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Sunday, February 15, 2009

फिर फैसला हुआ, न्याय नहीं !


संविधान निरूपित कानून में समानता के बुनियादी सिद्धांत का लंगड़ा स्वरूप एक बार फिर सामने है. क्यों बेअसर होने लगे हैं ये सिद्धांत? विधि के शासन को असरदार ढंग से लागू करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाली अदालतें मौन न रहें. न्यायिक सक्रियता का प्रभावी दौर बाधित न होने दें. मैं आज फिर मजबूर हूं, यह दोहराने के लिए कि मनोरमा कांबले हत्याकांड में फैसला तो हुआ, न्याय नहीं. सन् 1990 में इसी नागपुर में दो छात्रों की हत्या के मामले में अदालती फैसले पर लिखे गए अपने कॉलम का शीर्षक मैंने यही दिया था- फैसला हुआ, न्याय नहीं- तब भी सभी आरोपी बरी हो गए थे, आज भी सभी आरोपी ससम्मान बरी हो गए. अदालत ने मनोरमा कांबले की हत्या के सभी 8 आरोपियों को इसलिए बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध नहीं कर पाया. दूसरे शब्दों में कोई भी आरोपी मनोरमा की हत्या का दोषी नहीं पाया गया. अदालती आदेश को हम मान लेते हैं. लेकिन यह सवाल तो अपनी जगह अभी भी कायम है कि अगर बरी किए गए लोगों ने मनोरमा की हत्या नहीं की थी, तब आखिर उसकी हत्या किसने की? बलात्कार किन्होंने किया था? मनोरमा की लाश अभियुक्तों के घर पर मिली थी. आरंभ में बताया गया कि घर की सफाई करते समय बिजली का करंट लगने से उसकी मृत्यु हो गई थी. तब दलित-दमन के रूप में पूरे देश में मामले की गूंज हुई. लोगों में आक्रोश का ज्वार फूटा, दबाव बना और मनोरमा की दफन लाश को निकालकर पोस्टमार्टम किया गया. पाया गया कि मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार कर हत्या कर दी गई थी. आरोपी गिरफ्तार किए गए. यहां यह बता दूं कि मामले को दबाने के आरोप में तब अनेक पुलिस अधिकारियों के खिलाफ बर्खास्तगी, निलंबन आदि कार्रवाइयां हुई थीं. यही नहीं, निचली अदालत के जजों के खिलाफ भी तब कार्रवाइयां हुई थीं. प्रसंगवश तब नागपुर के सत्र न्यायाधीश ने विलंब रात्रि को सभी आरोपियों को अपने घर से जमानत दे दी थी. पहले निलंबन और बाद में वह जज बर्खास्त कर दिया गया था. लेकिन आज अंतिम विजय तो आरोपियों की ही हुई! मैं अदालत की अवमानना नहीं कर रहा. अन्य लोगों की जिज्ञासा को अपने माध्यम से सामने रख रहा हूं. लोग अब यह जानना चाहते हैं कि जब आठों आरोपी निर्दोष हैं, तब मनोरमा के हत्यारे कौन हैं? बलात्कारी कौन हैं? न्याय के पक्ष में उचित होता यदि अदालत अभियुक्तों को बरी किए जाने के साथ ही मनोरमा के बलात्कारी हत्यारों को ढूंढ़ निकालने का आदेश भी जारी करती. बरी किए जाने के बाद हत्याकांड के आरोपियों की खुशी स्वाभाविक है, किन्तु मनोरमा की आत्मा? उसके परिवार, सगे-संबंधियों और समाज की जिज्ञासा?? अब किशोर हो चुके मनोरमा के बच्चे जानना चाहेंगे कि उनकी मां के हत्यारे-बलात्कारी कौन हैं? पुलिस जांच से यह पहले ही स्थापित हो चुका है कि मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और उसकी हत्या की गई थी. क्या यह पुलिस और न्यायालय का दायित्व नहीं कि मनोरमा के बलात्कारी हत्यारों को खोज कर उन्हें दंडित किया जाए? अदालती आदेश के बाद निश्चय ही मनोरमा की आत्मा भी बेचैन होगी. यह पूरी की पूरी न्यायिक व्यवस्था को चुनौती है. विधि के शासन को चुनौती है. पुलिस-प्रशासन को चुनौती है. क्या यह दोहराने की जरूरत है कि न्यायिक व्यवस्था में लोगों की आस्था का खत्म होना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है. ये वे ही कांड हैं जिनकी तपिश में समाज करवट लेने को मजबूर हो जाता है. और इससे उत्पन्न ज्वाला पूरी की पूरी व्यवस्था को अपने आगोश में ले लेती है. समाज-देश-लोकतंत्र के संचालक क्या ऐसी दु:खद परिणति की प्रतीक्षा कर रहे हैं?

