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Tuesday, February 2, 2010

क्षेत्रीयता- एक खतरनाक संक्रामक रोग!

राजनीति के दलदल से जब कमल खिलता है तब उसका स्वागत होता है। लेकिन जब उस दलदल में रंगबिरंगे मेंढक टर्र-टर्र करते हैं तब शांति भंग होती है। खेद है कि लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष मनोहर जोशी को इन दलदली मेढकों की श्रेणी में रखने को मजबूर हैं। यह हमारी सर्व स्वीकृत संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है जिसने विशाल भारत को एकसूत्र में बांध रखा है। सफल लोकतंत्र का पिछला छह दशक इसकी गवाह है। मनोहर जोशी मुंबई से चुनाव जीत राजधानी दिल्ली स्थित लोकसभा के अध्यक्ष बने थे- इसी प्रणाली की सीढिय़ां चढ़। आज जब जोशी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यह याद दिला रहे हैं कि मुंबई सिर्फ मराठियों की है, तब क्षमा करेंगे, जोशी अवश्य ही अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं। अगर मुंबई सिर्फ मराठियों की है तब वे मुंबई की सीमा लांघ दिल्ली क्यों पहुंच गए थे? दिल्ली में वे उस आसन पर बैठे थे जहां से पूरे देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को संसदीय अनुशासन के घेरे में रख उन्हें देश के सार्वभौमिक चरित्र की याद दिलाया करते थे। आज वे मुंबई और मराठी के बाड़े में सिकुड़ कैसे गए? क्या शिक्षक रह चुके मनोहर जोशी देश की इस जिज्ञासा का जवाब देंगे?
न तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने गलत कहा था और न ही भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी गलत कह रहे हैं। कांग्रेस के गृहमंत्री पी.चिदंबरम भी शतप्रतिशत सही हैं। इन लोगों ने यही तो कहा कि देश के सभी क्षेत्रों के भारतीयों को भारतीय सीमा के भीतर कहीं भी रहने और रोजी कमाने का अधिकार प्राप्त है- मुंबई अपवाद नहीं हो सकती। भारत में विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। ऐसे में जब बाल ठाकरे की शिवसेना और वस्तुत: उसी का एक अंश राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हिन्दी भाषियों और उत्तर भारतीयों पर हमला करती है- प्रताडि़त करती है, तब इनका विरोध कर भाजपा, संघ और कांग्रेस ने गलत क्या किया? संघ ने अपने स्वयंसेवकों को बिल्कुल सही निर्देश दिया है कि वे ऐसे हमलों से उत्तर भारतीयों की रक्षा करें। भाजपा ने इसका समर्थन किया और कांग्रेस ने भी शिवसेना की आलोचना की। 'हम सब भारतीय हैं' की अवधारणा का विरोध करने वाली शिवसेना का तिलमिलाना राष्ट्रविरोधी हरकत है। सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए इन दो सेनाओं का अभियान खतरनाक अलगाववाद को समर्थन देने वाला है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उध्दव ठाकरे की तिलमिलाहट एक गैरजिम्मेदार, तथ्यों से अनभिज्ञ की तिलमिलाहट है। संघ पर आक्रमण करते हुए उध्दव कहते हैं कि मुंबई में हुए दंगों के समय आरएसएस दुम दबाकर बैठा हुआ था। उध्दव के इस आरोप की सत्यता संदिग्ध है। लेकिन क्या उध्दव ठाकरे देश को यह बताएंगे कि मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमलों के समय शिवसैनिक किस दरबे में दुम दबाकर छुपे बैठे थे? क्यों नहीं बाहर निकलकर उन्होंने आतंकियों का सामना किया? आतंकियों ने हमला 'ठाकरे की मुंबई' पर किया था, उत्तर भारत के किसी शहर पर नहीं। कांग्रेस महामंत्री राहुल गांधी ने यह बता ही दिया कि आतंकियों का सामना करने में उत्तर भारतीय ही आगे रहे थे। उन्होंने वस्तुत: भारत के एक भाग पर हमले का मुकाबला किया था। क्षेत्रीयता और भाषा की संकीर्ण व आत्मघाती राजनीति को ठाकरे सिंचित न करें। यह एक खतरनाक संक्रामक रोग है। अगर इसका प्रसार होता रहा तब इसके विषाणु किसी को नहीं बख्शेंगे- न मराठी को, न उत्तर भारतीय को और न ही देश के किसी अन्य भाषा-भाषी को।

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