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Saturday, January 16, 2016

शत्रुघ्न : खामोशी बनाम दहाड़!

शत्रुघ्न और खामोश? सवाल ही नहीं पैदा होता। शत्रुघ्न न कभी खामोश थे, न हैं और न कभी रहेंगे। कदमकुआं पटना के सोनू और मायानगरी मुंबई के  'शॉटगन' शत्रुघ्न सिन्हा। चाहे निजी जिंदगी में रेखा, जीनत अमान या फिर रीना रॉय का मामला हो या राजनीतिक जिंदगी का, हमेशा वाचाल रहे। खामोशी तो इनके तत्वों में नहीं। स्वामी विवेकानंद के विचार कि 'हम तत्व से नहीं, तत्व हमसे हैं' का अनुसरण करते हुए, शत्रुघ्न सिन्हा अपनी बेबाक-बेलाग जिंदगी जीते रहे हैं ... और जीते रहेंगे। उन्हें खामोश करने की कोशिश करनेवाले, तय है अपना समय बर्बाद कर रहे हैं।
मुझे याद है 1967 का वह दिन। पटना का पैलेस होटल। प्रसिद्ध पत्रकार व फिल्म निर्माता-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास की मौजूदगी। तब बिहार में भयंकर सूखा पड़ा था। अब्बास साहब तब मुंबई से प्रकाशित, बहुप्रसारित लोकप्रिय  साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' की ओर से  सूखाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने आये थे। दौरे के दौरान हर जगह मैं उनके साथ गया था। शत्रुघ्न सिन्हा उनसे मिलने होटल पहुंचे। लगभग बीस मिनट की बातचीत के बाद जब शत्रुघ्न वापस गए तब अब्बास साहब ने टिप्पणी की '.... विनोद, पूना फिल्म इंस्टीट्यूट का यह (शत्रुघ्न) बेस्ट प्रोडक्ट है.... यह बहुत तरक्की करेगा... मैं अपनी रंगीन फिल्म 'गेहूं और गुलाब' में इसे मुख्य भूमिका देने जा रहा हूं।' तब हमें, अर्थात मित्र मंडली को आश्चर्य लगा था, लेकिन अब्बास की पारखी निगाहों ने जो देखा था, वह सच निकला। तरक्की की हर मंजिलें पार करते चले गए शत्रुघ्न।...प्रतिभा चिह्नित हुई।
सत्तर के दशक के मध्य में जब जयप्रकाश आंदोलन की तीव्रता से पूरा देश आंदोलित था, तब शत्रुघ्न भी उससे जुड़ गए। ध्यान रहे तब शत्रुघ्न का फिल्मी कैरिअर भी ऊफान पर था, लेकिन उसे हाशिये पर रख देशहित में जयप्रकाश आंदोलन में योगदान को प्राथमिकता दी- नि:स्वार्थ। आंदोलन सफल हुआ, 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पराजित हुई, जेपी के आशीर्वाद से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। सत्ता की चासनी का स्वाद बड़ों के साथ- साथ औसत और औसत के नीचे के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने चखा। शत्रुघ्न ने कुछ नहीं लिया। ...नि:स्वार्थ चरित्र चिह्नित हुआ।
1990 में सक्रिय राजनीति में उनकी   दिलचस्पी की खबरें आने लगीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का न्योता दिया। प्रस्ताव विचाराधीन ही था कि भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी उन्हे अपने पाले में लेने की कोशिशें शुरू हो गई। राजधानी दिल्ली में उच्च स्तर पर बातचीत-प्रयास के अलावा तब महाराष्ट्र के कद्दावर नेता, अब केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अपने एक सहयोगी रमेश मंत्री के साथ मुझसे भी मिले थे। आग्रह था कि शत्रुघ्न सिन्हा को पार्टी में शामिल होने को तैयार करवाऊं। पेशकश थी कि उन्हें मुंबई में मुरली देवड़ा के खिलाफ लोकसभा के लिए टिकट दी जाएगी। जाहिर है भाजपा ने तब राजनीति में उनके महत्व को चिन्हित किया था। ...महत्व चिह्नित हुआ।
1991 में जब  इच्छा के विरुद्ध भाजपा ने उन्हें कांग्रेस के  राजेश खन्ना के खिलाफ चुनावी मैदान में उतारा था तब कोलकाता में 'टेलिग्राफ'  की ओर से एक संवाद का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम में शत्रुघ्न और राजेश खन्ना दोनों आमंत्रित थे। शत्रुघ्न सिन्हा के अनुरोध पर मैं भी कोलकाता गया था। 'संवाद' के पूर्व होटल के कमरे में चर्चा के दौरान उन्होंने अपने मन की पीड़ा व्यक्त की थी। पार्टी, विशेषत: लालकृष्ण आडवाणी के आदेश पर वे राजेश खन्ना के खिलाफ मैदान में उतरे थे। स्वयं नहीं चाहते थे। 'संवाद' में जब शत्रुघ्न-राजेश आमने सामने थे, शत्रुघ्न के शब्दों में उनके दिल में छिपी पीड़ा सामने आ गई थी। पार्टी के आदेश पर व्यक्तिगत इच्छा और पसंद की कुर्बानी की एक अनुकरणीय मिसाल!...पार्टी के प्रति समर्पण चिह्नित हुआ।
