Sunday, February 1, 2009
'हिन्दी समय' के असमय शब्द....!
यह भी खूब रही! भारत की कथित राष्ट्रभाषा हिन्दी को रोगी बना स्वयं चिकित्सक बन बैठे नामी-अनामी हस्ताक्षर 'समय' की पहचान करने-करवाने के लिए 120 घंटों तक एक मंच पर माथापच्ची करते दिखे. मंच प्रदान किया था वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय ने. बता दूं कि यह वही विश्वविद्यालय है जो अपने जन्म से ही सरकारी खजाने के दुरुपयोग और राजनीति के लिए कुख्यात रहा है. क्या कुलपति, क्या प्रति-कुलपति, क्या शिक्षक और क्या छात्र, सभी शिकार और शिकारी की भूमिका निभाते रहे हैं. स्मृति, यथार्थ और कल्पना के घोषवाक्य के साथ आयोजित 'हिन्दी समय' के असमय शब्द आपको भी रोमांचित कर जाएंगे.
महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से 78 किलोमीटर दूर पश्चिम में महात्मा गांधी के आश्रम के लिए सुविख्यात वर्धा में स्थापित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'हिन्दी समय' के समापन पश्चात 'परिणाम' को लेकर जारी अकादमिक चर्चा को फिलहाल मैं स्पर्श नहीं कर रहा. और न ही स्पर्श कर रहा हूं अनियमितता एवं दुव्र्यवस्था पर उठ रही उंगलियों का. मैं व्यथित हूं मंच के भित्तिचित्र पर उकेरे गए उन शब्दों को लेकर जो 'समय' के ठीक विपरीत असमय को चिह्नित कर रहे थे- यथार्थ से कोसों दूर. ज्ञान, अल्पज्ञान व अज्ञानता के घालमेल से निकले शब्द अनेक सीनों को वेध गए. मंच से कहा गया कि ''मुंबई में पिछले वर्ष 26 नवंबर की घटना के बाद कुछ लोग मोमबत्ती जलाकर अपने देशभक्त होने का भम्र पाल रहे हैं. विश्वविद्यालय के एक छात्र ने इन शब्दों की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट कर मन की पीड़ा जताई.
मुंबई में आतंकी हमले में शहीद लोगों के प्रति मोमबत्ती जला श्रद्धांजलि देने वालों ने यह तो कभी नहीं कहा कि वे देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं. भ्रम पालने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. मोमबत्ती की रोशनी तो वस्तुत: उन स्याह चेहरों को चुनौती थी, जो आतंकवाद का खूनी खेल खेल रहे हैं- उन शहीदों की स्मृति को रोशनाई दी जा रही थी, जिनके जीवनदीप आतंकियों ने बुझा दिए थे. फिर 'देशभक्ति' को भ्रम के'कोष्ठक' में क्यों डालें? यह तो उन शहीदों का अपमान है. असमय शब्द ऐसी ही दुर्घटना के जनक बनते हैं. विद्वतगण अब भी तो चेत जाएं.
