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Sunday, July 1, 2012

वरुण के दो टूक पर यह कैसा राष्ट्रीय मौन?


यह कैसा देश, कैसा लोकतंत्र जहां एक निर्वाचित सांसद सार्वजनिक रुप से यह कहता है कि सांसद और विधायक की उम्मीदवारी के लिए 'बैंक बैलेंस' देखा जाता है, पारिवारिक पाश्र्व को अहमियत दी जाती है! क्या सचमुच 'धन' और 'वंश' ने पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था को अपने मजबूत आगोश में जकड़ रखा है? अगर यह सच है तो तय मानिए कि आदर्श लोकतंत्र की मौत निकट है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के पौत्र और युवा भाजपा सांसद वरुण गांधी दो टूक शब्दों में जब इन बातों की पुष्टि करते हैं, तब इस पर एक गंभीर राष्ट्रीय बहस होनी ही चाहिए थी। आश्चर्य है कि वरुण के शब्दों को मीडिया ने भी एक सामान्य खबर की तरह छोटा स्थान दिया। क्यों? पड़ताल और बहस इसपर भी होनी चाहिए। कुछ दिनों पूर्व भारत के सर्वाेच्च न्यायालय के एक माननीय न्यायाधीश ने जब भारत के मुख्य सेनापती एक मामले की सुनवाई करते हुए सुझाव दिया था कि 'बुद्धिमान वही होता है, जो हवा के रुख के साथ चलता है', तब भी मीडिया की भूमिका कुछ ऐसी ही थी। जबकि उस पर राष्ट्रीय बहस शुरु कर तार्किक परिणति पर पहुंचा जाना चाहिए था। अभी कुछ दिनों पूर्व निजी बातचीत में एक सांसद ने स्वीकार किया कि लोकसभा चुनाव में उन्होंने लगभग 10 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें से 2 करोड़ रुपए मीडिया पर खर्च करने पड़े थे। बता दूं, अपनी व्यापक लोकप्रियता के बावजूद उपसांसद को चुनाव में इतनी बड़ी राशि खर्च करनी पडी थी। बहरहाल, बातें वरुण के शब्दों की। 
वरुण शायद गलत नहीं है। उन्होंने तो सांसद के रुप में स्वयं की पात्रता को भी बहस का मुद्दा बना डाला है। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि वे सांसद बने तो सिर्फ इसलिए कि वह नेहरु-गांधी परिवार के वंशज हैं। इस साफगोई के बाद कम से कम उनके शब्दों में निहित किसी अन्य मंशा की बात तो नहीं ही उठाई जा सकती। न केवल बड़े राष्ट्रीय दलों, बल्कि क्षेत्रीय दलों के विधायकों, सांसदों की सूचियों के अध्ययन से वरूण आरोप सही साबित होंगे। आजादी के बाद आरंभिक काल में शुरु इस रोग ने अब विकराल रुप धारण कर लिया है। हाल कि दिनों में संपन्न चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों की भरमार रही। अपवाद स्वरूप कुछ नामों को छोड़ दें तो अधिकांश ऐसे ही पाश्र्व के उम्मीदवार देखने को मिलेंगे। राज्यसभा और विधानपरिषद के लिए तो शायद धन और वंश ही पात्रता की पहली शर्त रही। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में क्षेत्रीय और जातीय मजबूरी को छोड़ दें तो उम्मीदवारी के लिए 'धन' और 'वंश' की योग्यता अनिवार्य रहती है। निश्चय ही हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने ऐसी शर्मनाक अवस्था की कल्पना नहीं की होगी। क्या कोई लोकतंत्र के लिए कलंक और राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरनाक इस 'रोग' के खिलाफ उठी आवाज को बल प्रदान करेगा? चूकि वरूण गांधी मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, हमारी पहली अपेक्षा भाजपा नेतृत्व से है। दूसरे राजनीतिक दलों से पृथक चाल-चरित्र का दावा करनेवाली भाजपा के नेतृत्व के लिए यह न केवल चुनौती है बल्कि उसकी परीक्षा भी है। देश की युवा पीढी चूकि भाजपा को राष्ट्रीय विकल्प के रुप में देख रही है, उसे इस कसौटी पर खरा उतरना होगा। विफलता की हालत में वह देश की अपराधी बन जाएगी। सत्ता पक्ष के रुप में कांग्रेस को भी आगे आकर वरूण के आरोंपों का जवाब देना होगा। हाल में संपन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी नेतृत्व पर धन लेकर टिकट बांटने के आरोप लगे थे। चुनाव में शर्मनाक हार के बाद ऐसे उम्मीदवारों को एक कारण बताया गया था। वंशवाद की तो जनक ही कांग्रेस है। आज अगर प्राय: सभी दलों में यह रोग व्याप्त है तो इसके प्रणेता के रुप में कांग्रेस को ही मुख्य अपराधी माना जाएगा।
इस अति गंभीर बहस को किसी एक दल में सीमित कर महत्व को घटाया नहीं जाना चाहिए। अपराधी सभी दल हैं। ऐसे में चुनौती है उन सभी को कि अगर वे सचमुच लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं तब दलगत प्रतिबद्धता से पृथक हो इस रोग के विरोध में सामने आएं। अन्यथा, सभी राजदल राष्टीय आक्रोश का सामना करने को तैयार रहें।  देश की युवा पीढ़ी ऐसे राष्ट्रीय शर्म पर 'राष्ट्रीय मौन'\ कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी।

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