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Monday, February 1, 2010

क्या राजनीति की परिभाषा बदलेंगे गडकरी?

सत्ता वासना के दुष्प्रभाव से अद्र्धमूर्छित राजनेताओं की बड़ी फौज! सत्ता सुंदरी के हरण को तैयार। अयोग्यता से उपजी अतृप्त इच्छाओं की तत्काल पूर्ति को व्यग्र। धनबल, बाहुबल के कंधों पर सवार। वैश्वीकरण की चकाचौंध में संस्कृति की 'माल' के रूप में बोली लगाते। मूल्य, सिद्धांत, नैतिकता हाशिये पर। पूर्णत: लक्ष्यविहीन। चहुंओर लालचियों-मूर्खों की स्वार्थजनित हुंकार। इन रोग-रोगियों के बीच से अगर यह स्वर उठे कि 'राजनीति का उपयोग आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये किया जाना चाहिए, न कि शक्ति के लिए', तब लोगबाग चौंकेंगे ही। लोगबाग की इस स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया से कंपित, तथापि प्रफुल्लित मेरी कलम इस आशा-विश्वास को चिन्हित कर रही है कि सत्ता की राजनीति से इतर समाज-देश के हित में सक्रिय कुछ लोग अभी भी मौजूद हैं। वैसे इस विचार के राजनीतिक धारक अपवाद की श्रेणी में ही रखे जाएंगे। उस समय तक, जब तक इनकी पंक्ति लंबी नहीं हो जाती।
बहरहाल, इस विचार के प्रतिपादक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सशर्त साधुवाद। शर्त यह कि वे अपने विचार पर कायम रहें और व्यवहार के स्तर पर उन्हें क्रियान्वित करें। क्या गडकरी सत्ता शक्ति और सत्ता प्रलोभन के बाड़े को तोड़कर ऐसा कर पाएंगे? यह सवाल आज प्रत्येक राजनीतिक चिंतक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित कर रहा है। घोर निजी स्वार्थ और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था क्या गडकरी को उनकी 'राजनीतिक क्रांति' के लिए मार्ग सुलभ होने देगी? उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों के जानकार निराश नहीं हैं। आशावान हैं वे कि गडकरी लक्ष्य-मार्ग स्वयं तलाश कर राजनीति की परिभाषा बदल देंगे। लक्ष्य कोई भी असाध्य नहीं होता। दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण अंतत: लक्ष्य को अपनी गोद में बैठाने में सफल हो जाता है। गडकरी ने लगभग 2 दशक से अधिक की अवधि में उन्हें नजदीक से देखा-परखा है। कोई आडम्बर नहीं, प्रलोभन नहीं। ख्याली पुलाव से स्वयं को मुगालते में नहीं रखते। कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं। पूर्णत: व्यावहारिक। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं तो पालते हैं। किन्तु उनकी सीढिय़ां आर्थिक और सामाजिक विकास के दालान में जाकर समाप्त होती है। एक समीक्षक ने उनकी तुलना अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से यूं ही नहीं की है। अभिमान की जगह आत्मविश्वास के अस्त्र से लैस गडकरी की सोच कि 'गरीबी हटाना राजनीति का अंत होना चाहिए', उनका संपूर्ण वाङ्गमय है। अब फिर वही सवाल कि क्या गडकरी सफल हो पाएंगे?
दिल्ली के पत्रकार-राजनीतिक मित्र पूर्णत: आश्वस्त नहीं हैं। दिल्ली की दलदली राजनीति ही ऐसी है। सफेद बेदाग कपड़ों से उसे एलर्जी है। उसे यह बर्दाश्त नहीं कि किसी ऐसे बाहरी का वहां प्रवेश हो जो अपनी कार्यकुशलता का सफल मंचन कर दिखाए। इस मुकाम पर दिल्ली एक है- कोई पक्ष-विपक्ष नहीं। अपना-पराया नहीं। सो सुनियोजित तरीके से षड्यंत्र रच प्रचारतंत्र सक्रिय कर दिए गए- अनजान, अनुभवहीन के जुमले उछाले गए। लेकिन ये तत्व इस तथ्य को भूल गए कि गडकरी का अर्थ ही होता है- दुर्ग रक्षक। मेरे ये शब्द किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं, एक सोच, एक राष्ट्र हितचिंतक और एक सामाजिक सिद्धांत की स्वीकृति है। ध्यान रहे, आज देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है। प्राय: सभी राजनीतिक दल समय की इस मांग के प्रवाह के साथ हैं। निश्चय ही इसकी परिणति राष्ट्रीय स्तर पर बड़े परिवर्तन के रूप में होगी। अधिकार-एकाधिकार के ताने-बाने बिखर जाएंगे। नए परिदृश्य में राजनीति का पहिया आर्थिक, सामाजिक विकास की गाड़ी से जुड़ा मिलेगा। राजनीति में प्रवेश कर रहा कर्मठ युवा वर्ग इसे सुनिश्चित करेगा। यही तो है 'गडकरी लक्ष्य'! हां, इस बिंदु पर एक चेतावनी सभी राजदलों-राजनेताओं के लिए- पुजारी का अस्तित्व तभी तक है, जब मंदिर साबुत खड़ा हो। मंदिर ढहेगा तब पुजारी भी खत्म हो जाएंगे। ऐसे में मंदिर रूपी भारत देश की आभा, अखंडता पर कोई वार न करे।

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