चूंकि अवसर और मंच 'समय' का था, दिल को फिर चोट पहुंची जब मंच से शब्द उठे कि 'आज अखबारों की स्थिति दयनीय होती जा रही है.... संपादकों के हाथ में कुछ भी नहीं बचा है.... पत्रकार स्वयं को असहाय महसूस कर रहा है,'' ये शब्द भी सचाई से दूर हैं. कौन कहता है कि अखबारों की स्थिति खस्ता है? 'अखबार' तो फल-फू ल रहे हैं. शायद अखबारों के मुद्रित कतिपय शब्दों में निहित तत्वों पर विद्वान वक्ता आपत्ति जाहिर कर रहे थे. लेकिन वे इसे स्पष्ट नहीं कर पाए. मैं बता दूं, अखबार के लिए शब्द मुहैया पत्रकार करते हैं- संचालक नहीं. वक्ता ने जिन शब्दों को लेकर चिंता व्यक्त की, वे शब्द भी पत्रकारों की कलम से ही निकलते हैं. शब्द निकलने की यह प्रक्रिया उसकी सोच से होकर गुजरती है. अगर शब्द आपत्तिजनक हैं, तब दोष निश्चय ही पत्रकार की सोच का है. पत्रकार आत्मचिंतन करें, अपने हृदय को टटोलें कि कहीं उन्होंने अपनी सोच को बंधक तो नहीं रखा- बेच तो नहीं डाला! ऐसे ईमानदार आत्मचिंतक के परिणाम को मैं अभी रेखांकित कर देता हूं- चिंतनीय स्थिति अखबारों की नहीं, खबरचियों की है. 'सोच' को बेच डालने वालों के विलाप पर सहानुभूति के शब्द कदापि नहीं उछलेंगे. निडर कलमची स्वयं को कभी भी असहाय महसूस नहीं करता. उसकी कलम से निकले शब्द समय सूचक होते हैं- असमय के वाहक नहीं.
अंत में दो शब्द 'हिन्दी समय विमर्श' के आयोजकों के लिए. कृपया ऐसे गंभीर आयोजन से सुपरिणाम की अपेक्षा रखने वालों को निराश न करें. और यह तभी संभव होगा, जब 'पात्रता' को सम्मान मिलेगा. यहां मैं स्वतंत्रता की पूर्व संध्या 14 अगस्त 1947 को दी गई डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की चेतावनी की याद दिलाना चाहूंगा. तब उन्होंने आशंका व्यक्त की थी कि ''.... भविष्य में हमें बुरे दिनों का सामना करना पड़ेगा और 'सत्ता' योग्यता को पीछे छोड़ देगी.''
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2 comments:
तो सरजी, आप हो आए वर्धा कुंभ से,पता करता हूं कि दिल्लीवाले किस हालत में, किस हालात को लेकर विचार व्यक्त करते हैं
समूचे देश में यह विश्वविद्यालय जितना चर्चित रहता है उसे देखकर तो लगता है इसका जन्म केवल भ्रष्टाचार और दुरुपयोग के लिए हुआ है। नाम महात्मा गांधी का और गांव विनोबा भावे का लेकिन इस विश्वविद्यालय में काम होता है सत्यम के मालिक रामलिंगा राजू का। यानी भ्रष्टाचार, अनियमितताओं की जय जयकार। यहां हिंदी वालों का मेला लगा, मंच से खूब भाषणबाजी हुई और चिंता जताई हिंदी की। लेकिन जितने भी लोग आएं उनमें से ज्यादातर इस अहंकार में बैठे हैं कि यदि वे न होते तो हिंदी का सत्यानाश हो जाता। दूसरा हिंदी वाला ऐसी तेसी कर रहा है, हिंदी को तो मैं बचा रहा हूं। यह मैं खतरनाक है। हिंदी के इस तरह के जितने सेवी हैं असल में वे हिंदी के नाम पर मिलने वाले पैसे और पुरस्कारों को भूखे हैं। सच्चा काम करने वाले तो कई लोग सामने तक नहीं आ पाए और ये लोग कई पुरस्कार पा गए। हिंदी अखबारों की जितना करने से अच्छा है ये लोग अपने अपने जुगाड़ों की चिंता करते रहें। आम आदमी ने हिंदी को बढ़ाया है जो उसे बोलता है। ये लोग केवल अपने में भ्रम पाले हुए हैं कि वे न होते तो हिंदी न होती। राजभाषा अधिकारियों का एक नोटिस पढ़ लो या हिंदी का एक सरकारी गजट और वह किसी अनपढ़ को समझ में आ जाए कि क्या लिखा है तो मेरे से एक लाख रुपए नगद ले जाना। अखबारों के हालात के बारे में ये लोग न बोले तो ही अच्छा है।
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