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Monday, December 21, 2015

निर्भया; कानून बदल दो, न्याय दो


          कानूनी प्रावधान अपनी जगह । इस विडंबना को कोई कैसे स्वीकार करेगा कि निर्भया दुश्कर्म- हत्या का एक अपराधी समाज में छुट्टा घुमें? यह स्वीकार्य नहीं। कानून बदल दो, लेकिन निर्भया को न्याय दो। यह मांग पूरे देश -समाज की है। लोकतांत्रिक देश ऐसी मांग को अस्वीकार कैसे कर सकता है? जनता द्वारा निर्वाचित शासकों को जनता की मांग माननी ही होगी। यही नैसर्गिक न्याय का एक तकाजा है।
यहां मैं निर्भया कांड के पृष्ठों को उलटना नहीं चाहुंगा। विभत्स कांड के विभस्त अध्याय, विभत्स स्मरण की अनपमति नहीं देते। फिर रोंगटे खड़े होंगे, फिर क्रोध उबाल पर होगा। एक बार फिर देश फुट फुट कर रोएगा, निर्भया की माँ की तरह ! इसलिए पुन स्मरण नहीं, न्याय और सिर्फ न्याय की मांग ।
यह ठीक है कि वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अनुसार तब नाबालिक एक दोषी को तीन साल की सजी सुनाई गई थी। बाल सुधार गृह ने तीन साल की सजा पूरी होने के बाद उसे रिहा करने की तैयारी हो रही है। रिहाई पर रोक की याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय खारिज कर चुका है। उच्च न्यायालय का निर्णय वर्तमान कानून के प्रावधानों पर सही है। किंतु न्याय की मुल अवधारणा की - न्याय न केवल हो बल्की होता हुआ दिखे भी - के खिलाफ है। तीन वर्ष पूर्व निर्भया कांड से जब पूरा देश मर्माहत बिलख रहा था तब दोषियों के लिए मौत की मांग गुंजी थी । सर्वसम्मत मांग थी वह कोई विरोध नहीं । निर्भया के लिए न्याय के पक्ष में मौत की सही मांग थी वह । लेकिन कानून से बंधे न्याय के हाथ तब असहाय साबित हुए । -बालिग  कुकर्म -सरिखे कांड़ को अंजाम देनेवाला नाबालिग सिर्फ तीन साल की सजा पा आज बालिग हो आजाद होने  को तैयार है। अगर ऐसा हुआ तो न्याय लांछित होगा, कानून कलंकित होगा । एक सभ्य समाज ऐसी अवस्था को कैसे स्वीकार कर सकता है। निर्भया को न्याय चाहिए , दोषी को कड़ी सजा देकर ही यह संभव है।
इसपर कोई राजनीति न करे , सभी एकमत हों । सजा का उद्देश्य ही होता है कि भविष्य में कोई अपराध न करे। या फिर वांछित अंकुश लग सकें। विभस्त घृणित अपराध के लिए मौत सहित अन्य कड़ी सजा के प्रावधान हैं। लेकिन निर्भया के इस दोषी को -नाबालिग- होने का लाभ मिल रहा है। अब बालिग हो चुका यह दोषी आजाद होकर सभ्य बनेगा ?
बाल सुधार गृह में  तीन वर्ष तक उसपर नजर रखनेवालों के अनुसार उसे अपराध की कोई भी शर्मिंदगी , पछतावा या अपराध बोध नहीं है। मनोचिकित्सक भी शंकित है उसके भविष्य के व्यवहार को लेकर । सभ्य आचरण की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को उसके व्यवहार में परेशान करनेवाली बातें दिखीं। उनका कहना है कि
उसपर ध्यान दिए जाने की सख्त जरूरत है। कि सी भी विशेषज्ञ को उसके व्यवहार और दिमाग के बारे में कुछ भी अनुमान नहीं है। विशेषज्ञ कहते हैं कि उसे शारिरिक, सामाजिक और मानसिक निगरानी की जरूरत हैं। लेकिन समाज यह खतरा मोल क्यों लें? यह ठीक है कि किसी को मौत दें आनंदित नहीं हुआ जा सकता। लेकिन विभत्स बलात्कार और नृशंस हत्या के दोषी को आजाद कैसे छोड़ा जा सकता है ? मनोचिकित्सक भी कहते हैं कि जिन्होंने बलात्कार ,हत्या या इसी तरह के अन्य अपराध किए होते हैं,वे ज्यादातर फिर से अपराध करते हैं। आलोच्य दोषी के व्यवहार से यह स्पष्ट परिलक्षित है कि वह समाज के लिए एक बार फिर खतरा बन सकता है। फिर समाज ऐसा खतरा मोल क्यों ले? दंडित करें इसे ।
कानून पहले भी बदले जा चुके हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के  प्रधानमंत्रित्व काल में -हिंदु कोड बिल- और राजीव गांधी के  समय  शाहबानो केस  की यादें अब भी ताजा हैं। कहते तो यह भी हैं कि तब इंदिरा गांधी के लिए तलाक सुलभ करने के लिए नेहरू ने हिंदु कोड बिल ला कानून में बदलाव कराया था । शाहबानों मामला भी न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक संप्रदाय विशेष को खुश करने के लिए कानून परिवर्तन के रूप में चर्चित हुआ। ये उद्धरण सिर्फ इसलिए कि निर्भया को न्याय दिलाने के लिए कानून में बदलाव संभव है। फिर विलंब क्यों? कानून बदले, निर्भया को न्याय दें।
फिर दोहरा दूं, इसपर राजनीति न हो । केंद्रिय मंत्री मनेका गांधी के अनुसार चुंकी किशोर न्याय अधिनियम को संशोधित करने संबंधी विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं होने दिया गया था । निर्भया के दोषी को सजा नहीं मिल सकीं। प्रस्तावित संशोधन में घृणित अपराध में शामिल 16-18 उम्र के किशोरों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इस बिंदु पर पक्ष विपक्ष का एकमत होना जरूरी है। चाहे आलोच्य संशोधन को पारित कराने का मामला हो या फिर न्याय, कानूनी प्रावधान का, तत्काल निर्णय लें निर्भया के साथ न्याय किया जाये। अन्यथा न्याय के लिए सुख्यात भारत की न्यायप्रणाली के लिए इतिहास में -कलंक- का एक दुखद अध्याय लिखा जाएगा।

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