5 comments:

Anil Kumar said...

भारतीय लोकतंत्र में कमजोरों, गरीबों और दलितों के लिये कोई जगह नहीं है। इनकी कोई नहीं सुनेगा। हर किसी को अपनी जान प्यारी है, जो बचा सकता है, बचा ले। जो नहीं बचा सकता, वह ईश्वर को प्यारा हो जाये।

दिनेशराय द्विवेदी said...

विनोद जी, आप का व्यक्तिगत रूप से आभारी हूँ। कि आप ने इस विषय को उठाया और एक नयी दिशा दी। अपराध नियंत्रण राज्य का मसला है। लेकिन जो बात आप ने यहाँ कही है वह शिद्दत से महसूस की जा रही है। अदालत का अन्वेषण करने वाली एजेन्सिय़ों पर कोई नियंत्रण नहीं है। अधिकतर अपराध अन्वेषण वही पुलिस करती है जिस पर भ्रष्ट राजनिज्ञों और नौकरशाहों का नियंत्रण है और जो आसानी से थैली से प्रभावित होती है। जब तक अपराध अन्वेषण और अभियोजन के काम को स्वतंत्र स्वायत्त संगठनों को न दे दिया जाए और उन पर अदालतों का नियंत्रण न हो तब तक इस दशा को सही दिशा देना संभव नहीं है। फिर देश की जनसंख्या को देखते हुए अदालतों की संख्या जरूरत की आधी भी नहीं है। अब वह वक्त है जब इन चीजों के बारे में सोचा जाना चाहिए। साथ ही यह भी कि देश की प्रगति में बढ़ती हुई जनसंख्या भी पलीता लगाती रही है। जनसंख्या वृद्धि पर 1975-77 के आपातकाल के बाद बात करना भी गुनाह लगता था अभी तक संचार माध्यम तक उस सरसाम से निकल नहीं पाए हैं। संचार माध्यमों को उस से निकलना पड़ेगा और सब से पहले इन बातों पर बात आरंभ करनी होगी।

अनुनाद सिंह said...

अब तो यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि भारतीय न्यायप्रणाली भी भ्रष्टाचार में कण्ठ तक नहीं तो कमर तक अवश्य डुबी हुई है। ऐसे में 'फैसला' ही होगा; न्याय की आशा कम ही रखनी चाहिये।

SAMAGAM said...

Mujhe malum hi na tha ki koi aur bhi yah sochata he ki aaj bhi mishan he. mujhe accha laga ki aap eha sochete he. mera manana he ki bina mishan ke patrkarita ho nahi sakti. ek bat aur ki ki patrkarita kabhi bujness bhi nahi ho sakti, ha akhabar zarur bujness hote he kyoki manegment karna hota he.
Manoj Kumar
Editor Media satiyo ki patirka SAMAGAM Bhopal mp M-9300469918

कौशलेंद्र मिश्र said...

भारतीय लोकतंत्र का इससे ज्‍यादा उपहास नही हो सकता कि संवैधानिक पदों पर आसीन व्‍यक्ति अक्षमता महसूस करते है,आम आदमी कि फिर क्‍या बिसात है. लोकतांत्रिक आचरण व नियम जब आयातीत होगा तब उसके पालनकर्ताओं से निरपेक्षता की उम्‍मीद कर पाना मुश्किल है. कही तो हमें स्‍वयं अपनी मौलिकता को विकसित करना होगा. नही हो सके तो कम से कम प्रयास तो करना ही होगा.