 1996 का लोकसभा चुनाव पटना के गांधी मैदान में अटल बिहारी वाजपयी की सभा होनी थी। तब आलम यह था कि जिस चुनावी सभा मंच पर शत्रुघ्न मौजूद रहते थे, श्रोता किसी अन्य का भाषण सुनने को तैयार नहीं होते थे। विचार-विमर्श के बाद तय पाया कि जब तक अटलजी का भाषण चलता रहेगा, शत्रुघ्न कदमकुआं स्थित अपने निवास पर रहेंगे। भाषण खत्म होने के बाद शत्रुघ्न को मंच पर लाया जाएगा। इसकी जिम्मेदारी कुछ कार्यकर्ताओं को दी गई। लेकिन 'संवाद' में कुछ गड़बड़ी हुई और अटलजी के भाषण के दौरान ही कार्यकर्ता उन्हें मंच पर ले गए। भीड़ से बिहारी बाबू-बिहारी बाबू के नारे गूंजने लगे। अटलजी को कहना पड़ा कि अरे भाई मैं भी बिहारी हूं- अटल बिहारी! मेरी भी तो सुन लो।  लेकिन श्रोता शांत नहीं हुए। अटलजी को बैठ जाना पड़ा। उसी चुनाव में अटलजी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ में शत्रुघ्न सिन्हा को आमंत्रित कि या। एक दिन चुनावी सभाओं के बाद अटलजी ने आग्रह कर शत्रुघ्न सिन्हा को दो दिन और रोक लिया था। शत्रुघ्न सिन्हा की लोकप्रियता और मतदाताओं पर प्रभाव का वह अटलजी द्वारा दिया गया प्रमाणपत्र था। ...उपयोगिता चिह्नित हुई।
 उसी शत्रुघ्न सिन्हा को 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान हाशिये पर रख अपमानित करने की कोशिश की गई तब वे भला 'खामोश' कैसे रहते ?  बोले, दो टूक बोले, बेबाक बोले! अपने अंदाज में, अपने शब्दों से उन्होंने पार्टी नेतृत्व को बिहार की चुनावी हकीकत से अवगत कराते हुए अग्रिम चेतावनियां भी दीं। लेकिन विघ्नसंतोषियों द्वारा बुरी तरह गुमराह कर दिये गए नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। शत्रुघ्न के शब्दों और चेतावनी की उपेक्षा की गई। परिणाम? दुनिया के सामने है।
बावजूद इसके शत्रुघ्न सिन्हा की पार्टी में उपेक्षा जारी है। बल्कि उनके साथ एक अछूत की तरह व्यवहार किया जा रहा है। दीवार की लिखावट पढऩे में असमर्थ पार्टी नेतृत्व शत्रुघ्न के खिलाफ अगर अनुशासनात्मक कारवाई की सोच रहा है तब वे जान लें कि ऐसा कर वे पार्टी का हित नहीं, अहित ही करेंगे। बिहार और बिहारी बाबू के बीच मौजूद भावनात्मक गांठ बहुत मजबूत है। इसे खोल पाना सहज नहीं। चुनाव परिणाम ने यह बता भी दिया है। आश्चर्य हे कि वर्तमान पार्टी नेतृत्व इस हकीकत को समझ क्यों नहीं पा रहा? लगता है अज्ञानतावश पार्टी नेतृत्व जानबूझकर 'खामोश' की शांति को भंग करना चाहता है। संभवत: अधिकांश राजनीतिक समीक्षक इससे सहमत नहीं होंगे, किंतु कड़वा सच है कि पार्टी नेतृत्व ऐसा कर बिहार में भाजपा के लिए सुखद वापसी तो नहीं ही कर पाएगा। कोई भी राजनीतिक सफलता, राजनीतिक उदारता और सह्रयता व क्षमा का आग्रही है। राजनीति में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब शब्द भ्रम पैदा कर देते हैं। समझदार नेतृत्व शब्द के शाब्दिक अर्थ पर नहीं जाता, नीयत की पड़ताल करता है। शत्रुघ्न सिन्हा की नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। सत्तारुढ कांग्रेस की पेशकश को ठुकराते हुए उन्होंने भाजपा की सदस्यता तब स्वीकार की थी, जब लोकसभा में पार्टी के सिर्फ दो सांसद थे। नि:स्वार्थ राजनीति प्रवेश के उनके कदम पर फिर सवालिया निशान क्यों?
 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी से देश को बहुत आशायें हैं। देश राजनीति और शासकीय दोनों स्तर पर पूरी प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन चाहता है। वह बदबूदार भ्रष्टाचार को जन्म देनेवाली पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहता है। इसकी पूर्ति की आशा में पूर्ण विश्वास के साथ देश ने भाजपा को सत्ता सौंपी है। आज देश यह देखकर दु:खी है कि वर्तमान शासक उनकी आशा के विपरीत, उनके द्वारा खारिज 'कांग्रेस संस्कृति' को गले लगाने के लिए आतुर हैं। यह विश्वासभंग देश को स्वीकार नहीं। शब्द कठोर हैं, अरुचिकर हैं, असहज हैं किंतु सचाई से ओत-प्रोत। देशहित में और स्वयं पार्टी हित में, सत्ता और संगठन का वर्तमान नेतृत्व इनकी उपेक्षा न करें। अन्यथा, 'आत्मघाती' शब्द अभी शब्दकोश से हटा नहीं हैं। और हां, खामोश को खामोश ही रहने दें, दहाडऩे को विवश न करें। 

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