Wednesday, April 15, 2009
देशहित में साथ आएं कांग्रेस-भाजपा!
इस सुझाव का खरीदार अभी शायद ही कोई हो, किन्तु देश की वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त करने, संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को मजबूती प्रदान करने और सभी से ऊपर भयादोहन अर्थात् ब्लैकमेलिंग की राजनीति खत्म करने के लिए यह जरूरी है. अटल बिहारी वाजपेयी हों या डॉ. मनमोहन सिंह, दोनों इस कड़वे सच से इनकार नहीं कर सकते कि उन्हें किसी न किसी स्तर पर प्राय: प्रतिदिन गठबंधन की राजनीति का 'शिकार' बनना पड़ा है, बनना पड़ रहा है. छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल और उनके नेता निज-स्वार्थ (जिनका देशहित से कोई लेना-देना नहीं होता) की पूर्ति हेतु दबाव बनाते रहते हैं, ब्लैकमेलिंग करते रहते हैं. विकास को गति देने वाली अनेक लोकहितकारी योजनाएं इन दलों के दबाव के कारण ही ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं. इन लोगों को न तो आम जनता के हित की परवाह रहती है और न ही देश की छवि की. संविधान, कानून, नियम-कायदे इनके लिए महत्वहीन हैं. वस्तुत: राष्ट्रहित, देशप्रेम और जनकल्याण इनके लिए खिलौने से अधिक कुछ नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार केन्द्र में थी, तब अनेक सहयोगी दलों के ऐसे ही दबाव के कारण प्रधानमंत्री वाजपेयी मजबूरन कई बार इस्तीफे की पेशकश कर चुके थे. उदार व सरलचित्त वाजपेयी ऐसे ही दबावों के कारण अस्वस्थ हो चले थे. परेशान वाजपेयी ने तो तब अनेक मंत्रियों से मिलना भी बंद कर दिया था. सहयोगी दल शिवसेना ने तो एक बार प्रधानमंत्री कार्यालय पर ही भ्रष्टïाचार के आरोप लगा दिए थे. खिन्न वाजपेयी ने तत्काल इस्तीफे की पेशकश कर दी थी. बाद में शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के हस्तक्षेप के बाद मामला शांत हुआ था. तब के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज के रवैये से भी वाजपेयी हमेशा दु:खी रहे. छोटे सहयोगी दलों की धमकियां हमेशा सुर्खियां बनती रही थीं. ममता बनर्जी का किस्सा तो जगजाहिर है.
वर्तमान मनमोहन सरकार जब अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है, तब देश का तटस्थ विचारक वर्ग 15वीं लोकसभा के संभावित स्वरूप को लेकर चिंतित है. पिछले पांच वर्षों में वामदलों ने सरकार के हर उस प्रगतिशील कदम का विरोध किया, जिससे विकास को गति मिल सकती थी. अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा करार का मामला हो या फिर विनिवेश का, लोकसभा में अपने संख्याबल की धौंस जमा वामदल अंत-अंत तक विरोध करते रहे. उनकी समर्थन वापसी के खेल से पूरा देश परिचित है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, दक्षिण के डीएमके-पीएमके, सभी दबाव और भयादोहन की राजनीति करते रहे. संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 'स्थिरता' के पक्ष में इनके सामने नतमस्तक होते रहे. राजनीतिकों के ऐसे स्वार्थी खेल ने भारतीय लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंचाई है. सिर्फ तटस्थ विचारक ही नहीं, देश की युवा पीढ़ी आज बेचैन है. क्या आगे भी ऐसा ही होता रहेगा? लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी के भाग्य का निर्णय क्या ऐसे मुठ्ठी भर, सर्वथा अयोग्य, भ्रष्टï नेता ही लेते रहेंगे? आखिर कब तक ऐसे नेताओं के स्वार्थ की वेदी पर देशहित की बलि चढ़ायी जाती रहेगी? कब तक मनमोहन सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी जैसा योग्य नेतृत्व 'अयोग्यता' के समक्ष शीश नवाता रहेगा? कब तक स्वार्थी-सत्ता, योग्यता का मानमर्दन करती रहेगी? बेचैन है आज की युवा पीढ़ी! उसे समाधान चाहिए. क्या इनसे निजात पाना संभव है? है, बिल्कुल है! पुरानी वर्जनाओं, घिसे-पिटे सिद्धांत, विफल साबित हो चुके 'वाद' से मुक्ति पाकर देश को इन व्याधियों