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Saturday, August 18, 2012

न्यायपालिका का 'सच', ममता की चुनौती!



सत्य के धरातल पर सही होने के बावजूद ममता बनर्जी की टिप्पणी पर बवाल क्यों? क्या कहा था बंगाल की बाघिन, तेज-तर्रार ममता बनर्जी ने? यही न कि इन दिनों अदालतों में फैसले खरीदे जा सकते हैं! बंगाल की मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह स्पष्ट किया है कि उनका आशय पूरी की पूरी न्यायपालिका और सभी वकीलों से नहीं था। फिर बनर्जी ने गलत क्या कहा? क्या यह सच नहीं है कि अनेक न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं,मामले दायर किये गए हंै, जांच हो रही है? निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक आरोपों के घेरे में है? न्याय की मूल अवधारणा कि 'न्याय न केवल हो, बल्कि होता हुए दिखे भी' के विपरीत फैसले नही आ रहे हंै? और तो और, सर्वोच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने तो एक महत्वपूर्ण मामले में यहां तक टिप्पणी कर डाली कि, 'बुद्धिमान हवा के रूख के साथ चलते हैं'। अर्थात, हवा के बहाव में झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार शामिल हो तो सभी झूठे, बेईमान, भ्रष्ट, अत्याचारी बन जाएं! सर्वोच्च न्यायालय के आसन से आयी  ऐसी टिप्पणी के बाद अगर ममता बनर्जी न्यायपालिका में प्रविष्ट भ्रष्टाचार को रेखांकित करती हंै तो, कोई इसे न्यायपालिका की अवमानना कैसे माने? ममता अपनी जगह गलत नही हंै।
आम लोगों की नजरों में आज न्यायपालिका 'पवित्र' नहीं बल्कि 'संदिग्ध' है। महंगी होती न्याय- व्यवस्था में गरीबों के लिए न्याय की कल्पना करना भी आज बेमानी प्रतीत होने लगा है।  'न्यायिक सक्रियता' और 'लोकहित याचिका' के नये दौर में आशा तो बंधी, लेकिन उसका लाभ भी सीमित रूप में ही सामने आया। अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का मामलों को छोड़ दे, तो इससे एक विशेष वर्ग ही लाभान्वित हुआ। गरीब-अमीर के बीच न्याय बंटा, तो आर्थिक आधार पर ही।
1984 के सिख विरोधी दंगों में हुए कत्ले-आम से संबंधित एक मामले में आदेश देते हुए दिल्ली के अतिरिक्त सेशन जज शिवनारायण धिंगड़ा ने 27 अगस्त 1996 को टिप्पणी की थी कि 'कानून में समानता के जो बुनियादी सिद्धांत हंै, जो संविधान में निरूपित है, वे देश में बेअसर हो चुके हंै। जब पीडि़त शक्तिशाली और धनी हो तो, अदालतें तेजी से काम करती हैं, जब पीडि़त गरीब हो तो व्यवस्था काम करना बंद कर देती है।' एक जज की इस टिप्पणी को कोई चुनौती देने सामने आयेगा? किसी में है इतना नैतिक साहस?
यह तो वर्तमान का कठोर सत्य है।  किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हम शाश्वत सत्य मानकर इसे स्वीकार कर लें, तटस्थ बैठ जाएं। विरोध में आवाजें उठानी होंगी। न्यायपालिका की सफाई के लिए कानून-संविधान के दायरे में पहल करनी होगी। यह तो अच्छी बात है कि केंद्र में मंत्री रह चुकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने पहल की है। प्रसंगवश, जरा उन दिनों की याद कर लें, जब कहा जाता था कि  'ङ्खद्धड्डह्ल क्चद्गठ्ठद्दड्डद्य ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशस्रड्ड4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड ह्लद्धद्बठ्ठद्मह्य ह्लशद्वशह्म्ह्म्श2'.

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