एक बार फिर लोकतंत्र आहत हुआ -परिभाषा के विपरित आचरण देखकर! लोकतंत्र के आज के पहरूओं के कृत्य पर लोकतंत्र के शिल्पकार सौ-सौ आंसू बहाने पर मजबूर हैं। ऐसा क्यों, कि लोकतंत्र के तानेबाने में, लोकतांत्रिक संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक सरकार की मौजूदगी तो है किंतु इसके संरक्षक-प्रतिनिधि बेशर्मी से इसकी पूरी अवधारणा को नंगा करने पर तुले है?
ठेठ देहाती शब्दों में कहूँ तो लोकतंत्र के ऐसे कथित जनप्रतिनिधि अब नंगई पर उत्तर आए हैं। प्रतिकार करनेवाले स्वर गुम हैं - हाथ गायब हैं। क्यों उत्पन्न हुई ऐसी स्थिति? क्या पूरा का पूरा देश लोकतंत्र विरोधी आचरण करने वाले ऐसे तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर चुका है? अगर हाँ, तो क्यों और कैसे? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे भारत देश के सभी वासियों को चुनौती है कि वे इसका सही समाधानकारक उत्तर ढूँढें। कठीन नहीं, सहज है यह ! घोर व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वकांक्षा का त्याग कर हम ऐसा कर सकते हैं। समाधान के रुप में जो सच सामने आयेगा उसका वरण् कर हम लोकतंत्र के मूल स्वरुप की पुनस्र्थापना कर पायेंगे।
दु:खद रुप से प्रसंग महाराष्ट्र प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के चयन का है। भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद से हटाए गए अशोक चव्हाण की जगह पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को 'नियुक्त' किया गया। जी हाँ! नियुक्ति ही हुई उनकी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उनका निर्वाचन नहीं हुआ। दिखावे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने अपने दूत मुंबई भेज विधायकों की इच्छा जानी। लेकिन सभी जानते हैं कि दूतों के आदेश का पालन करते हुए विधायकों ने एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को मुख्यमंत्री की नियुक्ति के लिए अधिकृत कर दिया। विधायकों की 'सर्वसम्मत इच्छा' के नाम पर पहले से तय पृथ्वीराजसिंह चव्हाण को विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। मैं यहां पृथ्वीराज की पात्रता-योग्यता को चुनौती नहीं दे रहा। उपलब्ध इच्छितों और प्रदेश की जरुरत के मापदंड पर वे मुख्यमंत्री के रुप में निश्चय ही खरे साबित होंगे। मेरी पीड़ा और आपत्ति लोकतंात्रिक प्रक्रिया को दी जा रही मौत को लेकर है। क्योंकि इसकी निरंतरता एक दिन लोकतंत्र को ही खत्म कर देगी। क्या देश ऐसा चाहेगा? हरगिज नहीं! फिर क्यों नहीं कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों में प्रविष्ट लोकतंत्र विरोधी ऐसी प्रवृत्ति को कुचल दिया जाता? पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में ऐसा कभी नहीं हुआ। तब हर प्रदेश के विधायक अपना नेता चुनने के लिए स्वतंत्र होते थे। एक से अधिक इच्छुकों की मौजूदगी में बाजाप्ता लोकतांत्रिक ढंग से मतदान हुआ करते थे। बहुमत प्राप्त व्यक्ति विधायक दल का नेता अर्थात् मुख्यमंत्री चुना जाता था। उपर से कभी भी नेता थोपे नहीं जाते थे। प्रदेश सरकारों की स्थिरता और तब कांग्रेस की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी था। तब और आज में कोई तुलनात्मक अध्ययन करवा लें, कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में क्षरण के ये कारण सामने आ जायेंगे। कोई खुलकर विरोध न करें लेकिन लोकतंत्र विरोधी आचरण को देश की जनता बर्दाश्त नहीं करती। यह तो सचमुच लोकतांत्रिक भावना के विपरित है कि कोई और गैर विधायक, विधायक दल का नेता चुना जाय! वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के 'नाटक' के मंचन के साथ!
1 comment:
बिल्कुल लोकतान्त्रिक तरीके से मनोनयन किया गया है... :)
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