से बचाया जा सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि देश के दोनों बड़े राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रहित में एक मंच पर आएं. ये त्याग दें उन सारी कुंठाओं को, जिनके कारण ये दोनों दल उत्तर-दक्षिण के ध्रुव पर खड़े हैं. भूल जाएं लोगों को भ्रमित करने वाले उन 'वादों' को, जो सिर्फ अकादमिक स्तर पर ही अच्छे लगते हैं, किन्तु व्यवहार के स्तर पर बिल्कुल निष्फल. कुकुरमुत्ते की तरह छोटे दलों के उदय का कारण भी तो वही हैं. फिर झटक कर इनसे मुक्त क्यों नहीं हो जाते ये दोनों बड़े दल! एक बार प्रयोग कर देखें. जिस दल के सांसदों की संख्या अधिक हो, प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार उस दल को दिया जाए. दूसरे बड़े दल को उपप्रधानमंत्री पद दे दिया जाए! ....और फिर एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार कर ये दोनों दल सरकार चलाएं. संसद में सांसदों की संख्या के आधार पर मंत्रिमंडल में इन्हें आनुपातिक स्थान मिले. साझा न्यूनतम कार्यक्रम राष्ट्रहित और जनआकांक्षा को ध्यान में रख तैयार किया जाए. एक भी विवादास्पद मुद्दा इनमें शामिल न हो. ध्यान रहे, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में भाजपा का न राममंदिर निर्माण का मुद्दा था और न ही संविधान की धारा 370 को खत्म करने का! भाजपा तब इसके लिए तैयार थी. फिर भाजपा-कांग्रेस मिलकर साझा न्यूनतम कार्यक्रम क्यों नहीं बना सकते? संसद में इन दोनों दलों की सदस्य संख्या इतनी हो जाएगी कि छोटे-छोटे दल स्वत: अस्तित्वहीन बन जाएंगे. देश को इनकी ब्लैकमेलिंग से छुटकारा मिल जाएगा. विकास को गति मिलेगी. युवा पीढ़ी के सपनों का भारत साकार हो सकेगा. मजबूत भारत का उदय होगा. और तब वैश्विक ग्राम के लिए मुखिया पद पर भारत की दावेदारी और मजबूत हो जाएगी. आगे आएं कांग्रेस और भाजपा! यह समय की पुकार है, देश की पुकार है. अगर चूक गए, तब बार-बार छोटे-छोटे दलों द्वारा भयादोहन का शिकार होते-होते एक दिन इन दोनों दलों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा. क्या ऐसा चाहेंगी कांग्रेस और भाजपा?
14 अप्रैल 2009
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6 comments:
यही सोच रही है मेरी भी काफी अर्से से। हालांकि निकट भविष्य में इसके कोई आसार नज़र नहीं आते। पर यदि ऐसा हो सके तो देश का तो उद्धार होगा ही। देश और देश की जनता को भी मौका परस्त, मतलबी, धनलोलूप, जाति-धर्म पर अपनी रोटी सेकने वाले तथाकथित नेताओं से मुक्ति मिल जाएगी, जो चार जनों को अपने पीछे लगा जब-तब केन्द्र को आंखें दिखा अपना ऊल्लू सीधा करते रहते हैं।
बात तो आपने काम की कही है। लेकिन देशहित की किसको पड़ी है, यहाँ सभी अपनी-अपनी कुर्सी जोड़ने में लगे हुये हैं।
विनोदजी
बात इस सोच के खरीदार की नहीं है। पता नहीं ये अनायास चालू हुआ है या आप जैसे विचार रखने वाले दूसरे पत्रकार एक साथ इस विषय पर जागरण कर रहे हैं। 3-4 बड़े पत्रकारों के श्रीमुख से टीवी चैनल पर पहले यही दलील सुन चुका हूं अब आपने भी ब्लॉग पर ये विचार प्रकट किए हैं। लेकिन, क्या ये कहीं से भी व्यवहारसंगत है। औऱ, दोनों दलों की बेसिक अवधारणा ही एक दूसरे के खिलाफ है फिर दोनों के साथ आने की बात देशहित में पता नहीं ..
कौन सुनेगा सयानों की आवाज़! सब अपने अपने अहम में जी रहे हैं। राष्ट्रीय पार्टियां छोटे घटक दलों से तो समझौता करेंगे पर राष्ट्र के हित में एकजुट नहीं होंगे। यही इस देश का दुर्भाग्य है।
जब कहने को कुछ भी न हो, तो ऐसी बातें ही कहनी चाहिए।
अभी तो यही लग रहा है आपकी बातें पढकर।
राष्ट्रहित में नहीं तो अपने ही हित में एक हो जाएं दोनों दल। साथ ही छोटे छोटे दलों की ब्लैकमेलिंग को जड़ से खत्म करने का यह रामबाण इलाज है। छोटे दलों का पूरी तरह सफाया हो जाना चाहिए।
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