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Saturday, September 3, 2016

हां, टुकड़े फेक चुनाव जीतने वाले देश नहीं चला सकते !


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ताजा बोल कि 'टुकड़े फेंककर चुनाव जीता जा सकता है, देश नहीं चलाया जा सकता’  वस्तुत: यथार्थ का रेखांकन है, किंतु ऐसा यथार्थ जिसे व्यवहार के स्तर पर इस्तेमाल करने में कोई भी राज दल पीछे नहीं रहता। चाहे सत्ताधारी दल हो या अन्य विपक्षी दल, सभी इस 'पराक्रम’ को अपनाते नजर आ जाएंगे। संसदीय चुनाव प्रणाली का यह एक ऐसा स्याह पक्ष है जिससे निजात पाकर ही सच्ची लोकाभिव्यक्ति साकार हो सकती है। लेकिन 1952 के पहले आम चुनाव को छोड़ दें तो पीड़ादायक सच यही उभरकर आता है कि अमूमन टूकड़े फेंककर ही चुनाव जीते जाते रहे हैं। हाल के दिनों में तो राजदलों और राजनेताओं की ओर से मतदाता के उपर 'टूकड़ो’ और 'लालचों’ की बौछारें की जाती रही हैं। और, सर्वाधिक दुखद बल्कि पीड़ादायक सच यह कि पिछला 2014 का लोकसभा चुनाव इस रोग से पूरी तरह संक्रमित था। गहरी पीड़ा इसलिए कि तब आज की सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान का नेतृत्व स्वयं नरेन्द्र मोदी कर रहे थे। इस आरोप का अब तक खंडन नहीं हो पाया है कि उस चुनाव में टुकड़ों के रुप में सर्वाधिक धन भाजपा ने खर्च किए। और प्रलोभनों की बौछार भी सर्वाधिक भाजपा की ओर से ही हुई थी। मामला टुकडों और प्रलोभन तक ही सीमित नहीं रहा है। अब तो टुकडों और प्रलोभनों के 'बैंकर’ धन पशुओं के साथ-साथ बाहुबली भी चुनाव में निर्णायक साबित होने लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी ने इस सचाई को रेखांकित कर, बल्कि सार्वजनिक रुप से प्रकट कर संदेश दे दिया है कि इस प्रवृति पर अंकुश के प्रयास शुरू होंगे। जाहिर है, इसके पूर्व बहसें भी होंगी। मैं चाहूंगा बहस हो किंतु, ईमानदार सार्थक बहस हो। बहस ऐसी हो जो तार्किक परिणति पर पहुंच सकारात्मक परिणाम लेकर सामने आये।
भारतीय लोकतंत्र में सफल संसदीय प्रणाली अगर आज विश्व में मुखिया की भूमिका में शीर्ष पर है तो इसलिए कि वयस्क मताधिकार के माध्यम से अंतिम फैसला जनता करती है। सत्ता में परिवर्तन, हस्तांतरण सरलता एवं शांतिपूर्वक होते रहे हैं। जनता के फैसले को कभी चुनौती नहीं मिली। ऐसे में जब मतदाता को प्रभावित करने के लिए बात 'टुकडों’, प्रलोभनों और दबाव की होने लगे तब 'जनादेश’ भी कटघरे में खड़े किये जाते रहेगे। आलोच्य प्रसंग में चूंकि, मामले को स्वंय प्रधानमंत्री मोदी ने उठाया है इसके विभिन्न पहलुओं पर मंथन आवश्यक है।
प्रथमत: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विषय को आखिर क्यों उछाला? ऐतिहासिक जनादेश एवं पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता काबिज भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री ने चुनाव में विजय के लिए 'टुकड़ो’ के महत्व को ही रेखांकित नहीं किया बल्कि यह भी कह गये कि ऐसी जीत से देश नहीं चलाया जा सकता। प्रधानमंत्री के शब्दों की ईमानदार विवेचना से अनेक असहज सवाल खड़े होंगे। विचलित करने वाला सवाल यह कि कहीं प्रधानमंत्री मोदी के मुख से निकले सटिक ईमानदार शब्द अनुभव-आधारित तो नहीं? 2014 के आम चुनाव में नरेद्र मोदी पूरे देश में घुम-घुम कर चुनावी सभा ले रहे थे। उन सभाओं को जन प्रतिसाद भी अभूतपूर्व मिले थे। सभाओं के आयोजन व चुनाव से संबंधित अन्य जिम्मेदारियां संगठन के विभिन्न पदाधिकारी निभा रहे थे। चुनाव के लिए धन की व्यवस्था या फिर मतदान केंद्रों की व्यवस्था, मतदाता को शिक्षित-प्रेरित करने की जिम्मेदारी, वार्ड स्तर पर मतदाता संपर्क अभियान आदि का नेतृत्व अलग-अलग लोग निभा रहे थे। नरेंद्र मोदी इनसे पृथक जनसभाओं के द्वारा जनता का विश्वास जीतने की भूमिका में थे। चुनाव परिणाम भाजपा के पक्ष में आशातीत सफलता के साथ आये थे। यह दोहराना ही होगा कि देश की जनता ने तब की सत्तारुढ कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए के मुकाबले भाजपा में विश्वास प्रकट किया। अब लगभग अपने कार्यकाल की आधी दूरी तय कर चुकी सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी अगर चुनाव में जीत और देश चलाने पर संशय प्रकट कर रहे है तो क्या अकारण? नहीं, निश्चय ही कारण मौजूद हैं।
