Monday, October 4, 2010
...और तब 'प्रवर्तक' बन जाएंगे राहुल!
यह जान-सुन अच्छा लगा कि कांग्रेस के युवराज के रूप में प्रस्तुत राहुल गांधी को चमचागीरी पसंद नहीं है। उन्होंने युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को चेतावनी दी कि अगर किसी ने ऐसा किया तो उसे 15 मिनट में पार्टी से निकाल बाहर किया जाएगा। राहुल यहीं नहीं रुके, संगठन में पद पाने के लिए किसी वरिष्ठ नेता की सिफारिश को एक सिरे खारिज करने की घोषणा भी कर डाली। कहा- सिफारिश नहीं काम के आधार पर ही मौका दिया जाएगा। आम जनता के बीच पहुंच देश को बचाने की ललक के साथ राष्ट्रभ्रमण करनेवाले राहुल गांधी सही समय आने पर क्या अपनी बातों पर अमल कर पाएंगे? यह यक्ष प्रश्न इसलिए कि कांग्रेस संस्कृति ही चमचागीरी अथवा चापलूसी और सिफारिश पर आधारित है। मैं यहां राहुल गांधी की नीयत पर शक नहीं कर रहा हंू। उस कांग्रेस संस्कृति की याद दिला रहा हूं जिसने राहुल के पिता राजीव गांधी की 'मिस्टर क्लीन' की आरंभिक छवि को पलक झपकते 'मिस्टर करप्ट' के रूप में परिवर्तित कर डाला था। बोफोर्स और फेयरफैक्स कांड की यादें अभी पुरानी पड़ी हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संपन्न आम चुनाव में आशातीत सफलता प्राप्त करनेवाले राजीव गांधी को 1989 के अगले चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उपर्युक्त कांड को मुद्दा बना कांग्रेस छोड़ चुनाव लडऩे वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह की विजय हुई और वह प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी और उनकी कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बातों को समझने के लिए थोड़ा और पीछे चलें। 1985 में मुंबई में आयोजित कांग्रेस शताब्दी समारोह में अत्यंत ही तल्ख शब्दों में राजीव ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जेहाद की बातें कही थीं। आज चाहे बोफोर्स कांड में राजीव गांधी और ओट्टïावियो क्वॉत्रोची को सीबीआई और अदालतें भले ही क्लिन चीट दे दें, तब जनता की अदालत ने दोषी करार देते हुये इनसे सत्ता की कुर्सी छीन ली थी। अरुण सिंह और अरुण नेहरू जैसे मित्र और कट्टर समर्थक भी इस मुद्दे पर राजीव का साथ छोड़ गये थे। सीधे-सरल राजीव गांधी के पतन का कारण कांग्रेस की स्थापित संस्कृति थी जिसके दबाव ने उन्हें समझौतों के लिए मजबूर कर दिया था। कांग्रेस संस्कृति के खिलाफ राजीव नहीं जा पाये थे। आज राजीव पुत्र राहुल जब उसी कांग्रेस संस्कृति के विरुद्ध जाकर चमचागीरी और सिफारिश को खत्म करने की बात कर रहे हैं तो संदेह तो होगा ही। मैं फिर दोहरा दूं कि मुझे राहुल की नीयत पर कतई संदेह नहीं, मैं चाहूंगा कि कांग्रेस में कैंसर के रूप में प्रविष्ट चमचागीरी और सिफारिश की सस्ंकृति समाप्त हो। राहुल सफल हों। लेकिन शक के कारण और भी हैं। संदर्भवश प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे की टिप्पणी की याद पुन: दिलाना चाहूंगा। खरे ने दो टूक शब्दों में पिछले दिनों टिप्पणी की थी कि कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य चुनाव जीतना है। देश के प्राय: सभी राजनीतिक विश्लेषकों ने खरे के आकलन को सच निरूपित किया है। राहुल की ताजा पहल भाजपा शासित मध्यप्रदेश में हुई है। जरा गौर करें, राहुल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को चेतावनी देने के पूर्व कहा था कि- '...यदि म.प्र. में भाजपा की सरकार बदलनी हो तो...'। यह क्या दर्शाता है? यही न कि राहुल गांधी की नजर मध्यप्रदेश के आगामी चुनाव पर है। यानी हरीश खरे की बात बिल्कुल सही है। राहुल गांधी पार्टी कार्यकर्ताओं से चमचागीरी और सिफारिश का त्याग इसलिए चाहते हैं ताकि मध्यप्रदेश में भाजपा की जगह कांग्रेस की सरकार बन सके । तात्पर्य यह कि राहुल स्थायी नहीं बल्कि अस्थायी तौर पर- चुनाव तक-कार्यकर्ताओं को चमचागीरी और सिफारिश से दूर रखना चाहते हैं। यह ठीक है कि चुनाव सदृश युद्ध जीतने के लिए हर कदम को जायज ठहराया जाता है। किंतु वैसी स्थिति में संस्कृति बदलने का आह्ïवान कर कोई नायक कभी नहीं बन सकता। ठीक उसी तरह जैसे राजीव गांधी मिस्टर क्लीन का तमगा स्थायी रूप से धारण नहीं कर पाये थे। राहुल अगर अपनी पहल के प्रति ईमानदार हैं तब बेहतर हो पहले वे कांग्रेस पार्टी की संस्कृति को जानने के लिए पार्टी के इतिहास का अध्ययन कर लें। अगर धारा के विपरीत चलते हुये राहुल गांधी पार्टी की बदनाम हो चुकी पुरानी संस्कृति को बदलने में सफल होते हैं तब चापलूसी और सिफारिश के आधार पर पार्टी के विभिन्न पदों पर कब्जा जमाये चेहरे स्वत: लुप्त हो जायेंगे। राहुल को तब समर्थन मिलेगा और वे इतिहास में एक 'प्रवर्तक' के रूप में दर्ज कर दिये जायेंगे।
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