चार घंटे, सिर्फ चार घंटे में राहुल गांधी ने यह सिद्ध कर दिया कि शिवसेना के बालठाकरे, पुत्र उद्धव ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे अपने दरबे मात्र में दहाडऩे वाले शेर, बल्कि कागजी शेर हैं। ठाकरे के 6 बंद मुठ्ठियों को राहुल ने एक झटके में खोल डाला। अब चाहे ठाकरे एंड कंपनी राहुल की मुंबई यात्रा और उनके क्रियाकलापों को विफल और नौटंकी निरुपित करते रहें, वे बेनकाब हो चुके हैं। राहुल गांधी ने हर मोर्चे पर ठाकरे को पराजित किया। उनकी रणनीति पूर्णत: सफल रही। बिहार में उन्होंने ठाकरे को कुछ यूं निशाने पर लिया कि उनकी चार घंटे की मुंबई यात्रा के दौरान पूरे देश की नजरें मुंबई पर टिकीं रहीं। सभी न्यूज चैनल राहुल को विजेता और ठाकरे को पराजित घोषित कर रहे थे। ऐलान किया जा रहा था कि 'निकल गई ठाकरे की ठसक, राहुल ने दिखाया ठाकरे को ठेंगा', 'ठाकरे भभकी के जवाब में राहुल की गांधीगीरी' आदि-आदि। राज्य प्रशासन ने पूरे मुंबई को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया था। कुछ ऐसा कि इस उत्तर भारतीय राहुल गांधी का ठाकरे बंधु कुछ नहीं बिगाड़ पाए। शहर में उन्होंने मीटिंग की, दलितों की सुध ली और बेखौफ आम यात्रियों के साथ लोकल ट्रेन में दूसरे दर्जे में एक घंटे की यात्रा भी की। लेकिन इसी बिंदु पर विचारणीय प्रश्न यह अवतरित होता है कि ठाकरे एंड कंपनी की गुंडागर्दी पर पूर्व में अंकुश क्यों नहीं लगाई गई? जब ठाकरे के गुंडे खुलेआम उत्तर भारतीय टैक्सी-ऑटो चालकों, दूधवालों, सब्जी बेचने वालों और छोटे-मोटे रोजगार करने वालों को पीट रहे थे तब शासन की नींद क्यों नहीं खुल रही थी? साफ है कि तब शासन ने जान बूझकर उन अराजक तत्वों की ओर से मुंह फेर रखा था। आज भी सरकार वही है जो तब थी। आज जब शासन सुरक्षा के मोर्चे पर सफल रहा, तब यह सवाल तो पूछा जाएगा ही कि तब वह विफल क्यों रहा था? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि तब शिवसेना से बिलग हो अपनी पार्टी बनाने वाले राज ठाकरे गुंडागर्दी का नेतृत्व कर रहे थे? शिवसेना के मूल चरित्र को राज ठाकरे ने अगवा कर लिया था? कांग्रेस को ठाकरे बनाम ठाकरे की उस लड़ाई में राजनीतिक लाभ मिल रहा था? सच यही है। तब कांग्रेस सियासत की राजनीति कर रही थी। उसने गुंडागर्दी के खिलाफ आंखें मूंद रखी थी। उत्तर भारतीय पिटते हैं तो पिटते रहें। लेकिन आज जब शिवसेना की ओर से उनके युवराज को चुनौती दी गई थी, तब भला वे मौन कैसे रहते? रणनीति बनी और शिवसेना-मनसे को उनकी औकात बता दी गई। शुक्रवार को यह भी साबित हो गया कि राज्य सरकार चाहे तो ठाकरे व उनके गुंडों पर लगाम कस सकती है। मैं इस बिंदु पर शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के इस बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि अगर राहुल की मुंबई यात्रा के दौरान की गई चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था मुंबई में पहले रहती तब शायद आतंकी अपने हमलों को अंजाम नहीं दे पाते। राहुल की यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री सहित सभी नेता, पुलिस आयुक्त एवं उनका महकमा एक पांव पर खड़े दिखे। इसके विपरीत कुख्यात 26/11 के आतंकी हमले के दौरान ये क्या कर रहे थे, सभी जानते हैं। मुंबई जल रही थी, नेता-अधिकारी नदारद थे। जो अधिकारी मौके पर पहुंचे वे प्रशासकीय समन्वय के अभाव के कारण बेमौत मारे गए। इन शहीदों पर भी राजनीति से बाज नहीं आए हमारे नेता। राहुल गांधी की सफल-सुरक्षित मुंबई यात्रा के बाद सुखद नींद लेने वाले नेता अधिकारी आत्मचिंतन करें। अपने कर्तव्य को पहचानें। बगैर भेदभाव के नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा संबंधी कर्तव्य को पुन: चिन्हित करें।
कहते हैं कि सरकार अब जग गई है। चलो मान लिया। लेकिन आगे भी अर्थात राहुल गांधी की यात्रा की समाप्ति के बाद भी वह जगी रहेगी, पुन: सुसुप्तावस्था में नहीं जाएगी, क्या राज्य सरकार इस बात की गारंटी देने को तैयार है? लोग-बाग प्रतीक्षारत रहेंगे। अगर शुक्रवार 5 फरवरी 2010 को शासन-प्रशासन सफल हो सकता है तो 26 नवंबर 2008 को विफल कैसे रहा? अन्य मौकों पर भी उन पर कर्तव्यहीनता और विफलता के आरोप कैसे लगे? मुंबई तो सबकी जान है। शासन-प्रशासन इस सत्य को ह्रदयस्थ कर लें। ताजमहल भले आगरा में हो, देश का ताज तो मुंबई ही है। मुंबई के इस सच को मूक-रुदन का अवसर कोई न दे।
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