मैं वितंडावाद में न जाकर प्रधानमंत्री के शब्दों में निहित चेतावनी पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा। ध्यान रहे प्रधानमंत्री ने ये भाव तब प्रकट किये है, जब उनके नेतृत्व की सरकार और पार्टी पर चुनावी वादा खिलाफी के आरोप लग रहे हैं, विफलताएं गिनाई जा रही हैं। कतिपय मंत्रालयों कीसफलता के बावजूद विफलताओं की लंबी सूची दिखाई जा रही है। कश्मीर घाटी में व्याप्त हिंसक आतंकवादी घटनाओं के बीच विदेश नीति पर सवालिया निशान जड़े जा रहे हैं। महंगाई और रोजगार के क्षेत्र में कथित सफलताओं के आंकड़ों को चुनौतियां मिल रही हैं। देश के विभिन्न भागों में जातीय और सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में खतरनाक वृद्धि के संकेत मिल रहे हैं, और इन सबों से उपर सरकार के प्रति जनता में उभर रही घोरनिराशा के संकेत प्रखर हैं। एक अकेले नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे के साथ 2014 में चुनावी दंगल में सभी को पछाडऩे वाली भारतीय जनता पार्टी तब सदमे में आ गई थी जब 8 माह पश्चात ही दिल्ली विधान सभा चुनाव में उसे अरविंद केजरीवाल की 'आप’ पार्टी के हाथों शर्मनांक ही नहीं ऐतिहासिक पराजय का मुंह देखना पड़ा। सिलसिला रुका नहीं, जारी रहा। बिहार में भी नीतीश-लालू की जोड़ी के आगे मोदी का आभा मंडल काम नहीं आया। पार्टी की चिंता स्वभाविक है। और, अब जबकि उत्तर प्रदेश जैसे महत्पवूर्ण राज्य में पार्टी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, प्रधानमंत्री मोदी की बेचैनी समझी जा सकती है।
मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि थोड़ी गिरावट के बावजूद अन्य के मुकाबले राष्ट्रीय लोकप्रियता में नरेंद्र मोदी आज भी बहुत आगे हैं। लेकिन, जब बात राज्य विधान सभा चुनावों की आती है, तब स्थानीय कारण, स्थानीय अपेक्षाएं-आकांक्षाएं, स्थानीय जातीय-संप्रदाय समीकरण और स्थानीय दलीय समीकरण चुनावी संभावनाओं को प्रभावित करते हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व आंशिक रूप से ही प्रभावी हो पाते हैं। लोकसभा चुनाव में अपार सफलता के बाद अगर राज्य विधान सभा चुनावों में 2014 का 'मोदी लहर’ प्रभावी नहीं हो पाया तो इन्हीं कारणों से। कोई आश्चर्य नहीं कि इस पाश्र्व में ठोकर खाने के बाद पहले असम और अब उत्तर प्रदेश, गुजरात में संगठन के स्तर पर भाजपा स्थानीय जमीनी हकीकत के प्रति सजग है सतर्क है। संभवत: इस प्रक्रिया में अपनाए जाने वाले असहज हथकंडों से विचलित, व्यथित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में धन प्रभाव के महत्व पर अपनी भड़ास निकाली है। प्रधानमंत्री पद से आदर्श की प्रस्तुति का पक्षधर भारतीय समाज नरेंद्र मोदी की पीड़ा के साथ है। प्रधानमंत्री ने बिलकुल सही कहा है कि ऐसे हथकंडों से चुनावी विजय तो हासिल की जा सकती है, किंतु देश नहीं चलाया जा सकता। हालांकि कतिपय समीक्षक इसे भ्रमांशयुक्त वक्तव्य चिन्हित कर रहे हैं। चूंकि इसके पूर्व प्रधानमंत्री चुनाव में जीत को राष्ट्री कर्तव्य निरुपित कर चुके है, भ्रम की उत्पत्ति स्वभाविक है। बावजूद इसके मैं टिपण्णी के लिए विवश हूं कि प्रधानमंत्री के ताजा बोल 'यथार्थबोध’ का प्रकटीकरण है। प्रधानमंत्री की चेतावनी अपनी पार्टी संगठन के लिए है। और संदेश सभी राजदलों के लिए। चूंकि प्रधानमंत्री पूरे देश का नेतृत्व करते हैं, स्वभाविक रूप से प्रधानमंत्री का ताजा संदेश पूरे देश के लिए है। नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यहां भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाए। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के रूप में नहीं।

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