धर्मशास्त्र की मानें तो श्रीकृष्ण ने कहा है - राजनीति कर्मयोग से जुड़ी हुई है। राजनीति करना संतों का काम नहीं है। केवल कर्मयोगी ही राजनीति के शीर्ष पर पहुंच सकता है। अकर्मण्यता से कोई व्यक्ति लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। कर्मयोग के जरिए चित्त की स्थिरता और प्रज्ञा हासिल करनी चाहिए। केवल अज्ञानी व्यक्ति ही अकर्मण्यता के जरिए इस तरह का लक्ष्य प्राप्त करने की सोच सकता है।
क्या श्रीकृष्ण के इन शब्दों पर किसी शोध की आवश्यकता है? द्वापर युग में श्रीकृष्ण द्वारा कही गईं ये बातें आज कलियुग में भी सटीक बैठती है। यह तो बिल्कुल सच है कि राजनीति करना संतों का काम नहीं है। संत अथवा संत प्रवृति के जिन लोगों ने भी राजनीति में प्रवेश किया, वे विफल रहे। चूंकि राजनीति का वर्तमान दौर युवा नेतृत्व का आग्रही है, अतीत पर से पर्दा उठाना जरूरी है। संत और कर्मयोग के बीच के फर्क को समझना होगा। स्वतंत्रता - प्राप्ति के समय के चार व्यक्तियों को यहां उधृत कर इस फर्क को समझाने की कोशिश की जाए। पं. जवाहरलाल नेहरू, डा. राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्मरण करें। डा. राजेंद्र प्रसाद संत प्रवृति के थे। उन्हें सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर बिठा सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण कर्मयोगी तो थे, किंतु उन्होंने स्वेच्छा से सत्ता की राजनीति से स्वयं को अलग कर लिया। नेहरू और पटेल सत्ताशीर्ष पर आसीन हुए। पटेल में संत के गुण थे, दु:खों का बोझ ले, दुनियां से विदा हो गए। नेहरू जमे रहे। उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में स्थापित किया गया। जब - जब उन्होंने संत - आचरण अपनाने की कोशिश की, धोखा खाया। शांति दूत के रूप में संत बन आकाश में सफेद कबूतर उड़ाने वाले नेहरू विश्वसघात का शिकार बने, लेकिन देश ने उन्हें एक कर्मयोगी के रूप में ही मान्यता दे दी। फिर ऐसा क्यों कि देश की वर्तमान लगभग सभी जटिल समस्याओं के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है। चाहे मामला कश्मीर हो, भारतीय भूमि पर चीनी कब्जे का हो, उत्तर - पूर्वी क्षेत्रों में अशांति का हो, या फिर मामला अतिसंवेदशील सांप्रदायिकता का हो, नेहरू को दोषी ठहराया जाता है। क्यों? इसकी गूढ़ता में जाएंगे, तब अनेक अरूचिकर जवाब सतह के उपर आ जाएंगे। और चूंकि सत्ता पर काबिज राजनीतिकों की पंक्ति में बहुमत अकर्मण्यता का है वे ऐसे जवाबों को उभरने नहीं देंगे। इन्होंने तो प्रचार तंत्र पर कब्जा कर स्वयं को कर्मयोगी घोषित करवा डाला है। बहुरूपिए हैं ये। शाब्दिक अर्थ में नहीं व्यवहार और कर्म की कसौटी पर अज्ञानी हैं ये। ज्ञान का वास्तविक संवर्धन इनके लिए अपाच्य है। युवा पीढ़ी सावधान हो जाए। अगर सचमुच यह वर्ग देश हित में सत्ता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है तब वह सच्चा कर्मयोगी बने। स्थिर चित्त और प्रज्ञा हासिल कर अनुकरणीय उदाहरण पेश करे। विरोध तो होगा किंतु अंतत: अनुसरण कर्ताओं की लंबी पंक्ति उन्हें लक्ष्य पर पहुंचा देंगे। बिक चुके प्रचार - तंत्र की चिल्ल- पों की परवाह वह न करें। उन पर तो स्वार्थ - लालच हावी हो चुका है। वे देशहित की नहीं बल्कि स्वहित की सोचने लगे हैं। भारत जैसे विशाल देश में पक्ष और विपक्ष की राजनीति करना आसान नहीं है। नेहरू का अनुसरण एक सीमा तक ही हो। देश हित में उनकी स्वच्छ नीयत तो अपनाना ठीक होगा, किंतु संसदीय लोकतंत्र में निर्णायक मतदाता को जातीय, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय आधार पर बांटना कतई हितकर नहीं होगा। अनजाने में ही सही नेहरू ऐसे बीज के रोपक बन गए थे। फिर उनका अनुसरण कैसे हो सकता है? लोकतंत्र की सफलता और उसकी मजबूती की पहली शर्त है राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद। इसे कर्म मानकर आगे बढऩे वाले पग ही लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। फिर अगर वरण करना ही है तो राष्ट्रीयता का करें, राष्ट्रवाद का करें न कि सांप्रदायिकता या छद्म धर्मनिरपेक्षता का।
1 comment:
संत राजनीति से बाहर चले गये इसीलिये असंत आ गये. रामदेव से जलन क्यों? उतना त्याग कर देखिये. लम्बा चौड़ा धन नजर आता है, वर्षों का त्याग नहीं. एसी चलाकर एक धोती और खड़ाऊं में रहकर देखिये. नेहरू जी का एकतरफा पक्ष. कश्मीर का मसला, नेहरू जी की नीतियां. भाभा से असहमति. चीन पर आंख मूंदकर विश्वास. जिम्मेदारी तो बनती ही है.
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