केंद्र सरकार अविलंब चिदंबरम अर्थात सरकार की घोषणा को सम्मान देते हुए तेलंगाना राज्य के गठन की प्रक्रिया को तेज करे।

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